Wednesday, March 25, 2009

कड़की के आंकड़े

कड़की के आंकड़े

जनाब ये आंकड़े भी बड़ी चीज हैं। और इनके निकालने का अंदाज तो माशाअल्ला। देश में साल भर में कितने मरे, कितने पैदा हुए और कितने मरघटे में हैं से लेकर आगामी सौ साल में कितने पैदा होंगे। यही नहीं कितने जिंदाबाद कहेगें, कितने मुर्दाबाद कहेंगे और कितने दोनों बाद कहेगें। कई एजेंसियों का धंधा भी आंकड़ों से चलता है। और आंकड़ों को बतौर भविष्य जानने की मशीन जसे प्रयोग में लाया जाता है। एक एजेंसी ने तो मुझसे कहा कि हमारी एजेंसी एक सर्वे रिपोर्ट में आपको महानायक घोषित कर देगी। चुनाव में तो हम आंकड़ों का ऐसा चमत्कार करते हैं कि अच्छे-अच्छे बेइमानों को भी पवित्रता का दौरा पड़ने लगता है।
वैसे चुनाव के समय आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जबसे मायावती ने सबसे अधिक ब्राह्मणों को सीट दिया है तबसे ओझाइन, पड़ाताइन, उपधायिन, मिश्राइन समेत तमान ब्राह्मण आइनों ने फेंकन, घुरहू, निरहू, करवारु समेत स्लमडॉग के पापा टाइप लोगों क ो जुटा कर वोट के आंकड़ों का प्रतिशत बढ़ा रही हैं और स्लमडाग को चाकलेट बांटा जा रहा है। आंकड़ों को मेंटेन करने की कोशिश जारी है। आंकड़ा कभी उछल रहा है, कभी लेट रहा है, कभी सरक रहा है। आंकड़ा अमीरी बता रहा है लेकिन बेंचू बीए का लोटा-थाली राशन के चक्कर में बिक चुका है। जीभ को दाल नहीं मिली है, नाक ने देशी घी सूंघकर संतोष कर लिया है।
चुनाव में वोटों के सही आंकड़े आएं इस चक्कर में वरुण का करुण रस उग्र हो चुका है। चुनाव को देखते ही सब आंकड़ों को एक्टिव करना चाहते हैं। चैनल तैयार हैं, अखबार भी फड़फड़ा रहे हैं। शायद चुनाव में टीआरपी और प्रसार संख्या के आंकड़ों में उछाल आ जाए। प्रवचन वाले बाबा भी आंकड़ोंे के फेर में पड़ गए हैं। मंदी में दक्षिणा की दर कम आने से चेहरे पर शिकन है। वह श्लोक , दोहे, चौपाई के साथ फिल्मी तर्जों का तड़का दे रहे हैं कि किसी बहाने भक्तों की भीड़ जुटे।
आंकड़ों की लीला से बेंचू बीए परेशान हैं। सहीराम से अपनी व्यथा कहते उन्होंने समाचार पत्र पकड़ा दिया जिसमें मुख्य खबर थी ‘मंहगाई की दर एक प्रतिशत से भी कमज्। बेचूं बीए दहाड़ लगाकर कह रहे हैं ये कड़की के आंकड़े हैं। वह लोगों के बीच जाकर कह रहे हैं, इन आंकड़ों को ही खाओं, इसे ही पहनों, इसी से नहाओ,इसी की चाय बनाओ ये आंकड़े लम्बे हैं भूखे नंगों इसे लपेट लो। चुनाव के दौर में ऐसी बातें सुन कर नेता जी उग्र हो गए उन्होनें कहा ये विकास के आंकड़े हैं और सच हैं तुम दुष्प्रचार मत करो। बेचू बीए तन गए और बोल पड़े कुछ आंकड़े हमारे पास भी थे लेकिन कोसी बहा ले गई, मुम्बई विस्फोट में जल गए और कुछ विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसान चबा गए।
अभिनव उपाध्याय

