Friday, November 16, 2012

उन स्त्रियों से शिकायत है- चित्रा मुद्गल





 जब हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं तो यह संतुलित विमर्श होना चाहिए न कि घृणा के उबाल के साथ। मेरा यह मानना है कि अब संतुलित विमर्श का समय है; क्योंकि स्त्री के उत्थान में पुरुषों का योगदान भी कम नहीं है। पहले ऐसा मानकर चला जा रहा था कि स्त्री को जीवन जीने का अधिकार नहीं है। उन्हें पशुओं की तरह समझा गया। लेकिन इस तरह के सच के पीछे संतुलन का अभाव है। मानवीय सत्ता बराबर है और मेरा मानना है कि इसमें बराबर की साझेदारी होनी चाहिए। चाहे वह संबंध, पति-पत्नी का हो, बाप-बेटी का हो या भाई-बहन का। लेकिन पुरातन समय से जब हम पितृसत्ता की बात करते हैं तो पुरुषों को बलशाली माना गया है। स्त्री को हमेशा कोमलांगी, भ्रूण धारण करने वाली, बच्चे पैदा करने वाली, जननी, विरासत को आगे बढ़ाने वाली ही माना गया है। तब ऐसा था कि पुरुष किसी विशेष स्त्री का पुरुष नहीं होता था। जब संबंधों में समरसता बढ़ी तो वह स्त्री से ईमानदारी की अपेक्षा करने लगा। स्वयं को स्वामी समझने लगा। पितृसत्ता का अर्थ हो गया कि काम के बंटवारे में संतुलन का अभाव। धीरे-धीरे ये संबंध समाज में शोषित-शोषक संबंध को जन्म देता चला गया।
 एक ऐसा भी समय आया जब माना गया कि स्त्री को जीने का अधिकार नहीं है। पितृसत्तात्मक समाज के बदले सोच से मिला स्पेस धर्म भी स्त्री को विशेष रूप से देखते हैं। धर्म स्त्री के जीवन मूल्यों में उदात्तता चाहते हैं। धर्म जब आम स्त्री के सामने आता है। प्राय: यही बताता है कि उसे क्या करना है?लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इन स्थितियों का विरोध हुआ और यह विरोध पितृसत्ता की तरफ से ही हुआ। राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद विद्यासागर स्त्री की हिमायत में आगे आए। उनके प्रयासों से स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण में अवश्य ही बदलाव आया यद्यपि पितृसत्ता की जड़ें फिर भी गहरी रहीं। हालांकि मेरा मानना है कि 15 प्रतिशत पितृसत्तात्मक समाज यह मानता है कि स्त्री-पुरुष बराबर हैं। यह वर्ग अपनी बेटी और बेटा की पढ़ाई पर समान खर्च करता है। स्त्री का महत्त्व समाज में और जीवन में समझ रहा है। रोजगार में उसकी भागीदारी को बढ़-चढ़ कर सपोर्ट कर रहा है। यह वर्ग रोजगार के क्षेत्र में चेतना फैलाने के लिए आगे आ रहा है। 
परिवर्तन वैचारिक रूप से चल रहा है। इसी व्यवस्था में अब सबको फायदा मिल रहा है और ऐसे में अवसर मिलने पर रोजगार में स्त्रियों ने यह साबित कर दिया है कि वह किसी पुरुष से दैहिक शक्ति में भले कमजोर हैं लेकिन मानसिक क्षमता,मेधा शक्ति, प्रतिभा शक्ति, निष्ठा शक्ति में वह पुरुषों के बराबर हैं। पितृसत्तात्मक समाज में ही स्त्री मुक्ति और उनके आगे बढ़ने का अवसर आया है। रोजगार में स्त्रियों की भागीदारी को देखकर बिना रोजगार वाली स्त्रियां भी खुश हैं। अब एक साधारण मां भी यह कहती है, ˜मेरी बेटी अध्यापिका बन जाएगी तो उसकी जिंदगी बदल जाएगी। उसे वह दु:ख नहीं झेलने पड़ेंगे जो मुझे झेलने पड़े।’ रोजगार के अवसर मिलने पर स्त्री अब स्वयं को साबित कर रही है। एक संतुलन स्थापित कर रही है। लेकिन विडंबना है कि कार्यस्थल पर पुरुष को प्राय: स्त्री केवल देह के रूप में नजर आती है। उसे उसकी उपस्थिति में कम मेधा के बल पर पाई गई उपलब्धि नजर आती है। फिर भी स्त्री अब देह से ऊपर उठ रही है। वह पुरुषों से बराबरी में कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है। लेकिन अब भी आधे से ज्यादा देश स्त्री का आकलन उसके काम से नहीं बल्कि उसके रूप यौवन से करता है। ऐसे में स्त्रियों के सामने बहुत चुनौतियां हैं। स्त्री विमर्श नहीं लिव-इन-रिले शनशिप मुझे उन स्त्रियों से भी शिकायत है, जो सफलता के लिए मेहनत और मेधा नहीं बल्कि ‘शार्ट कट’ अपनाती हैं। मुझे ऐसे स्त्री विमर्श पर क्रोध आता है। जो अपनी सफलता के लिए अपने सहकर्मी या बॉस के समक्ष बिछ जाती हैं।
 दरअसल, तब आप खिलौना बन जाती हैं। कुछ स्त्रियां कहती हैं कि हम स्वतंत्र हैं। उनका कहना है कि हम चाहे जिसके साथ रह सकते हैं। देह हमारी है और हम अपना संबंध किसी के साथ बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। वह लिव- इन-रिलेशनशिप में विश्वास करती हैं। मेरा मानना है कि यह स्त्री विमर्श नहीं है। यह बंधन से मुक्त होना नहीं बल्कि कहीं न कहीं बंधन में रहना है। यह कहीं न कहीं पितृसत्ता के आगे समर्पण है। ऐसे में संतुलन और विवेक बहुत जरूरी है। आर्थिक सत्ता महिलाओं को उद्दाम यौनिकता के शिखर पर ले जा रही है। आप किस रूप में छली जा रही हैं, इसे समझने की जरूरत है। यह सोचना होगा कि यदि परस्त्री गमन किसी स्त्री को पीड़ा दे सकता है तो स्त्री का परपुरुष गमन भी पुरुष के लिए पीड़ादायक हो सकता है। बहरहाल, इन सबके बावजूद स्त्री अपनी अस्मिता की चुनती को स्वीकार कर रही है। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं; जहां पहले पुरु षों का वर्चस्व था लेकिन अब उस क्षेत्र में स्त्रियां भी काबिज हो रही हैं। स्त्री समाज को रच सकती है, बना सकती है लेकिन यह परिवर्तन घर से शुरू करना होगा। यह समाज यदि बदल सकता है तो स्त्री ही इसे बदल सकती है।



