जब हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं तो यह संतुलित विमर्श
होना चाहिए न कि घृणा के उबाल के साथ। मेरा यह मानना है कि अब संतुलित विमर्श का
समय है; क्योंकि स्त्री के उत्थान में पुरुषों का योगदान भी कम नहीं
है। पहले ऐसा मानकर चला जा रहा था कि स्त्री को जीवन जीने का अधिकार नहीं है।
उन्हें पशुओं की तरह समझा गया। लेकिन इस तरह के सच के पीछे संतुलन का अभाव है।
मानवीय सत्ता बराबर है और मेरा मानना है कि इसमें बराबर की साझेदारी होनी चाहिए।
चाहे वह संबंध, पति-पत्नी का हो, बाप-बेटी का हो या भाई-बहन का।
लेकिन पुरातन समय से जब हम पितृसत्ता की बात करते हैं तो पुरुषों को बलशाली माना
गया है। स्त्री को हमेशा कोमलांगी, भ्रूण धारण करने वाली, बच्चे
पैदा करने वाली, जननी, विरासत को आगे बढ़ाने वाली ही माना गया है। तब ऐसा था कि पुरुष
किसी विशेष स्त्री का पुरुष नहीं होता था। जब संबंधों में समरसता बढ़ी तो वह
स्त्री से ईमानदारी की अपेक्षा करने लगा। स्वयं को स्वामी समझने लगा। पितृसत्ता का
अर्थ हो गया कि काम के बंटवारे में संतुलन का अभाव। धीरे-धीरे ये संबंध समाज में
शोषित-शोषक संबंध को जन्म देता चला गया।
एक ऐसा भी समय आया जब माना गया कि स्त्री को जीने का अधिकार
नहीं है। पितृसत्तात्मक समाज के बदले सोच से मिला स्पेस धर्म भी स्त्री को विशेष
रूप से देखते हैं। धर्म स्त्री के जीवन मूल्यों में उदात्तता चाहते हैं। धर्म जब
आम स्त्री के सामने आता है। प्राय: यही बताता है कि उसे क्या करना है?लेकिन
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इन स्थितियों का विरोध हुआ और यह
विरोध पितृसत्ता की तरफ से ही हुआ। राजा राम मोहन राय, ईश्वर
चंद विद्यासागर स्त्री की हिमायत में आगे आए। उनके प्रयासों से स्त्रियों के प्रति
दृष्टिकोण में अवश्य ही बदलाव आया यद्यपि पितृसत्ता की जड़ें फिर भी गहरी रहीं।
हालांकि मेरा मानना है कि 15 प्रतिशत पितृसत्तात्मक समाज यह मानता है कि स्त्री-पुरुष बराबर
हैं। यह वर्ग अपनी बेटी और बेटा की पढ़ाई पर समान खर्च करता है। स्त्री का महत्त्व
समाज में और जीवन में समझ रहा है। रोजगार में उसकी भागीदारी को बढ़-चढ़ कर सपोर्ट
कर रहा है। यह वर्ग रोजगार के क्षेत्र में चेतना फैलाने के लिए आगे आ रहा है।
परिवर्तन वैचारिक रूप से चल रहा
है। इसी व्यवस्था में अब सबको फायदा मिल रहा है और ऐसे में अवसर मिलने पर रोजगार
में स्त्रियों ने यह साबित कर दिया है कि वह किसी पुरुष से दैहिक शक्ति में भले
कमजोर हैं लेकिन मानसिक क्षमता,मेधा शक्ति,
प्रतिभा शक्ति, निष्ठा
शक्ति में वह पुरुषों के बराबर हैं। पितृसत्तात्मक समाज में ही स्त्री मुक्ति और
उनके आगे बढ़ने का अवसर आया है। रोजगार में स्त्रियों की भागीदारी को देखकर बिना
रोजगार वाली स्त्रियां भी खुश हैं। अब एक साधारण मां भी यह कहती है, ˜मेरी
बेटी अध्यापिका बन जाएगी तो उसकी जिंदगी बदल जाएगी। उसे वह दु:ख नहीं झेलने
पड़ेंगे जो मुझे झेलने पड़े।’
रोजगार के अवसर मिलने पर स्त्री अब
स्वयं को साबित कर रही है। एक संतुलन स्थापित कर रही है। लेकिन विडंबना है कि
कार्यस्थल पर पुरुष को प्राय: स्त्री केवल देह के रूप में नजर आती है। उसे उसकी
उपस्थिति में कम मेधा के बल पर पाई गई उपलब्धि नजर आती है। फिर भी स्त्री अब देह
से ऊपर उठ रही है। वह पुरुषों से बराबरी में कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है। लेकिन
अब भी आधे से ज्यादा देश स्त्री का आकलन उसके काम से नहीं बल्कि उसके रूप यौवन से
करता है। ऐसे में स्त्रियों के सामने बहुत चुनौतियां हैं। स्त्री विमर्श नहीं लिव-इन-रिले
शनशिप मुझे उन स्त्रियों से भी शिकायत है, जो सफलता के लिए मेहनत और मेधा
नहीं बल्कि ‘शार्ट कट’
अपनाती हैं। मुझे ऐसे स्त्री विमर्श पर
क्रोध आता है। जो अपनी सफलता के लिए अपने सहकर्मी या बॉस के समक्ष बिछ जाती हैं।
दरअसल, तब आप खिलौना बन जाती हैं। कुछ स्त्रियां कहती हैं कि हम स्वतंत्र
हैं। उनका कहना है कि हम चाहे जिसके साथ रह सकते हैं। देह हमारी है और हम अपना
संबंध किसी के साथ बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। वह लिव- इन-रिलेशनशिप में विश्वास
करती हैं। मेरा मानना है कि यह स्त्री विमर्श नहीं है। यह बंधन से मुक्त होना नहीं
बल्कि कहीं न कहीं बंधन में रहना है। यह कहीं न कहीं पितृसत्ता के आगे समर्पण है।
ऐसे में संतुलन और विवेक बहुत जरूरी है। आर्थिक सत्ता महिलाओं को उद्दाम यौनिकता
के शिखर पर ले जा रही है। आप किस रूप में छली जा रही हैं, इसे समझने की जरूरत है। यह सोचना होगा कि यदि परस्त्री गमन किसी
स्त्री को पीड़ा दे सकता है तो स्त्री का परपुरुष गमन भी पुरुष के लिए पीड़ादायक
हो सकता है। बहरहाल, इन सबके बावजूद स्त्री अपनी अस्मिता की
चुनती को स्वीकार कर रही है। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं; जहां पहले पुरु षों का वर्चस्व था लेकिन अब उस क्षेत्र में स्त्रियां
भी काबिज हो रही हैं। स्त्री समाज को रच सकती है,
बना सकती है लेकिन
यह परिवर्तन घर से शुरू करना होगा। यह समाज यदि बदल सकता है तो स्त्री ही इसे बदल
सकती है।
चित्रा जी से अभिनव उपाध्याय की बातचीत