गुरु-मंत्र
शोभना नारायणन
इस बार अपने गुरु बिरजू महाराज को याद करते हुए सुप्रसिद्ध नृत्यांगना शोभना नारायण कहती हैं कि महाराजजी तो मेरे लिए देवता हैं। वे कहती हैं कि ये उनका स्नेह ही था जो उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। इतना ही नहीं देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। ऐसा गुरु मिलना आज दुर्लभ है। शोभनाजी कहती हैं कि नृत्य की जो भी बारीकियां या तकनीक मुझमें हैं वे सब गुरु बिरजू महाराजजी की देन हैं। वे कहती हैं कि आज भी जब मैं उनको याद करती हूं तो कृतज्ञता से भर उठती हूं।
सीखना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी बचपन से सीखता है। सीखने का मेरा यह क्रम आज भी जारी है। कलाओं में नृत्य एेसी कला है, जो गुरु का सान्निध्य पाकर निखरती है। शिष्य में आत्मविश्वास बढ़ता है। मेरी कथक की पहली गुरु साधना घोष रहीं। कलकत्ते में मैंने उनसे एक साल तक नृत्य की प्रारंभिक तालीम ली। बाद में पिताजी का तबादला मुंबई हो गया। वहां मुङो जयपुर घराने के कुंदन लाल ने छह साल तक नृत्य की बारीकियों से अवगत कराया। नृत्य की तरफ मेरे बढ़ते रुझान और कला की समझ को देखते हुए पिताजी ने कथक के बड़े उस्तादों से शिक्षा दिलाना जरूरी समझा। इसके लिए पिताजी कथक के नृत्य सम्राट बिरजू महाराज के पिता के पास गए। पिताजी ने बिरजू महाराज से मेरे लिए निवेदन किया और वे तैयार हो गए। मैं आज जो कुछ भी हूं, उसका सारा श्रेय बिरजू महाराज को जाता है। मैं उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मेरे जंगपुरा निवास पर नियमित रूप से सुबह-शाम आकर मुङो तालीम दी। किसी-किसी दिन तो सीखने-सीखाने का क्रम पूरे दिन चलता। बिरजू महाराज ने दस सालों में कथक के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों और शरीर की गूढ़ मुद्राओं को मेरे भीतर उतार दिया।
नृत्य कथक की परिपूर्ण शैली है। कथक से ही कथा और कथाकार शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में श्लोक में इसका वर्णन मिलता है। इसका प्रयोग ब्राह्मी लिपि में किया गया है। बनारस में कथक का उल्लेख प्राकृत भाषा में भी मिलता है, जिससे इसकी प्राचीनता का पता चलता है। महाराजजी ने नृत्य की तकनीक को बड़ी खूबसूरती से मुङो सिखाया। उन्होंने शारीरिक संरचना और अंग की खूबसूरती को निखारा। महाराजजी ‘डांस ड्रामाज् भी बहुत ही सलीके से कंपोज करते थे। उनसे काफी चीजें सीखने को मिलीं। उन्होंने ‘अप्रोच टू कोरियोग्राफीज् के साथ मेरे अंदर कथक की आत्मा भर दी। आज मैं अपने को बिल्कुल बदला हुआ पाती हूं। महाराजजी ने जिनको भी सिखाया उसकी अपनी खासियत है, सबकी कला की अपनी खुशबू है। प्रत्येक साधक आखिरी सांस तक कला का साधक और पुजारी है। गुरु की डांट हमारे लिए प्रसाद थी। उनकी बातों से हम आज भी लाभान्वित होते हैं। मुङो याद आ रहा है कि 1968 में सप्रू हाउस में उनका कार्यक्रम हुआ था। कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। यही नहीं बहुत सारे अपने कार्यक्रमों में उन्होंने मंच पर आने से पहले मुङो भेजा। यह मेरे प्रति उनका स्नेह है। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। महाराजजी के साथ 1970 के बाद देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए। पेरिस, लंदन, अमेरिका के कई शहरों में मैं उनके साथ गई। मंच पर नृत्य करने के बाद अंत में सभी लोग तराना के समय एक साथ नृत्य करते थे। इस दौरान मैंने कई शानदार प्रस्तुतियां दीं।
अपने शिष्यों के प्रति महाराजजी का लगाव इतना अधिक होता था कि उनका मेकअप वह स्वयं किया करते थे। मेरा मेकअप महाराजजी ने खुद किया है। 1969 से लेकर 74 तक नृत्य की जितनी भी मेरी तस्वीरें हैं, उनमें मेरा मेकअप महाराजजी ने ही किया है। इस दौरान मैं मिरांडा हाउस की छात्रा थी। नृत्य के प्रति समर्पित होने में मेरी पढ़ाई कभी बाधा नहीं बनी। हालांकि, मैं भौतिकी की छात्रा रही हूं। और इसी विषय में पीएचडी भी की है। बचपन से पढ़ाई में अच्छी रही। सभी परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती रही। पढ़ाई में लगन और मेहनत के चलते मैं 1976 के सिविल सर्विसेज में चुनी गई। मैंने अब तक एेतिहासिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ढेर सारी प्रस्तुतियां दी हैं।
प्रत्येक शागिर्द का यह धर्म होता है कि वह अपने गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाए। गुरु के लिए यह सबसे बड़ी खुशी है कि कथक परंपरा को उनके शिष्य मर्यादा के साथ आगे ले जा रहे हैं। हम जो करते हैं, उसका समाज पर असर पड़ता है। जो कलाकार कला में डूबा है, उसके लिए कला आत्मा है। जो एेसा नहीं करते उनके लिए कला इस्तेमाल करने की चीज या वस्तु होती है। नृत्य जब तक हृदय की अतल गहराइयों से न उपजा हो तब तक वह अपनी संपूर्णता और प्रभाव में साकार नहीं होता। महाराजजी की 70 के दशक में लाल किला, बाम्बे, सप्रू हाउस में दी गई प्रस्तुति आज भी आखों में बसी है। कथक में महाराजजी ने अलग-अलग वाद्ययंत्रों को लेकर जो कंपोजीशन किया है, वह अद्भुत होने के साथ ही बेजोड़ है। मेरे लिए बिरजू महाराजजी देवता हैं।
प्रस्तुति-अभिनव उपाध्याय
