Sunday, May 8, 2011

गाने पचास साल पुराने

मनोहर नायक
कोई बहुत पुराना गाना सुनकर कभी-कभी ताज्जुब होता है कि पचास-साठ साल बीत चुके पर यह अब भी ताजातरीन कैसे बना हुआ है। जाहिर है यह गीत-संगीत-गायकी का मिला-जुला कारनामा है। उन अदाकारों का करिश्मा भी इससे जुड़कर इस जादू को कालातीत बना देता है। ताज्जुब यह भी है कि इन गानों के दीवाने अधेड़ और बूढ़े हो चुके लोग ही नहीं बल्कि दीवानी अभी जवान हो रही पीढ़ी भी है। भले ही जितने भदेस हों इन गानों के रीमिक्स भी उनकी लोकप्रियता ही बताते हैं। फिर टीवी चैनलों, खासतौर पर म्युजिक चैनलों पर चलने वाले पुराने गानों के कार्यक्रम और सुबह से शाम तक एफएम रेडियो पर चलते फिल्म संगीत के सुनहरे दौर के गाने यही बताते हैं कि उनकी मांग और बाजार में कमी नहीं आयी है। उन्नीस सौ इकसठ को ही मिसाल के तौर पर लें तो पाएंगे कि पचास साल पहले इस वर्ष रिलीज हुई कुछ फिल्मों के गाने आज भी चाव से सुने जा रहे हैं और आगे न जाने कब तक सुने जाते रहेंगे।
वैसे सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है। अपने प्रिय संगीतकार और गायक/गायिका होते हैं पर तब भी यह कहा जा सकता है कि लोकप्रियता के लिहाज से इस साल जयदेव सबसे आगे नजर आते हैं। नवकेतन की ‘हम दोनों, जिसका इसी साल देव आनंद ने रंगीन संस्करण जारी किया, वह फिल्म जो थी उनकी प्रतिभा को पूरी तरह सामने लायी। अविवाहित जयदेव जीवनभर मुंबई में पेइंग गेस्ट की तरह रहे। नवकेतन से वे अपने गुरु अली अकबर खान के साथ बतौर उनके असिस्टेंट उस समय जुड़े जब खान साहब ‘आंधियां और ‘हमसफर में संगीत दे रहे थे। जयदेव तब दो सौ रुपये माहवार पाते थे। बाद में वे नवकेतन में ही सचिनदेव बर्मन के असिस्टेंट हुए। ‘हम दोनों में उन्हें पहली बार मौका मिला। ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया और ‘अभी न जाओ छोड़कर आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने पहले थे। जयदेव लुधियाना के थे और इस फिल्म के गीतकार साहिर भी वहीं के थे। पहले से एक दूसरे से परिचित थे, पर साहिर मूडी थे। इसी फिल्म के एक और गाने ‘कभी खुद पर कभी हालात पर रोना आया के लिए जयदेव साहिर से एक अंतरा और लिखने के लिए कहते रहे पर उन्होंने नहीं लिखा तो नहीं लिखा। पर एक गाना और था ‘अल्ला तेरो नाम। 1967 में लता ने इसे अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में रखा था। यह एक सदाबहार गीत है। रायचंद बोराल को फिल्म संगीत का पिता और खुद को चाचा कहने वाले अनिल विश्वास, जिनके साठ से ज्यादा साल पुराने गीत आज भी रोमांचित कर देते हैं, से जब यह पूछा कि किसी दूसरे कंपोजर का कोई गीत जो लगता हो कि काश, इसे मैंने बताया होता! अनिलदा ने फौरन कहा था, ‘हां जयदेव का, ‘अल्ला तेरो नाम।
लेकिन इकसठ के लिए फि ल्म फेयर अवार्ड न जयदेव को मिला, न साहिर को न रफी को। देव आनंद भी वंचित रहे। गीतकार का अवार्ड ‘घराना फिल्म के ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं के लिए शकील को मिला और ‘ससुराल के ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को गाने के लिये रफी को मिला। यह गाना आज भी जब बजता है तो लोग साथ-साथ गाने लग जाते हैं। ‘ससुराल, ‘घराना उस दौर में एवीएम, जमनी जसी दक्षिण की कंपनियों की वे पारिवारिक फिल्में थीं जिनकी परिवार के एलबमनुमा शॉट के साथ हैपी एंडिंग हुआ करती थी। फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवार्ड ‘घराना के लिए रवि को मिला था। इस फिल्म का एक गीत ‘दादी अम्मा, दादी अम्मा आज भी बच्चों के लिए बना पसंदीदा गाना है। उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी ‘जिस देश में गंगा बहती है। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता भी इसी फिल्म के लिए राजकपूर थे। इसके सभी गाने लाजवाब थे। शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र, लता, मुकेश का जलवा इनमें बिखरा हुआ था : ‘हम उस देश के वासी हैं, ‘मेरा नाम राजू, ‘ओ बसंती पवन पागल, ‘बेगानी शादी में, ‘हम भी हैं, तुम भी हो और ‘आ अब लौट चलें।
इसी साल दिलीप कुमार की अपनी फिल्म ‘गंगा जमुनाज् आयी थी और वैजयंतीमाला भर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवार्ड मिला था। ‘नैन लड़ जहैं, ‘ढूंढ़ो, ढूंढ़ो रे साजना, ‘दो हंसों का जोड़ा और ‘इंसाफ की डगर पर इसके ये गाने आज भी फीके नहीं पड़े हैं। सुधीर फड़के मराठी फिल्मों की बड़ी हस्ती थे पर हिंदी फिल्में भी उन्होंने कई कीं। जिस एक फिल्म और एक गाने ने उन्हें अपार लोकप्रियता दी वह फिल्म थी ‘भाभी की चूड़ियां और पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा, लता का गाया गाना था ‘ज्योति कलश झलके। यह जब भी बजता है तो एक मांगलिक भावना जसे आसपास घिर आती है। किसी के एक सर्वश्रेष्ठ गाने की याद करें तो केदार शर्मा निर्देशित ‘हमारी याद आयेगी फिल्म में मुबारक बेगम का गाना याद आता है, ‘कभी तनहाइयों में हमारी याद आएगी। स्नेहल भाटकर के संगीत से सजी इस फिल्म में मुबारक-मुकेश का गाना ‘फरिश्तों की नगरी में आ गया हूं भी एक उम्दा गीत है।
यह साल फिल्मों, गानों और डांस को एक नई शैली देने वाली फिल्म ‘जंगली का भी साल है। जिसकी ‘याहू की गूंज बाद तक सुनाई देती रही। रफी का गाया, हसरत का लिखा एक बेहद मधुर गीत इस फिल्म में था : ‘एहसान तेरा होगा मुझ पर। देव आनंद की ‘जब प्यार किसी से होता है के ‘जिया हो जिया, ‘ये आंखे उफ युम्मा, ‘सौ साल पहले अब भी बार-बार सुनाई पड़ते हैं। थोड़े कम बजने पर अपनी गिरफ्त में लेने वाले गाने भी कम नहीं हैं : ‘दिल मेरा एक आस का पंछी, ‘तुम रूठी रहो (आस का पंछी), ‘इतना न मुझसे तू प्यार जता, ‘आंसू समझ के क्यूं आंख से मुझको गिरा दिया (छाया, संगीत सलित चौधरी), ‘तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर (जबक), ‘भूली हुई यादों मुङो इतना न सताओ (संजोग), ‘तुम तो दिल के तार छेड़कर सो गए (रूप की रानी चोरों का राजा), ‘वफा जिनसे की बेवफा हो गए (प्यार का सागर), ‘साथ हो तुम और रात जवां (कांच की गुड़िया)।
‘झुमरू फिल्म किशोर कुमार ने बनायी थी। संगीत भी उन्हीं का था। इसके टाइटिल गीत के अलावा ‘कोई हमदम न रहा गीत बेहद संजीदा था। सभी बड़े संगीतकारों, गीतकारों, गायक, गायिकाओं ने अपने हुनर से इस साल को संवारा। पद्मनी ने इस साल ‘जिस देश में गंगा बहती के बाद हिंदी फिल्मोंे से विदा ले ली, वहीं एक दशक की गुमनामी के बाद सुरैया ‘शमा में लौटीं और गुलाम मोहम्मद की धुनों में सजे कैफी के दो मधुर गीत गाये : ‘आपसे प्यार हुआ जाता है, ‘धड़कते दिल की तमन्ना। इतने सुरीले सदाबहार गानों वाले इस साल में एक बिना गानों वाली फिल्म भी आयी, ‘कानून। बीआर चोपड़ा को इसके लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर अवार्ड मिला था।

