Sunday, March 27, 2011

लीबियाः आजादी की उड़ान से पहले



अरुण कुमार त्रिपाठी
ट्यूनीशिया से शुरू हुई अरब देशों की लोकतात्रिक क्रांति लीबिया में आकर त्रिशंकु बन गई है। लीबिया की जनता ने कर्नल मुअम्मर गद्दाफी की तानाशाही से आजाद होकर लोकतांत्रिक आकाश में उड़ान भरनी चाही थी, लेकिन उसका इरादा सफल होता इससे पहले उसे युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ मार्क्सवादी मुहावरा बोलते हुए जनता का दमन करने वाले कर्नल गद्दाफी और उनकी प्रशिक्षित सेना है तो दूसरी तरफ वकील, प्रोफेसर, इंजीनियर,पूर्व राजनेता और कुछ सैन्य अधिकारी हैं। इस बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के तहत गद्दाफी की सेना पर बमबारी करने वाली अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी सेनाएं हैं। नेशनल ट्रांजिशन कौंसिल के नेतृत्व में संघर्ष कर रही जनता ने नो फ्लाई जोन के प्रस्ताव की मांग तो की थी लेकिन अब उसके भीतर काम करने वाले साम्राज्यवाद विरोधी समूहों को एक नए शिकंजे में फंसने का अहसास भी हो रहा है। उन्हें चिंता यह है कि यह लड़ाई आखिरकार जनता की आजादी के पक्ष में जाने के बजाय तेल के प्यासे पश्चिमी देशों की तरफ जा सकती है।
हालांकि अभी वे इसे गद्दाफी की सेना की बमबारी में जनता के मारे जाने से बेहतर विकल्प समझ रहे हैं। पर आगे कुंआ और पीछे खाई वाली इस स्थिति में कौन बेहतर होगा यह तो समय ही बताएगा। इस तरह की दुविधा लीबिया की जनता के बीच ही नहीं भारत जैसे दुनिया के उन तमाम देशों के भीतर भी है जो पश्चिमी देशों से बिगाड़ भी नहीं करना चाहते और अरब देशों के बारे में अपनी अलग विदेश नीति भी चाहते हैं। वह दुविधा उस समय भी नजर आई जब सुरक्षा परिषद में नो-फ्लाई जोन के प्रस्ताव पर मतदान हुआ। इस प्रस्ताव पर दक्षिण अफ्रीका सहित ब्राजील, भारत, रूस और चीन ने मतदान नहीं किया। यही वजह है कि गद्दाफी के समर्थकों ने अपने प्रदर्शनों में इन देशों को धन्यवाद भी दिया। दरअसल यह देश वैश्विक शक्तियों के माध्यम से गद्दाफी और विद्रोही जनता के बीच बातचीत चाहते थे। उनकी दलील थी कि नो-फ्लाई जोन का प्रस्ताव लागू करने के बाद होने वाली बमबारी से खून खराबा बढ़ेगा और जनता के विद्रोह का पूरा मकसद खत्म हो जाएगा। नो-फ्लाई जोन के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि शुरू में इराक में इसी तरह का हस्तक्षेप किया गया था। पर जब उसका समाधान नहीं निकला तो इससे भी बेहतर परिणाम निकलने की उम्मीद नहीं बनती। उल्टे अगर गद्दाफी सद्दाम हुसैन की गति को प्राप्त करते हैं तो इससे अलकायदा जैसे कट्टरपंथी संगठनों को मजबूत होने का और मौका मिलेगा।
लेकिन भारत, चीन और रूस जैसे देशों के इस नजरिए को एक तरह के पाखंड की भी संज्ञा दी जा रही है। विशेषकर भारतीय विदेश नीति को अमेरिका की ओर ढकेलने को उत्सुक नीति निर्माता भारत की प्रतिक्रिया को कायराना और ढकोसलापूर्ण बता रहे हैं। दलील यह है कि अगर भारत इस हमले के खिलाफ था तो उसे सुरक्षा परिषद में पेश प्रस्ताव पर मतदान का बायकाट करने के बजाय उसका सीधे विरोध करना था। लेकिन वह न तो अमेरिका का बुरा बनना चाहता है न ही गद्दाफी का। एक तरह से यह निर्गुट आंदोलन की नीतियों का बचा हुआ प्रभाव है जिसके जाल से भारत मुक्त नहीं हो पा रहा है।
नो फ्लाई जोन के बहाने हो रही बहस में इसी तरह के ढकोसले का आरोप रूस और चीन जैसे वीटो अधिकार संपन्न देशों पर भी लगाया जा रहा है।