Monday, October 26, 2009
Sunday, October 25, 2009
बेगम कुदसिया के बाग का बिगड़ा साज
दिल्ली में कश्मीरी गेट के ठीक उत्तरी छोर पर मुगल काल की एक निशानी नवाब बेगम कुदसिया का बाग इस समय भी मौजूद है, लेकिन उसकी वर्तमान स्थिति को देखकर उसकी प्राचीन स्थिति का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि अब न तो बेगम का महल उस हाल में है न बाग। दिल्ली सरकार ने उसके रख-रखाव की थोड़ी जिम्मेदारी ली है लेकिन बेगम द्वारा बनवाई गई मस्जिद पर अब भी दो इमामों का कब्जा है और मस्जिद में बकायदा रोज नमाज भी अदा की जाती है।
दरअसल यह बाग मुगल काल में बेगम कुदसिया कि आराम करने की पंसदीदा जगह थी।
इतिहासकारों का मानना है कि इसका निर्माण नवाब बेगम कुदसिया ने लगभग 1748 में करवाया था। नवाब बेगम कुदसिया के बारे इंडियन आर्कियोलॉजिकल सर्वे द्वारा जारी किताब उन्हें एक प्रसिद्ध नर्तकी और मुहम्मद शाह (1719-48) की चहेती बेगम बताती है। जबकि प्रसिद्ध इतिहासकार कासिम औरंगाबादी ने ‘अहवाल-उल ख्वाकीन,(एफ 42 बी)ज् और खफी खान ने ‘मुखाब-उल लुबाब,(पेज 689)ज् में कुदसिया फख्र-उन-निशा बेगम को जहान शाह की पत्नी और मुगल शासक मोहम्मद शाह रंगीला की मां बताया है।
इतिहासकारों का मानना है कि 27 मार्च 1712 में जहांदार शाह से लाहौर में युद्ध के दौरान जहान शाह की मृत्यु के बाद नवाब कुदसिया बेगम का प्रभाव उनके बेटे अहमद शाह पर पड़ा वह किसी तरह के निर्णय लेने के पूर्व अपनी मां से परामर्श लेता था।
दिल्ली में यमुना के किनारे कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस बाग में बेगम ने महल, झरना, मस्जिद और गर्मी में हवा के लिए लॉज सहित फूलों और फलों का बागीचा भी लगाया था। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह बाग इरानी चारबाग की पद्धति का बना है।
ऐसा कहा जाता है कि लाल किले में सुल्तान के हरम में रहने वाली महिलाएं यहां आती थीं। यही नहीं संगीतकारों के रियाज के लिए भी यह पसंदीदा जगह थी। गर्मी के दिनों में यह बाग शाम को ठंडक के लिए और जाड़े की दोपहर में यहां लोग गुनगुनी धूप लेने आते थे।
ऐसा कहा जाता है कि इस बगीचे के चारो तरफ दीवार थी लेकिन 1857 में गदर में यहां का कुछ हिस्सा टूट गया।
वर्तमान में एएसआई ने इसके रख-रखाव के लिए काम शुरू किया है लेकिन यहां पर हुए अधिग्रहण के बारे में अभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
उधर अधिग्रहण करने वाले इमाम शकील अहमद का कहना है कि ‘इस मस्जिद पर हमारा हक है क्योंकि इससे पहले मेरे वालिद मुहम्मद असगर 40 साल से इसमें नमाज अदा करा रहे थे और इसकी देख-रेख भी वही करते थे।ज् यही नहीं इस मस्जिद के एक हिस्से पर शकील अहमद के चाचा नसीर ने भी कब्जा जमाया हुआ है। शकील का कहना है कि ‘इस मस्जिद के संबंध में 1974 से केस चल रहा है और हम वाजिब हक के लिए केस लड़ भी रहे हैं। इसमे पहले मदरसा चलता था लेकिन 1999 में वालिद के इंतकाल के बाद अब मस्जिद की देख-रेख और साज-सज्जा मैं ही करता हूं।ज् अपनी खूबसूरती के लिए महशहूर इस बाग में आज भी दीवारों पर बच्चों की लिखावट और सरकारी उपेक्षा से यहां टूटे शिलाखंड देखे जा सकते हैं।
Labels:
बेगम कुदसिया,
मस्जिद,
यमुना
Saturday, October 24, 2009
मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है
कथाकार संजीव गहरे सरोकारों के लेखक हैं। वे भीतर-बाहर एक जसे हैं। कोई बनावटीपन, कोई कृत्रिमता नहीं। करीब डेढ़ सौ कहानियां और उपन्यास लिखने के बाद भी उनका लेखन जारी है। यह उनके लेखन और मानवीय संवेदनाओं को उसकी संपूर्णता में पकड़ने की भूख ही है, जो उनसे बीहड़ यात्राएं कराती रहीं। प्रेमचंद की तरह अपने को गारकर उन्होंने कथा-साहित्य की जो थाती पेश की है, उसका मूल्यांकन होना अभी बाकी है। ग्रामीण और छोटे कस्बे के परिवेश से आने वाले संजीव में महानगरीय सभ्यता का प्रभाव लक्षित नहीं होता। या कहें कि यह उनके अंदर की जीवटता और खुद्दारी है जो परेशानी और बीमारी के बावजूद उन्हें तोड़ नहीं पाती। साहित्य सृजन, प्रकाशन और सम्मान की संभावनाओं वाली दिल्ली भी उन्हें रास नहीं आई। वह गांव जाने की बात करते हैं। जसे दाने की तलाश में अपने घोंसले से दूर आई चिड़िया अपने घोंसले की ओर देखती है, वैसे ही संजीव अपने गांव की ओर देखने लगे हैं। संजीव के लेखन की खासियत है कि वह अपने कथा-सूत्र, विचार और चरित्रों के विस्तार और प्रभाव के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों, आकड़ों और तथ्यों की गहरी जांच-पड़ताल करते हैं। लेखक संवेदनशील होता है, वह समाज के सभी स्तरों पर होनेवाली हलचलों के प्रति सजग रहता है। संजीव अपने लेखन के प्रति खासे ईमानदार और सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध हैं। लेखक समाज के संदर्भो से जितने गहरे अर्थो में जुड़ा होता है, उसकी सृजनशीलता उतनी ही प्रामाणिक और असरदार होती है। गत दो दशक में उदारीकरण, भूमंडलीकरण का प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से दिखता है। बाजारू संस्कृति मानवीय मूल्यों को ठंडा कर उन्हें मिटाने पर तुली है। एक पीढ़ी है जो कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ बड़ी हुई है। उसके अपने सरोकार हैं। राजनीति स्खलित हुई है। तकनीकी विकास और संस्कृतियों के मेल ने नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श पैदा किया है। समाज को उद्वेलित और परिचालित करने करने वाली विचारधाराओं, घटनाओं, स्थितियों पर लेखक, कवि और कथाकार की पैनी नजर रहती है। साहित्यकार अपने समय के संदर्भो, तनाव और दबाव से गुजरता है। एेसे समय में संजीव जसा संवेदनशील कथाकार का क्या सोचना है,यह साहित्य सेवियों और प्रेमियों के जानने का विषय हो सकता है। इन्हीं मुद्दों को समेटते हुए प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार संजीव से बातचीत पर आधारित यह लेख-
