Friday, August 19, 2011

लोकपाल क्रांति के भावी पंद्रह दिन

अरुण कुमार त्रिपाठी

अगले पंद्रह दिन भारतीय राजनीति में जनलोकपाल क्रांति के रूप में दर्ज होने जा रहे हैं। इस दौरान जनता की जागरूकता का स्तर बढ़ेगा और उसका क्रांतिकरण तेज होगा। दूसरी तरफ जनता से भयभीत जनप्रतिनिधि और उन्हें शरण देने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने भीतर बेचैनी महसूस करेंगी। उन पर बदलने या टूटने का दबाव होगा। यह हमारे लोकतांत्रिक पूंजीवाद में बदलाव और उथल पुथल का दौर है। देखना है एक गांधीवादी आंदोलन की नैतिक ताकत से देश बेहतर भविष्य की ओर जाता है या फिर उस पर कोई अशुभ दृष्टि पड़ जाती है।
अगले पंद्रह दिन भारतीय राजनीति के लिए बड़े अहम होने जा रहे हैं। इस दौरान अन्ना हजारे, उनके साथियों और उनके साथ बाकी देश ने जनलोकपाल का जो सुंदर सपना देखा है वह साकार भी हो सकता है या देश भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर सकता है। इससे कोई दमनकारी व्यवस्था भी निकल सकती है। कें्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और उनके मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने अन्ना हजारे और उनके साथियों को रामलीला मैदान में पंद्रह दिन की इजाजत देकर अपना संकट टालना चाहा है। लेकिन लगता नहीं कि वह टला है। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के सिर पर चक्र की तरह मंडरा रहा है और या तो वह उससे अपना काम करवा लेगा या उसको जाने के लिए मजबूर कर देगा।
यह पं्रह दिन अंग्रेजी में कानूनी बातें करने के नहीं, जनता की भाषा में राजनीतिक संवाद करने के होंगे। जो करेगा वही आगे टिकेगा। कांग्रेस के लिए यह गंभीर चुनौती का दौर है। क्योंकि उसका धर्मनिरपेक्षता का एजेंडा पीछे चला गया है। राहुल गांधी का किसान आंदोलन का एजेंडा अन्ना के आंदोलन में समाहित हो गया है। रहे मनमोहन सिंह तो क्या वे युवाओं को एक सुरक्षित भविष्य का आश्वासन दे पाएंगे?
इस दौरान राजनीतिक प्रणाली पर नए सिरे से बहस खड़ी हो सकती है और अगर संसद उस बहस को सार्थक और समर्थ ढंग से नहीं उठा सकती तो उसे अपने नए स्वरूप के लिए तैयारी करनी होगी। इस दौरान जन प्रतिनिधियों और नौकरशाही के चरित्र पर भी बहस होगी और एक नए किस्म का जनमत बनेगा। वह जनमत आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की दिशा निर्धारित करेगा। लेकिन उससे भी आगे जाकर यह पं्रह दिन भारतीय राजनीति में नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा करने वाले हो सकते हैं। उसमें यूपीए के घटक दल कोई नया रुख ले सकते हैं और फिर किसी तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट हो सकती है। जाहिर सी बात है कि यह समय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। लेकिन उसे संसदीय बहसों में कौशल दिखाने के बजाय जमीन पर भी निष्ठा और पारदर्शिता दिखानी होगी। उसे कई राज्यों में बैठे अपने भ्रष्ट नेताओं के भविष्य पर भी सोचना होगा। कल्पनाशील नेतृत्व पैदा करना होगा और जनता की नब्ज पर अन्ना हजारे की तरह हाथ रखना होगा? क्या वह रख पाएगी? अगर नहीं तो वह तमाशबीन बनकर रह जाएगी।
अन्ना हजारे के आंदोलन के पहले चरण की समाप्ति पर तमाम समाजवादी और वामपंथी बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता इसे सरकार और आंदोलन की सांठगांठ बता रहे थे। उनका मानना था कि यह आंदोलन सरकार ने ही आयोजित करवाया है और इसीलिए सरकार के मंत्रियों ने स्वयं अन्ना हजारे से मिलकर समझौता किया और लोकपाल मसौदा समिति का गठन कर डाला। लेकिन वह गलतफहमी जल्दी ही खत्म हो गई जब उस समिति में शामिल सदस्यों के खिलाफ फर्जी सीडी जारी होने लगी और कांग्रेस के प्रवक्ता द्वेषपूर्ण बयान देने लगे। पर इससे मिलीभगत का आरोप समाप्त हो गया। फिर भी अन्ना से चिढ़े तमाम आंदोलनकारी यह आरोप लगाते रहे कि वे तो कायर हैं। अनशन तो हर कोई कर लेगा। गिरफ्तारी करके तो दिखाएं। इस बीच भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में योग गुरु बाबा रामदेव का दुखांत प्रहसन भी उपस्थित हो गया। अन्ना हजारे ने अपनी नैतिक शक्ति से बार-बार सरकार को ललकारा और रामदेव प्रसंग से सबक भी लिया और ताकत भी।
