रवीन्द्र त्रिपाठी
तिरुपति हवाई अड्डे पर `गरुड़’ के मूर्तिशिल्प को जिन्होंने देखा है वे
बिना और कुछ कहे ये समझ सकते हैं कि अरुण
पंडित किस तरह के विलक्षण कलाकार या मूर्तिशिल्पी हैं।
गरुड़ पौराणिक मिथकीय पक्षी है और भगवान विष्णु का वाहन माना जाता है। लोकविश्वास
है कि गरुड़ के डैने इतने ताकतवर और ऊर्जावान हैं उनके फड़फड़ाते ही धरती हिल सकती
है और व्योम में बवंडर आ सकता है। गरुड़ उड़ान का भी पर्याय है। इसके साथ पारंपरिक
लोकस्मृति और शास्त्रस्मृति जुड़ी है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि गरुड़ का ये
मूर्तिशिल्प भी पारंपरिकता का विस्तार है।
पर सिर्फ इसी निष्कर्ष पर
टिके रहना सही नहीं होगा। बेशक ये लग सकता है कि अरुण का ये, गरुड़वाला, और दूसरे
मूर्तिशिल्प पारंपरिक भारतीय मिथक और मूर्तिशिल्प के विस्तार हैं। और ऐसा लगने का
कारण भी है। अरुण अपने मूर्तिशिल्पों में
बहुगुणिता ( MULTIPLE)की संकल्पना का काफी प्रयोग करते हैं। (बहुगुणिता से आशय मूर्तिशिल्प में किसी खास अंग या अंश का
बहुल प्रयोग है। पारंपरिक भारतीय मिथक में शिव के तीन नेत्र माने गए हैं, रावण के
दस सिर, दुर्गा के आठ या दस हाथ। ये बहुगुणिता के उदाहरण हैं। भारतीय मूर्तिशिल्प
में इनके प्रयोग सदियों से दिखने को मिलते रहे हैं।) पर अरुण के भीतर जो बहुगुणिता
है, वह सचेत रूप से आधुनिक है, पारंपरिक नहीं। अरुण ने आधुनिक प्रक्रिया में करते
करते ये बहुगुणितता विकसित की है। गरुड़ के मूर्तिशिल्प में डैने की जगह हाथ हैं,
बारह हाथ। ये बारह हाथ इस तरह शिल्पित हुए हैं कि डैने की तरह लगते हैं लेकिन ये
समकालीन मनुष्य के उड़ान की आकांक्षा के प्रतीक भी हैं।
अप्रेल 2016 में ललित कला
अकादेमी में अरुण पंडित के मूर्तिशिल्पों की जो प्रदर्शनी लगी थी उस वक्त भी कला-रसिकों
ने महसूस किया कि अरुण मूर्तिशिल्प में अपने नए और मौलिक मुहावरे के साथ आए हैं।
उनके किसी मूर्तिशिल्प में मुंह कई होते हैं, किसी में हाथ कई, किसी में ऊंगलियां
कई तो किसी में पैर कई। ये समकालीन भारतीय मूर्तिशिल्प के संसार में एक साथ बहुत
नया लगता है और बहुत पुराना भी। कुछ लोगों के लिए ये संकरता या हाइब्रिडिटी है। पर
ऐसा है नहीं। ये अरुण की मौलिकता है कि वे एक नजर में उत्तर- आधुनिक लगते हैं और
उसी नजर में प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के नए वंशज भी। हां, ऐसा अकस्मात नहीं हुआ
है। करते करते यानी एक प्रक्रिया के तहत अरुण ने अपनी निजी शैली बनाई है। इस प्रक्रिया के शुरू होने की कहानी कुछ साल
पुरानी है। ये कॉलेज ऑफ आर्ट के एमएफए करने के दौरन शुरू हुआ।
बिहार में जन्में और वहीं के
निवासी अरुण जब सन् 1995 में पटना के
कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स से बीएफए करने के बाद एमएफए करने दिल्ली पहुंचे और
दिल्ली के कॉलेज ऑफ आर्ट्स में दाखिला लिया तो वहां एक नया माहौल था। उनको
अंग्रेजी नहीं आती थी और दिल्ली में पढाई अंग्रेजी माध्यम में होती थी। खासकर कला –इतिहास
की पढाई। शुरू में अरुण के पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। और यही उनको गुरु के रूप में
मिलीं रुबीना करोड़े। वे उस समय कॉलेज ऑफ आर्ट्स में कला- इतिहास पढ़ाती थी।
हालांकि वे अंग्रेजी में पढ़ाती थी लेकिन उनके पढाने के ढंग में इतनी आत्मीयता और
दृष्टिसंपन्नता थी कि अरुण का कला के प्रति नजरिया बदलने लगा। आधुनिक
कला की बारीकियां भी समझ में आने लगीं। कोंस्टान्टीन ब्रांकुसी के एक प्रसिद्ध
मूर्तिशिल्प `बर्ड इन स्पेस’ (ब्रांकुसी ने इस नाम
से एक ही आकार में कई मूर्तिशिल्प बनाएं हैं।) के विश्लेषण से उनको अंतर्दृष्टि