गत दशक में किए गए राजनीतिक फैसलों का असर इस दशक में साफ दिख रहा है। उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। ग्लोबल विलेज और ग्लोबल कल्चर के संपर्क में आने पर देश में एक नई संस्कृति उभरी है। सामाजिक क्षेत्र में भी बदलाव असमान्य रूप में हैं। राजनीति अधोपतन की ओर अग्रसर है। तकनीकी क्षेत्र में हुई तरक्की ने सुख और सुविधा के उपकरण देने के साथ ही मानवीय मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। रिश्तों और संबंधों को एक नए तरीके से देखने के लिए विवश किया है।
सामाजिक बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन यह प्रक्रिया अपने यहां सामान्य नहीं है। अपने यहां समाज की कई तहें और परते हैं। समाज का एक तबका उत्तर आधुनिकता में जी रहा है, तो एक वर्ग आज भी 14वीं सदी की रूढ़ और दकियानूस मान्यताओं से जकड़ा है। उदारीकरण का लाभ जो समाज के सभी वर्गो तक पहुंचना चाहिए था, वह अब तक नहीं पहुंचा है। पैसे और सुख भोगने की लपलपाती महात्वाकांक्षा ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। कुछ लोगों के पास अथाह संपदा और पैसा है, जबकि देश में करोड़ों की संख्या में एेसे गरीब लोग हैं, जो सपने देखकर मरने के लिए अभिशप्त हैं। गरीबों को सपना दिखाने का छलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं। जिनके पास पैसा है, वह अपने सपनों को पूरा कर ले रहा है और जिसके पास नहीं है, वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए चोरी, बेइमानी करने के सिवाय और क्या कर सकता है। कंपनियां गरीबों का सपने दिखाकर मार रही हैं। चिंता की बात है कि शहरी जीवन की तमाम बुनियादी जरूरतों को अपना खून-पसीना बहाकर पूरा करने वाले इस बड़े वर्ग की सुध न तो सरकार और न ही सभ्य समाज ले रहा है। उन्हें मात्र उतना ही दिया जा रहा है, जिससे वे अपनी दो जून की रोटी की जुगाड़ कर लें। उन्हें हाशिये पर जिंदा रखने की कोशिश की जाती है ताकि हिपोक्रेटिक समाज के जीवन में किसी तरह का अवरोध उत्पन्न न हो।
इधर, सामाजिक मूल्यों को बिगाड़ने और मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करने का काम बाजारवादी शक्तियों ने बड़ी तेजी से किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत मनुष्य को उसके सरोकारों और मूल्यों से काटने में लगी हैं। अपने फायदे के लिए ये कंपनियां भोगवादी संस्कृति का एेसा जाल बुन रही हैं, जिसमें फंसकर मनुष्य केवल उपभोक्ता बनता जा रहा है। सारे रिश्ते, नेह-छोह को तिलांजलि देकर वह आत्ममुग्धता का शिकार हो गया है। संबंधों के जिस उष्मा से जीवन परिचालित और उसमें ऊर्जा का संचार होता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसी पर कुठाराघात किया है। राजनीति की गर बात करें तो सामाजिक मंच पर राजनीतिक शक्तियां क्षीण हुई हैं। मौजूदा समय की राजनीतिक शक्तियां नक्सलबाड़ी आंदोलन को एक गाली के रूप में देखती और उसे प्रचारित करती हैं। एेसी दृष्टि रखने वाली शक्तियां जनता को लूटने का ही काम करती हैं। और एेसा करने में उनकी मित्र शक्तियां कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न रूप में उन्हें मदद पहुंचाती रही हैं। राजनीति राज करने की नीति है। लेकिन राजनीति में आज दल, बल और छल का बोलबाला है। झूठ बोलकर जनता को बरगलाया जा रहा है। नेताओं में ढोंग और प्रपंच इस कदर हावी है कि उनकी कथनी-करनी में कोई मेल और सामंजस्य नहीं दिखता है।
सन् 90 के शुरुआती दशक के उदारवादी ढांचे के तहत शुरू हुई बाजार की व्यवस्था और तकनीकी उन्नयन ने पहले से स्थापित सामाजिक मान्यताओं को झकझोर दिया है। इसे लेकर नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श भी चलता रहता है। दरअसल, नैतिकता की कोई परिभाषा आज तक बन ही नहीं पाई है। मेरी मानें तो कथनी और करनी में भेद मिट जाए तो यही सबसे बड़ी नैतिकता है। हर समाज की अपनी नैतिकता होती है। दबाव में हर देश और व्यक्ति जीता है। कहीं न कहीं और किसी ओर हम सभी दबाव में जीते हैं। नैतिकता इस दबाव को मुक्त करने में है। समाज में कुछ घटनाएं एेसे सामने आ रही हैं जो क्षणिक आवेग का परिणाम हैं। पुराने निकषों पर नए प्रतिमानों को नहीं कसा जा सकता। होमोसेक्सुअलिटी, गेअटी और लेस्बियन जसे संबंध समाज के सामने हैं। उन्हें वर्षो से चले आ रहे मानदंडों को आधार बनाकर हम नहीं देख सकते। इनके लिए हमें एक नई दृष्टि विकसित करनी होगी। इन आवर्जनाओं से निपटने के लिए समाज को ही कुछ करना होगा। बिना रिश्तों के समाज की कल्पना भी संभव नहीं है। दरअसल, नैतिक और अनैतिक घोषित करने के कोई तय मानदंड नहीं हैं। इसके विरोध में वही लोग खड़े हो रहे हैं, जिनका इससे कोई लेना देना नहीं है।