लेकिन अन्ना और उनके साथियों ने सबसे ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता का परिचय स्वतंत्रता दिवस और 16 अगस्त को दिया। स्वतंत्रता दिवस पर अन्ना हजारे का संबोधन लाल किले से दिए गए प्रधानमंत्री के संबोधन पर भारी पड़ा। लेकिन उससे भी बड़ी उम्मीद जब दिखी जब अन्ना हजारे ने 16 अगस्त को दिल्ली में पूरे शांत भाव से गिरफ्तारी दी और बाद में तिहाड़ जेल पहुंच कर अपने उन तमाम आलोचकों को खामोश कर दिया जो उन्हें कायर बताते हुए ललकार रहे थे कि वे गिरफ्तारी देकर तो दिखाएं।
दरअसल अन्ना हजारे ने अपनी गिरफ्तारी और बाद में छोड़े जाने के बावजूद तिहाड़ से बाहर निकलने से मना कर एक तरफ सरकार को यह बता दिया कि उन्हें जेल से डर नहीं लगता, दूसरी तरफ अपने समर्थकों के बीच साहस का संचार कर दिया। यही वजह है कि पुलिस की तरफ से छोड़े जाने के बावजूद उनके साथी छत्रसाल स्टेडियम छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उधर लोग बढ़-बढ़ कर गिरफ्तारी देते रहे और तिहाड़ जेल के बाहर जमे रहे। एक बार फिर युवाओं में राजनीतिक आंदोलनों का औचित्य सिद्ध हुआ है और वे सत्तर और अस्सी के दशक की तरह सत्ता के भय से मुक्त हो रहे हैं और लोहिया व जेपी की यादें ताजा हो रही हैं।
अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे उनके साथियों की तैयारी भी है और बहुत कुछ स्वत:स्फूर्त भी। तैयारी इसलिए कि विधिवत योजना के साथ काम करने वाली संगठित सरकारी व्यवस्था को कोई सोच समझ कर काम करने वाली टीम ही कदम कदम पर मात दे सकती है। अभी तक एेसा ही रहा है। अन्ना ने संयम नहीं खोया है और रामलीला मैदान में बैठने से पहले उन्होंने पुलिस को विधिवत यह हलफनामा दिया है कि अगर कोई भी गड़बड़ी होती है या कानून का उल्लंघन होता है वे उसके लिए जिम्मेदार होंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल क्रांति के लिए खड़ा हुआ अन्ना हजारे का यह राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्या महज एक विधेयक पास करवा कर शांत हो जाएगा? क्या इतने बड़े राष्ट्रीय जन उभार को परिवर्तनकारी एेसे ही व्यर्थ जाने देंगे? क्या वे इससे परिवर्तन का कोई बड़ा कार्यक्रम तय नहीं करेंगे? अव्वल में तो इतनी जल्दी उम्मीद नहीं है, लेकिन अगर सरकार प्रधानमंत्री को उसके दायरे में लाने को तैयार हो गई तो यह उनकी बड़ी जीत होगी, पर क्या इतनी जीत से वे संतुष्ट हो जाएंगे? हो भी सकते हैं और नहीं भी। अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह के लोग हैं और जिस तरह के लोग जुड़ रहे हैं वे उसके स्वरूप को लगातार व्यापक बना सकते हैं। मेधा पाटकर का आना आदिवासी और विस्थापन के सवाल को गंभीरता के साथ इस आंदोलन से जोड़ेगा। मेधा आएंगी तो उनके साथ जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय भी सक्रिय होगा। जाहिर सी बात है कि इस आंदोलन में गांधीवादी, संघ से जुड़े राष्ट्रवादी, रेडिकल वामपंथी और आदिवासी और किसान भी जुड़ रहे हैं और वे इसके दायरे को व्यापक बना सकते हैं। शांति भूषण, प्रशांत भूषण और मेधा पाटकर इसके एजेंडे में जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कार्यक्रम भी शामिल करवाना चाहते हैं। वे जनोन्मुखी भूमि अधिग्रहण नीतियों तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि जल, जंगल, जमीन के बारे में कुछ ठोस नीतियों की भी मांग करेंगे।
लेकिन इस आंदोलन से जिस तरह से विभिन्न राज्यों, गावों और शहरों के युवा और हर उम्र के नागरिक जुड़ रहे हैं उससे साफ है कि इसमें राष्ट्रीय ही नहीं स्थानीय एजेंडा भी रहेगा। स्थानीय एजेंडे के मद्देनजर ही जनलोकपाल बिल के साथ ही लोकायुक्त की संस्था बनाने की मांग चल रही है। यह आंदोलन दिल्ली की भ्रष्ट केन्द्रीय सरकार पर तो भारी पड़ ही सकता है राज्य की भ्रष्ट सरकारों के लिए भी दिक्कत खड़ी कर सकता है। इस आंदोलन के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसे अहिंसक बनाए रखने की है। दूसरी बड़ी चुनौती इसे जाति और धर्म के आधार पर विभाजित होने से रोकने की है। अगले पंद्रह दिन विघ्नसंतोषी शक्तियां सक्रिय हो सकती हैं। अगर प्रतिक्रांति की ताकतों को रोका जा सका तो निश्चित तौर पर यह कारवां क्रांति की ओर जा रहा है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...