Monday, February 16, 2009

सन्नाटा का संगीत


सन्नाटा का संगीत
संगीत जीवन से जुड़ा वह आवश्यक तत्व है जिसके बिना फीका है सबकुछ। यह किसी भी तत्व से उत्पन्न हो सकती है। चाहे सिल-बट्टे की खट-खट हो या चक्की के दो पाटों का घर्षण, चाहे ओखल में मूसल का प्रहार हो या सूप में उछलते गेहूं की ध्वनि, गरजते बादल हों या बूदों की रिमझिम, ऊंचाई से लहराकर गिरता झरना हो या समुद्र में थिरकती लहरों की उछल-कूद, पंक्षियों की फड़फड़ाहट हो या हवाओं की सरसराहट, सांसों की गति हो या दिल की धड़कन, सब में बसा है एक सुनाई देने वाला संगीत। लेकिन अगर सन्नाटा का संगीत सुनना हो तो पंडित बिरजू जी महाराज की महफिल में शिरकत करें और उनसे इसकी प्रस्तुति के लिए आग्रह करें। इकहत्तर वर्षीय पंडित जी की यौवन मदमाती प्रस्तुति आपको मंत्रमुग्ध कर देगी।
स्पिक मैके के सौजन्य से आयोजित लेडी श्रीराम कालेज में पंडित बिरजू जी महाराज के कथक नृत्य की प्रस्तुति की सूचना जसे मिली मन में एक बेचैनी सी हो गई, क्योंकि मैं कई दिनों से उनका कार्यक्रम देखने की चाहत पाले बैठा था। मेरा मानना है कि दिल्ली की भागमभाग में ऐसे कार्यक्रम अगर आप देखे तो ये आपको रिचार्ज कर देते हैं।
अपने सहकर्मी मित्र आलोक को जब यह बात बताई तो वह खुशी मन से मेरे साथ चलने को तैयार हो गए। वजह मैं जानता हूं, एक तो वह साहित्य प्रेमी हैं और दूसरे संगीत के प्रति अनुग्रही। एक सच यह भी है कि हम दोनों संगीत की गूढ़ता के अल्पज्ञ भी हैं। इसलिए एक दूसरे पर अपनी विद्वता आरोपित, प्रतिरोपित और अंतत: सहमति प्रदान क रते हैं। उनका कम बोलना हमें अवसर देता है।
बहरहाल, हम मदर डेरी से आए नोयडा मोड़ लेकिन कम्बख्त बस छूट गई, भला हो उस माल ढोने वाली टैक्सी का जिसने हमें गन्तव्य तक पहुंचाया। लेकिन हमें देर हो रही थी और आयोजन स्थल हम दोनों ने नहीं देखा था। मुश्किल तब हो गई जब हमें रास्ता भी गलत बता दिया गया। अब ये सोच रहा था कि कहीं कार्यक्रम शुरु न हो जाए लेकिन जब कार्यक्रम में पहुंचे तो पंडित जी ठीक पहले मंच पर आए थे और लोग खड़ा होकर उनका स्वागत कर रहे थे। पंडित जी के प्रशंसकों की भीड़ ने हमें बालकनी में बैठने को मजबूर कर दिया नहीं तो हम पंडित जी को करीब से निहारना चाहते थे। अद्भुत भाव-भंगिमा और घुंघरु की खनक के बीच पंडित जी ने अपने पिता और गुरु पं. लक्षन जी महाराज के बारे में बताते हुए अपना परिचय दिया। कथक और संगीत के बारे में जो उन्होंने बताया उनकी कुछ बातें इस प्रकार हैं, ‘संगीत वह भाषा है जो लय के आंचल में छिपी बैठी है। ताल लय को मात्रा देते हैं और घुंघरु उसे लय देते हैं। लय ईश्वर की कृपा है, यह हमारी जिंदगी है। संगीत हर जगह है। सन्नाटा में भी संगीत है।ज् इस संक्षिप्त उद्बोधन के बाद पंडित जी ने राग मालकोश में, ‘बरनत छवि श्याम सुंदर, लसत अंग पीत बसन, बंक भृकुटि गरे भाल..ज् पर मनमोहक प्रस्तुति दी।