तकनीकी विकास ने असंभव सी लगने वाली चीजों को संभव बना दिया है। विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क की दशा में सुधार हुआ है। फिर भी इसका लाभ सुदूर गांवों तक नहीं पहुंचा है। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक न्याय और सुरक्षा प्रत्येक नागरिक का बुनियादी अधिकार है। व्यवहार के स्तर पर न जाने कितने कालाहाड़ी सरकारी दावों को मुंह बिराते नजर आते हैं। जरूरत गरीबी की दंश और अपनी अस्मिता के लिए जद्दोजहद कर रहे लोगों को बचाने की है। ये लोग समाज की मुख्यधारा की जरूरतों को पूरा करने के बाद भी नारकीय जीवन जीन के लिए बेबस हैं। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से कानून बनाकर सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य करने का प्रयास सराहनीय है। बहुत सारे प्रांतों की सरकारें शिक्षा के लिए रियायतें दे रही हैं। लेकिन इनमें व्यावहारिक स्तर पर बहुत सारी खामियां हैं। सुधार के लिए उठाए गए ज्यादातर कदम कागजी साबित हुए हैं। इसके अलावा विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, काम के बदले अनाज, नरेगा जसे कार्यक्रमों से उम्मीद बंधती है।
इस दशक में मीडिया काफी शक्तिशाली होकर उभरा है। लेकिन मनोरंजन चैनलों पर रियल्टी शो में दिखाए जाने वाले भौडेंपन को देखकर कुफ्र होता है। ‘सच का सामनाज् करने वाले खेतों, खलिहानों और जंगलों में मर रहे हैं। विडंबना है कि सच के नाम पर झूठ और फरेब का व्यवसाय करने वाले करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। ग्लैमर और पैसे के इस खेल में यथार्थ को झुठलाया जा रहा है। देश की हकीकत के बारे में दिखाने और बताने से मीडिया परहेज करने लगा है। वहां भी ग्लैमर और पैसे की तूती बोलती है। इस दशक में महिलाओं की स्थिति पहले से कहीं ज्यादा बदली है। वे प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती पेश कर रही हैं। उनका जीने, रहने और सोचने का ढंग और दायरा बदला है। लेकिन इतना कुछ बदलने के बाद भी पुरुषों का उनके प्रति नजरिया मध्ययुगीन वाला ही है। थोड़ा सा खुरचने पर मनुष्य का मध्यकालीन वहशीपन सामने आ जाता है। हरियाणा की कल्पना चावला स्त्रियों की उपलब्धता की सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखी जा सकती हैं, लेकिन उसी हरियाणा में महिलाओं पर खाप पंचायतों का फरमान कथित सभ्य मनुष्यता पर कलंक लगा देता है।
देश के सामने चुनौतियां और समस्याएं अनेक हैं, लेकिन समाज के विकास में सबसे बड़ा अवरोध जाति व्यवस्था है। इसे समाप्त करने की जरूरत है। यदि एेसा चलता रहा तो देश एक बार फिर से दासता की जंजीरों में जकड़ जाएगा।
राजनीतिक शक्तियां आत्ममुग्धता की शिकार हैं, उनमें बिखराव है। जनता सीपीआईएमएल और अन्य राजनीतिक पार्टियां जुगनुओं की तरह हैं, उनसे अंधेरा नहीं मिट सकता। सवाल है कि यदि सत्ता पाने के लिए धुर विरोधी पार्टियां एक हो सकती हैं, तो वे जनता के लिए क्यों एक नहीं हो सकतीं। राजनीतिक शक्तियां जनता के हित के बारे में बात तो करती हैं, लेकिन वास्तव में वे अपना हित साधने में ही लगी हैं। वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक अधोपतन के बारे में शहीद भगत सिंह ने पहले ही कह दिया था कि यदि समाज की वर्जनाओं को रोका नहीं गया तो वे अधोपतन की ओर ले जाएंगी। फिर भी इतनी चिंताएं होने के बावजूद मैं निराश नहीं हूं। मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है। बुरा समय आने पर युवा आगे आते हैं और वे देश और समाज को एक नई दिशा देते हैं।
आलोक कुमार से बातचीत पर आधारित
गत दशक में किए गए राजनीतिक फैसलों का असर इस दशक में साफ दिख रहा है। उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। ग्लोबल विलेज और ग्लोबल कल्चर के संपर्क में आने पर देश में एक नई संस्कृति उभरी है। सामाजिक क्षेत्र में भी बदलाव असमान्य रूप में हैं। राजनीति अधोपतन की ओर अग्रसर है। तकनीकी क्षेत्र में हुई तरक्की ने सुख और सुविधा के उपकरण देने के साथ ही मानवीय मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। रिश्तों और संबंधों को एक नए तरीके से देखने के लिए विवश किया है।