मिली। इस मूर्तिशिल्प में कहीं कोई
चिड़िया यानी `बर्ड’ नहीं है। या कहीं पंख नहीं है जिनसे चिड़ियों का एहसास हो। फिर इसका
नाम `बर्ड इन
स्पेस’ क्यों? ब्रांकुसी ने इस
सवाल के जवाब के क्रम में कहा था कि जब नेत्रहीन इसे छूकर महसूस करेंगे तो उनको
लगेगा कि कोई चीज, हवा में ऊपर की ओर जा रही है। यानी कला आपके दिमाग में एक
इंप्रेसन बनाती है। कोई जरूरी नहीं कि पूरी चिड़िया ही बनाई जाए तभी उसका आभास हो।
आप चीजों को कैसे देखते हैं इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। ये जो आभास (यानी `इंप्रेशन’) की अवधारणा है उसने
अरुण को छू लिया और अब उनकी कला रचना के केंद्र में
है। वे आज भी आभास पक्ष को ध्यान में रखकर मूर्तिशिल्प बनाते हैं।
कॉलेज ऑफ आर्ट्स में प्राणनाथ मागो जैस अच्छे अध्यापक भी थे। मागो
विद्यार्थी अरुण से कई तरह के सवाल करते
थे। उस दौरान उनको परेशानी होती थी कि ये क्या पूछा जा रहा है। एक मुश्किल ये भी
थी कि अर्थाभाव के कारण पढ़ाई जारी रखने के लिए अरुण को बाहर काम भी करना पड़ता
था, इसलिए पढ़ने लिखने के लिए जरूरी समय़ नहीं मिलता था। मागो के सवाल उनको विचलित
करते रहते थे। मागो अक्सर पूछते कि फलां मूर्तिशिल्प का टेक्सचर ऐसा क्यों हैं,
फलां में संतुलन क्यों नहीं है। आदि आदि। उनके जवाब के क्रम में ही अरुण ने अपने
विशिष्ट मुहावरे की तलाश की। उनके मूर्तिशिल्पों में आकृतियों के भीतर बहुगुणितता
वाला पक्ष इसी क्रम में उभरा। कुछ अन्य कई मूर्तिशिल्पियों की तरह अरुण सांचो (MOULD)
का
प्रयोग करते हैं। ये अलग बात हैं कि सांचों के प्रयोग जैसा वे करते हैं वैसा दूसरे
मूर्तिशिल्पी अमूमन नहीं करते हैं। अरुण आकृतिमूलक कलाकार हैं लेकिन उनकी आकृतियां
सामान्य नहीं होतीं। उनके मूर्तिशिल्पों में आकृतियों का विखंडन होता है। रूप का
विखंडन होता है। ऐसा लगता है कि किसी कलाकार ने कुछ आकृतियां बनाईं फिर उनको एक साथ
मिलाकर जोरों से दबा दिया जिससे वे आपस में चिपक गईं। फिर उन चिपकी हुई आकृतियों
को किसी धड़, चाहे वह मनुष्य का हो या
किसी पशु-पक्षी का, के साथ मिलाकर एक मूर्तिशिल्प तैयार कर लिया। कभी कभी तो कोई
धड़ भी नहीं होता।
पर ऐसा भी नहीं है कि ये
सिर्फ रूप के प्रयोग है। हालांकि रूप पर अरुण बहुत जोर देते हैं। लेकिन हर शिल्प
अपने में किसी न किसी संवेदनशील विषय की अभिव्यक्ति होती है। जैसे उनकी कलाकृति `मां’ को लीजिए। इसमें
महिला के धड़ के भीतर एक मुखाकृति है
जिसके तीन नाक, तीन होठों वाली एक आकृति है। ऐसा भी लग सकता है कि ये मुखाकृति उस
महिला की गोद में है। इसे देखने के दौरान कई तरह के विचार आते हैं। क्या ये मां के
गर्भ के भीतर एक शिशु है या कई शिशु हैं या उसकी गोद में बैठे उसके बच्चे हैं?
इन
सवालों को छोड़ भी दें तो यहां मां की एक नई छवि है जो पांरपरिक भी है और नई भी।
अरुण के दूसरे मूर्तिशिल्पों को देखने से भी कई खयाल एक साथ उभरते हैं और साथ ही
संवेदना की कई परतें भी। यही अरुण की सबसे
बड़ी खासियत हैं। उनके यहां रूप का ऐश्वर्य भी हैं और संवेदना की गहराई भी। दोनों
का अद्भुत मिलन। जो व्यक्ति आधुनिक कला की बारीकी से अपरिचित है उसे उनकी
कलाकृतियों के आस्वाद में कोई मुश्किल नहीं होता। और जो कला के जानकार हैं या
उत्तर- आधुनिक कला के पेरौकार हैं उनको भी अपने लिए अरुण के यहां काफी कुछ मिलेगा।
ऐसा बहुत कम समकालीन कलाकारों के साथ हो पाता है। मेरा खयाल है कि बिहार से बाहर
या दिल्ली आकर जिन कलाकारों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई है उनमें
अरुण पंडित सबसे अलग हैं और मौलिक भी।
मेरा अपना मानना ये भी है कि आनेवाले बरसों में वे भारतीय मूर्तिकला को नई ऊंचाई
तक ले जाएंगे।