Sunday, January 10, 2010

मीडिया के मनोरथ नहीं

सुधीश पचौरी
(मीडिया समीक्षक)

पत्रकारिता का काम खबर लेना-देना है। डराना-धमकाना नहीं। मीडिया अगर किसी कमजोर के पक्ष में खड़ा होना चाहती है तो भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि कैसे खड़ा हुआ जाए।
मीडिया ट्रायल टीआरपी लेने के लिए एक हड़बड़ी की पत्रकारिता का ट्रायल है। यदि कोई व्यक्ति आरोपी हुआ तो उसे आरोपी नहीं कहते उसे सीधे तौर पर वहशी आदमी कहते हैं। मीडिया अपनी तरफ से सभी नकारात्मक विशेषण लगा देती है। जब तक कोर्ट द्वारा सिद्ध न हो जाए तब तक मीडिया को इतना ही कहना चाहिए जितना आरोप कहता है। उसे अपनी तरफ से विश्लेषित नहीं करना चहिए कि फलां आदमी राक्षस है। जसे निठारी में कोली और पंढ़ेर के मामले में हुआ था। इसी तरह आरुषी मामले में किया था। जसे एसपीएस राठौर के मामले में जो सीबीआई ने कहा है या न्यायालय ने कहा है उस आरोप को पढ़कर मीडिया कहता तो ठीक था अन्यथा मीडिया यह कहे कि वह राक्षस है, बेकार है आदि कहना भावनात्मक उत्तेजना पैदा करता है। मीडिया ट्रायल में पहले ही दोषी करार दे देते हैं हालांकि अभी न्यायालय का निर्णय आना बाकी होता है। कानून निष्पक्ष निर्णय देता है जबकि मीडिया को भी ऐसा करना चाहिए। मीडिया यदि आंदोलनकारी की तरह से भूमिका निभाए तो उसे एक या दो केस के बारे में भी सोचना चाहिए या हजारों केस के बारे में सोचना चाहिए। हां, यदि उसने कुछ मामलों में अच्छा किया है तो यह ठीक बात है इससे जागरूकता पैदा होगी। मीडिया कानूनों पर बहस कराए कि कैसे काम नहीं हुआ या कैसे अन्यायी को न्याय नहीं मिला या न्यायालय या पुलिस पर दबाव बनाना यह एक लोकतांत्रिक तरीका है। लेकिन यदि आप विशेषण लगा देते हैं कि यह गलत है तो आप बुनियादी पत्रकारिता के नियमों की अनदेखी करते हैं।
कई बार वह नियमों की अनदेखी करता है। हमारी भवनाएं कितनी भी भड़कें लेकिन कानून का मसला कानून में है। मीडिया मामलों को सामाजिक बना देता है। अब राठौर के मामले में जो उन्होंने किया वह गलत हो सकता है लेकिन यदि किसी के पीछे अभियान कर पीछे पड़ा जाए तो दया दोषी के प्रति होने लगती है। समाज में यदि कोई ताकतवर कमजोर को सता रहा हो तो मीडिया कमजोर के पक्ष में खड़ा हो। लेकिन कमजोर के पक्ष में भी कैसे खड़ा हो? एक सहयोगी की तरह या किसी और रूप में, क्या मीडिया के अपने मनोरथ नहीं हो सकते ।
मीडिया की हर जगह भूमिका एक जसी नहीं है। मुम्बई 26/11 वाले मामले में सनसनी वाली मीडिया थी। वहां पर भी मीडिया का गैर जिम्मेदारी वाला काम यह था कि घटनास्थल के साथ जो तमीज का संबंध बनना चाहिए वो नहीं था। वहां भी संवेदनशीलता नहीं दिखी। वहां पहले सरकार को कटघरे में खड़ा किया फिर मंत्री को खड़ा किया। कवरेज के चक्कर में मीडिया यह भूल गया कि आतंकी टीवी के जरिए भी अपने लोगों को संदेश दे सकते हैं। हमने अपनी बाइट दे देकर उसे बताया कि यहां मारो। लेकिन आदमी की जान की जहां कीमत हो वहां यह दिखाना दुश्मनों के लिए फायदेमंद है। अब यह कहना कि मीडिया होती तो बाबरी मस्जिद जसी घटना नहीं होती बिल्कुल गलत है क्योंकि मीडिया होती तो भी यह घटना होती, क्योंकि करने वाले करते हैं जसे आतंकवादी करते हैं।
मीडिया घटनाओं को रोक नहीं सकता लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष जनदबाव बना सकता है। लेकिन मीडिया जानता ही नहीं कि धर्मनिरपेक्षता कैसे पैदा किया जाए। मीडिया को पता नहीं है कि साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए क्या चीज है जो न दिखाई जाए। मीडिया ने आडवाणी की रथयात्रा को लगातार कवरेज देकर ताकत दे दी यदि वह ताकत नहीं देती तो ऐसा नहीं होता। आज मीडिया सबसे कम निवेश करके सबसे अधिक पैसा कमाना चाहती है इसलिए सेक्स, हिंसा और सिनेमा पर ज्यादा ध्यान है और महत्वपूर्ण मुद्दे छूटते जा रहे हैं। मीडिया हाउसों की कम से कम निवेश पर अधिक मुनाफे वाली बनियागिरी है।
इससे मीडिया का भविष्य बाधित नहीं होने जा रहा लेकिन शक्तिशाली लोगों के बीच में मीडिया ने अपनी एक ब्लैक मेलर की तरह अपनी कीमत बढ़ा ली है। लोग इसलिए मीडिया से डरते हैं। लेकिन मीडिया से लोग क्यों डरते हैं और पत्रकार अपने को डरावना क्यों जताना चाहता है? पत्रकार का काम खबर लेना-देना है न कि किसी को डराना। यह ठीक नहीं है, पत्रकारिता ब्लैकमेलिंग नहीं है। कुछ प्राइवेट मीडिया हाउसों ने इसके लिए आचार संहिता बनाई थी लेकिन वे लोग इसको भूल गए। ये केवल न्यूज में आचार-संहिता की बात करते हैं जिससे सरकार पर दबाव बनाया जा सके लेकिन बहुत से मामलों में इसका भी पालन नहीं करते।
-अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

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