सामाजिक बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन यह प्रक्रिया अपने यहां सामान्य नहीं है। अपने यहां समाज की कई तहें और परते हैं। समाज का एक तबका उत्तर आधुनिकता में जी रहा है, तो एक वर्ग आज भी 14वीं सदी की रूढ़ और दकियानूस मान्यताओं से जकड़ा है। उदारीकरण का लाभ जो समाज के सभी वर्गो तक पहुंचना चाहिए था, वह अब तक नहीं पहुंचा है। पैसे और सुख भोगने की लपलपाती महात्वाकांक्षा ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। कुछ लोगों के पास अथाह संपदा और पैसा है, जबकि देश में करोड़ों की संख्या में एेसे गरीब लोग हैं, जो सपने देखकर मरने के लिए अभिशप्त हैं। गरीबों को सपना दिखाने का छलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं। जिनके पास पैसा है, वह अपने सपनों को पूरा कर ले रहा है और जिसके पास नहीं है, वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए चोरी, बेइमानी करने के सिवाय और क्या कर सकता है। कंपनियां गरीबों का सपने दिखाकर मार रही हैं। चिंता की बात है कि शहरी जीवन की तमाम बुनियादी जरूरतों को अपना खून-पसीना बहाकर पूरा करने वाले इस बड़े वर्ग की सुध न तो सरकार और न ही सभ्य समाज ले रहा है। उन्हें मात्र उतना ही दिया जा रहा है, जिससे वे अपनी दो जून की रोटी की जुगाड़ कर लें। उन्हें हाशिये पर जिंदा रखने की कोशिश की जाती है ताकि हिपोक्रेटिक समाज के जीवन में किसी तरह का अवरोध उत्पन्न न हो।
इधर, सामाजिक मूल्यों को बिगाड़ने और मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करने का काम बाजारवादी शक्तियों ने बड़ी तेजी से किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत मनुष्य को उसके सरोकारों और मूल्यों से काटने में लगी हैं। अपने फायदे के लिए ये कंपनियां भोगवादी संस्कृति का एेसा जाल बुन रही हैं, जिसमें फंसकर मनुष्य केवल उपभोक्ता बनता जा रहा है। सारे रिश्ते, नेह-छोह को तिलांजलि देकर वह आत्ममुग्धता का शिकार हो गया है। संबंधों के जिस उष्मा से जीवन परिचालित और उसमें ऊर्जा का संचार होता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसी पर कुठाराघात किया है। राजनीति की गर बात करें तो सामाजिक मंच पर राजनीतिक शक्तियां क्षीण हुई हैं। मौजूदा समय की राजनीतिक शक्तियां नक्सलबाड़ी आंदोलन को एक गाली के रूप में देखती और उसे प्रचारित करती हैं। एेसी दृष्टि रखने वाली शक्तियां जनता को लूटने का ही काम करती हैं। और एेसा करने में उनकी मित्र शक्तियां कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न रूप में उन्हें मदद पहुंचाती रही हैं। राजनीति राज करने की नीति है। लेकिन राजनीति में आज दल, बल और छल का बोलबाला है। झूठ बोलकर जनता को बरगलाया जा रहा है। नेताओं में ढोंग और प्रपंच इस कदर हावी है कि उनकी कथनी-करनी में कोई मेल और सामंजस्य नहीं दिखता है।
सन् 90 के शुरुआती दशक के उदारवादी ढांचे के तहत शुरू हुई बाजार की व्यवस्था और तकनीकी उन्नयन ने पहले से स्थापित सामाजिक मान्यताओं को झकझोर दिया है। इसे लेकर नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श भी चलता रहता है। दरअसल, नैतिकता की कोई परिभाषा आज तक बन ही नहीं पाई है। मेरी मानें तो कथनी और करनी में भेद मिट जाए तो यही सबसे बड़ी नैतिकता है। हर समाज की अपनी नैतिकता होती है। दबाव में हर देश और व्यक्ति जीता है। कहीं न कहीं और किसी ओर हम सभी दबाव में जीते हैं। नैतिकता इस दबाव को मुक्त करने में है। समाज में कुछ घटनाएं एेसे सामने आ रही हैं जो क्षणिक आवेग का परिणाम हैं। पुराने निकषों पर नए प्रतिमानों को नहीं कसा जा सकता। होमोसेक्सुअलिटी, गेअटी और लेस्बियन जसे संबंध समाज के सामने हैं। उन्हें वर्षो से चले आ रहे मानदंडों को आधार बनाकर हम नहीं देख सकते। इनके लिए हमें एक नई दृष्टि विकसित करनी होगी। इन आवर्जनाओं से निपटने के लिए समाज को ही कुछ करना होगा। बिना रिश्तों के समाज की कल्पना भी संभव नहीं है। दरअसल, नैतिक और अनैतिक घोषित करने के कोई तय मानदंड नहीं हैं। इसके विरोध में वही लोग खड़े हो रहे हैं, जिनका इससे कोई लेना देना नहीं है।
तकनीकी विकास ने असंभव सी लगने वाली चीजों को संभव बना दिया है। विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क की दशा में सुधार हुआ है। फिर भी इसका लाभ सुदूर गांवों तक नहीं पहुंचा है। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक न्याय और सुरक्षा प्रत्येक नागरिक का बुनियादी अधिकार है। व्यवहार के स्तर पर न जाने कितने कालाहाड़ी सरकारी दावों को मुंह बिराते नजर आते हैं। जरूरत गरीबी की दंश और अपनी अस्मिता के लिए जद्दोजहद कर रहे लोगों को बचाने की है। ये लोग समाज की मुख्यधारा की जरूरतों को पूरा करने के बाद भी नारकीय जीवन जीन के लिए बेबस हैं। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से कानून बनाकर सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य करने का प्रयास सराहनीय है। बहुत सारे प्रांतों की सरकारें शिक्षा के लिए रियायतें दे रही हैं। लेकिन इनमें व्यावहारिक स्तर पर बहुत सारी खामियां हैं। सुधार के लिए उठाए गए ज्यादातर कदम कागजी साबित हुए हैं। इसके अलावा विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, काम के बदले अनाज, नरेगा जसे कार्यक्रमों से उम्मीद बंधती है।
