Tuesday, March 2, 2010

खेलत फाग बढ़त अनुराग


कथक और होली का गहरा संबंध है। होरी पर ज्ञात-अज्ञात कवियों के अति सुंदर पद हैं। कथक में उन पर भावाभिनय का चलन पुराना है। ब्रज और कृष्ण भी होली से और कथक से इस तरह घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। होली पर बहुत लिखा गया है। वैसे भी होली प्रेम का त्योहार है। त्योहार तो सभी प्रेम का संदेश देते हैं पर होली पर प्रेम ज्यादा उमड़ता है। होली और कथक पर प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना उमा शर्मा से जब मैने इस संबंध में बातचीत की तो कई बातें आई जिससे यह पता चला कि आज का युवा बहुत सी चीजों से अनभिज्ञ है। यह पोस्ट पहले भी डाली जा सकती थी लेकिन मुङो ऐसा लगता है कि इसकी प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहेगी।

कथक और होली का गहरा संबंध है। कथक में होरी, ठुमरी का भाव होता है। ठुमरी गायिकी में बहुत चलती है। होरी में बहुत ठुमरियां हैं। कथक में होली की गजल भी बन सकती है,क्योंकि कथक में हिन्दू-मुस्लिम दोनों की प्रथा है। कथक में ध्रुपद गायिकी के साथ भी नृत्य होता है। ध्रुपद धमार होरी पर चलता है। होरी के ऐसे पद हैं जो कथक से मिलाए जा सकते हैं जसे, ‘मैं तो खेलूंगी उनही से होरी गुइयां, लेइके अबीर गुलाल कुमकुम वो तो रंग से भरी पिचकारी गुंइयां।ज् रसखान ने लिखा है कि ‘खेलत फाग बढत अनुराग, सुहाग सनी सुख की रमकै। कर कुमकुम लैकर कंजमुखी, प्रिय के दृग लावन को झमकै।ज् ऐसे बहुत सुंदर पद कवियों ने लिखे हैं जो हमलोग करते हैं। कथक का यह चलन है जो काफी पुराना है। हालांकि अब ये चीजें बाहर जा रही हैं। कथक में गाकर भाव बताना एक कला है। मैंने अपने गुरु शंभू महाराजजी से यह कला सीखी है इसलिए अभी तक मैं इसे चला रही हूं। कविताओं में होरी का सारा माहौल उभरकर आता है। ये कथक में होता आ रहा है।
कथक में होरी कई तरह से प्रस्तुत होती है। एक तो गाकर भाव बताया जाता है। एक समूह में होली होती है। कविता पर भी होली खेली जाती है। वृंदावन की रासलीला में राधा कृष्ण गोपियां सभी फूल की भी होली खेलती हैं। गुलाल से भी होली होती है। पिचकारी से रंग डालना ये सब कथक नृत्य में भाव भंगिमा से दर्शाया जाता है। यह समूह और एकल दोनों माध्यम से होता है। मैं तो भाव बताकर होली प्रस्तुत करती हूं और यह एक परंपरागत तरीका है। मैं कविताओं को लेकर प्रस्तुति करती हूं।
अज्ञात कवियों ने बहुत से पद लिखे हैं। रसखान, विद्यापति, नजीर अकबराबादी, खुसरो आदि ने होरी के बहुत सुंदर पद लिखे हैं। एक अज्ञात कवि ने लिखा है ‘बा संग फाग खेले ब्रज माहीज्, यह एक विहरिणी नायिका है। इसके अलावा एक कवि ने यह भाव लिखा है कि पीछे आई गोपी और उसने एकदम पीछे से कृष्ण को अचानक अबीर लगाया। ऐसी बहुत सी लोकप्रिय रचनाएं हैं। अज्ञात कवि ने इतने सुंदर ढंग से श्रृंगार का वर्णन किया है होरी के माध्यम से, इसी तरह एक कविता में राधा की ईष्र्या है, इस तरह पदों में विविधता है। होरी और कथक दोनों उत्तर भारतीय हैं। वृंदावन से होरी का गहरा संबंध है। कृष्ण तो होली खेलने में प्रसिद्ध है। सबसे अधिक कृष्ण की होली, वृंदावन से कृष्ण का नटवरी नृत्य कृष्ण की छेड़छाड़ को कथक में अधिकांश रूप से लिया जाता है। उत्तर भारतीय कवियों ने होली पर बहुत लिखा है और कथक में इसका प्रयोग हो रहा है। यदि साहित्य को टटोला जाए तो ऐसे बहुत से पद हैं।
नृत्य से अलग भी होली का अपना महत्व है। एक दूसरे से मिलें तिलक लगाएं। पहले टेसू के फूल से रंग निकाल कर चंदन और केसर का तिलक लगाया जाता था। गुलाल भी बहुत अच्छा होता था। उसमें कुछ मिला नहीं होता था। सब एक-दूसरे के ऊपर रंग लगाते थे। लेकिन बीच में रसायनयुक्त रंगों के प्रयोग होने से रंगों से लोग बचने लगे। गाना बजाना, होरी ठुमरी, भाव के साथ होली मनाने का अपना आनंद है। मैं अपने संस्थान में इसी परंपरा के साथ हर साल इसका जश्न करती हूं।
होली का अपना महत्व है, यह प्रेम भाव बताता है। हमारे सभी त्योहार प्रेमभाव बताते हैं। प्रेम के भाव के साथ यदि आप किसी के साथ होली खेलते हैं तो उससे एक प्रेम उमड़ता है और वास्तव में यह प्रेम की होली है। एक-दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली, गाना-बजाना यह सब प्रेम की बातें हैं। इससे आपस में प्रेम बांट सकते हैं। यही सब होली दर्शाती है। होली यह बताती है कि आपमें कोई मतभेद या भेदभाव नहीं है।
प्रसिद्ध नृत्यांगना उमा शर्मा से अभिनव उपाध्याय की बातचीत पर आधारित

