Wednesday, April 21, 2010

रिश्ते सुधरते हैं तो खूब हों शादियां : डॉ. फातिमा हसन

पाकिस्तान की जानी-मानी शायरा डॉ. फातिमा हसन पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मुशायरा ‘जश्ने-बहार में शिरकत करने दिल्ली आई हुई थी। इस मौके पर उनसे शायरी और दोनों मुल्कों के रिश्तों पर किये गए कुछ सवाल-जवाब
सवाल : पाकिस्तान एक अरसे लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठीक करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अब तक उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली है?
जवाब : लोकतांत्रित व्यवस्था सुचारु तरीके से काम करे यह प्रत्येक पाकिस्तानी चाहता है। लेकिन एक तबका है जो राज कर रहा है। ये वो लोग हैं जो संभ्रांत परिवारों से आते हैं। जब तक इनसे निजात नहीं मिलेगी तब तक लोकतंत्र सही मायने में नहीं आएगा। व्यवस्था बदलने में हो सकता है एक या दो पीढ़ी बीत जाए। व्यवस्था बदलने के लिए मध्यम वर्ग और निचले तबके के लोगों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है।
सवाल : वहां के नागरिक क्या चाहते हैं?
जवाब : पाकिस्तानी नागरिक अपने मत को लेकर जागरूक नहीं है। वह अपने जागीरदार को वोट देकर चला आता है। उसे अपने वोट का मूल्य नहीं पता।
सवाल : हिन्दुस्तान में किन शायरों को पढ़ती हैं?
जवाब : मैं यहां के तकरीबन सभी नामचीन शायरों को पढ़ती हूं। शहरयार, जावेद अख्तर, शायरा शहनाज नबी मुङो बहुत भाते हैं। जाहिदा जदी, दाराबानो वफा का इंतकाल हो गया। इनकी शायरी भी बहुत अच्छी है।
सवाल : पाकिस्तान में शायरी के क्या हालात हैं? वहां संजीदा शायरी को तरन्नुम में पढ़े जाने पर लोगों की कैसी प्रतिक्रिया है?
जवाब : भारत की कोई शायरा पाकिस्तान में जब तरन्नुम में शायरी सुनाती थी तो एक लहर पाकिस्तान में भी आई थी, लेकिन पाकिस्तानी बड़े शायरों ने उनकी कोई हौसलाअफजाई नहीं की। मैंने भी उन मुशायरों में जाने से इनकार कर दिया। अब वहां दो तरह की शायरी है। एक वह जो छप रही है, दूसरी जो मुशायरों में तरन्नुम में सुनाई जा रही है। वैसे, पाकिस्तान में जो लोग तरन्नुम में पढ़ते हैं, उन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। लेकिन भारत से कुछ दिनों पहले शहनाज नबी और तरन्नुम रियाज पाकिस्तान आईं तो उन्हें काफी सराहना मिली।
सवाल : भारत आना कितना आसान रहा?


जवाब : अभी पिछले छह महीने में दो बार आई हूं। अब आना आसान है। जश्न-ए-बहार में पहली दफा आई हूं।
सवाल : आपको क्या लगता है, एक-दूसरे देशों के बीच आवाजाही कितनी होनी चाहिए?
जवाब : खूब होनी चाहिए। खासकर युवाओं की। जो बुजुर्ग यहां से पाकिस्तान गए। वे बच्चों को बताते हैं कि मेरा भाई या मामू हिंदुस्तान में है। लेकिन हमारे बाद वाले बच्चों को कोई बताने वाला नहीं है। युवा यहां आएंगे तो पाएंगे कि दोनों मुल्कों में सदियों के रिश्ते हैं। तहजीब, रस्म और रिवाज एक जसे हैं, जुबान एक है, संबंधों और समस्याओं पर फिक्र एक जसी है। इसका बढ़ावा देशों के युवाओं के बीच मेल-जोल होने से और बढ़ेगा।
सवाल : अभी हाल ही में शोएब मलिक और सानिया की शादी हुई है। पाकिस्तान में इस शादी को लेकर कैसी चर्चा है?
जवाब : पाकिस्तान में लोग बहुत खुश हैं। लोग नाच रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं। टीवी चैनलों ने इस बारे में इतना दिखाया कि लोगों को शिकायत हो गई कि क्या देश में और कोई समस्या नहीं है। लेकिन एक बात है कि अगर ऐसी शादियों से रिश्ते सुधरते हैं, तो शादियां खूब होनी चाहिए।

कभी ये तैराकों कि बावली थी .....



नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के लोग जहां कभी तैराकी सीखने के लिए आते थे। और जो कभी तपती गर्मी से झुलस रहे राहगीरों के लिए कुछ पल आराम का स्थल हुआ करती थी वह अग्रसेन की बावली आज उपेक्षा का दंश ङोल रही है। 14 वीं शताब्दी में बनी यह बावली अब सूख चुकी है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के हृदय कनॉट प्लेस के समीप हेली रोड के हेली लेन स्थित यह बावली चारो तरफ से मकानों से घिरी है जिससे किसी बाहरी व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि यहां कोई बावली है। बावली की दीवारों से सटे मकान उस कानून की धज्जियां उड़ाते हैं जिसमें यह कहा गया है कि किसी ऐतिहासिक इमारत के दो सौ मीटर के दायरे में निर्माण कराना कानूनी अपराध है।
60 मीटर लम्बी, 15 मीटर चौड़ी और 103 सीढ़ियों वाली यह बावली तैराकी के लिए विशेष
के लिए विशेष रूप से जानी जाती थी। यहां पर विशेष रूप से उस्ताद होते थे जो लोगों को तैरना सिखाते थे। कभी यह गद्दी फैज खानदान के पास हुआ करती थी। जिसने कई तैराकी के कई शागिर्द तैयार किए। इस खानदान के अखलाक अहमद फै ज का कहना है कि इस बावली की आखिरी गद्दी उन्ही के पास थी। यह गद्दी कई पीढ़ियों से उनके खानदान के पास थी लेकिन अब जब बावली सूखी है तो वहां कोई नहीं आता।
बावली की हालत भी बदहाल है। वहां इसके संरक्षण में रखे गए युवक ने बताया कि इसके ऊपर बने मस्जिद का एक सिरा सन 78 मे बिजली गिरने से टूट गया था। इसके कुछ छज्जे भी गिर चुके हैं। यह बावली स्थानीय लोगों की घोर उपेक्षा की शिकार है। यहां पर फेंके गए कूड़े प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। बावली के पीछे का लगभग 57 मीटर बड़ा कू आं भी सूख चुका है। लाल बलुए पत्थर से बनी बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुगलक और लोदी काल की तरफ संकेत कर रहे हैं लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इसलिए इसे अग्रसेन की बावली कहते हैं।
इसक संरक्षण के संबंध में भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) के वरिष्ठ पुरातत्वविद ने बताया कि इसकी स्थिति पहले और भी खराब थी लेकिन एएसआई इसके संरक्षण का कार्य कर रहा है। जल्द ही इसके संरक्षण का कार्य पूरा कर लिया लाएगा।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...