Thursday, July 14, 2011

किसान के सम्मान में समाधान

अरुण कुमार त्रिपाठी

उदारीकरण के साथ पैदा हुई गांव और खेती की समस्या विश्वव्यापी है। मायावती के राज्य में होने वाला टकराव उसका एक स्थानीय रूप है। वह पूरे देश में किसी न किसी रूप में चल रहा है। मायावती इस वैश्विक पूंजीवाद की समस्या को अपनी स्थानीय राजनीतिक जरूरत और दलितवाद के आधे अधूरे दर्शन से हल करना चाहती हैं। जबकि कांग्रेस अपनी ही सरकार के खिलाफ विपक्ष की भूमिका निभा कर । प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून भी किसानों को ध्यान में रख नहीं उन परियोजनाओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है जो शुरू होने का इंतजार कर रही हैं। इसलिए इस समस्या का हल किसान की तरफ से खोजने पर ही निकलेगा।

पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम से लेकर दिल्ली के आसपास के उत्तर प्रदेश के इलाकों में मची ग्रामीण अशांति का एक ही समाधान है। वह है किसान और खेती का सम्मान। जिस तरह महाभारत में भीष्म ने कहा है कि जंगल बचाना है तो सिंह को बचाओ उसी तरह से कहा जा सकता है कि ग्रामीण इलाकों की अशांति मिटानी है तो किसानों को सम्मान दो। जंगल में तमाम जीव होते हैं लेकिन उनके कें्र में सिंह ही होता है, वैसे ही ग्रामीण जीवन में तमाम तरह के व्यवसायों के बीच खेती एक प्रमुख व्यवसाय है और किसान उसका मुख्य कर्ताधर्ता। उसकी उपेक्षा कर ग्रामीण जीवन में शांति कायम नहीं की जा सकती। यह गलती पूंजीवाद भी करता है और यही गलती मार्क्सवाद भी करता है। इसीलिए दोनों को दिक्कत पेश आती है। वे अपनी पूंजी और विचार के अहंकार में उसके महत्व को भूल जाते हैं और नतीजतन वे अपने ही समाज से लड़ने लगते हैं। यही काम उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपने दलितवाद के अतिरिक्त आत्मविश्वास में कर रही हैं और उनके लिए इसके बुरे परिणाम के संकेत मिलने लगे हैं।

भूमि अधिग्रहण पर यह चर्चा बहुत जोरों से है कि 1894 के कानून के आधार पर अब काम नहीं किया जा सकता। अब हमें नए कानून की जरूरत है। सवाल उठता है कि उस नए प्रस्तावित कानून का उद्देश्य क्या है? उसका दर्शन क्या है? अगर उसका दर्शन और उद्देश्य वही है जो उन्नीसवीं सदी के कानून का था तो उससे उसी तरह का टकराव पैदा होगा जो पहले होता रहा है। यह बात अलग है कि अंगेजों ने भारत का ज्यादा उद्योगीकरण नहीं किया इसलिए उस पर आज की तरह टकराव नहीं हुआ। उनका मकसद अपने फौजी इस्तेमाल और औपनिवेशिक शोषण के लिए जमीन का अधिग्रहण करना था इसलिए उन्हें ज्यादा जमीन की जरूरत नहीं थी। लेकिन विकास की नई महत्वाकांक्षा पर सवार आजाद भारत की सरकारों को ज्यादा से ज्यादा उद्योगीकरण की जरूरत और हमारे संसाधनों को ज्यादा से ज्यादा बाजार में लाना है इसलिए उन्हें ज्यादा जमीनें चाहिए और टकराव भी ज्यादा हो रहे हैं।