चित्रा जी से अभिनव उपाध्याय की बातचीत

Saturday, August 11, 2012


भटकाव नहीं है यह

अन्ना आंदोलन को एक राजनीतिक विकल्प देने की राह पर आगे बढ़ने की सलाह देने वालों में सर्वप्रमुख प्रो. योगेंद्र यादव से अभिनव उपाध्याय की बातचीत


आप इस पूरे घटनाक्रम को किस तरह से देखते हैं? 

पिछले डेढ़ साल से चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की दिशा और दशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया है। मैं समझता हूं कि शुरू से ही इस आंदोलन में तीन धाराएं थीं। पहली धारा राजनीति विरोध और राजनीति मात्र से खड़ा करने की धारा थी। दूसरी धारा कांग्रेस विरोध को तरजीह देने की थी, चाहे उससे भाजपा या अन्य विपक्षी दलों को लाभ हो। तीसरी धारा लोकतांत्रिक राजनीति के भीतर लेकिन स्थापित ढांचे से बाहर थी। पिछले साल भर से समय-समय पर यह तीसरी धारा प्रबल हुई है। इस अनशन को खत्म करते वक्त राजनीतिक विकल्प बनाने की घोषणा इस बुनियादी बदलाव का संकेत देती है। घोषणा भले ही जल्दी में की गई, लेकिन यह प्रक्रिया दीर्घकालिक थी।

क्या यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है?

 मैं नहीं समझता कि यह भटकाव है। ऐसा उन लोगों और इस आंदोलन के कार्यकर्ताओं को लग सकता है जो विरोध को एक गैर राजनीतिक काम मानते हैं। मैं मानता हूं कि इस देश में भ्रष्टाचार का विरोध करना अपने आप में राजनीति की शुरु आत करता है। भ्रष्टाचार की जड़ राजनीति में है तो उसका निदान करने की हर कोशिश अंतत: हमें राजनीति की ओर ही ले जाएगी। यूं भी लोकतांत्रिक समाज में किसी भी बुनियादी सार्वजनिक मुद्दे पर आमूल-चूल परिवर्तन की कोशिश लोकतांत्रिक राजनीति से परे रहकर नहीं की जा सकती। चोर दरवाजे से राजनीति करने से बेहतर है कि खुलकर और पूरी जिम्मेदारी से राजनीति की जाए। इस लिहाज से मैं राजनीतिक विकल्प बनाने की इस चेष्टा को आंदोलन का भटकाव नहीं, बल्कि उसकी तार्किक परिणति के रूप में देखता हूं।

कुछ लोग इसकी तुलना जयप्रकाश आंदोलन से कर रहे हैं, क्या आंदोलन उसी तरफ जा रहा है?

 हमें अतिशयोक्तिसे बचना चाहिए। मैंने खुद जयप्रकाश नारायण का आंदोलन नहीं देखा, लेकिन जितना पढ़ा-सुना है, उससे लगता है कि वह आंदोलन ज्यादा व्यापक और गहरा रहा होगा। लेकिन इस आंदोलन का जन-उभार, लोगों की स्वत: स्फूर्त भागीदारी और पूरे सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देने की जिद, उस आंदोलन की याद जरूर दिलाती है।

जिस राजनीतिक विकल्प की बात की जा रही है, क्या वह कोई लोकतांत्रिक बदलाव ला सकता है? 

संभावना है लेकिन गारंटी नहीं। एक ऐतिहासिक अवसर हमारे सामने है। यदि अन्ना आंदोलन देश भर में चल रहे जनांदोलनों से रिश्ता बनाए और अपने विचार और संगठन को एक बड़े उद्देश्य से जोड़ सके तो यह संभावना बनती है। एक वैकल्पिक किस्म की राजनीति स्थापित हो सकेगी। दूसरी ओर यह खतरा है कि केवल चुनावी राजनीति के फेर में पड़कर आंदोलनकारी भी स्थापित राजनीति का हिस्सा बन जाएंगे।

इसकी आगे की नीति क्या होगी?

 यदि यह आंदोलन संपूर्ण क्रांति के उद्देश्य से बंधा है, जैसा कि अरविंद केजरीवाल ने कहा तो उसे अपनी विचारधारा का पुनर्निर्माण करना होगा। इस आंदोलन की शुरु आत भ्रष्टाचार विरोध के एक सूत्र से हुई। शुरू से ही इसमें देशभक्तिका विचार भी जुड़ा हुआ था। हाल ही में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने इसे ‘स्वराज’ के विचार से भी जोड़ा है। अब चुनौती है कि इन तीन सूत्रों को एक समग्र विचार का स्वरूप दिया जाए। नेताओं और अफसरों के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के साथ भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियों और व्यवस्था पर भी एक दृष्टि बनाई जाए। एकांगी और संकीर्ण देशभक्तिकी जगह इस देश के अंतिम नागरिक की निष्ठा जीतने वाले राष्ट्रवाद की कल्पना की जाए। गांधीजी के स्वराज की कल्पना से स्वराज आए। इस वैचारिक चुनौती के अलावा बड़ी सांगठिनक चुनौतियां भी हैं कि ऐसा राजनीतिक संगठन कैसे बने जो स्थापित पार्टी की बीमारियों से मुक्त रह सके। इस देश की क्षेत्रीय और सामाजिक विविधता को आत्मसात कैसे किया जाए? संगठन में मर्यादा बनाने के लिए क्या प्रक्रिया बनाई जाए? आंतरिक लोकतंत्र की व्यवस्था सुदृढ़ कैसे हो? साथ ही देशभर के जनांदोलनों के साथ रिश्ता कैसे बनाया जा सके? यह सब आसान काम नहीं है।