Monday, March 23, 2009

महापर्व की परेशानी

सदाचार, प्रचार और शिष्टाचार के माध्यम से अब चुनाव जीतना आंख बंद करके सटीक जगह तीर मारने जसा है। क्या-क्या नहीं करना पड़ता इस महापर्व के लिए। दिन रात एक करने के बाद भी अगर जनता जनार्दन का मूड ठीक रहा तो बात बन जाती है नहीं तो बस ठनठन गोपाल। अपने चुनिंदा समर्थकों के बीच यह बात नेता नेकराम बता रहे थे। सहीराम से अपनी पीड़ा और चुनाव के विषय में अपने अनुभव की बखान नेता नेकराम ने कही।
जनता के बीच उनकी छवि बदीराम के रूप में है। इस बात से सहीराम वाकिफ थे। उन्होंने कहा, लेकिन आपने विकास के नाम पर जनता का विनाश किया है इस बात से तो जनता नाराज है। नेकराम गुस्सा हो गए। उन्होंने कहा कि, सहीराम जी सबसे सामने तो ऐसा न बोलें। इस बार हम चुनाव प्रचार करने का तरीका बदल रहे हैं। लोगों को आध्यात्म के सहारे मन शुद्ध कराएगें और फिर जम्हूरियत, लोकतंत्र और डेमोक्रेसी का मतलब बताएंगे। सहीराम ने कहा लेकिन नेकराम जी इन तीनों का मतलब तो एक ही होता है। नेकराम ने कहा यह सब नहीं जानते हैं। हम योग, जोग और भोग के साथ इसे बताएंगे यकीन मानिए हमारी जनता इसे समझ जाएगी। यही नहीं हम अनुभवी नेताओं की तरह इस बार मोर्चा बनाएंगे, लोगों को बताएंगे कि संगठन में शक्ति है। विपक्षी दल के जासूस ने यह अच्छी खबर अपने दल के पास पहुचा दी फिर क्या था,
इस पर विपक्षी दल के नेता ने भाषण में नेकराम पर निशाना साधते हुए कहा कि, विपक्षी दल मोर्चा बनाने की बात कह रहे हैं लेकिन यह मोर्चा नहीं मिर्चा है। साथियों पहली बार चखने पर इसका स्वाद देर तक बना रहता है और अंतत: पानी पीने के बाद शांत हो जाता है। हमारे नेता बंधुओं आप मोर्चा की चर्चा पर ध्यान न दें, मंहगाई में हो रहे खर्चे के बारे में सोचें।
इसके अलावा वह समर्थकों से कह रहे हैं कि चुनाव लड़ने में नेता से अधिक समर्थकों को ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस मौसम में समर्थकों के कर कमल, बदन हाथी जसे मजबूत, दिमाग साइकिल की तरह तेज और जिंदगी को लालटेन की तरह जला देना पड़ता है।
सभा समाप्त होने के बाद दोनों नेताओं के समर्थक ऊर्जा से लबरेज हैं। नगाड़े बजा रहे हैं। पोस्टर बैनर लगा रहे हैं। लोंगों को भरमा रहे हैं। लेकिन नेताजी आचार संहिता के उल्लंघन की नोटिस देखकर परेशान हैं।

Tuesday, March 17, 2009

खुशी


खुशी

भूख से तड़पते बच्चे को दे दिया है किसी ने सूखी रोटी का टुकड़ा,
ब्ल्यू लाइन बस में मिल गई गाते हुए भिखारी को दस की नोट,
मजदूर पा गया है कई दिनों बाद अपनी पूरी दिहाड़ी,
रिक्शा वाले का बेटा कह रहा है उसे तोतली जुबान में पा..पा..,
साधक ने मिला लिया है सुर में सुर,
फेल होने के बाद, जब कह दिया हो बाबू जी ने कि ‘सब ठीेक हो जाएगा।

Monday, March 16, 2009

भूत-वूत कुछ नहीं होता...