लेकिन जमीन अधिग्रहण के लिए बना यह कानून जिस सिद्धांत पर आधारित है वह ब्रिटेन का सत्रहवीं सदी का सिद्धांत है। उस सिद्धांत के अनुसार जमीन पर राज्य का अधिकार प्रमुख होता है। इसे इमिनेंट डोमेन का सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य सार्वजनिक हित में किसी की भी जमीन को ले सकता है और उसका जो चाहे वह उपयोग कर सकता है। बदले में राज्य उसे मुआवजा वगैरह देने का एक फार्मूला तय करेगा। ब्रिटेन में अब यह सिद्धांत देशी नहीं विदेशी मामलों पर लागू होता है। जबकि भारत में यह अभी भी अपने कमजोर और असंगठित नागरिकों पर लागू होता आ रहा है। यही वजह है कि इस पर टकराव बढ़ रहा है। जो लोग इस समस्या का हल मुआवजा बढ़ाने को मान रहे हैं वे भी एक दिन महसूस करेंगे कि वह तात्कालिक हल है। जिन राज्यों में बढ़ा हुआ मुआवजा देकर लोगों को बहला-फुसला कर जमीन ले ली जा रही है, वहां लोगों को विरोध और व्रिोह करने से एक ही बात रोक रही है और वह है किसानों का सम्मान। जिस दिन वहां भी किसानों का सम्मान समाप्त हो जाएगा उस दिन वहां भी अशांति आने से रोकी नहीं जा सकती। इसीलिए भारत के पूर्व अनुसूचित जाति जनजाति आयुक्त डा ब्रह्मदेव शर्मा कहते हैं कि कोई सरकार अपने समाज से नहीं लड़ सकती। वह थोड़े दिन उसे घेर जरूर सकती है लेकिन उससे जीत नहीं सकती। हरियाणा में राज्य सरकार ने अभी भी अपने समाज से जंग नहीं छेड़ी है। इसलिए उसकी मुआवजा नीति की सराहना हो रही है। लेकिन जिस दिन वह किसानों का सम्मान छोड़ कर उनसे लड़ने लगेगी उस दिन उसे भी दिक्कतें पेश आएंगी।
उत्तर प्रदेश में मायावती किसानों को ब्लैकमेल कर रही हैं। दरअसल ब्लैकमेल अन्ना हजारे का आंदोलन नहीं था बल्कि ब्लैकमेल मायावती सरकार की नीतियां हैं। वे कभी दमन करती हैं और कभी मुआवजा राशि बढ़ाती हैं। कभी किसानों को अपराधी घोषित कर उन पर इनाम रखती हैं और कभी उन इलाकों में अपने मंत्री भेज कर उन्हें पटाती हैं। वास्तव में उन्होंने सामाजिक न्याय के सिद्धांत के साथ उदारीकरण के सामाजिक अन्याय और दमन के सिद्धांत का घालमेल बना लिया है। वे जाति के सिद्धांत से अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की समस्या हल करना चाहती हैं। यही उनकी परेशानी की वजह है।
लेकिन यह मामला यूपी तक ही सीमित नहीं है। यह अखिल भारतीय मामला है, बल्कि विश्वव्यापी है। बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीनों का अधिग्रहण और उसके विरोध में स्थानीय निवासियों का संघर्ष पूरी दुनिया में चल रहा है और हमारी सरकार को उससे सबक लेते हुए अपनी नीतियों में बदलाव करना चाहिए। लेकिन नीतियों में बदलाव का मतलब यह कतई नहीं है कि महज कानून की धाराएं बदल दी जाएं और इरादा व दर्शन पहले वाला ही रखा जाए। भारत सरकार ढांचागत योजनाओं के विकास के लिए विदेशी निवेशकों का बेसब्री से इंतजार कर रही है। उसका लक्ष्य 11 वीं पंचवर्षीय योजना में 500 अरब डालर और अगले दस सालों में 1.7 खरब अमेरिकी डालर का निवेश आकर्षित करना है। अभी यह लक्ष्य बहुत कम हासिल हुआ है। भारत की ढांचागत परियोजनाओं में विदेशी निवेशकों की भागीदारी महज 8 से 10 प्रतिशत ही है। जाहिर है हमारी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में जो बदलाव कर रही है वह किसानों के हितों को ध्यान में रखकर नहीं उन्हें जसे तैसे शांत रखने के लिए कर रही है। उसका लक्ष्य उन निवेशकों के लिए रास्ता साफ करना है जो भारत में शुरू हो चुके विकास के एक्सप्रेस वे पर निगाह गड़ाए बैठे हैं। न कि किसानों की समस्या और चिंता को दूर करना है।
यही वजह है कि प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में निजी हित और कंपनियों के हित के आधार पर सरकार को जमीन अधिग्रहण की और व्यापक छूट दी गई है। उस छूट के अनुसार अगर किसी व्यक्ति के पास परियोजना के लिए 70 प्रतिशत जमीन है तो सरकार उसके लिए बाकी 30 प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण कर देगी। स्पष्ट है कि लोगों की राय लिए जाने और उसे ज्यादा महत्व देने और निजी और सार्वजनिक की स्पष्ट व्याख्या किए जाने की जरूरत है। यह साफ किए जाने की जरूरत है कि बहुफसली जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। पिछले 20 सालों में जितनी जमीन का अधिग्रहण हुआ है उस पर श्वेत पत्र भी जारी किया जाना चाहिए। सरकार को बताना चाहिए कि जितनी जमीन का अधिग्रहण हुआ है उसका क्या उपयोग हो रहा है और वह कैसे सार्वजनिक हित में है। उससे भी बड़ी बात है कि महज राहुल गांधी के दबाव में ही नहीं अपने विवेक के लिहाज से भी सरकारों और नीति निर्माताओं और जनमत बनाने वालों को किसानों की तरफ से सोचना चाहिए। किसान को सम्मान देंगे टकराव अपने आप टल जाएगा।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...