Tuesday, December 20, 2011

हमारे तीन नायक

दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद के रूप में जो हरदिल अजीज त्रिमूर्ति थी उसमें देव आनंद के जाने के बाद अब दिलीप ही हमारे बीच हैं। पर इन तीनों ने मिलकर रुपहले पर्दे पर जो जादू बिखेरा उसका असर हमेशा बना रहेगा।

राजकपूर का जब निधन हुआ तब एक अखबार में उन पर कई लेखों के साथ राजू भारतन का एक लेख राज-देव-दिलीप की त्रिमूर्ति पर था। लेख छोटा था, उसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह इन तीनों ने हिंदी फिल्मों का कायाकल्प किया। कहानी, गीत-संगीत, संवाद अदायगी से लेकर पूरा कलेवर, और व्याकरण बदल दिया। उनका कहना था कि आपस में और दूसरे कलाकारों से तुलना में हमेशा मतभेद की गुंजाइश रहती है पर इन तीनों के काम को जोड़कर देखा जाये तो उनका योगदान अतुलनीय हे। ठीक-ठीक शब्द तो याद नहीं पर वह लेख खत्म इन शब्दों से होता था कि सुपर स्टार और महानायक आते-जाते रहेंगे पर यह तिकड़ी हमेशा कायम रहेगी।