भूत-वूत कुछ नहीं होता...
लोकसभा चुनावों की नजदीकी से राजनीतिक दल बेकरार हो उठे हैं। उनकी बेकरारी उनके बयानों में साफ झलकने लगी है। वैसे तो चुनावी दंगल में उठापटक होना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार तीसरे मोर्चे ने पहले स्थापित दो मोर्चो कांग्रेस और भाजपा के लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। भूत से डरने वाला व्यक्ति बार-बार कहता है भूत-वूत कुछ नहीं होता। कांग्रेस भी कुछ ऐसा ही करती नजर आ रही है। तीसरे मोर्चे से मोर्चा लेने की कमान पार्टी ने अपने तेजतर्रार नेता प्रणव मुखर्जी को दी है। मुखर्जी ने हमला बोलते हुऐ कहा तीसरे मोर्चे के पास न तो कोई राजनीतिक दृष्टि है और न हीं कोई जनहित कार्यक्रम। प्रणव ने अतीत की दुहाई देते हुए कहा कि पहले भी दो बार 1989 और 1996 में तीसरा मोर्चा बना था उसका हस्र किसी से छिपा नहीं है। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी चुप नहीं रह पाए आखिर बोल ही पड़े वैसे तो तीसरा मोर्चा जीतेगा नहीं और अगर जीता भी तो चलेगा नहीं। भगवा पार्टी के सामने तो सबसे बड़ी समस्या पारिवारिक अंतर्कलह पर पर्दा डालने की है। सुधांशु मित्तल को पूर्वोत्तर का कार्यभार सौंपने पर जेटली ने पार्टी अध्यक्ष से खुलकर नाराजगी जताई। मोदी-आडवाणी के बीच टकराव तो गाहे-बगाहे सामने आता ही रहता है। बीजद भी अब तीसरे मोर्चे की तरफ रुख कर चुका है। इनमें से अधिकतर एनडीए का हिस्सा रहे हैं। अपने मुखिया दल से खफा इन दलों ने तीसरे मोर्चे का हाथ थामकर भाजपा के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। मुखर्जी और राजनाथ सिंह जी डरने की जरूरत नहीं है, भूत-वूत कुछ नहीं होता।
एक दूसरे के धुर विरोधी कांग्रेस और भाजपा तीसरे मोर्चे को फिजूल का ठहराने में एक दूसरे के सुर में सुर मिला रहे हैं। और क्यों न हो विज्ञान का सर्वमान्य सिद्धांत है कि विपरीत ध्रुवों में गजब का अकर्षण होता है। यह तो हुई विपरीत ध्रुवों के साझा मंच की बात अब बात करें तीसरे मोर्चे की तो यह तो भानुमति का कुनबा है। बेचारे वामदल कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा लाकर कुनबा जोड़ने में लगे हैं। लेकिन जहां माया होगी, वहां पर तो कहीं धूप कहीं छाया वाले हालात तो पैदा ही होते रहेंगे। प्रधानमंत्री पद को लेकर मोर्चे के भीतर जारी उठापटक से भला कौन वाकिफ नहीं है। फिलहाल तो
मायाजाल में उलङो तीसरे मोर्चे को बहन जी ने यह कहकर फौरी राहत दे दी है कि चुनाव नतीजे आने के बाद पीएम पद के बारे में चर्चा होगी। पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों से उत्साहित माया मेमसाब ने कह दिया भई नतीजे आ जाने दीजिए, जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी होगी भागीदारी। अब उत्तरप्रदेश में तो माया की सत्ता फिलहाल तो मजबूत ही दिखाई देती है, लेकिन विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में बढ़े मत प्रतिशतों से बहनजी उत्साहित हैं तो अतिविश्वास में रहना ज्यादा ठीक नहीं है।
संध्या द्विवेदी- आज समाज

ये इश्क नहीं आसां ...

ये इश्क नहीं आसां ...
सोमवार को हम मिले, मंगलवार को नैन, रविवार आने तक एक दूसरे से अलग रहना मुश्किल हो गया। चांद-फिजा का इश्क भी कुछ ऐसे ही परवान चढ़ा था। महज दो माह पहले दोनों एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले मुहब्बत के दुश्मन जालिम जमाने को ठेंगा दिखा रहे थे। न जाने इस इश्क को किसकी नजर लग गई की चांद-फिजा से रूठ गया। कल तक आई लव यू और आई कांट लिव विदाउट यू के संदेश भेजने वाला चांद आज नए युग के प्रेमवाहक यंत्र (नया युग का इसलिए क्योंकि कहा जाता है कि पहले प्रेमीजनों के संदेश कबूतर लेकर जाते थे) मोबाईल से तलाक,तलाक, तलाक का संदेश भेज रहा है। उधर फिजा तूफानी हो गई है। उन्होंने भी चांद को दिन में तारे दिखाने की ठान ली है। और पति-पत्नी की बेहद अंतरंग बातों को खुलकर लोगों के बीच बोल रही हैं। उन्होंने उन पर हवस मिटाने और बलात्कार करने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं फिजा को अब अपने पिता की मौत की भी याद आ गई है। उनका कहना है कि जब चांद ने घर पर शादी का प्रस्ताव रखा था तभी मेरे पिता को दिल का दौरा पड़ा था। यानी अब्बा जान, पिता कुछ भी कह लो क्योंकि अब तो फिजा मोहम्मद उर्फ अनुराधा बाली हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मो का बराबर आदर करती हैं। दूसरी तरफ चांद को अब अपनी पहली बीवी और बच्चे याद आ रहे हैं। घर, परिवार और पद की कीमत पर इस्लाम कुबूल कर चांद और फिजा बने, चं्र और अनुराधा के सिर से इतनी जल्दी प्यार का बुखार उतर जाएगा इस बात का तो एहसास मीडिया धुरंधरों को भी नहीं था। वैसे पत्रकारों के अलावा समाज में बुद्धिजीवियों की जमात से कई वर्ग ताल्लुक रखते हैं लेकिन यहां पर पत्रकारों का जिक्र इसलिए किया क्योंकि, क्योंकि उनके सामने नई-नई खबरों को खोजने की चुनौैती बनी रहती है। जसे इस वक्त खबरनवीसों को खाना खराब है कि आखिर चुनाव नतीजे किस पाले में जाएंगे। समीकरण भी बनाने शुरु कर दिए हैं। कौन किससे मिलाएगा हाथ। इतना ही नहीं जोड़-तोड़ से सरकार बनी तो कितने दिनों चलेगी। वगैराह-वगैराह। खैर राजनीति की दशा तो हरी अनंत, हरी कथा वाली है। मेरा मकसद राजनीति करना नहीं था, यह तो बात चली तो दाल भात में मूसर बनने वाली अपनी आदत से मजबूर मैंने अपनी जानकारी आप लोगों से शेयर कर ली। वापस अपने मुद्दे चांद बनाम फिजा पर आते हैं। यह पूरी रामकथा पर खबरनवीसों की लगातार नजर है। चुनाव की चिल्ल-पों के बीच दास्तान-ए-मुहब्बत का जिक्र दर्शकों और टीवी लगातार सीधा प्रसारण करने वालों के लिए राहत का काम करता है। ये इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। वैसे मामला बेहद व्यक्तिगत है लेकिन लगता है कि फिजा और चांद ने दरिया के किनारे बैठकर ही इश्क कर लिया, डूबने की जरूरत नहीं समझी। डूबे होते तो दूर तक साथ जाते।