आप भी इससे जुड़े हैं, आपकी इसमें क्या भूमिका है?

 पिछले साल अप्रैल में ही मैंने इस आंदोलन का स्वागत किया था। इसकी कमजोरियों और खतरों को दर्ज करते हुए इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ घटना बताया था। अगस्त के महीने में रामलीला मैदान में मैंने दो-तीन बार संबोधन भी किया और कहा कि यह आंदोलन एक अन्ना हजारे का नहीं देश के हर कस्बे, हर गांव में बैठे किसी न किसी अन्ना का है। उसके बाद लोकपाल बिल पर हुई बहस में मैंने आंदोलनकारियों को सिर्फ एक पार्टी का विरोध करना और भाजपा जैसी पार्टी का समर्थक दिखने के प्रति आगाह किया था। दिसम्बर में भी मैंने रामलीला मैदान से संबोधन किया था। इस बार भी मैंने इस आंदोलन के शुभचिंतक की हैसियत से जंतर मंतर से कई बार बोला। जिन लोगों ने पत्र लिखकर अनशन समाप्त करने और वैकल्पिक राजनीति की शुरु आत का अनुरोध किया था, मैं उनमें से एक था। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों की हर बात से मैं सहमत हूं। मुझे लगता है कि उनके लोकपाल बिल में कमजोरियां थीं और अरु णा राय और साथियों द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर ज्यादा गौर करना चाहिए था। फिर भी यदि आंदोलनकारियों की कमजोरी और सत्ता के भ्रष्टाचार और अहंकार में से मुझे किसी एक को चुनने के लिए कहा जाएगा तो जाहिर है कि मैं

इस आंदोलन का भविष्य किस तरह से देखते हैं? राजनैतिक आंदोलनों के बारे में भविष्यवाणी करना समझदारी नहीं है। आंदोलन के साथियों को बहुत आशाएं हैं, शायद जरूरत से ज्यादा। आलोचकों के मन में आशंकाएं हैं, शायद जरूरत से ज्यादा। भाविष्य इस पर निर्भर करेगा कि यह आंदोलन कितनी गंभीरता और गहराई से चुनौतियों का सामना करेगा जिसका जिक्र हमने पहले किया है।

Thursday, February 16, 2012

अलविदा शहरयार....

मैं अमिताभ का प्रशंसक हूं। वह बड़े कलाकार हैं। उनके हाथ से ज्ञानपीठ सम्मान लेने से मुङो खुशी होगी। जब ज्ञानपीठ सम्मान की घोषणा हुई तो मैने उनसे फोन पर बात की तब शायद वह अलीगढ़ थे। डॉ. अख्लाक मोहम्म खान ‘शहरयार उर्दू के चौथे साहित्यकार हैं, जिन्हें देश में साहित्य सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह पुरस्कार उर्दू साहित्य में उनके योगान के लिए दिया गया। लेकिन आमजन तो शहरयार को उनके लिखे गीत से जानता था। फिल्मों से उनको गहरा लगाव तो नहीं था लेकिन विषय पर वह जरूर ध्यान देते थे उन्होने क भी फिल्मों में गीत लेखन को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि वह अपने लेखन से कभी समझौता नहीं करना चाहते थे। उन्होने एक बातचीत में तल्खी के साथ कहा था कि, अब उस तरह की फिल्में कहां बनती हैं। देखिए मैं कभी मुम्बई काम की तलाश में गया ही नहीं। मुङो कुछ फिल्मों के लिए बुलाया गया तो मैं गया। वो खास फिल्में थी, उसमें कहानी थी, उन फिल्मों का एक खास मकसद था। जाहिर है गाने पसंद किए गए। लेकिन आजकल की फिल्मों में कहानी होती ही नहीं है। एक ही तरह की मोहब्बत है जो हर फिल्म में हो रही है। लब्ज भी समझ में नहीं आते। बस धुनें हैं और लब्ज उनमें लिपटे रहते हैं। लेकिन उन्हे अमिताभ और रेखा की फिल्में पसंद थी। पुरस्कारों की घोषणा के बाद उन्होंने कहा कि वह आज भी अमिताभ की फिल्में देखते हैं। अमिताभ जिस ऊर्जा से काम करते हैं वह काबिले तारीफ है।