इसके बाद शुरु हुई विशेष प्रस्तुति, मैंने बहुत से शास्त्रीय कार्यक्र म देखें हैं लेकिन ‘सन्नाटा के संगीतज् को सुनने और महसूस करने का यह हमारा पहला अनुभव था। घुंघरु की हल्की खनक और वातावरण की शांति पूर्ण सन्नाटा का आभास दे रही थी।
शरीर की लचक और पैरों की थिरकन से कहीं भी नहीं लगता था कि यह प्रस्तुति इकहत्तर वर्षीय उस जवान की है जो जिसे गुरु मानकर न जाने कितने जवान कथक की शिक्षा लेते हैं।
इस प्रस्तुति के बाद अब बारी थी तीन ताल की पर प्रस्तुति की। पंडित जी ने बताया कि तीन ताल आकाश है और घुंघरु इसमें तारों की भांति चमक रहा है। इसके बाद तीन ताल की पूरी प्रस्तुति में घुंघरु सुरों के बीच टिमटिमाता रहा। फिर पंडित जी ने छन्द, लय, ताल और बोल के माध्यम से कार्यक्रम में तराना, आरोह-अवरोह के बीच लचकती कमर और थिरकते पांव ने ऐसा जादू किया कि दर्शक समूह मंत्रमुग्ध सा देखते रह गये और हर प्रस्तुति पर दर्शकों की अनवरत तालियां बजती रहीं।
इसके बाद की प्रस्तुति भी आकर्षक और आनंदायक भी थी क्योंकि अब नायक और नायिक के यमुना पर मिलन की बारी थी। दरअसल नायक तबला था और नायिका घुंघरु थी। नायक आगे-आगे और नायिका पीछे-पीछे। इस बीच नायक का रुकना, नायिका का उसे चिढ़ाना, नायक का रुठना और नायिका का मनाना, नायिका के पांव में कांटा चुभना और नायक द्वारा निकालना, और एक कहासुनी के बाद अंतत: यमुना के किनारे दोनों का मिलन। इसका कथक के माध्यम से प्रस्तुति पर सैकड़ों हाथों की तालियों की गड़गड़ाहट की गूंज देर तक हाल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही। दर्शकों के लिए इस न भूलने वाली प्रस्तुति के बाद पारंपरिक कथक के साथ कुछ नए प्रयोग पंडित जी ने दिखाए, इसमें सांप-नेवला की लड़ाई, प्रकृति का चित्रण और अंतत: एक आलसी व्यक्ति की गतिविधियों के माध्यम से हास्य प्रस्तुत किया वह किसी भी लाफ्टर शो अधिक मनोरंजक लगी। यही नहीं इशारों में गोपनीय बातचीत की प्रस्तुति ने मानों लोगों को लोट-पोट कर दिया।
और अब अंत में एक ठुमरी की प्रस्तुति, ‘मोरी गागरिया काहे को फोरी रे श्याम, मैं तो गारी दूंगी ना..., जाए कहूंगी नन्द के दुआरे..ज् की प्रस्तुति के साथ इस कार्यक्रम का समापन किया। उनके साथ उस्ताद अकरम खान ने तबले पर थिरकती अंगुलियों का जो जादू बिखेरा उससे सभी दर्शक उद्वेलित हो गए। राजेश प्रसन्ना ने सरोद पर अच्छी प्रस्तुति दी।
इस तरह एक शाम सुहानी बीती। इसके बाद मैं हर उस शाम को जब अकेला होता हूं तो सन्नाटा में संगीत ढूंढता हूं और उसके मिलने पर एक मिठास देर तक महसूस करता हूं।
अभिनव उपाध्याय

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