Friday, March 13, 2009

बजट के बाहर बजट

बजट के बाहर बजट
इंतजार का फल मीठा होता है, ऐसा घर के बुजुर्ग कहते थे। मुङो भी ऐसी ही उम्मीद थी, खासकर तब जब इंतजार बुजुर्ग ही करा रहे हों। बड़ी आशा से बजट का इंतजार चल रहा था कि शायद कोई जादू हो जाय। शायद इस बार कम दाम होने के कारण दाल उछलकर खुद-ब-खुद कू कर में चली आएगी और हम लोगों को भी गाढ़ी दाल का स्वाद मिलेगा। आलू नाचते हुए थैले में आ गिरेगा और प्याज रोयेगी कि अब तो कोई मुङो ले जाओ। टमाटर मुस्क राकर कहेगा कि टच मी बेबी.टच मी और गोभी के फूल पर ग्राहक रुपी भंवरे मंडराएंगे। लेकिन इस बार इंतहां हो गई इंतजार की। कोई भी ऐसी घोषणा नहीं हुई और उम्मीद को सांप सूंघ गया।
इस बज्रपात से शेयर बाजार भरभराकर गिर गया। बीएसई, एनएसई ने कई फीसदी लुढ़क-लुढ़ककर संभलने की कोशिश की। निफ्टी का मामला भी फिफ्टी-फिफ्टी जसा होने लगा। उम्मीदें इस बार भी मुस्कराकर दम तोड़ी। सबसे अधिक उम्मीद कर्तव्यनिष्ट कलमकारों को थी, वो बजट भाषण के समय टकटकी लगाकर देख रहे थे कि बुढ़ऊ शायद कुछ बक दें, चश्मा का लेंस काश इस बार धोखा दे दे और बेरोजगारों की फ टी झोली में एकाध ही सही रसीली गोली आ जाए। लेकिन काश, काश ही रह गया और आस, आस। इस गंदी मंदी से जूझ रहे बेजार बाजार बेचारे बने रहे और सुनकर व्यापारी बौरा गए।
बहरहाल चाय के बाद चिंतन का दौर शुरू हुआ। सहीराम भी इसमें शामिल हुए। मन मंथन चित्त क्रंदन की व्यथा कथा के लिए सभी उत्साहित दिखे। किसी ने कहा, लेकिन इस बजट में किसानों को भारी पैकेज देने की सूचना है और सेना के लिए भी सरकार बढ़ोत्तरी कर रही है। इस पर आर्थिक मामलों के गुरु बाबा चवन्नी ने कहा कि मतलब भक्तजनों इस बार होरी, धनिया, गोबर होली में हर्बल कलर से होली खेलेंगे। लोन सस्ता होने पर निरहू रेडियो की जगह होम थिएटर ले लेगा। अब पूस की रात में हल्कू पश्मीना शाल ओढ़कर खेत की रखवाली करने जाएगा। स्लमडाग झबरा अब अलाव के पास नहीं रूम हीटर के पास बैठेगा। अब बुधिया चंदा मांगकर नहीं खाएगा। जरूर यह खबर सुनकर विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसान श्मशान में जाम लड़ाएंगे। माने अब सर्वहारा कि आरा.र.र.ररर।
लोन न चुका पाने के कारण सुखंडी हो चुके शिष्य घुरहू ने कहा कि बाबा जब हम प्यासे मर रहे होते हैं तो सरकार पानी की बूंद टपकाती है और मरने के बाद भोज कराती है। यह बजट भी कुछ इसी तरह का है। सबने एक सुर में कहा यह बजट हमारे बजट के बाहर है।
अभिनव उपाध्याय

