Sunday, August 2, 2009

बच के कहां जाएंगे

जनाब, बच के कहां जाएंगे। लगभग अपनी हर बात के अंत में बांगड़ू बिदेशिया यही कहते हैं। लोग उनकी अदा के कायल हैं लेकिन इसके पीछे उनकी मीलों लम्बी व्यथा है। किसी सज्जन ने उनसे मंद मुस्कान बिखेरते पूछ दिया कि बिदेशिया जी ये क्या आप बार-बार कहते हैं कि बच के कहां जाएंगे, जनाब धरती इतनी बड़ी है यहां दिक्कत हुई तो कहीं भी सरक जाएंगे। लेकिन आपका बार-बार कहना कि बच के कहां जाएंगे मन में विभिन्न तरह की आशंका पैदा करता है।
सज्जन की ऐसी बात सुनकर बांगडू़ बिदेशिया ने उनकी मंद मुस्कान के आगे अपनी मुस्कान बिखेर दी जो निश्चित रूप से उन पर भारी पड़ रही थी। कह डाला कि, मैं सच कहता हूं,समझिए बचपन में पोलियो, बुखार, खसरा से बचे तो हेपेटाइटिस मार देगी। थोड़े जवान हुए तो पढ़ने चले गए अब पढ़ने में नरम हो तो मास्टर जी रोज कान गरम करेगें और तुर्रम खां हो तो क्लास के दादा लोग नरम कर देगें।
मामला यहीं शांत नहीं होता, तमाम जगह गिर गए तो लड़खड़ाते उठ जाएगें लेकिन प्रेम सागर में भूल कर भी फिसले तो कहां जाएंगे बस सोच लीजिए! मतलब यहां भी गए मियां रहिमन..।
अगर शादीशुदा हो गए तो मुसीबत ही समझो उसके चक्कर में पड़ोसी से पिटते-पिटते बच भी गए तो श्रीमती से बच के कहां जाआगे। अगर चस्का राजनीति का लग गया तो समझिए ये रोज का आना-जाना, उठना-गिरना यही नहीं लड़खाना भी लगा रहेगा और अंत में बस समझ जाइए..
अगर काम करने में अव्वल हैं, बास मेहरबान है तो मजे चल रहे हैं लेकिन मालिक जब कुर्बानी करने को तैयार हो तो कहां जाएगे? ये तो अंदर की बात है, जनाब मुश्किलें यहां भी कम नहीं हैं। सड़क पर चलना हो या आसमान में उड़ना लेकिन बात फिर वहीं आकर टिकती है कि बच कर कहां जाएंगे। डीटीसी में बस में पाकेट बच गई तो ब्लू लाइन में काम तमाम समझिए। उतरने के बाद लाख संभल कर चले लेकिन मौका पाते ही ब्ल्यू लाइन अपना चिर परिचित काम कर देगी। खुदा इससे भी बचा दे तो अब के हालात देखकर मेट्रो की माया से तो बचना मुश्किल है।
ये सारी बातें सुनकर पहले तो सज्जन एकदम सन्न रह गए और अपनी बात पर पछताने जसी मुद्रा लेकर मुंह लटका दिया। ये देखकर बांगडू बिदेशिया ने आगे तर्क देना चाहा कि सज्जन खुद ही बोल पड़े ‘अरे भाई सच कहते हो अगर सबसे बच गए तो मंहगाई से बच के कहां जाओगे।
अभिनव उपाध्याय

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