इस दशक में मीडिया काफी शक्तिशाली होकर उभरा है। लेकिन मनोरंजन चैनलों पर रियल्टी शो में दिखाए जाने वाले भौडेंपन को देखकर कुफ्र होता है। ‘सच का सामनाज् करने वाले खेतों, खलिहानों और जंगलों में मर रहे हैं। विडंबना है कि सच के नाम पर झूठ और फरेब का व्यवसाय करने वाले करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। ग्लैमर और पैसे के इस खेल में यथार्थ को झुठलाया जा रहा है। देश की हकीकत के बारे में दिखाने और बताने से मीडिया परहेज करने लगा है। वहां भी ग्लैमर और पैसे की तूती बोलती है। इस दशक में महिलाओं की स्थिति पहले से कहीं ज्यादा बदली है। वे प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती पेश कर रही हैं। उनका जीने, रहने और सोचने का ढंग और दायरा बदला है। लेकिन इतना कुछ बदलने के बाद भी पुरुषों का उनके प्रति नजरिया मध्ययुगीन वाला ही है। थोड़ा सा खुरचने पर मनुष्य का मध्यकालीन वहशीपन सामने आ जाता है। हरियाणा की कल्पना चावला स्त्रियों की उपलब्धता की सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखी जा सकती हैं, लेकिन उसी हरियाणा में महिलाओं पर खाप पंचायतों का फरमान कथित सभ्य मनुष्यता पर कलंक लगा देता है।
देश के सामने चुनौतियां और समस्याएं अनेक हैं, लेकिन समाज के विकास में सबसे बड़ा अवरोध जाति व्यवस्था है। इसे समाप्त करने की जरूरत है। यदि एेसा चलता रहा तो देश एक बार फिर से दासता की जंजीरों में जकड़ जाएगा।
राजनीतिक शक्तियां आत्ममुग्धता की शिकार हैं, उनमें बिखराव है। जनता सीपीआईएमएल और अन्य राजनीतिक पार्टियां जुगनुओं की तरह हैं, उनसे अंधेरा नहीं मिट सकता। सवाल है कि यदि सत्ता पाने के लिए धुर विरोधी पार्टियां एक हो सकती हैं, तो वे जनता के लिए क्यों एक नहीं हो सकतीं। राजनीतिक शक्तियां जनता के हित के बारे में बात तो करती हैं, लेकिन वास्तव में वे अपना हित साधने में ही लगी हैं। वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक अधोपतन के बारे में शहीद भगत सिंह ने पहले ही कह दिया था कि यदि समाज की वर्जनाओं को रोका नहीं गया तो वे अधोपतन की ओर ले जाएंगी। फिर भी इतनी चिंताएं होने के बावजूद मैं निराश नहीं हूं। मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है। बुरा समय आने पर युवा आगे आते हैं और वे देश और समाज को एक नई दिशा देते हैं।
आलोक कुमार से बातचीत पर आधारित
Sunday, October 18, 2009
उपेक्षा का दंश ङोल रहा बलबन का मकबरा
शासक इतिहास गढ़ता है। लेकिन इतिहास को संरक्षित करने की जिम्मेदारी आने वाली पीढ़ी की होती है। पुरातात्वि दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर दिल्ली ऐतिहासिक इमारतों और मकबरे की उपेक्षा ङोल रहा है। इस कड़ी में महत्वपूर्ण स्थान है मेहरौली का आर्कियोलॉजिकल पार्क जहां ऐतिहासिक महत्व के 40 स्थान हैं लेकिन अधिकर स्थानों पर खंडहर ही दिखाई पड़ते हैं इन्हीं खंडहरों के बीच है गुलाम वंश के शासक गयासुद्दीन बलबन का मकबरा। यहां पर बिखरे टूटे पत्थर और मक बरे में के भीरत की गंदगी इसकी स्थिति खुद-ब-खुद बयां कर देते हैं।
वर्षो से उपेक्षा का दंश ङोल रहे इस पार्क में मरम्मत की पहल इंडियन नेशनल ट्रस्ट फार आर्ट एंड कल्चर (इंटैक) ने शुरु की बाद में इसे आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) ने भी आगे
बढ़ाया लेकिन वर्तमान में भी यह सरकारी उपेक्षा का शिकार बना हुआ है।
ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व से सम्पन्न गयासुद्दीन बलबन का मकबरा भारत में मेहराब और गुम्बद का सबसे पहला उदाहरण माना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार गयासुद्दीन बलबन इल्तुतमिश का तुर्की गुलाम था जो नसिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में वजीर के पद पर आसीन हुआ था। महमूद की मृत्यु होने पर वह गद्दी पर बैठा और अपनी मृत्यु होने तक 24 वष तक शासन करता रहा। इतिहासकारों ने इसका शासनकाल 1266-1287 माना है।
मकबरे का मुख्य द्वार भी अपनेआप में अनूठा है। इसमें प्रवेश करते ही हिन्दू मंदिरों की तरह डिजाइन देखने को मिलती है जबकि पृष्ठ भाग पर मस्जिद के आकार का गेट और संभवत: यह भारत का पहला गेट है जहां मुख्य द्वार का छत गुम्बद का आकार न होकर के पिरामिड के आकार का है।
अनगढ़े पत्थरों से निर्मित इस मकबरे एक भाग पर गयासुद्दीन बलबन की कब्र है। यह माना जाता है कि मकबरे में पूर्व की ओर ध्वस्त आयताकार कक्ष में बलबन के पुत्र मुहम्मद की कब्र थी जो खां शहीद के नाम से मुलतान के आसपास सन् 1285 में मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में मारा गया।
इस ऐतिहासिक मकबरे की उपेक्षा के बारे में पूछने पर एएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि हम इसकी देखरेख के लिए प्रयासरत हैं और पिछले वर्ष इस पर काम भी हुआ है और इस वर्ष भी इसके संरक्षण का काम जल्द ही शुरु हो जाएगा।
Friday, October 16, 2009
दीपावली
कोने-कोने पहुंचे प्रकाश
दूर तिमिर हो, छाए उजास
मन में जागे ज्ञान की प्यास
इस दीपावली यही है आस।
बच्चों का बचपन हो जगमग
मिले-जुले सब हिल-मिल सज-धज
आएं सबको खुशियां रास
इस दीपावली यही है आस।
पक्षियों के लिए मुसीबत की रात बनकर आती दीवाली