Thursday, March 12, 2009

महापर्व की दक्षिणा

महापर्व की दक्षिणा
अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की जो परिभाषा दी वह भारत में शत-प्रतिशत लागू होती है। चाहे बस की सीट हो या भीड़ की धक्का मुक्की, चाहे दंगे में धमा-चौकड़ी हो या मंदिर में दर्शन की लाइन। लोकतंत्र को भरे बाजार में अंगड़ाई भरते देखा जा सकता है। इस लोकतंत्र का एक पर्व है चुनाव और इसके महारथी इसे महापर्व कहते हैं। चौधरी चौपट को चुनाव लड़ने के लिए नए-नए पैतरें सीखने की जरूरत पड़ रही है। वह समर्थकों को बता रहे हैं कि इस महापर्व में चार पैर की कुर्सी रानी की पूजा करनी पड़ती है। क्या पता रानी कब रूठ जाएगी और जनसेवक सड़क पर आ जाएं इसलिए ध्यान रखना पड़ता है।
ढोल-ताशे वाले,ऊं ट, हाथी, घोड़े यही नहीं गदहा तक के लिए इस महापर्व में आमंत्रण पत्र तैयार किये जा रहे हैं। तरह-तरह के गानों का कापीराइट खरीदा जा रहा है। इस पर हो रहे बेहिसाब खर्च से अनजान एक पोस्टर बनाने वाले ने कहा कि इस महापर्व के आने से एक महीने में ही साल भर का खर्च निकल जाता है। पिछली सदी के उत्तराध्र्द में हुए मध्यावधि चुनाव में समझ लिए हमारी चांदी हो गई थी। हम तो मनाते हैं कि यह महापर्व हर साल आए।
राजनीति का ककहरा सीख रहे चौधरी चौपट इस पर्व के आने से मगन हैं। नए-नए कुर्ते का आर्डर दिया जा रहा है। अपने क्षेत्र में लोगों का सुख-दुख पूछा जा रहा है। अद्धा, पौवा और पूरी बोतल का इंतजाम भी अपने चरम पर है। माने खर्च बेहिसाब, लेकिन पैसा न होने से नेता जी के सामने धर्म संकट है। इस मंगल उत्सव को मनाने के लिए दक्षिणा की व्यवस्था सबसे सामने परेशानी का संक ट बन गई है। बहन जी के भाइयों ने एक इंजीनियर को जबसे निपटाया, नेता जी के गुर्गे सरकारी लोगों को फिलहाल कम छू रहे हैं। किसी ने सलाह दे दी कि पूंजीपतियों की घंटी बजाई जाए लेकिन नेता जी परेशान हैं, वह बता रहे हैं कि ये बैरा गए हैं पुराना जूता, चम्मच, कटोरी, चश्मा, लाठी यही सब खरीद रहे हैं इस महापर्व की दक्षिणा के लिए ही इनकी मुट्ठी नहीं खुलती।
किसी ने कहा किसानों से ले लो, बजट में सरकार ने इनकी बहुत सुनी है और फसल भी कटने वाली है। बस क्या था, पकड़ लिए गए गांव के वरिष्ठ खेतिहर लेकिन दशा ऐसी कि चौपट जी चकरा गए। इकहरा बदन देखकर किसी ने पूछा ये क्या हाल बना रखी है? सरकारी योजनाएं यहां नहीं लागू होती क्या? क ल्लू किसान ने कहा, होती हैं लेकिन जमाखोर, सूदखोर, कामचोर ये सब सरकारी मौसेरे भाई हैं। क्या करें पंचायत, प्रधानी, विधान सभा और लोक सभा चुनाव इसमें दक्षिणा देते-देते बस शरीर पर हड्डी का ढांचा बचा है। जाने किस गोंद से चिपका है कि हड्डियां बिखरती नहीं है। नेता जी वहां से हट कर दूसरे के पास दक्षिणा के लिए चले गए।
अभिनव उपाध्याय

Saturday, March 7, 2009

उद्गार

पंकज चौधरी जी हमारे सहकर्मी और कवि भी हैं। बिहार में मिथिलांचल की मिट्टी की महक और समसामयिक समस्याओं पर उनके उद्गार प्राय: शब्दों के रुप में बयां हो ही जाते हैं । प्रस्तुत है इसी तरह के कुछ उद्गार-

गरमी

भीषण गरमी है
आग के गोले बरस रहे हैं
पत्ता तक नहीं हिल रहा
पाताल भी सूख गया होगा
पिछले पच्चीस सालों का
रिकार्ड भंग हो गया है
..............

