Sunday, January 29, 2012

कागजों में सिमटा है गणतंत्र

सुनील गंगोपाध्याय

जिस संविधान को अंगीकार किए जाने की खुशी में हम भारत के नागरिक गणतंत्र दिवस मनाते हैं आज उसी के मूल्यों को ताक पर रख दिया गया है। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व यानी समाजवाद के जिन मूल्यों को स्थापित करने और जिनकी रक्षा करने का संकल्प इस गणतंत्र में किया गया है, वे सभी तार-तार हो रहे हैं। लेखकीय स्वतंत्रता को कुचले जाने का नमूना जयपुर साहित्य सम्मेलन में दिखाई दिया, तो देश की बड़ी आबादी की बदहाली हमारे समता संबंधी दावों की रोज कलई खोलती है। दंगे और वैमनस्यता हमारी धर्मनिरपेक्षता औ्र बंधुत्व को खंडित करते हैं। एेसे में लोकतंत्र एक दस्तावेज से बाहर निकाल कर साकार करने की जरूरत है।

भारत में गणतंत्र लागू किए हुए भले ही 62 साल बीत गए हैं, लेकिन मुङो लगता है कि यह व्यवस्था सिर्फ कागजों तक ही सीमित होकर रह गई है। कम से कम हमारे आसपास जो कुछ हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि हमारा देश चंद राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के हाथों में गिरवी है।
ताजा घटना जयपुर में देखने को मिली है, जब सारी तैयारियों के बाद सलमान रुश्दी को साहित्य उत्सव में भाग नहीं लेने दिया गया। यहां तक रुश्दी की आवाज को इस कदर दबाने की कोशिश की गई कि उनके वीडियो कांफ्रेंसिंग को भी प्रतिबंधित कर दिया गया, जिसके माध्यम से वह अपने प्रशंसकों को संबोधित करना चाहते थे। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस तरह की हरकत अपने आप में शर्मनाक घटना है। हमारा गणतंत्र हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन असलियत में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता, जिससे यह साबित हो सके। अगर ऐसा कुछ होता तो सलमान रुश्दी को जयपुर आने दिया जाता और एक ऐसा खुशनुमा माहौल तैयार किया जाता, जिसमें कि वह अपना वक्तव्य रख सकते।
सच्चाई तो यह है हम एक बेहद खराब दौर से गुजर रहे हैं, जहां न तो वैचारिक स्वतंत्रता है और न ही कुछ करने की आजादी। रुश्दी को जयपुर न आने देने के विरोध में चार लेखकों ने प्रतिबंधित द सेटेनिक वर्सेस के कुछ उद्धरण पढ़े, उन पर आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं, यह शर्मनाक घटना है। साहित्य एक ऐसी पवित्र विधा है, जो कभी किसी की भावनाओं को आहत नहीं कर सकती। हाल के दिनों में इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं, जिससे भारत की सहिष्णुता की छवि प्रभावित हुई है। हमारा देश आदिकाल से गंभीर और सहिष्णु माना जाता रहा है, लेकिन तस्लीमा नसरीन, सलमान रुश्दी या एम एफ हुसैन के साथ जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए हमारा समाज और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ही उत्तरदायी है। मुट्ठी भर लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन करने के बाद तस्लीमा नसरीन को कोलकाता से खदेड़ दिया गया, वहीं भारत से दूर त्रासद जीवन जी रहे, एम एफ हुसैन ने अपनी अंतिम सांस लंदन में ली। यही सब सलमान रुश्दी के साथ हुआ है।

मैं लंबे समय आम जन-जीवन से जुड़ा हुआ। मैने आम आदमी के साथ अपना सरोकार रखा है। मुङो बेहतर पता है कि भारत में संविधान लागू होने के 62 साल बीत जाने जाने के बाद भी हमारी आबादी का एक बड़ा तबका आजादी और गणतंत्र का मतलब नहीं समझता। यह हमारी विफलता है कि 62 साल बाद भी गणतंत्र का उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच सका है। समाजवाद हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण मूल्य है। लेकिन लगता है कि समाजवाद को देश के राजनीतिक दलों ने पूरी तरह से भुला दिया है। यहां तक कि जो पार्टियां खुद के समाजवादी होने का दंभ भरती हैं, उनका भी समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। आजादी के आंदोलन के दौरान ही यह साफ हो गया था कि भारत में समाजवादी सत्ता की स्थापना होगी।

आजादी के समय डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था कि जब हम आजाद हो रहे हैं, तो हमारे राष्ट्रीय चरित्र में जो खामियां थीं, उन्हें हमें सुधारना होगा। हमारी खामियां हैं चरित्र की, तानाशाही की, असहिष्णुता की, अंधविश्वास की और संकुचित मनोवृत्ति की। हमें विकास के लिए शिक्षा, धैर्य, एक-दूसरे के विचारों के सहने व समझने की वृत्ति आवश्यक है। जब हम इन गुणों को अर्जित करेंगे, तभी हमारा देश विकास के राजपथ पर चल सकेगा। लेकिन अब लगता है कि हमारे देश के पहले की और वर्तमान सरकारों ने राधाकृष्णन सरीखे राष्ट्र निर्माताओं की चेतावनियों की उपेक्षा की। यही वजह है कि हम संविधान और संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुकूल नहीं बन सके। संविधान द्वारा स्थापित तमाम मूल्यों की अवहेलना पूरे देश में हो रही है। संविधान के अनुसार हमने अपने देश को प्रजातांत्रिक स्वरूप दिया है।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शासन का संचालन राजनीतिक पार्टियां करती हैं, लेकिन हमारे देश में राजनीतिक दलों की जो स्थिति है, उसमें कहा जा सकता है कि उनके हाथ में प्रजातंत्र सुरक्षित नहीं है। इन राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी खामी है कि इनमें आंतरिक प्रजातंत्र नहीं है, तो वे देश में प्रजातंत्र की परिकल्पना को कैसे साकार कर सकते हैं। देश में लोकतंत्र कहने भर को है, लेकिन वास्तव में देश की राजनीति में आम आदमी की भूमिका शून्य है।

आम आदमी इतना असहाय हो गया है कि वह चाहे या न चाहे, सरकारें बन ही जाती हैं और नेतागण अपना पेट भरने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। कानून व्यवस्था की हालत इतनी अधिक खराब है कि इस संबंध में तो चर्चा करना ही समय की बर्बादी माना जाने लगा है, लेकिन इसका खामियाजा हम सभी भुगत रहे हैं।

संविधान का एक और मूल्य है धर्म निरपेक्षता। हाल के दिनों में हमने धर्म निरपेक्षता को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी है। धर्म निरपेक्षता के विरोधी इस मूल्य के को कमजोर करने में लगे, वहीं, संविधान के इस मूल्य का समर्थन करने वाले लोग मौनव्रत धारण किए हुए हैं। सांप्रदायिक दंगे धर्मनिरपेक्षता का नींव हिलाते रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है। देश की अधिसंख्य आबादी अब मानने लगी है कि भारत का प्रशासन अब चरित्रवान व्यक्तियों के हाथ में नहीं है।

राजनीतिक दलों को और समाज के अगुवा लोगों को एक साथ बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि गणतंत्र दिवस मनाया जाना कितना प्रासंगिक रह गया है। जब तक इस देश की राजनीति को इसकी मिट्टी से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है।

संतोष मिश्र से बातचीत पर आधारित

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