शहरयार ने गमन (1978), उमरा जान (1981) और अंजुमन (1986) के गीत लिखा है। उमराव जान के अलावा कोई और फिल्म तो विशेष नहीं चली लेकिन फिल्मों में लिखे इनके गाने आज तक उसी ललक से सुने जाते हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान साहित्य अकादेमी में साहित्य परिचर्चा के लिए आए थे मैं बस तफरी के मूड में साहित्य अकादेमी जाता था लेकिन टकरा गए, सो वहीं कमरे में बैठ के कुछ देर बातें कर ली और उन्होने मुङो खुशी खुशी समय भी दिया। मेरा सवाल भाषाओं की चिंता पर था मैने पूछा था कि, उर्दू को बढ़ाा देने के लिए सरकारी प्रयास जारी है? लेकिन क्या लगता है आपको उर्दू कितनी तरक्की कर रही है? और उन्होने बेबाकी से कहा, बहुत तरक्की कर रही है। उर्दू से मोहब्बत करनेोले और पढ़ने-लिखनेोले ऐसा कर कर रहे हैं। उर्दू को ो तमाम सुधिा हासिल है जो किसी भी जुबान को होनी चाहिए। सिलि सर्सि में यह एक षिय भी है। कुछ प्रदेशों की बोली में भी यह शामिल है। अकादमी भी है। दिल्ली और बिहार में द्वितीय भाषा है कश्मीर में पहली भाषा है। मौलाना आजाद उर्दू युनिसिर्टी है। दूरदर्शन का चैनल भी है। सरकार तो पैसा ही दे सकती है यह हिन्दी के साथ भी हो रहा है। हिन्दुस्तान में प्रॉसपेरिटी का मतलब यह हो गया है कि हम अपने कल्चर से दूर हो जाएं। अब मैनेजमेंट और बिजनेस की जो संस्कृति आ गई है उसमें हम अपनी भाषा को न जानने में फक्र महसूस करते हैं। उर्दू, हिन्दी अब मातृभाषा नहीं बल्कि मुंहबोली मां हो गई है। मामला यह है कि जब हम मकान से फ्लैट में आते हैें तो बदल जाते हैं। क्षेत्नीय जुबान में सब अपनी भाषा जानते हैं लेकिन हिन्दी उर्दू में ऐसा है जो जानते हैं वो भी शर्मिदगी महसूस करते हैं। अब सवाल हिन्दी को लेकर था कि, हिन्दी उर्दू में बहुत लिखा जा रहा है लेकिन पाठक कितने हैं? उन्होने कहा जितने पाठक पहले थे उतने पाठक अब भी हैं। पाठक कम हो रहे है, ये सब बहुत से धोखे हैं। न्यूज चैनल के आने के बाद कहा जाता था कि अखबार खत्म हो जाएगे लेकिन यह और बढ़ा। किसी ने किसी को रिप्लेस नहीं किया ह। धोखा हो रहा है कि ऐसा हो जाएगा। जिसका महत् है ह अब भी अपनी जगह कायम है। किताबें छप रही हैं, बिक रही हैं इसमें कोई मायूसी की बात नहीं है।
आपने भारत से बाहर के देशों में भी यात्नाएं की हैं हां के साहित्य को किस तरह से देखते है?
उन्होन बताया मानीय समस्या सबके यहां एक जैसी है। उनकी परंपरा, उनकी प्राथमिकता, उनकी संस्कृति अलग है और यह हमारे यहां से भिन्न है। तो उसका प्रभा है उन पर।
मैने पूछा ऐसे शायरों के बारे में क्या कहेंगे जो मंचो पर भी दिख रहे हैं और फिल्मों में भी लिख रहे हैं, मसलन गुलजार और जोद अख्तर? उन्होने बताया ये फिल्मों में पहले आए, मंच से इनका कोई लेना देना नहीं था। फिल्मों की जह से मंच पर बुलाए जाते हैं। शायर की हैसियत से उन्होने अपने को कभी परिचित नहीं कराया। दोनों की शायरी पर किताबें हैं लेकिन यह लेखक फिल्मों और किताबों में अलग अलग है। अंत में मैने देश के हालात के बारे में पूछा कि देश के तर्मान हालात के बारे में आप क्या कहना चाहेगें? और उन्होने उतनी ही संजीदगी से उत्तर दिया,हमें अपनी जुबान, अपने मजहब, हिन्दुस्तान से मोहब्बत करने का पूरा हक है। लेकिन इस मोहब्बत से हिन्दुस्तान में झगड़ा नहीं पैदा होना चाहिए। हिन्दुस्तान साथ में रहना चाहिए। जिससे हिन्दुस्तान में टकरा हो ऐसी मोहब्बत से बचना चाहिए। मैं कहना चाहूंगा कि, यही एक हम है, जो औरों को जीने की हसरत है। कहीं पर है कोई ऐसा, जिसे मेरी जरूरत है।
बातचीत खत्म हुई और एक आत्मीय मुस्कान से साथ हमने विदा ली। जब शहरयार के इंतकाल की खबर सुनी तो वही सब बातें एक बार फिर आंखों के सामने आने लगी और मुंह से अनायास निकला अलविदा।

Tuesday, January 31, 2012

मतदान की आंधी में मुद्दे

अरुण कुमार त्रिपाठी

सोमवार को पंजाब और उत्तराखंड और उससे पहले मणिपुर में जिस तरह मतदान की आंधी चली है उसे देखकर यही लगता है कि इस देश की जनता की दीवानी है और उस दीवानगी को बढ़ाने में राजनीतिक दलों के साथ भगवान भी लगे हुए हैं। अगर एेसा न होता तो बुरे मौसम के कारण चुनाव प्रचार को बाधित करने वाले उत्तराखंड में चुनाव के दिन धूप न खिली होती। पर इन चुनावों में हमेशा की भांति जिस तरह राजनीतिक दल मूल मुद्दों के भटकते रहे हैं उससे लगता है कि वे जनता की इसी दीवानगी का फायदा उठाते रहते हैं। इससे यह भी लगता है कि जनता मतदान को ही लोकतंत्र समझ कर उसके नशे में झूम रही है और राजनीतिक दल और उसे चलाने वाला कारपोरेट तंत्र उसे छलते हुए धन और सत्ता के मजे लूट रहा है। या फिर इसका मतलब यह भी हो सकता है कि जो जनता कुछ महीने पहले बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के साथ देश की मौजूदा राजनीति के प्रति अरुचि दिखाते हुए उसे बदलने को आतुर थी वह उसी को मजबूत करने को आतुर है। वही मणिपुर जहां पिछले दो महीनों तक नाकेबंदी चली और पूरे राज्य में हाहाकार मच गया था और वही राज्य जहां सश बल विशेष अधिकार अधिनियम को समाप्त करने के लिए इतना लंबा आंदोलन चल रहा है, वहां इसी लोकतंत्र में आस्था जताते हुए 82 प्रतिशत मतदान हुआ। इसी तरह वह पंजाब जहां कांग्रेस और अकाली दल दोनों पार्टियों पर भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार के अपने-अपने ढंग के आरोप चल रहे थे, वहां की जनता ने 77 प्रतिशत मतदान किया। दिलचस्प बात यह है कि पंजाब के उस मालवा इलाके में जहां किसानों और मजदूरों ने सबसे ज्यादा आत्महत्याएं की हैं भारी मतदान हुए। संगरूर जिले में 80 प्रतिशत मतदान और मुक्तसर में 84 प्रतिशत मतदान तक मतदान हुआ है। उससे भी रोचक तथ्य यह है कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र लांबी में 86 प्रतिशत और मनप्रीत सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र गिद्दरवाह में 88 प्रतिशत तक मतदान हुआ है। उसके विपरीत जीत और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के क्षेत्र पटियाला शहर में ‘महज 73 प्रतिशत मतदान हुआ है। उधर उत्तराखंड में हुआ 70 प्रतिशत मतदान एक दशक का सबसे ज्यादा मतदान है।