करिश्मा बिन जवाहिरी

अरुण कुमार त्रिपाठी

अल जाहिरी लादेन की तरह से करिश्माई नेता नहीं हैं। हाल में उन पर यह भी आरोप लग रहा है कि ओसामा बिन लादेन के मराने में उनका हाथ है। यह आरोप सऊदी अरब के अखबार अल तन ने अरब सूत्रों के हाले से लगाया है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी भी इसी तरह की बात कर रही है। अल तन का कहना है कि vaजीरिस्तान के कबीलाई इलाकों से एबटाबाद के शहरी इलाकों में लादेन के जाने का फैसला अल जाहिरी ने एक साजिश के तहत कराया था। इस बीच जिस संदेशाहक यानी कुरियर के माध्यम से लादेन का सुराग मिला है ह भी जाहिरी का ही आदमी बताया जाता है। यह भी कहा जा रहा है कि आम धारणा के पिरीत ह कुैती नहीं पाकिस्तानी था। साजिश के इस सिद्धांत के तहत जाहिरी ने ओसामा का सफाया कर संगठन पर कब्जा करने की नीयत से यह सब किया था और आखिर में उसमें कामयाब भी हो गया। पर अल कायदा के इन दो करीबी नेताओं में झगड़े और इस हद तक साजिश होने की बात को अमेरिकी एजेंसियां स्ीकार नहीं कर पा रही हैं। यहां यह साल भी उठता है कि सन 2004 में बीमार हुए ओसामा बिन लादेन को एबटाबाद भेजने की योजना अगर जाहिरी ने बनाई थी तो यह कबीलाई इलाके के मुकाबले उसे सुरक्षित जगह पर भेजने की कोशिश कैसे नहीं कही जाएगी?
लेकिन अल जाहिरी के प्रति अश्विास ही उन्हें अल कायदा का प्रमुख बनने से रोक सकता है, रना उनमें े सारी योग्यताएं हैं जो उन्हें इस जिम्मेदारी का स्त: उत्तराधिकारी बना देती हैं। आमतौर पर संगठन का उसूल नंबर दो के व्यक्ति पर ही यकीन करने का है। ह करिश्माई भले न हों लेकिन एक आतंकादी संगठन के नेता के तौर पर उनकी योग्यता और कुशलता का बार-बार प्रमाण मिल चुका है। ह आतंकादी हमलों के शेिषज्ञ ही नहीं इस्लाम के धर्मशास्त्र के द्विान भी हैं। एक डिग्री धारी सर्जन के तौर पर अपना कैरियर शुरू करनेोले जाहिरी अमेरिका सहित दुनिया के बड़े हिस्से में घूम चुके हैं और उन तमाम इलाकों के मुसलमानों से उनका संपर्क है, जहां पर किसी तरह का टकरा और समस्याएं हैं। बल्कि धार्मिक चिारों के मामले में े लादेन से ज्यादा कट्टर और स्पष्ट बताए जाते हैं।
हिंसक तरीकों में उनकी क्रूरता और आस्था लादेन से भी ज्यादा है। कहा जाता है कि पिछले छह सालों से लगभग निष्क्रिय जीन जी रहे ओसामा बिन लादेन की जगह पर संगठन के पीछे असली दिमाग उन्हीं का है। हमलों की रणनीतियां बनाना, लोगों को संगठित करना और संगठन को ैचारिक आधार देने का काम उन्हीं के जिम्मे था। बीच-बीच में उनके भी टेप जारी होते रहे हैं। जाहिरी के सामने चुनौती यह है कि अमेरिका की नजरों से बचते हुए कैसे े अपने अलकायदा में नई जान फूंकते हैं और कैसे क्रांति के उन हिंसक और कट्टर सिद्धांतों को प्रासंगिक बनाते हैं जिनको उन्हीं के मूल देश की जनता नामंजूर कर चुकी है। मिस्र की राजधानी काहिरा के उपनगरीय इलाके में एक पढ़े-लिखे परिार में 1951 में जन्मे अयमन अल जाहिरी को बचपन से ही पढ़ने-लिखने का अच्छा माहौल मिला और उन्होंने उसका लाभ भी उठाया। उनके पिता फार्माकालोजिस्ट और रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे। उनके पिता के परिार में ज्यादातर द्विान थे और