बड़े-बूढों की गरमी
ऐसे ही निकल रही थी

और दूधमुंहे-बेजुबान बच्चों की गरमी
घमोरियों में निकल रही थी ।


2. कैसा देश, कैसे-कैसे लोग
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कल तक जो बलात्कार करते आया है
और बलत्कृत स्त्री के गुप्तांगों में बंदूक देते चला आया है

कल तक जो अपहरण करते आया है
और फिरौती की रकम न मिलने पर
अपहृत की आंखें निकाल कर
और उसको गोली मारकर
चौराहे के पैर पर लटका देते आया है

कल तक जो राहजनी करते आया है
और राहगीरों को लूटने के बाद
उनके परखचे उड़ा देते आया है

कल तक जो बात की बात में
बस्तियां-दर-बस्तियां फूंक देते आया है
और विरोध नाम की चूं तक भी होने पर
चार बस्तियों को और फूंक देते आया है

कल तक जिसे
दुनिया की तमाम बुरी शक्तियों के समुच्चय के रूप
में देखा जाता रहा है
और लोग-बाग जिसके विनाश के लिए
देवी-देवताओं से मन्नतें मांगते आया है

आज वही छाती पर कलश जमाए लेटा हुआ है
नवरात्र में
दुर्गा की प्रतिमा के सामने
उसकी बगल में
दुर्गा सप्तशती का सस्वर पाठ किया जा रहा है
भजन और कीर्तन हो रहे हैं
कुछ लोग भाव-विभोर नृत्य कर रहे हैं
उसकी आरती उतारी जा रही है
अग्नि में घृत, धूमन और सरर डाले जा रहे हैं
घण्टी और घण्टाल बज रहे हैं

दूर-दूर से आए दर्शनार्थी
अपने हाथों में फूल, माला, नारियल आदि लिए
उसकी परिक्रमा कर रहे हैं

उसके पैरों में अपने मस्तक को टेक रहे हैं

और करबद्ध ध्यानस्थ
एकटंगा प्रतीक्षा कर रहे हैं
उससे आशीर्वाद के लिए

ये कैसा देश है
और यहां कैसे-कैसे लोग हैं!


3. वाह-वाह रे हमारा भारत महान
खाने-खेलने की उम्र में
कूड़े के ढेर पर
पोलिथिन बिछते बच्चे
अपने देश के नहीं
बल्कि जापान के बच्चे हैं

और उनकी धंसी हुई आंखें
पांजर में सटा हुआ पेट
और जिस्म पर गिननेवाली हड्डियों की रेखाएं
अपने देश की नहीं
बल्कि सोमालिया की हैं

और उनकी अर्जित की हुई सम्पत्ति
अपने देश भारत की है
वाह-वाह रे हमारा भारत महान!


4. चोर और चोर

पूस का महीना था
और पूरबा सांय-सांय करती हुई
बेमौसम की बरसात झहरा रही थी
जो जीव-जन्तुओं की हड्डियों में छेद कर जाती थी
और उसे उस बीच चौराहे पर
उस रोड़े और पत्थर बिछी हुई रोड पर
बूटों की नोक पर
फुटबाल की तरह उछाल दिया जाता था
तत्पश्चात उसकी फै्रक्चर हो चुकी हुई देह पर
बेल्टों की तड़ातड़ बारिश शुरू कर दी जाती थी
उसे लातों, मुक्कों, घुस्सों, तमाचों
रोड़े और पत्थरों से पीट-पीटकर
अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया गया था
उसे बांसों और लकड़ियों से भी डंगाया जा रहा था
उसके ऊपर लोहे की रडों का ताबड़तोड़ इस्तेमाल करके
उसके दिमाग को सुन्न कर दिया गया था

और उस सबसे भी नहीं हुआ
तो उसके लहूलुहान मगज पर
चार बोल्डरों को और पटक दिया गया

जुर्म उसका यही था
कि वो एक चोर था
और एक बनिये की दुकान में
चोरी करते हुए पकड़ा गया था

दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में
मानवाधिकार का साक्षात उल्लंघन हो रहा था

और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ाया था
जो राष्ट्र का अरबों रुपया डकार गया था
लेकिन उसके लिए एयर कंडिशंड जेल का निर्माण हो रहा था!


5. यदि तुम्हारे


यदि तुम्हारे
कान बंद कर दिए जाएं तो?
तुम नहीं सुनोगे

यदि तुम्हारी आंखें
बंद कर दी जाएं तो?
तो तुम नहीं देखोगे

और यदि तुम्हारे
मुंह पर जाबी लगा दी जाए तो?
तो तुम्हारा शेर बनना लाजिमी है!


6. वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े


वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े
उनके बारे में प्रचार किया गया कि
उनके पास हाथ तो हो सकते हैं
पर खोपड़ी कहां
उनके सिर पर ताज तो हो सकता है
पर वैसा गौरव कहां
उनकी ही पूरी दुनिया है
क्या है कोई ऐसा विश्वासभाजन?

वे दुनिया को चला तो सकते हैं
पर वैसा चालक कहां
दुनिया के प्रति वे वफादार भी हो सकते हैं
क्या हैं कोई ऐसा माननेवाले माननीय?

उनके पास कुरूपता हो सकती है
सुन्दरता नहीं
उनकी जगह नरक में हो सकती है
स्वर्ग में नहीं
वे असुर हो सकते हैं
सुर नहीं
उनका स्थान पदतल है
सिर ऊपर नहीं

उनका राहु हो सकता है
चन्द्रमा नहीं!

वे कौन थे
और किनके बारे में ऐसा प्रचार करते आ रहे थे
आखिर उनका मकसद क्या था?


7. सचमुच


सचमुच में आप
बदलाव चाहते हैं?

सचमुच में आप
परिवर्तन चाहते हैं?

और सचमुच में आप
दुनिया को बदल देना चाहते हैं?

तो हटाइए
बोरिंग के उस मुहाने पर से
अपना जकड़ा हुआ हाथ
जिसकी कल-कल करती धारा को
आपने आजतक निकलने ही नहीं दिया!
- पंकज चौधरी


Friday, March 6, 2009

नजरें जो बदलीं..



नजरें जो बदलीं..
पिछले एक सप्ताह से बौद्धिक वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं बेहद सक्रिय नजर आ रही हैं। इन दिनों अखबार और चैनलों में भी कोई न कोई महिला संबंधी लेख पढ़ने को मिल ही जाता है। सबसे ज्यादा व्यस्त इन दिनों महिला पत्रकार हैं, क्योंकि उन्हें आठ मार्च के लिए सामग्री जो जुटानी है। मुश्किल यह है कि पुरानी बोतल में नई शराब भरें भी तो कैसे। क्योंकि महिलाओं की समस्याएं भी पुरानी हैं और समाज का नजरिए में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन कलमकार होने की रस्म तो अदा ही करनी होगी। ऊपर मैंने समाज के नजरिए की बात की वही पुराना, घिसा-पिटा नजरिया। पहले सोचा भ्रूण हत्या पर लिखूं पर कुछ नया नहीं लगा। तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है यह मुद्दा। दहेज पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं। घरेलू हिंसा अभी पं्रह दिन भी नहीं बीते मैंने हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर हाल में इस मुद्दे को लेकर सीएसआर के सौजन्य से आयोजित एक प्रेस वार्ता में शिरकत की थी। सरकार के प्रति बहुत गुस्सा था बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में। आरक्षण का मुद्दा भी उठाया गया। दबी कुचली महिलाओं के लिए इन परोपकारी महिलाओं ने आवाज उठाई। वार्ता खत्म करके जब मैं बाहर आई तो ऊनी शाल बेच रही महिला के भावहीन चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि यह अंदर चलने वाली महिला आजादी की मुहिम से बेखबर है। सो इस मुद्दे को भी मैंने छोड़ दिया।
मुद्दा तलाशते-तलाशते मैं अचानक दिल्ली की वढेरा गैलरी में पहुंच गई, वहां पर लगी फोटोग्राफी की प्रदर्शनी देखकर मुङो सुकून का एहसास हुआ। इसलिए नहीं क्योंकि यह किसी महिला फोटग्राफर के फोटो की प्रदर्शनी थी, बल्कि इसलिए क्योंकि दिल्ली तक पहुंचने वाली यह महिला शादी गार्डिया एक ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जहां आज भी बुर्का महिलाओं की पहचान है। दीवार पर शादी ने अपने कुछ फोटो भी लगाए थे। एक तस्वीर में शादी अपने कैमरे को निहार रही हैं। उस चेहरे को बेहद बारीकी से देखो तो आपको पता चलेगा कि इस महिला ने अपनी आइब्रो के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। बात आइब्रो बनवाने या पार्लर जाने की नहीं है बात है लगन की, ईरान जसे कट्टर देश में अपना वजूद बनाने के लिए इस महिला को कितना जूझना पड़ा होगा। वहां लगी फोटो खुद ही बयान कर देती हैं। बुर्के से ढके चेहरों के ठीक सामने रसोईंघर के बर्तन यानी कप प्लेट, कद्दूकस और भी ना जाने क्या-क्या। इस बात का सबूत है कि बुर्का तो मात्र प्रतीक है, इसकी आड़ में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई बंदिशों से गुजर कर शादी ने दिल्ला तक का अपना सफर तय किया होगा। हालांकि शादी ने अपने ब्रोशर में इस बात का भी जिक्र किया है कि उसके अब्बा उन तंग दिमाग वाले लोगों से बेहद अलग थे जो लड़कियों की आजादी के खिलाफ होते हैं। यह तो महज एक उदाहरण है जो हालिया होने की वजह से मेरे जहन में ताजा था सो लिख दिया। लेकिन और भी ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें बंदिशें रोक नहीं पाईं। पर ऐसी महिलाएं महिला दिवस जसे आयोजनों से दूर ही रहती हैं। उनका आदर्श कोई जुझारु इंसान होता है। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। वह चीख-चीख कर किसी आरक्षण की मांग भी नहीं करती हैं। मुझसे किसी ने कहा था कि नजरें क्या बदली नजारे बदल गए। शादी जसी महिलाएं नजरें बदलती हैं और ढूंढ़ती हैं अपने हिस्से का आकाश।
संध्या द्विवेदी, आज समाज