इन मतदानों के बाद राजनीतिक दल इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। सत्तारूढ़ पार्टियों का दावा है कि यह तो उसे फिर से सत्ता में लौटाने के लिए हुआ मतदान है और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कहा भी है कि उन्हें 80 सीटें मिलेंगी। दूसरी तरफ विपक्षी दलों का कहना है कि यह सत्ता विरोधी मतदान की आंधी है। जनता शासक दलों के नाकारापन और भ्रष्टाचार से ऊबी हुई है। इसलिए यह वोट उन्हें सत्ता से हटाने के लिए पड़े हैं। लेकिन उत्तराखंड और पंजाब दोनों में शासक और विपक्षी दलों के बीच बराबरी का टक्कर बताने वाले भी कम विश्लेषक नहीं हैं। जाहिर है परिणाम तो छह मार्च को ही सामने आएंगे लेकिन एक जो सबसे बड़ा परिणाम आया है वह लोकतंत्र के प्रति आस्था और रुचि का। इस देश में जब-जब लोकतंत्र से ऊबने और उसके नाकाम होने का हल्ला मचता है, तब-तब जनता उसमें डूब कर आस्था व्यक्त करती है। इसलिए यह दावा करने वाले भी खूब हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन फुस्स हो गया। एक तरफ भारतीय संसद ने भ्रष्टाचार विरोधी कानून को खारिज कर दिया तो दूसरी तरफ जनता ने भी उन्हीं पार्टियों के तंत्र में ज्यादा रुचि दिखाई जिन्होंने उसे पास नहीं होने दिया। अन्ना आंदोलन जिस प्रकार कांग्रेस पार्टी को निशाना बना रहा था (हालांकि निशाना बनाने लायक आचरण भाजपा सहित अन्य क्षेत्रीय दलों का भी पर्याप्त था) उसके होते हुए अगर चार राज्यों में कांग्रेस सत्ता में आ गई और उत्तर प्रदेश में उसकी सीटें बढ़ गईं तो अन्ना आंदोलन का क्या अर्थ रह जाएगा? या रामदेव का ही क्या मतलब होगा?
मामला भ्रष्टाचार का ही नहीं लोगों के अस्तित्व और जीवन का भी है। समस्याएं उत्तर प्रदेश जसे पिछड़े राज्य की ही नहीं हैं, समस्याएं पंजाब जसे अगड़े राज्य की भी गंभीर हैं। पंजाब की अर्थव्यवस्था ठहरी हुई है। बेरोजगारी बढ़ी है। आज वहां कोई निवेशक आने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ नशे की गिरफ्त में फंसे युवाओं की पीड़ा अलग है। इसके उदाहरण के तौर पर पंजाब के चार गांव बलरां, जज्जर, हरकिशनपुर, मलसिंह वाला हैं। पंजाब के इन गांवों ने अगर हरित क्रांति का सुख भोगा है तो अब वे उसके अभिशाप को ङोलने को विवश हैं। संगरूर जिले के बलरां गांव में 85 आत्महत्याएं हो चुकी हैं। उसी तरह हरकिशनपुर एेसा गांव है जहां कभी लोगों ने बोर्ड लगा दिया था कि यह गांव बिकाऊ है। जज्जर और मल¨सहवाला गांव रासायनिक खादों और कीटनाशकों का जहर ङोल रहे हैं। वहां कई लोगों का मौतें हो चुकी हैं और दर्जनों अपाहिज हो चुके हैं। लोग कैंसर से पीड़ित हैं। विडंबना देखिए कि राजनीतिक दल खेती के तरीके में बुिनयादी परिवर्तन करने के बजाय महज मुफ्त बिजली देने और कुछ दूसरे किस्म की राहत देने का वादा करके चल देते हैं। वे उस प्रणाली का विकल्प ढूंढने की बात बिल्कुल नहीं करते जिसके चलते यह स्थितियां आई हैं।
एेसी ही चिंताजनक स्थितियां उत्तराखंड में हैं। वहां उत्तराखंड क्रांतिदल जसी जिन पार्टियों ने अलग राज्य के लिए आंदोलन किया उनका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। वे या तो राष्ट्रीय दलों में विलीन हो चुकी हैं या फिर मुरझा गई हैं। पर्वतीय राज्य जिस मकसद के लिए बना था वह तो भुला दिया गया और फिर उन्हीं मैदानी इलाकों और तराई में विकास हो रहा है जिनके नाते पहाड़ उजड़ रहे थे। देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल के तराई वाले इलाके की आबादी 20 प्रतिशत के करीब बढ़ी है वहीं अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जसे जिलों की आबादी घट रही है।
दिलचस्प बात यह है कि सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों और दृष्टिपत्रों में विकास का दावा किया है लेकिन उसके लिए वे कौन सा नजरिया अपनाएंगे यह साफ नहीं है। उत्तर प्रदेश के विखंडन को मुख्यमंत्री मायावती ने एक चुनावी मुद्दा बनाकर उछाला था। वह मुद्दा इस चुनाव की आंधी में बह गया है। किसी अन्य दल को तो छोड़िए बसपा भी उन पर चर्चा नहीं कर रही है। उसके कार्यकर्ताओं को यह डर सता रहा है कि कहीं प्रदेश बंट जाने से बहनजी की हैसियत कम न हो जाए। उधर भट्टा परसौल और टप्पल के किसानों का कहना है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उनके मुद्दों को उठाकर वाहवाही तो खूब लूटी लेकिन उनके लिए कुछ किया नहीं। बल्कि उन्होंने उनका इस्तेमाल किया।
सवाल उठता है कि क्या भारी मतदान की आंधी में जनता के मुद्दे उड़ गए? या वे छह मार्च को किसी नए रूप में प्रकट होने का इंतजार कर रहे हैं? या हमारा लोकतंत्र मुद्दों को हल करने के बजाय चलती का नाम गाड़ी बन कर गया है और उसमें समाधान के लिए उसके समांतर सतत प्रयास जरूरी है?