मां के परिार में राजनेता और संपन्न व्यापारी। लेकिन मिस्र की स्थितियों ने बहुत जल्दी ही उन्हें राजनीति की तरफ ठेल दिया। े 14 साल की उम्र में ही मुस्लिम ब्रदरहुड के सदस्य बन गए और पढ़ाई लिखाई के साथ अमेरिका और इजराइल के प्रति नरम रुख रखनेोली सरकार का तख्ता पलटने की तैयारी में लग गए थे। उन्हें इस काम के लिए उनके चाचा और एक शिक्षक ने प्रेरणा दी। उसके बाद कुत्ब नाम के एक नेता को जब मिस्र की सरकार ने 1970 के दशक में फांसी दी तो जाहिरी ने तय किया कि े उनके संदेश को ही आगे बढ़ाएंगे।
अपने देश और दुनिया की समस्याओं का समाधान इस्लामिक शुद्धता और उसके शासन की स्थापना में देखनेोले जाहिरी के जीन में असली बदला तब आया जब 1984 में हज करने गए सऊदी अरब गए और हां उनकी भेंट ओसामा बिन लादेन से हुई। फिर े हीं रुक कर डाक्टरी करने लगे। इससे पहले े इजिप्ट इस्लामी जेहाद में सRिय हो चुके थे और उन्हें तीन साल की सजा हो चुकी थी। इस मुलाकात में लादेन ने उन्हें प्रभाति किया और उनकी अगली मुलाकात 1986 में पेशार में उस समय हुई जब े हां सोयित फौजों से लड़ते हुए घायल अफगानी शरणार्थियों का इलाज करने में जुटे थे। उस समय लादेन हां जेहादी शिरि चला रहे थे। उन्होंने नब्बे के दशक में अपने संगठन ईआईजे का लादेन के संगठन अल कायदा में लिय कर दिया।

े लादेन के सहयोगी ही नहीं निजी फिजीशियन के तौर पर भी रहे और 9/11 के बाद जब अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला हुआ तो लादेन के परिार को सुरक्षित ईरान पहुंचाया। एक दौर में अल जाहिरी ईरान के एजेंट के तौर पर भी काम करते रहे हैं और उसे यह बताते रहे हैं कि उसके किन द्वीपों पर मिस्र कब्जा करने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए ईरान ने उन्हें 20 लाख डॉलर दिया था। लेकिन जाहिरी र्साजनिक तौर पर ईरान की कड़ी निंदा करते रहे हैं।
अल जाहिरी को करीब एक दर्जन नामों से जाना जाता है। उसमें अबू मोहम्मद, अबू फातिमा, मोहम्मद इब्राहीम, अबू अबदालेह, अबू अल मुइज, द डाक्टर , द टीचर, नूर, अबू मोहम्मद, नूर अलदीन, अब्दुल मुआज प्रमुख हैं। उसकी एक ही शादी हुई है और पत्नी अब नहीं हैं। उससे पांच बच्चे हैं जिनमें एक बेटा और चार बेटियां हैं। बेटा बेहद शिष्ट और शालीन है और लड़कियों को जेहाद में शामिल करने के पक्ष में जाहिरी खुद भी नहीं हैं। जाहिरी मुख्य तौर पर 9/11 के बाद जब चर्चा में आए और अमेरिका ने दुनिया के 22 प्रमुख आतंकियों की सूची में उनका नाम जारी किया, तो उनकी पत्नी ने हैरानी जताते हुए कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भनक तक नहीं थी कि उनके पति जेहादी हैं। अल जाहिरी पाकिस्तान की लाल मस्जिद पर हुए हमले के पीछे भी रहे हैं और उससे पहले अमेरिकी दूताासों पर हुए हमलों में भी उनकी योजना रही है।
अल जाहिरी के साथ एक ही बात सही है कि उन्होंने इस्लामी दुनिया की तकलीफों को देखकर अपना जीन जोखिम में डाल लिया। लेकिन इजिप्ट इस्लामी जेहाद, अलकायदा तो आजकल अलकायदा इन द इस्लामी मगरिब के सहारे मुसलमानों की आजादी और अमन की तलाश कर रहे जाहिरी एक आत्मघाती नजरिए के साथ मौत के पीछे भटक रहे हैं। लादेन की तरह ही उनका अंत तय हो चुका है बस उसे े कब तक टाल पाते हैं यही उनकी कुशलता है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...