Friday, June 10, 2011

तुम पर फिदा, हुसैन!



'दोस्तो, कला की दुनिया एक है। हुस्न और फन हर जा मौजूद है। ज़रूरत है बस उस एक नज़र की जो उन्हें जान सके पहचान सके। आप सब जानते हैं कि पेंटिंग मेरी उम्र भर की साधना है। मेरी जिèन्दगी है, फिल्में मेरा पैशन है। मैं, आज वतन से दूर हूं। पर यह कहानी उस शख़्स की है, जिसकी सुबह-ओ-शाम हिंदुस्तानी आस्वाद, रंगों, बुनावट और रूपरेखाओं से रोशन है। खाक -ए-वतन की यही ख़्ाुशबू मेरे सपनों को आज भी मुअत्तनू और गुलज़ार रखती है। मैं अपनी सरज़मीं को झुक कर सलाम करता हूं। मेरी दुनिया वहीं है, जहां आप सब हैं। खाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।’

ये मकबूल फिदा हुसैन साहब हैं जिन्होंने यह बात दो साल पहले नवंबर 2००9 में कही थी। उनके चौरानबे जन्मदिन पर जिया प्रकाशन ने एक ई-बुक निकाली थी जिसमें एनीमेशन के साथ हुसैन के चित्र और उनकी ज़ुबानी 'कुछ आपबीती, कुछ जगबीती, कुछ गौर-ओ-फिक्र, कुछ जज्बात थ्ो।’ वहां एक पेंटर की आंखों से देखने के लिए उस चित्रकार ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था। 'तहरीर तस्वीर बन गयी थी और तस्वीर तहरीर।’ यानी लफ्ज तस्वीरों की तरह और तस्वीरें थीं लफ़्जों के मानिंद।


हुसैन अब नहीं हैं। निस्संदेह वे आधुनिक भारतीय कला के सबसे बड़े और पहचाने जाने वाले नाम थ्ो। कई लोगों की मृत्यु पर रस्मी तौर पर युग बीत जाने की बात कही जाती है पर हुसैन का न रहना निश्चित ही एक युग का अवसान है। यह दुर्भाग्यपूणã है कि हमारा यह सबसे बड़ा कलाकार बरसों से मातृभूमि से बाहर रहा। वे मजाक में अपने को अंतरराष्ट्रीय जिप्सी कहते थ्ो पर कहीं अंदर गहरी टीस थी वतन से दूर होने की। वे अपने को भारतीय मूल का चित्रकार ही कहते रहे। यहां तक कि कतर ने जब उन्हें नागरिकता दी तो एक घोड़े के रेखांकन के ऊपर उन्होंने लिखा : 'मुझ भारतीय मूल के पेंटर, एमएफ हुसैन को 95 साल की उम्र में कतर की नागरिकता का सम्मान दिया गया है।’ एक इंटरव्यू में उन्होंने मंुबई लौट जाने के लिए अपनी तड़प को बताया था।


हुसैन की मशहूरी दुनिया भर में थी। वे शायद सबसे मंहगे पेंटर भी थ्ो। फिल्में भी बनायीं, जिसका उन्हें नशा-सा था। अत्यंत प्रसिद्ध और अति विवादास्पद, वे दोनों ही थे। खबरों में हमेशा बने रहते। कुछेक सदाबहारों में वे अन्यतम थ्ो। वे हमेशा कुछ नया करते रहते, जिसे उनके प्रशंसक 'ख़्ाूब से ख़्ाूबतर की जुस्तजू’ मानते थ्ो। देश की कट्टर हिंदू ब्रिगे्रड को वे फूटी आंखों नहीं सुहाते थ्ो। दरअसल हुसैन साहब कला को जानने-पहचानने की जिस नज़र की बात करते हैं उसका वहां घोर अभाव है। लिहाज़ा उनकी कलाकृतियां नष्ट की जाती रहीं, स्टूडियो, घर पर हमला होता रहा। उनके खिलाफ सैकड़ों मामले दायर कि ये गये। न सरकार ने कुछ किया न उस चैनली मीडिया ने ही कोई दबाव बनाया जो दम भरता है कि अगर वह तब रहा होता तो बाबरी मस्जिद न ढहायी जा पाती। चाहकर भी वे देश नहीं लौट पाए। शायद लंदन में ही उनका अंतिम संस्कार हो। कू-ए-यार में उन्हें भी दो गज जमीं नसीब न हो सक ी।