इसी दौरान ‘जी मैगजीन ने एक पूरा अंक इन्हीं तीनों पर केंद्रित निकाला। सुनीलदत्त, शम्मीकपूर, शशिकपूर, धर्मेन्द्र, मनोजकुमार से लेकर जितेंद्र तक सबकी राय दिलीप-राज-देव के बारे में ली गयी सभी ने उन्हें अपना आदर्श माना और उनके काम को अविस्मरणीय कहा। नये-नये टीवी चैनलों में से किसी एक पर किसी समारोह के दौरान उपस्थिति फिल्मी हस्तियों से, जिनमें निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, अभिनेता-अभिनेत्री शामिल था पूछा जा रहा था सबसे बड़ा रोमांटिक कौन? उसमें होड़ दिलीप-देव में नजर आयी और ज्यादातर ने देव आनंद को अल्टीमेट कहा यह रेखांकित करते हुए कि गानों में उनका यह तत्व सबसे उभार पर नजर आता है। देव को श्रद्धांजलि देते हुए दिलीप कुमार ने भी कहा कि रोमांटिक सीनों में वह हम तीनों में सबसे बेहतरीन था।
तीनों के बीच उम्र में एक-एक साल का अंतर था, दिलीप फिर देव फिर राज। इनकी पहली फिल्में भी इसी क्रम से आयीं-नदिया के पार (दिलीप), हम एक हैं (देव आनंद) और नील कमल (राज कपूर)। 1994 से यह सिलसिला शुरू हुआ और ताज्जुब यह है कि 1949 आते-आते तीनों जसे आगे तस्वीर बदलने के लिए तैयार हो गए। 1949 में ही राजकपूर-दिलीपकुमार-नरगिस की महबूब खां निर्मित प्रेम त्रिकोणीय फिल्म ‘अंदाज आयी थी। दिलीप तो अभिनय में मंज ही चुके थे पर राजकपूर की एक्टिंग भी लाजवाब थी, खासकर उन दृश्यों में जहां वे दिलीप कुमार का सामना कर रहे होते थे। दिलीप कुमार के अभिनय की बात करें तो बलराज साहनी जसे अभिनेता की बात याद आती है। इसी के आसपास एक और प्रेम त्रिकोण वाली फिल्म आयी थी, ‘हलचल। वामपंथी राजनीति के कारण बलराज जेल में थे और शूटिंग के लिए पुलिस के पहरे में आते थे। अपनी फिल्मी आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि मैं देखता कि शूटिंग के पहले दिलीप और नरगिस मजे से बातें करते रहते और शूटिंग शुरू होते ही दिलीप तो जसे अपने पात्र में प्रवेश कर जाते जबकि कैमरे के सामने मेरा चेहरा मुङो पत्थर सा वजनी लगता। एक दिन मैंने दिलीप से पूछ ही लिया, यार तुम ऐसा कैसे कर लेते हो। दिलीप कुमार ने जो जवाब दिया वह बलराज साहनी को बेहद नागवार गुजरा। उन्होंने कुछ ऐसा कहा था कि भगवान की कृपा है और कुछ दोस्तों्र की मेहरबानी।
1949 ही वह वक्त था जब बाम्बे टॉकीज की, जिसके सर्वेसर्वा उन दिनों अशोक कुमार थे फिल्म ‘जिद्दी में देव आनंद को सफलता का स्वाद मिल चुका था और उन्होंने अपनी कंपनी बना ली थी जिसको चेतन आनंद ने नाम दिया ‘नवकेतन। खुद राजकपूर ने अपनी फिल्में इसी के आसपास शुरू कीं। इसी समय से जसे तीनों अपनी तरह की फिल्मों के लिये जुट गए और इसके लिए बेहतरीन दिमागों को अपने लिये जुटाने लगे। दिलीप तलत मुकेश से होते हुए रफी तक पहुंचे। ‘अंदाज से मजरूह को छोड़ नौशाद शकील से जुड़े और उन्होंेने मिलकर दिलीप की छवि को अपने गीत-संगीत से घनीभूत किया। वहीं राज ने ख्वाजाअहमद अब्बास, शंकर जयकिशन, शैलेंद्र-हसरत और मुकेश-मन्नाडे से अपनी फिल्मों को नई ऊंचाइयां दीं। देव आनंद का मामला कुछ अलग था। उनके यहां प्रतिभाओं का आना-जाना लगा रहा। चेतन, गुरुदत्त, राज खोसला के बाद उन्हें ‘गाइड के रूप में छोटे भाई गोल्डी विजय आनंद मिले। साहिर, मजरूह, शैलेंद्र, हसरत, नीरज सबने देवमार्का बेजोड़ गाने लिखे और धुरी सचिनदेव बर्मन रहे पर दूसरे संगीतकारों के साथ भी उनका साथ निभा। रफी-किशोर-हेमंत उनके प्रिय गायक रहे पर शायद महेंद्र कपूर को छोड़ उन्होंने उस दौर के सभी गायकों को आवाजें लीं।
‘मुगले आजम में शहजादा सलीम के रूप में दिलीप कुमार ने जिस अंदाज से संवाद अदायगी की वह एक ऐतिहासिक मोड़ की तरह थी जहां अकबर यानी पृथ्वीराज कपूर की संवाद अदायगी की पुरानी शैली विदा हो रही थी। ‘बाजी से देव आनंद और ‘आवारा से राजकपूर फिल्म कथाओं की विषय-वस्तु बदलनी शुरू कर दी। फिर इसके बाद पूरी फिल्मी दुनिया ही बदल गयी। प्रेम की तीन धाराएं चल निकलीं। दर्शकों के तीन वर्ग बन गए। और दिलीप-देव-राज की तूती बोलने लगी। अमिताभ से एक बार पूछा गया कि उनके अभिनय में दिलीप की छाया दिखती है तो पलटकर उन्होंने पूछा कि कौन है जिसमें नहीं दिखती, ‘आदमी फिल्म में तो गजब यह हुआ कि ऐन दिलीप कुमार के सामने मनोज कुमार उनकी ही एक्टिंग कर रहे थे। राज कपूर ने जरूर अपने लिए ‘आवाराज् की एक ऐसी छवि गढ़ी जिसे फिर कोई नहीं अपना पाया। पर उस जमाने में कौन बेहतर एक्टर है इस पर मुकाबले में दिलीप और राज कपूर ही रहते थे। इन दोनों से अलग