Tuesday, May 10, 2011

कब रुकेगी जमीन की लड़ाई

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के किसान संघर्ष ने इक्कीसवीं सदी में नया रूप धारण कर लिया है। अंग्रेजी जमान के भूमिअधिग्रहण कानून के तहत पिछले 11 सालों में 27 लाख हेक्टेयर जमीन हथिया ली गई है। इतनी ही जमीन अगले तीन सालों में ली जानी है। सवाल यह है कि क्या हम एक लोकतांत्रिक देश में किसानों को विकास का दुश्मन बताकर इसी तरह उन पर लाठी भांजते रहेंगे और उनकी फसलें जलाते रहेंगे? या उनके भविष्य के साथ देश के भविष्य को जोड़ेंगे? किसान देश और दुनिया की बड़ी आबादी हैं उनके बारे में उदारीकरण की फौरी योजनाएं नहीं चलने वालीं। उसे दीर्घकालिक योजना बनानी ही होगी।
प्रस्तुत है इस संदर्भ में अरुण कुमार त्रिपाठी का लेख.

महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जतापुर से लेकर उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा के भट्टा परसौला तक देश के व्यापक इलाके में जमीन की लड़ाई छिड़ी हुई है। हर जगह पुलिस-प्रशासन देश हित में लाठी भांज रहा है और किसानों को विकास विरोधी बताकर खदेड़ने पर लगा है। सवाल उठता है कि क्या सचमुच देश के सत्ताधारी वर्ग के भीतर देशप्रेम उमड़ आया है और इस देश का किसान, ग्रामीण देश्रोही हो गया है? या यह विकास के नजरिए का ऐसा भ्रम और टकराव है जिसका निकट भविष्य में समाधान होता नहीं दिखता?
इस समस्या को गौर से देखिए तो साफ लगता है कि जो जमीन कभी ग्रामीण समाज के लिए जीविकोपार्जन का साधन हुआ करती थी आज वह लाखों करोड़ों का वारा न्यारा करने वाली सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हो गई है। एक तरफ किसान को उस मुर्गी का पेट फाड़ने की सलाह जी जा रही है वहीं बिल्डर, उद्योगपति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उसे पालने की सलाह दी जा रही है। जमीन की इस लड़ाई में किसानों की दो धाराएं चल रही हैं।