हुसैन का जीवन उनकी कला की तरह ही सघन और चित्ताकर्षक था। दोनों की दुनिया इतनी विशद है जहां लोगों, घटनाओं का आना-जाना लगा रहता है। शायद इसीलिए वे अवाम के फनकार कहे जाते रहे। उनकी जीवन-कथा बेहद रोमांचक और छैल-छबीली है। इस कदर ठेठ भारतीय और दिलचस्प कि उनकी कही वह अनूठी टिप्पणी याद आती है कि, 'मैं तो अखिल भारतीय सर्कस का रंगीला जोकर हूं।’ जिया प्रकाशन ने जो ई-बुक निकाली थी वह जैसे ज़िन्दगी का सफरनामा है। बदलते वक़्तों का गवाह। इसमें वे उस फनकार की कहानी सुनाते हैं जिसने डेढ़ साल की उम्र में अपनी मां को खो दिया, जो इंदौर की गलियों में ख्ोला और बड़ौदा में पढ़ा। कई बार मोहब्बत करता है और नाकाम होता है। उबरता है और अपने विचारों, कल्पनाओं को कैनवास पर उतारता है। और जब हजारहा मुसीबतों को ठेल कर वह एमएफ हुसैेन के रूप में उभरता है तो दुनिया उसे दिलचस्पी और हैरत से देखने लगती है।

इकतालिस शीर्षकों की इस ई-बुक में हुसैन निखालिस हिंदुस्तानी सुर्ख-स्याह और जीवंत रंगों में नमूदार होते हैं। यहां हुसैन की भाषा अद्भुत असर छोड़ती है। सीधी-सच्ची और विश्वसनीय। वे फे्रमों में सोचते दिखते हैं और छवियों में शब्दोंे को अंकित करते हैं। यहां आप हुसैन को देखते हैं और बहुत कुछ समझ पाते हैं। बचपन की खुशियां। स्कूल से बच्चों का गेंदों की तरह निकलना। मां का चेहरा याद न रहने का दर्द और मदर टेरेसा के ममत्व के विस्तार में उसकी पनाह। पिता की शादी की खुशी। इतना बड़ा होना की दादा की अचकन की जेब तक पहंुचने लगना। दादा की मृत्यु के बाद उसी अचकन को ओढ़कर सोना मानो दादा की गोद में सोये हों। नूर-ए-नज़र बाईसिकिल, जिसके क रियर पर बैठ उसे ऐसे चलाना मानो साइकिल हमारी गोद में है या हम साइकिल की गोद में।ड्राइंग मास्साब ने जब बनाने को कहा तो उनके ब्लैकबोर्ड की चिड़िया ज्यों की त्यों नोटबुक में आ बैठी। नंबर मिले दस में से दस। चाचा की दुकान का हिसाब दिया दस रुपए ओर बैठे-बैठे स्केच बनाये बीस। जमना जिसे पानी भरते देखते, बल्कि दोनों देखते ओर देते एक-दूसरे को दाद-सी। उसे नीच लाल खां दर्जी ने रख्ौल बनाकर तबाह कर दिया। पहली आइल पेंटिंग की, 'सिंहगढ़ फिल्म’ के इस पर्चे को देखकर चचा नाराज पर पिता ने कहा, 'जाओ बेटा ज़िन्दगी को रंग से भर दो।’लोहिया का स्केच बनाया। डाक्टर साहब बेहद खुश। बाहों में भींच लिया और वह भींच ताउम्र ढीली न पड़ी। लेकिन नेहरू का स्केच देखकर लोहियाजी नाराज़। उनसे कहा, 'डाक्टर साहब मार्डन आर्ट बेहद लोकतांत्रिक चीज है। उसकी खूबी यही कि आप उसे अपनी तरह से समझें।’ उन्हीं का मान रखने के लिए बनायीं रामायण पर डेढ़ सौ पेंटिंग। चार पेंटर दोस्त : मड़बड़ोचां का बल छाबड़ा, कपड़कांज का तैयब मेहता, करोलबाग का रामकुमार और गिरयाम पतली गली का गायतोंडे। कभी नहीं भूली इंदौर की वह नदी जिसके एक किनारे गुलेर शाह का मज़ार और दूसरे किनारे पर शिवालय। जिस उम्र में भी पहंुचा वहां तो छुआ जरूर दोनों के बीच बहते जल को। ये थ्ो हमारे हुसैन जिन पर फिदा एक बड़ी दुनिया। फिदा ही नहीं उनकी कृतज्ञ भी बहुत!


मनोहर नायक - लेखक आज समाज अख़बार के स्थानीय संपादक हैं .

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