देव आनंद ने अपनी छवि शहरी प्रेमी की बनायी। खास बात यह है कि ‘एंटी हीरो का जो क्रेज इन दिनों है देव उसे ‘बाजी से लगातार करते रहे। अपने दो महान समकालीनों से अलग उन्होंने जो अपनी रूमानी छवि बनायी वह जादू की तरह असरकारी हुई और ‘हीरो शब्द के तिलिस्म के सबसे करीब वही रहे। खास बात यह भी कि देव आनंद की फिल्मों के गाने लोकप्रियता में बेमिसाल रहे और इसमें भी उन्होंने दोनों पीछे छोड़ दिया। शायद किसी एक अभिनेता पर सबसे ज्यादा सुरीले और लोकप्रिय गाने उन्हीं के पास हैं। शम्मी कपूर के गाने भी बेजोड़ रहे हैं। एक बार उन्होंने स्वीकार किया था कि गीतों पर होंठ संचालन के लिए उन्हें देव साब से ही प्रेरणा मिली।
इन तीनों की लोकप्रियता कालातीत रही। जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि इस देश में लोग दो ही लोगों की बात सुनते हैं, मेरी और दिलीप कुमार की। राज कपूर ‘शो मैन कहलाये और उनके मुकाबले में जब बाद में सुभाष घई को ‘शो मैन कहा जाने लगा तो वे खुद इससे शर्माते से रहे। दर्शकों की कई पीढ़ी ही नहीं अभिनेताओं की कई पीढ़ी इनकी दीवानी रही। धर्मेन्द्र आज भी बटुए में दिलीप कुमार की फोटो रखते हैं और दिल में तीनों की। राजेश खन्ना देव आनंद को आदर्श और प्रेरणादायी मानते हैं और ताज्जुब करते हैं कि 1970 में जब उनकी ‘दो रास्ते, ‘बंधन, ‘सच्चा झूठा खूब चली थी तो उनसे ज्यादा धूम ‘जानी मेरा नाम की थी।
आपस में तीनों के रिश्ते दोस्ताना थे। राज और दिलीप ज्यादा घनिष्ठ थे पर देव से दोनों की यारी थी। देव ने एक इंटरव्यू में कहा कि ‘युसूफ जब तक सुहागरात के लिए कमरे में नहीं चला गया, तब तक मैं उसकी शादी में मौजूद रहा, तीनों में स्वस्थ स्पर्धा थी। फिल्में और उनकी अपनी शैली इतनी अलग थी कि उस पर कोई झगड़ा संभव नहीं, पर फिल्मी दुनिया में उनकी अपनी फालोइंग थी। अपने-अपने कैम्प थे। एक दूसरे के काम के प्रति सम्मान था। नेहरू-युग में तीनों अपने-अपने ढंग से उसे फिल्मों में रंग देते रहे और बाहर समाज में उस दौर में इकट्ठे दिखते थे। कृष्ण मेनन और कृपलानी के चुनाव में मेनन के साथ तीनों थे और प्रचार में उनकी फोटो भी छपती थी। पर फिल्मी दुनिया जसी जटिल और मतलबी दुनिया में संबंधों में उतार-चढ़ाव आते ही हैं। इनके साथ भी यही हुआ। देव को बुरा लगा जब जीनत राज के कैम्प में चली गईं और ‘मेरा नाम जोकर जसी महत्वाकांक्षी फिल्म के पिटने का एक कारण राज ने उसी समय आयी ‘जानी मेरा नाम को माना। फिर जब राज ने ‘बॉबी बनायी तो लोगों ने इसे ‘राज का दर्शकों से बदला कहा।
राज कुछ जल्दी चले गए। दिलीप-देव के संबंधों के बारे में कई बातें उड़ती रहीं। किसी भी फिल्मी समारोह में एक होता तो दूसरा नहीं। राज कपूर पर जब डाक टिकट जारी हुआ तब दोनों आए और एक अंग्रेजी अखबार ने इसे नोट करते हुए कैप्शन में लिखा अर्से बाद दोनों साथ दिखायी दिये। कहा तो यह भी गया कि देव को दादा साहब फाल्के सम्मान के लिए कमेटी में दिलीप ने उनका विरोध किया। देव आनंद इस हिसाब से ज्यादा साफ-सुथरे थे कि उन्होंने कोई गलत टिप्पणी नहीं की और अंत तक जब भी मौका आया दिलीप और राज की भूरि-भूरि प्रशंसा की। दिलीप-राज जरूर बाद के वर्षो में उनका नाम लेने से कतराते रहे। देव आनंद के निधन के बाद भी कलकत्ते के एक अखबार की खबर ने संबंधों में कुछ काला होने के संकेत दिये। मृत्यु से चार घंटे पहले देव आनंद ने लंदन से फोन पर अपने सचिव मोहन को कहा कि अगर मैं लौट आया तो मैं खुद जाऊंगा नहीं तो ग्यारह दिसंबर को 89 गुलाब लेकर युसूफ के घर जाना। वह दिलीप का 89 जन्मदिन था। दिलीप देव के दुख में पार्टी नहीं करना चाहते थे पर शायद एक-दूसरे से भिड़ंत कराने वाले महाप्रेमियों के कारण वह पार्टी हुई और देव आनंद का सचिव सायरा बानू और दूसरे स्टाफ को फोन-पर-फोन करता रहा पर किसी ने सुना नहीं। इसी खबर में देव के हवाले से यह भी कहा गया था कि वे अपनी आत्मकथा का विमोचन युसूफ से कराना चाहते थे। सायरा बानू ने उनसे कहा कि वे बताएंगी पर फिर फोन भी नहीं किया। देव इस पर दुखी थे कि सौजन्यता में पलटकर फोन तो करना था। संबंधों में उलटफेर आते रहते हैं पर यह असंदिग्ध है कि मिलकर दर्शकों से जो संबंध इन्होंने बनाए वे अमिट रहने वाले हैं। ‘आवारा गया, ‘बंबई का बाबू भी गया। सौभाग्य से ‘देवदास हमारे बीच है, अपने समय की एक अविरल बहती प्रगाढ़ धारा के रूप में, जिसमें वे दोनों धाराएं भी अंत:सलिला हैं।

मनोहर नायक

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