एक धारा तो यह चाहती है कि जो जमीन उसके पुरखों की विरासत है और हर स्थिति में उसकी आजीविका चलाती है उसे किसी भी तरह से उसके पास रहने दिया जाए। दूसरी धारा व्यावहारिक तरीके से इस समस्या को देखती है। उसका मानना है कि सोने की मुर्गी उद्योगपति ही पाले लेकिन उसके अंडे उसे भी मिलते रहें। जतापुर और ग्रेटर नोएडा के किसानों की मांगों में यही फर्क है। जहां जतापुर के किसान पूरी तरह से परमाणु परियोजना का विरोध कर रहे हैं और अपनी जमीन देने को नहीं तैयार हैं वहीं भट्टा परसौला के किसान अपनी जमीन का ज्यादा मुआवजा चाहते हैं और लंबे समय तक मुआवजा चाहते हैं। ध्यान देने की बात है कि अनिल अंबानी के विद्युत संयंत्र के लिए अधिग्रहीत की गई दादरी की जमीन का मामला भी जतापुर की ही तरह का था। वे किसान जमीन बिल्कुल नहीं देना चाहते थे। इसीलिए बाद में वे कानूनी लड़ाई भी जीते और उन्हें जमीन वापस मिली।
जमीन न देने की राय सिंगुर और नंदीग्राम के किसानों की भी थी और इसीलिए वहां आंदोलन लंबा चला।
अलग-अलग इलाके के किसानों की आर्थिक सुरक्षा और भावी संभावनाएं अलग-अलग है इसलिए उनकी प्रतिक्रिया भी अलग है, लेकिन एक बात साफ है कि अपनी जमीन और आजीविका बचाने के लिए वे मौजूदा सरकारों और कारपोरेट जगत से एक तरह की जंग लड़ रहे हैं। जहां वे कमजोर पड़ते हैं वहां औने-पौने दामों में दबाव डालकर उनकी जमीन ले ली जाती है और जहां ताकतवर पड़ते हैं वहां भयानक संघर्ष छिड़ता है और खून खराबा होता है। यहां यह बात गौरतलब है कि जमीन अधिग्रहण के ज्यादातर मामलों में सरकारी दमन अनिवार्य है। इस दमन के खिलाफ जो किसानों का नेतृत्व करता है उसे या तो ग्रेटर नोएडा के तेबतिया की तरह अपराधी घोषित कर दिया जाता है या नंदीग्राम के आंदोलनकारियों की तरह से माओवादी। संभव है इस संघर्ष में उतरने के बाद वे हिंसक और माओवादी बन जाते हों क्योंकि अगर वे पहले से अपराधी थे तो बाहर कैसे घूम रहे थे और सरकार ने उन पर पहले क्यों नहीं हाथ डाला था। फिर सवाल यह भी है कि जो अपराधी होगा उसे समाज के लिए लड़ने से क्या फायदा मिलेगा? उसे तो कारपोरेट जगत, सरकार और जमीन माफिया से सहयोग कर धन कमाने में अपना उद्धार दिखेगा?
इतिहास गवाह है कि सत्ता के खिलाफ किसानों और आदिवासियों की तरफ से जो भी लड़ने खड़ा होता है उसे सरकार इन्हीं विशेषणों से विभूषित करती है। कभी उसे डाकू बना देती है तो कभी उसके सिर पर ईनाम घोषित कर देती है। अंग्रेजी सरकारें यही करती रही हैं और हमारे लोकतांत्रिक देश की सरकार भी थोड़ी बहुत सहानुभूति का नाटक करने के साथ लगभग यही व्यवहार कर रही है।
पश्चिम बंगाल की जिस वाममोर्चा सरकार को जनता ने किसानों और मजदूरों की सरकार समझा था उसी ने भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों और मजदूरों पर भयंकर अत्याचार किया। आज अगर मौजूदा चुनाव में उसकी हार होती है तो उसमें सिंगुर और नंदीग्राम कांड का बड़ा योगदान होगा। अगर वह जीतता है तो भी जमीन अधिग्रहण के सवाल पर नए सिरे से विचार करेगा।
दरअसल जमीन अधिग्रहण के सवाल को लोकतांत्रिक देश में न तो स्तालिन की तरह से देखा जाना चाहिए न ही 18 वी सदी के यूरोप की तरह से। इस सवाल को औपनिवेशिक शासन की तरह से भी नहीं देखना चाहिए। उसे एक संवेदनशील लोकतांत्रिक व्यवस्था के चश्मे से देखना चाहिए जिसमें अगर पूंजीपति की संपत्ति का अधिग्रहण न करने का सिद्धांत चलता है तो फिर किसानों को क्यों सताया जाए।
दिक्कत यह है कि हमारी सरकारें आज भी जमीन अधिग्रहण की 1894 की अंग्रेजी जमाने की नीतियों पर चल रही हैं। वह नीति जिसने हमारे किसानों को असामी, रैयत और रियाया बना दिया था और खुद मालकिन बन बैठी थी। आज भी भूमि सुधार के तमाम कानून यही कहते हैं कि सारी जमीन की मूल मालिक सरकार है। संविधान के तीसरे अध्याय के 31 वें अनुच्छेद में दर्ज निजी संपत्ति के मौलिक अधिकार को खत्म किए जाने के बाद भी किसानों के साथ दिक्कतें शुरू हुईं और उसके बाद विस्थापन की समस्या ने जोर पकड़ा।
आज चारों तरफ से जमीन अधिग्रहण की अंग्रेजी जमाने की नीति बदलने की मांग ने जोर पकड़ रखा है। सरकार के पास एनसी सक्सेना समिति का मसौदा रखा भी हुआ है। उस मसौदे में सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा पर कई संगठनों को आपत्ति है। जाहिर सी बात है कारपोरेट या निजी हित को पहले सार्वजनिक हित बताकर जमीन लेने की रणनीति एक धोखाधड़ी है। जो सरकारें अपने को जनता का प्रतिनिधि बताती हैं उन्हें किसी बड़ी कंपनी की तरफ से ऐसा काम करने से परहेज करना चाहिए।
इस समय भूमि अधिग्रहण नीति को ममता बनर्जी की हर झंडी का इंतजार है। ममता बनर्जी की सहमति पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगी। अगर उन्हें पूर्ण बहुमत मिलता है तो वे इस कानून में बंगाल की जनता के मुताबिक संशोधन करवाएंगी। अगर उन्हें अपनी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस की मदद लेनी पड़ी को इस नीति में कांग्रेस की चलेगी। स्थितियां जो भी हों पर जमीन के मौजूदा संघर्ष में एक तरफ तो वह गरीब-भूमिहीन समाज है जिसे या तो कभी जमीन मिली नहीं और उसने जो थोड़ा बहुत कब्जा किया उसे भी अब छीना जा रहा है। दूसरी तरफ वे खेतिहर और मध्य जातियां हैं जिनकी ताकत अभी भी जमीन है। देश में पिछले 11 सालों में 27 लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण बिना किसी विधिवत नीति के कर लिया गया। अगले तीन सालों में इतनी ही जमीन अधिग्रहीत की जानी है। जाहिर है अब संघर्ष कठिन होगा और वह बिना किसी उदार नीति के संभव नहीं हो पाएगा।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...