Sunday, January 29, 2012

कागजों में सिमटा है गणतंत्र

सुनील गंगोपाध्याय

जिस संविधान को अंगीकार किए जाने की खुशी में हम भारत के नागरिक गणतंत्र दिवस मनाते हैं आज उसी के मूल्यों को ताक पर रख दिया गया है। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व यानी समाजवाद के जिन मूल्यों को स्थापित करने और जिनकी रक्षा करने का संकल्प इस गणतंत्र में किया गया है, वे सभी तार-तार हो रहे हैं। लेखकीय स्वतंत्रता को कुचले जाने का नमूना जयपुर साहित्य सम्मेलन में दिखाई दिया, तो देश की बड़ी आबादी की बदहाली हमारे समता संबंधी दावों की रोज कलई खोलती है। दंगे और वैमनस्यता हमारी धर्मनिरपेक्षता औ्र बंधुत्व को खंडित करते हैं। एेसे में लोकतंत्र एक दस्तावेज से बाहर निकाल कर साकार करने की जरूरत है।

भारत में गणतंत्र लागू किए हुए भले ही 62 साल बीत गए हैं, लेकिन मुङो लगता है कि यह व्यवस्था सिर्फ कागजों तक ही सीमित होकर रह गई है। कम से कम हमारे आसपास जो कुछ हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि हमारा देश चंद राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के हाथों में गिरवी है।
ताजा घटना जयपुर में देखने को मिली है, जब सारी तैयारियों के बाद सलमान रुश्दी को साहित्य उत्सव में भाग नहीं लेने दिया गया। यहां तक रुश्दी की आवाज को इस कदर दबाने की कोशिश की गई कि उनके वीडियो कांफ्रेंसिंग को भी प्रतिबंधित कर दिया गया, जिसके माध्यम से वह अपने प्रशंसकों को संबोधित करना चाहते थे। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस तरह की हरकत अपने आप में शर्मनाक घटना है। हमारा गणतंत्र हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन असलियत में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता, जिससे यह साबित हो सके। अगर ऐसा कुछ होता तो सलमान रुश्दी को जयपुर आने दिया जाता और एक ऐसा खुशनुमा माहौल तैयार किया जाता, जिसमें कि वह अपना वक्तव्य रख सकते।
सच्चाई तो यह है हम एक बेहद खराब दौर से गुजर रहे हैं, जहां न तो वैचारिक स्वतंत्रता है और न ही कुछ करने की आजादी। रुश्दी को जयपुर न आने देने के विरोध में चार लेखकों ने प्रतिबंधित द सेटेनिक वर्सेस के कुछ उद्धरण पढ़े, उन पर आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं, यह शर्मनाक घटना है। साहित्य एक ऐसी पवित्र विधा है, जो कभी किसी की भावनाओं को आहत नहीं कर सकती। हाल के दिनों में इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं, जिससे भारत की सहिष्णुता की छवि प्रभावित हुई है। हमारा देश आदिकाल से गंभीर और सहिष्णु माना जाता रहा है, लेकिन तस्लीमा नसरीन, सलमान रुश्दी या एम एफ हुसैन के साथ जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए हमारा समाज और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ही उत्तरदायी है। मुट्ठी भर लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन करने के बाद तस्लीमा नसरीन को कोलकाता से खदेड़ दिया गया, वहीं भारत से दूर त्रासद जीवन जी रहे, एम एफ हुसैन ने अपनी अंतिम सांस लंदन में ली। यही सब सलमान रुश्दी के साथ हुआ है।

मैं लंबे समय आम जन-जीवन से जुड़ा हुआ। मैने आम आदमी के साथ अपना सरोकार रखा है। मुङो बेहतर पता है कि भारत में संविधान लागू होने के 62 साल बीत जाने जाने के बाद भी हमारी आबादी का एक बड़ा तबका आजादी और गणतंत्र का मतलब नहीं समझता। यह हमारी विफलता है कि 62 साल बाद भी गणतंत्र का उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच सका है। समाजवाद हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण मूल्य है। लेकिन लगता है कि समाजवाद को देश के राजनीतिक दलों ने पूरी तरह से भुला दिया है। यहां तक कि जो पार्टियां खुद के समाजवादी होने का दंभ भरती हैं, उनका भी समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। आजादी के आंदोलन के दौरान ही यह साफ हो गया था कि भारत में समाजवादी सत्ता की स्थापना होगी।