Thursday, March 5, 2009

जय हो, मगर किसकी!

जय हो, मगर किसकी!
खबर है कि सत्ताधारी दल कांग्रेस ने आस्कर विजेता फिल्म स्लमडाग मिलियेनर के गाने जय हो के कापीराइट को खरीद लिया। अब इस गाने की धुन पर कई जिंगल्ल बनाए जाएंगे। जिनका प्रयोग आगामी लोकसभा चुनाव में जनता तो लुभाने के लिए किया जाएगा। वैसे फिल्मी गानों पर राजनैतिक पार्टियाों का थिरकना नया नहीं है। फिल्म चक दे इंडिया में शाहरुख की टीम ने विपक्षी टीम को शिकस्त क्या दी। बस चक दे एक जुमला बन गया। राजनीति हो या क्रिकेट बस मैदान में एक ही गाना गूंजता था। चक दे, चक दे। तब भी कांग्रेसी इस गाने की धुन पर थिरके थे। तब इसका इस्तेमाल गुजरात में किया गया था। हालांकि गुजराती मन पर इस गाने का कोई असर नहीं हुआ। और रील लाइफ से इतर कांग्रेस को रीयल लाइफ में हार का मुंह देखना पड़ा था। जनता ने मोदी को सत्ता सौंप कर यह साबित कर दिया था कि वोट प्रचार पर नहीं, बल्कि मुद्दों पर मिलते हैं। गुजरात की जनता के मन में मोदी यानी विकास पुरुष के रूप में स्थापित हैं। हालांकि यह भी बहश का मुद्दा है कि गुजरात की चमक कितनी सतही है। क्योंकि हालिया कुछ खबरों पर गौर करें तो गुजराते के गांव-देहात में यह चमक फीकी पड़ती दिखाई देती है। खैर, इस बात को तब तक नहीं उठाया जा सकता जब तक आंखों न देख लिया जाए। फिर भी धुआं उड़ा है तो कहीं न कहीं आग तो होगी ही। यानी पूरी न सही पर कुछ प्रतिशत ही सही सच्चाई तो जरूर होगी। खैर राजनीति विषय ही ऐसा है कि किसी एक गली में गुजरते ही कई रास्ते खुल जाते हैं। यानी किसी एक पार्टी का जिक्र करो तो खुद-बखुद कई पार्टियां उस बहश की जद में आ जाती हैं। हम बात कर रहे थे जय हो की। आस्कर विजेता फिल्म स्लमडाग में यह गाना पूरी फिल्म की आत्मा है। किस तरह स्लम में रहने वाला एक बच्चा केबीसी सरीखे प्रोग्राम में एक करोड़ रुपए जीतने में कामयाब होता है। जय हो, जीत और सफलता का पर्याए है। कांग्रेस ने भी जीत के मंसूबों के साथ ही इस गाने को प्रचार का माध्यम बनाया है। पर गुजरात की हार से पार्टी को सबक तो जरूर लेना चाहिए कि अब जनता को लुभाना आसान नहीं है। प्रचार का सुर जो भी हो, लेकिन जब तक असल मुद्दों को न केवल उठाया जाएगा बल्कि सत्ता में आने के बाद अमल में भी लाया जाए तभी जनता उन्हें सड़क से संसद तक जाने का मौका देगी। ध्यान रहे रास्ता दोतरफा है, दूसरा रास्ता संसद से सड़क तक का भी है। जय हो, लेकिन केवल पार्टी की नहीं बल्कि इस जीत में जनता भी शामिल हो।
संध्या द्विवेदी, आज समाज

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...