दीपों का पर्व दीवाली। हरेक वर्ष यह लोगों के लिए खुशियों की सौगात लेकर आती है। लोग इसे धूमधाम से मनाने के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं। लेकिन जहां एक ओर लोग पटाखे जलाकर आनंद लेते हैं वहीं पूरी रात इसके शोर से पशु-पक्षियों की नींद हराम हो जाती है। नवजात पक्षियों का तो मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और हृदयाघात जसी परेशानी आने से मृत्यु तक भी आ जाती है। इसलिए दीवाली की रात पक्षियों के लिए कयामत की रात बनकर आती है। इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय के वन्य जीव विशेषज्ञ डा. एम. शाह अहमद का कहना है कि साल के दो दिनों का यह त्योहार पक्षियों के लिए नई बात जसी है। क्योंकि बहुत सी पक्षियां इस समय अंडे देती हैं और उनके बच्चे पटाखों की तेज आवाज सहन नहीं कर पाते। उन्हें पता भी नहीं चलता कि आखिर ये धमाके कहां हो रहे हैं। इन धमाकों से पक्षियों के बच्चों की हृदयगति रुक जाती है या वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ तो उस इलाके को छोड़कर दूर चले जाते हैं और फिर नहीं आ पाते। कुछ ऐसा ही हाल कुत्तों की नई प्रजाति के साथ भी होता है। पामेलियन कुत्ते तो पटाखों के इन धमाकों से कांप तक जाते हैं और कोना पकड़कर दुबक कर बैठ जाते हैं। एक अन्य वन्य जीव विशेषज्ञ का कहना है कि अफगानिस्तान में तो युद्ध के बाद पशु-पक्षियों की क्या स्थिति हो जाती है इस पर गहन शोध और अध्ययन हो चुके हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है। दीपावली के बाद कई जगहों पर पक्षियों के शव मिलते हैं लेकिन लोग इसे सामान्य रूप से लेते हैं। इसलिए हमें इस अवसर पर पशु-पक्षियों के साथ सहानुभूति दिखाने की जरूरत है।
Labels:
दीपावली,
पटाखे,
मानसिक संतुलन,
विश्वविद्यालय
Sunday, October 11, 2009
जिसको हम जानते हैं मकबरे से
शासक केवल शासन ही नहीं करता बल्कि अपनी निशानी के रुप में कुछ अविस्मरणीय छोड़कर जाना भी चाहता है। सैय्यद वंश के शासक मुबारक शाह ने मकबरे के रुप में ऐसी निशानी छोड़ी है। सैय्यद वंश द्वारा निर्मित अष्टभुजाकार मकबरे का यह अच्छा उदाहरण माना जाता है।
1421 से 1434 तक शासन करने वाले मुबारक शाह ने सेकी साम्राज्य को न केवल राजपूतों के अतिक्रमण से बचाया बल्कि मुबारकाबाद जसे सुन्दर शहर की परिकल्पना भी की और उसके निरीक्षण के दौरान अपने विश्वास पात्रों द्वारा मारा भी गया।
सैय्यद वंश के शासन में निर्मित यह मकबरा आजकल मुबारक शाह की मजार तक अतिक्रमण से घिरा है। इस बारे में दिल्ली सरकार और एएसआई समेत पुरातात्वि स्मारकों को संरक्षण देने वाले संस्थानों ने कुछ विशेष नहीं किया है। कुछ वर्ष पूर्व मकबरे के सुन्दरीकरण के नाम पर वहां की फर्श पर पत्थर लगाने का काम तो किया गया लेकिन वह भी अधूरा पड़ा है। मकबरे की दीवारों की दरार यहां स्पष्ट रुप से देखी जा सकती हैं। यहां पर जाने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं है। कोटला मुबारकपुर गांव में स्थित इस मकबरे तक जाने के लिए टेढ़े-मेढ़े और तंग रास्तों से जाया जा सकता है। लेकिन इसे ठीक से देखना मुमकिन नहीं है क्योंकि मकबरे के चारो ओर लगभग तीन फीट छोड़कर ऊंचे-ऊंचे मकान बनाए गए हैं। यही नहीं इस मकबरे के चबूतरे का उपयोग गांव के लोग द्वारा त्योहारों के या शादी विवाह के अवसर पर सार्वजनिक उपयोग के लिए किया जाता है।
इस मकबरे से थोड़ी दूर पर एक मस्जिद भी है। लेकिन यह मस्जिद किसी छोर से दिखाई नहीं देती लगभग 100 मीटर अंदर एक मस्जिद भी है जिसका संबंध मुबारक शाह की कत्ल से जुड़ा हुआ है। यहां अतिक्रमण इस हद तक है कि मस्जिद की दीवारों के ऊपर से लोगों ने दीवार खड़ी कर दी है और निर्माण कार्य करवा रखा है।
इस गांव का अपना इतिहास है पहले इसे मुबारकाबाद कहा जाता था।
याहिया बिन अहमद सिरहिन्दी ने तारीख ए मुबारक शाही में लिखा है कि, मुबारकाबाद को मुबारक शाह ने 1434 में बसाया था। इस जगह को खराबाबाद-ए-दुनिया कहा जाता था जिसका मतलब बेकार जगह से है। लेकिन मुबारक शाह ने इसको नए शहर के रू प में बसाया। इस मकबरे के समीप की मस्जिद के निर्माण के निरीक्षण के दौरान जुमा के नमाज के समय ही उसके विश्वसनीय लोगों द्वारा 19 फरवरी 1434 में उसकी हत्या कर दी गई। इस हत्या का षणयंत्रकारी मिरान सदर था।
यह मकबरा कई कारणों से अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। संभवत: यह पहला पठानोत्तर शैली का मकबरा है जो चबूतरे के ऊपर बनाया गया है। यही नहीं इसमें लाल बलुए पत्थरों और रंगीन टाइल्स का इस्तेमाल किया गया है। गांव के एक व्यक्ति ने बताया कि पहले चबूतरा ऊंचा था लेकिन स्थानी लोगों ने इस पर मिट्टी डालकर इसे सड़क के बराबर बना दिया है।
पूर्णत: सरकारी उपेक्षा का शिकार इस मस्जिद और मकबरे के बारे में एएसआई ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। एएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि वहां से अतिक्रमण हटाने की कोशिश हो चुकी है लेकिन फिर से लोगों ने कब्जा जमा रखा है। इस पर जल्द ही उचित कदम उठाया जाएगा।
धार्मिक मान्यता भी है इस मकबरे की-
इस मकबरे की एक धार्मिक मान्यता भी है। मकबरे के अंदर सात कब्र है। स्थानीय लोग एक कब्र मुबारक शाह की मानते हैं शेष उसके परिजनों की। गांव के लोगों का मानना है कि जब भी कोई नया कार्य शुरू होता है तो इस मकबरे में पूजा अर्चना की जाती है। शादी के खास अवसर पर दूल्हा घोड़ी चढ़ने पर पहले मकबरे में मत्था टेकता है और उसके बाद मंदिर में जाता है।
Labels:
इतिहास,
दिल्ली,
मकबरा,
मुबारक शाह,
शासन
Sunday, October 4, 2009
अरे, ये तो रजिया की कब्र!