आजादी के समय डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था कि जब हम आजाद हो रहे हैं, तो हमारे राष्ट्रीय चरित्र में जो खामियां थीं, उन्हें हमें सुधारना होगा। हमारी खामियां हैं चरित्र की, तानाशाही की, असहिष्णुता की, अंधविश्वास की और संकुचित मनोवृत्ति की। हमें विकास के लिए शिक्षा, धैर्य, एक-दूसरे के विचारों के सहने व समझने की वृत्ति आवश्यक है। जब हम इन गुणों को अर्जित करेंगे, तभी हमारा देश विकास के राजपथ पर चल सकेगा। लेकिन अब लगता है कि हमारे देश के पहले की और वर्तमान सरकारों ने राधाकृष्णन सरीखे राष्ट्र निर्माताओं की चेतावनियों की उपेक्षा की। यही वजह है कि हम संविधान और संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुकूल नहीं बन सके। संविधान द्वारा स्थापित तमाम मूल्यों की अवहेलना पूरे देश में हो रही है। संविधान के अनुसार हमने अपने देश को प्रजातांत्रिक स्वरूप दिया है।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शासन का संचालन राजनीतिक पार्टियां करती हैं, लेकिन हमारे देश में राजनीतिक दलों की जो स्थिति है, उसमें कहा जा सकता है कि उनके हाथ में प्रजातंत्र सुरक्षित नहीं है। इन राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी खामी है कि इनमें आंतरिक प्रजातंत्र नहीं है, तो वे देश में प्रजातंत्र की परिकल्पना को कैसे साकार कर सकते हैं। देश में लोकतंत्र कहने भर को है, लेकिन वास्तव में देश की राजनीति में आम आदमी की भूमिका शून्य है।

आम आदमी इतना असहाय हो गया है कि वह चाहे या न चाहे, सरकारें बन ही जाती हैं और नेतागण अपना पेट भरने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। कानून व्यवस्था की हालत इतनी अधिक खराब है कि इस संबंध में तो चर्चा करना ही समय की बर्बादी माना जाने लगा है, लेकिन इसका खामियाजा हम सभी भुगत रहे हैं।

संविधान का एक और मूल्य है धर्म निरपेक्षता। हाल के दिनों में हमने धर्म निरपेक्षता को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी है। धर्म निरपेक्षता के विरोधी इस मूल्य के को कमजोर करने में लगे, वहीं, संविधान के इस मूल्य का समर्थन करने वाले लोग मौनव्रत धारण किए हुए हैं। सांप्रदायिक दंगे धर्मनिरपेक्षता का नींव हिलाते रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है। देश की अधिसंख्य आबादी अब मानने लगी है कि भारत का प्रशासन अब चरित्रवान व्यक्तियों के हाथ में नहीं है।

राजनीतिक दलों को और समाज के अगुवा लोगों को एक साथ बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि गणतंत्र दिवस मनाया जाना कितना प्रासंगिक रह गया है। जब तक इस देश की राजनीति को इसकी मिट्टी से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है।