अगर वे चाहते तो नो फ्लाई जोन के प्रस्ताव को वीटो कर सकते थे। इसी के साथ यह सवाल भी प्रमुख है कि नागरिकों पर तानाशाही सत्ता के दमन को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कब और कितने बल प्रयोग की इजाजत दी जा सकती है ? यह सही है कि लीबिया में जो स्थितयां बन गई थीं उसमें गद्दाफी के नागरिक दमन को रोकने के लिए इसके अलावा कोई चारा नहीं दिख रहा था। इसके बावजूद यह खतरा तो बना ही हुआ है कि पिछले दो दशकों में अरब और इस्लामी देशों में लगातार हस्तक्षेप करने वाला अमेरिका ऐसी ही दलीलों का सहारा लेता रहा है। भविष्य में जब उसे ईरान में हस्तक्षेप करना होगा तब भी वह ऐसा ही करेगा।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानून और नो फ्लाई जोन पर बहसों के बहाने उन स्थितियों को भुलाया नहीं जा सकता जिसका सामना लीबिया की जनता कर रही है। भारत, चीन और रूस सहित दुनिया के तमाम देशों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे आंदोलनकारी जनता के साथ एकजुटता बनाए रखें। लीबिया की जनता पिछले चालीस सालों से तेल और तानाशाही और अमेरिका बनाम अरब राष्ट्रवाद की चाहरदीवारी में कैद रही है। उसे समृद्धि और सुख सुविधा भले मिली हो लेकिन अपनी इच्छा के मुताबिक लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लेने का अवसर नहीं मिला है। इसलिए इस लड़ाई को पश्चिमी देशों की जरूरत बताना उनके साथ अन्याय होगा।
नेशनल ट्रांजिशन कौंसिल को संचालित करने वाले लोग किसी वैचारिक आग्रह से नहीं बंधे हैं और न ही उनका लंबा प्रशासनिक अनुभव है। इस कौंसिल के अध्यक्ष मुस्तफा अब्दुल जलील गद्दाफी सरकार में न्यायमंत्री रहे हैं। इस दौरान और इससे पहले जज रहते हुए वे सुरक्षा बलों के दमन का विरोध और मानवाधिकार का समर्थन करते रहे हैं। इस परिषद में भारत में लीबिया के पूर्व राज्यपाल अली इसावी भी हैं और सुधारवादी नेता मोहम्मद जिबरील भी। उनके अलावा अब्दुल हफीज घोघा जैसे बेंगाजी बार एसोसिशन के आंदोलन से निकले वकील हैं, जो इस आंदोलन के प्रवक्ता हैं।
आरंभ से ही गद्दाफी का दमन झेल रहे नागरिक समाज के ये लोग पश्चिम के विरोधी नहीं पर उससे पहले अपने देश के लिए समर्पित हैं। उन्हें मजबूरी में उनका समर्थन लेना पड़ा है। पूरी दुनिया की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस लड़ाई को जीतने का श्रेय उन्हीं को मिले। उसके लिए जरूरी है कि उड़ने और गिरने के बीच फंसी लीबिया की इस त्रिशंकु जनक्रांति का कोई हल निकले।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...