मुस्लिम और तुर्की इतिहास में पहली महिला शासिका रजिया सुल्तान की मजार सैकड़ों वर्षो से धूप-बारिश ङोलती प्रशासिन उपेक्षा की शिकार बनी अतिक्रमण से घिरी हुई है। तुर्कमान गेट के भीतर और काली मस्जिद के समीप तंग गलियों के बीच इस शासिका की कब्र है। लेकिन वहां तक पहुंचना आसान नहीं है। यहां पर अधिकरत लोगों को पता नहीं है कि यह रजिया सुल्तान की ही कब्र है। ऊंचे मकानों के बीच गंदी और तंग गलियों से होकर वहां जाया जा सकता है लेकिन कोई प्रमाणिक जानकारी देने वाला बोर्ड या एएसआई द्वारा नियुक्त चौकीदार नहीं है जो इस कब्र के बारे में लोगों को बता सके। यही नहीं यहां पर असंवैधानिक रुप से रोज नमाज भी पढ़ी जाती है। चारो ओर से अतिक्रमण से घिरी इस कब्र की देखरेख के लिए कोई नहीं है।
इल्तुतमिश की योग्य और साहसी बेटी रजिया सुल्तान लगभग 1236 में सिंहासन पर बैठी लेकि न अधिक दिनों तक शासन नहीं कर पाई और उनके भाई मैजुद्दीन बेहराम शाह ने सिंहासन पर कब्जा कर लिया। हालांकि इतिहासकार सतीश चन्द्र ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ मेडिवियल इंडिया में लिखा है कि उसके छोटे भाई रक्तुद्दीन ने पिता की मृत्यु के बाद छह महीने तक शासन संभाला एक विद्रोह में 9 नवम्बर 1236 को रक्तुद्दीन तथा उसकी मां शाह तुर्कानी की हत्या कर दी गई। इसके बाद रजिया सुल्तान ने शासन संभाला। लेकिन ऐसा कहा जाता है कि रजिया का अपने सिपहसालार जमात उद-दिन-याकूत जो एक हब्शी था के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा था जो मुस्लिम समुदाय को मंजूर नहीं था। इससे उसके राज्यपालों में असंतोष था अंतत: भटिंडा का राज्यपाल मल्लिक इख्तियार-उद-दिन अल्तुनिया समेत अन्य राज्यपालोंे ने विद्रोह कर दिया इनसे लड़ते हुए याकूत मारा गया और दबाव में आकर रजिया ने अल्तुनिया से शादी कर ली। इसी बीच रजिया के भाई मौजुद्दीन बेहराम शाह ने सत्ता हथिया ली। अपनी सल्तनत की वापसी के लिए रिाया और उसके पति अल्तुनिया ने उसके भाई बेहराम शाह से युद्ध किया जिसमें 14 अक्टूबर 1240 को दोनों मारे गए।
ग्लोरिया स्टिनिम ने अपनी पुस्तक, ‘हर स्टोरी: वुमेन हू चेंज्ड द वर्ल्डज् में उस समय की मुस्लिम व्यवस्था के बारे में लिखा है कि, रजिया को भी अन्य मुस्लिम राजकुमारियों की तरह सेना का नेतृत्व तथा प्रशासन के कार्यो में अभ्यास कराया गया ताकि जरुरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल किया जा सके।
उस समय दिल्ली सल्तनत की शासिका रिाया सुल्तान की वास्तविक कब्र को लेकर मतभेद है। लेकिन अधिकतर विद्वानों ने तुर्क मान गेट के पास ही इसकी वास्तविक स्थिति को बताया है। ऐसा माना जाता है कि इस कब्र की गुम्बद पैंतीस वर्ग फीट रही होगी हांलांकि अब यह अतिक्रमण से ग्रस्त है गुम्बद की कोई निशानी नहीं दिखाई देती है। अब यह मात्र आठ फीट की ऊंचाई से घिरी कब्र है जिसके चारो ओर ऊंची-ऊंची इमारतें हैं। तीन फीट पांच इंच चौड़ी और लगभग आठ फीट लम्बी रजिया सुल्तान की कब्र के पास एक और कब्र है ऐसा माना जाता है कि वह रजिया की बहन शजिया बेगम की है।
इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण जगह की प्रशासनिक उपेक्षा इस तरह से है कि वहां पर फै ली गंदगी के कारण पर्यटक भी वहां जाने से कतराते हैं। इस संबंध में आर्कियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के सुप्रिमटेंडेंट आर्कियोलाजिस्ट का कहना है कि हम इस संबंध में पूरी कोशिश कर रहे हैं। यहां पर हो रही अवैध नमाज और अतिक्रमण से संबंधित मामला अदालत में चल रहा है लेकिन हमें पूरी तरह से और भी सरकारी एजेंसियों की मदद चाहिए तथा स्थानिय निवासियों में भी अपनी संपदा को लेकर जागरुकता होनी चाहिए। हम अपनी तरफ से भी ये सब करने के लिए पूरी तरह प्रयास कर रहे हैं।
Labels:
कब्र,
तुर्कमान गेट,
दिल्ली,
मकबरा,
मजार,
मस्जिद,
रजिया सुल्तान