संतोष मिश्र से बातचीत पर आधारित

Wednesday, January 25, 2012

जाति और डेरों का लोकतंत्र

यह जानकार हैरानी होती है कि पंजाब के ज्यादातर राजनेता चुनावी वैतरणी पार करने के लिए डेराओं के चक्कर लगा रहे हैं। सबसे ज्यादा भीड़ डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम के यहां हो रही है। हाल ही में कांग्रेस की नेता प्रणीत कौर और रनिंदर सिंह ने बाबा से मुलाकात की है। बाबा के प्रमुख लोगों की समिति पंजाब विधानसभा के चुनावों में अपनी भूमिका तय करने के लिए बैठक कर रहे हैं और जसा कि संकेत मिले हैं कि उनके असर को देखते हुए वे आगामी 30 तारीख को किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। पंजाब में बाबा के पचास लाख अनुयायी बताए जाते हैं और उनका राज्य की 117 में से 55 विधानसभा पर जोर और अन्य 30 सीटों पर असर बताया जाता है। इनमें कई क्षेत्र राज्य के 67 सीटों वाले मालवा क्षेत्र में पड़ते हैं।
पंजाब से सटे हरियाणा के सिरसा में डेरा सच्चा सौदा का आश्रम चलाने वाले बाबा राम रहीम वही हैं जिन पर अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार और अन्य आपराधिक मामले हैं और उनकी भूमिका पर पारंपरिक और अनुदार सिख पंथ को कड़ी आपत्तियां हैं जिसके चलते दंगे वगैरह भी हो चुके हैं। शायद इसीलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी डेरा सच्चा सौदा के लोग शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के हितों की रक्षा करने वाले शिरोमणि अकाली दल को उसी तरह से धक्का देंगे जसा उन्होंने 2007 के चुनावों में दिया था। यानी उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है और हो सकता है जल्दी ही इस बारे में कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष बयान भी आ जाए। यही स्थिति पंजाब के अन्य डेरों की भी है। पंजाब के तमाम डेरों में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। डेरा सच्चा सौदा ही नहीं संत रविदास के आदर्शो पर बना डेरा सचखंड, आशुतोष महराज का दिव्य ज्योति संस्थान , रोपड़ का बाबा भनियारेवाला और अन्य डेरों में राजनीतिक दल समर्थन मांगने और उनके मुद्दों को महत्व देने के लिए दौड़ रहे हैं। निरंकारियों का अपना दायरा है। यानी मध्ययुगीन डेरों के आगे आधुनिक राजसत्ता नतमस्तक हो रही है ताकि वह अपने लिए पर्याप्त ताकत बटोर सके।
दरअसल आधुनिक लोकतंत्र जिन दबाव समूहों के संगठनों के माध्यम से अपने को चलाना चाहता था उसका कोई आधुनिक स्वरूप विकसित करने में वह विफल रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के ट्रेड यूनियनों और कर्मचारी संगठनों या किसान संगठनों के पास जाने की खबरें कम आती हैं। या तो डेरा में माथा टेकने की खबरें आती हैं या गुरुद्वारों में। उसी तरह से उत्तर प्रदेश की पार्टियां विभिन्न जातिगत संगठनों के पास दौड़ती नजर आती हैं। उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के संगठन हैं जरूर पर उतने व्यवस्थित नहीं हैं जितने पंजाब वगैरह में। यही वजह है कि वहां राजनीति करने के लिए कई जाति के संगठन खड़े किए गए हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि वहां जातिविरोधी आंदोलन लगातार उतना शक्तिशाली नहीं रहा जितना पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में। आज जब उसका बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से उसका एक आक्रामक राजनीतिक स्वरूप उभरा है तो वह अपने को सामाजिक स्तर पर भी गोलबंद कर रहा है।
ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि पंजाब के भीतर राजनीति ने धर्म के साथ घालमेल किया है और वहां चाहे अकाली दल हो या कांग्रेस दोनों धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। अकाली दल की राजनीति को कभी धर्म और उसके संस्थानों से अलग हो ही नहीं पाई लेकिन कांग्रेस की भी मजबूरी उन्हीं धार्मिक संस्थानों के भीतर राजनीति करने की है जिनकोवह अपने सिद्धांत के विरुद्ध मानती है। तो क्या मान लिया जाए कि 62 गणतंत्र दिवस और 65 स्वाधीनता दिवस देखने के बाद वह वैसी नहीं हो सकी है जसी उससे अपेक्षा थी? भारतीय राजनीति की इन्हीं आशंकाओं को संविधान निर्माता डा भीमराव आंबेडकर ने अपने ढंग से व्यक्त किया था। उनका कहना था कि अगर समाज में समानता नहीं होगी तो इस लोकतंत्र में तमाम तरह की विकृतियां पैदा होंगी और संविधान का बार-बार उल्लंघन होगा।
चाहे पंजाब के डेरे हों या उत्तर प्रदेश के जाति संगठन या कर्नाटक के लिंगायत मठ उन सब की भूमिका इसलिए बढ़ी है क्योंकि समाज में असमानता बरकरार है और राजनीतिक दल उसे दूर करने में उस गति से सफल नहीं हो पा रहे हैं जसे होना चाहिए। पंजाब के डेरे एक तरह से गुरुद्वारों पर काबिज जाट सिखों के वर्चस्व के विरुद्ध एक चुनौती हैं। बाबा राम रहीम के ज्यादातर अनुयायी दलित और छोटी जातियों से संबंधित हैं। इन जातियों ने कभी कांग्रेस के साथ अपना गठजोड़ बनाया था लेकिन उनसे अपेक्षा पूरी न होते देख अपने धार्मिक और सामाजिक संगठनों को मजबूत करने पर जोर दिया। यह विडंबना है कि जिस हिंदू धर्म की जातिगत असमानता और अन्य बुराइयों से ऊब कर सिख धर्म निकला था वह अपने उन आदर्शो पर खरा नहीं उतरा। पंजाब के गुरुद्वारों में दलित सिखों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी उन्हें अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि उन्होंने अपने डेरों के माध्यम से जातिगत वर्चस्व को चुनौती दी है और आज भी वे आदि धरम, रविदासी और रामदासी जसे तमाम समुदायों से अपनी पहचान बनाते हैं। मालवा में सिख धर्म को दलितों(चमारों) ने बड़ी संख्या में अपनाया था। जबकि दोआबा के दलितों ने वैसा नहीं किया। उधर माझा इलाके में रामदासी और रविदासी समुदायों का जोर है। असमानता और उपेक्षा से उत्पन्न उनकी पीड़ा है और उसके खिलाफ नाराजगी व्यक्त करने के अपने तरीके हैं। इसी नाराजगी को व्यक्त होने और बराबरी आने से रोकने के लिए सवर्ण समाज भी धर्म का ही सहारा लेता है। अगर उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों के उभार के समय भाजपा ने मंदिर आंदोलन चलाकर उन्हें रोकना चाहा तो पंजाब में अकाली और पारंपरिक तौर पर अनुदार सिख डेरों के खिलाफ आक्रामक होते रहते हैं।
लेकिन डेरों ने समाज के महज असमानता के खिलाफ पंथीय गोलबंदी ही नहीं की है बल्कि समाज की अन्य बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई है। आज पंजाब के 40 से 60 प्रतिशत युवक नशे के शिकार हैं। अक्सर डेरों में घरों की महिलाएं रोती हुई यह अपील करने पहुंचती हैं कि उनके बेटे या पति को नशे से बचाया जाए। डेरे वाले नशे से बचने की अपील जारी भी करते हैं। पंजाब की दूसरी बड़ी समस्या जमीन का क्षरण है। वहां की मिट्टी की उर्वरता न सिर्फ खोती जा रही है बल्कि कई इलाकों का पानी जहरीला होता जा रहा है। नदियों की दशा बहुत खराब है। उमें्र दत्त जसे लोगों की अगुआई में खेती बिरासत मिशन इस दशा को सुधारने के लिए प्रयासरत है।
जाहिर सी बात है कि पूंजीवाद के साथ मिलकर चलने वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने और शासन चलाने के लक्ष्य पर अपने को कें्िरत किया लेकिन वे सामाजिक बदलाव और पर्यावरण जसे मुद्दो को छोड़ रखा है। डेरे वाले उसी खाली जमीन को भर रहे हैं। अब कोई उन्हें धर्म में राजनीति का घालमेल कहे तो कहता रहे। भारतीय राजनीति की विविधता का यही रंग है।

अरुण कुमार त्रिपाठी

एक ही थैले के...

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