Wednesday, July 1, 2009

सरोद का सहयात्री


सरोद का सहयात्री

बिंदु चावला

मैहर के उस्ताद अलाउद्दीन खां साहिब स्वयं कहते थे कि उन्हें और उनकी पत्नी मदीना बेगम को जब कई वर्ष तक बेटा नहीं हुआ, तो आखिर एक दिन किसी हिंदू महात्मा के दर्शन और आशीर्वाद में मिली भभूत खा लेने से अली अकबर का जन्म हुआ। यह 1922 की बात है। पिता अलाउद्दीन खां हमेशा यही शुक्र मनाया करते ,और जिस एक दिन अली अकबर के यहां भी बेटा हुआ उसका नाम मोहम्मद आशीष रखा गया। मोहम्मद यानी मुसलमान नाम, आसीस यानी हिंदू।
आशीष से जो आता है वह भगवान का कोई न कोई काम जरूर करने आता है। अली अकबर खां साहब ने सरोद को अपनाकर उसे दुनिया के लिए एक बेहतरीन और शानदार सोलो(एकल)बजाने लायक साज बनाया। यहां तक कि बीसवीं सदी में सरोद की यात्रा ही उनके जीवन की कहानी से जुड़ी हुई है। बचपन में ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ हैज् वाली बात थी। बाबा अब्बा कम गुरु ज्यादा थे। हंसते-खेलते नहीं कि बेटा बिगड़ जाएगा। पीट-पीटकर सिखाया करते। रोजाना अठारह घंटे का रियाज और उसके बाद कुछ दाद भी न देते। बाबा की छड़ी तो मशहूर थी ही पर शिष्यगण यह नहीं जानते होंगे कि जिसे गुरु सबसे ज्यादा पीटे मानो उसे सबसे ज्यादा चाहते हैं। अली अकबर को ही सबसे ज्यादा पीटा जाता।
मेरे पिता पंडित अमरनाथ अक्सर सुनाया करते कि यह सच बात है कि डांट-मार खाते-खाते अली अकबर एक दिन इतने तंग आ गए कि आधी रात सरोद गले में बांध मैहर वाले अपने घर के अपनी ही खिड़की से कूदकर भाग गए। खून बोलता है। एक दिन पिता ने भी तो अपने मां-बाप का घर छोड़ यही किया था, संगीत सीखने के लिए। अली अकबर कोई सत्रह-अठारह साल के होंगे तब। फिर क्या था वे कहीं भी जाते उनका आने वाला भाग्य उनके साथ था। महाराज जोधपुर के यहां उनका नया जीवन शुरू हुआ। जिस तरह से पिता गाना और बजाना सिखाया करते अली अकबर खां साहब ने भी यही सिलसिला शुरू किया। सिखाते-बजाते उन्हें बेशुमार इज्जत मिली। पर उस वक्त रियासतें भी खत्म होने जा रही थीं, मजबूरन उन्हें कोलकाता भागना पड़ा। आते ही अली अकबर कालेज आफ म्यूजिक शुरू किया।
अब्बा से ही उनके मिजाज में एक गहरी बात आ गई थी। वे बोलते बहुत कम थे। यह उनके जीवन का एक बहुत बड़ा योग था। कुछ भी कहना होता उसे वे अपने साज में ही ढालकर कह देते। उनका साज बोलता। और कैसा बोलता। सरोद को हाथ में लेते ही सुनने वाले अश-अश करते उठते। जहां उनके गुरु भाई पंडित रविशंकरजी एक बहुत बड़े गिनतकार माने जाते वहीं खां साहब एक महान लयकार माने जाते। लय के ऐसे-ऐसे झोल बनते उनके बजाने में कि मानो एक सरोदिया नहीं बल्कि किसी कम्पोजन के हाथ में सरोद थमा दिया गया हो। पश्चिम से आए वायलिन वादक यहूदी मेन्युईन ने उनका सरोद सुना। वे दंग रह गए। उन्होंने हिंदुस्तान में ऐसा सरोद कभी नहीं सुना था। वे खां साहब को विदेश ले गए। न्यूयार्क, लंदन। एक दिन ऐसा आया कि उनका संगीत विदेश में इतना सराहा गया कि वे वहीं के हो गए। मरीन काउंटी कैलिफोर्निया में उन्होंने अपना एक और स्कूल अपने ही नाम से खोल लिया और आखिरी वक्त तक वहीं रहे। हजारों शिष्यों को तालीम दी। अच्छे-अच्छे वादक बनाए। दूर-दूर तक साज का नाम रोशन होने लगा। विदेश में बस जाने के बारे में लोग उन्हें बहुत कुछ कहते। वे स्वयं भी हिंदुस्तान के लिए बहुत उदास रहते लेकिन यहां रहने के लिए लौटकर कभी नहीं आए।
देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कांफ्रेंसों में जब भी बजाते कोई भी अशोभ(अप्रचलित)राग खोलने से हिचकिचाते थे। हेम विहाग, मदन मंजरी और उनका अपना प्रिय चंद्र नंदन जो उन्हीं के कहने से मालकौंस, चंद्रकौंस, नंदकौंस और कौंसी कान्हड़े का मिश्रण है। उनके कई शागिर्दो में से मुंबई फिल्मों के जाने-माने संगीतकार जयदेव भी उनके शार्गिद बने। यहीं दिल्ली में उनके बेटे आशीष खां तो थे ही। एक वक्त था जब जयदेवजी अपने लुधियाना का घर छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। पिताजी पंडित अमरनाथ जी भी जब अपना घर छोड़ आए तो रोहतक रोड पर एक छोटे से किराए के मकान में रहने लगे। पांच साल इकट्ठे रहे। घर में एक ही थाली होती और उसी में इकट्ठा भोजन करते। उसी रोहतक रोड के मकान में जयदेवजी के पास उस्ताद अली अकबर खां साहब आया करते। और उसी मकान में कई बार उस्ताद अमीर खां साहब अमरनाथजी के गुरू भी आते। गाने की चर्चा होती और खाना होता। फि ल्मों में संगीत की बहुत चर्चा होती क्योंकि जयदेवजी का यही रुझान था।
फिर सब लोग मुम्बई चले। अमरनाथजी ने राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘गरम कोटज् का संगीत तैयार किया। अली अकबरजी ने दो फिल्में साइन कीं। ‘आंधियांज् और ‘हमसफरज्। इनमें जयदेव उनके सहायक थे। फिर खां साहब ने बंगाली हंग्री स्टोन अर्थात ‘क्षुधित पाषाण का संगीत दिया जिसमें उन्होंने उस्ताद अमीर खां से एक बेहद खूबसूरत और लोकप्रिय गाना गवाया। उसके बाद सत्यजीत राय की ‘देवीज् में संगीत दिया। उनकी आखिरी फिल्म थी इतालवी निदेशक अर्नादो बर्तोलजी की लिटिल बुद्धा।
खां साहब पद्मविभूषण थे, हालांकि उनके गुरु भाई रविशंकरजी ‘भारत रत्नज्। इस पर भी उन्हें काफी कुछ सुनने को मिलता। बहुत उकसाया जाता। पर वे कुछ नहीं बोलते थे। उनके पिता मैहर महाराजा के मुलाजिम लेकिन गुरु भी थे। वे महाराजा से कुछ भी करने को कह सकते थे। लेकिन कहते नहीं थे। इसी घरानेदार अंदाज में अली अकबर खां साहब भी नतमस्तक रहे। उन्होंने कभी फोन उठाकर अपने लिए भारत सरकार से कुछ भी नहीं मांगा।

आज समाज से साभार

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