रंग गुलाल भरी वह हंसी



निराला का जन्मदिन वसंत पंचमी था तो महोदवी का धुरेड़ी। इलाहाबाद में महिला विद्यापीठ में छात्रावास की छात्राओं के साथ वे खूब होली खेलतीं। हंसती-हंसाती-खिलखिलाती उनकी यह छवि हमेशा होली पर याद आती है। चौदह साल उनके पास रहकर पढ़ीं, उनकी एक छात्रावासी शिष्या गायत्री नायक का आत्मीय संस्मरण।

गुरुजी यानी महादेवी वर्मा की कविताओं, उनके रहन-सहन से उनकी जो छवि हमारे बीच बनी थी उसका दूसरा उलट रूप भी था। इसका अंदाज हमें पहली बार होली के दिन मिला। मैं प्रयाग महिला विद्यापीठ के छात्रावास में रहती थी। गुरुजी के पास प्रतिदिन सायंकाल उस समय के कवियों-साहित्यकारों की बैठक होती थीं। महाकवि निराला और पंतजी भी प्राय: आते थे। इन सबको चाय पिलाने का उत्तरदायित्व मेरा था - चाय बनाते और भेजते समय बैठक से आती चर्चाओं के बीच जोर-जोर से खिलखिलाने की आवाों भी आतीं। एक बार हम छात्राओं के कार्यक्रम में निरालाजी मुख्य अतिथि बनकर हम लोगों के बीच यह कहते हुए आये कि, ‘शेरों की मांद में आज आया है सियार।ज् गुरुजी ने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि, ‘गत्ती सितार अच्छा बजाती है।ज् गुरुजी ने मुझसे सुनाने को कहा तो पहले मैंने निरालाजी का गीत ‘आज फिर संवार सितार लोज् सुनाया और फिर सितार भी बजाया।
गुरुजी अपने बंगले से बहुत कम बाहर निकलती थीं- पर जितनी गुरु- गंभीर वे दिखती थीं, उतनी थीं नहीं। हम एम.ए. हिन्दी की छात्राओं को अपने बंगले में पढ़ने को कहतीं - बीच में हमें अच्छा नाश्ता करातीं फिर कहतीं बड़े पेटू हो तुम लोग। हमारे अंग्रेजी के अध्यापक थे मि. सक्सेना। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में जो अपना वर्णन किया है लगभग वैसे ही वे थे। अत: हम उन्हें मि. जायसी कहते थे - गुरुजी हमारी यह शैतानी ताड़ गईं और कहा बहुत शैतान हो तुम लोग। हम छात्रावासी लड़कियों के लिये होली का दिन विशेष रहता था। पहले हमें पता नहीं था पर होली की सुबह गुरुजी हम सबको बुलातीं और तीन-चार बाल्टियों में भरे रंग से हमें सराबोर कर देतीं- कोई बच नहीं पाता था - फ्राक और कुर्ते ब्लाउज के अन्दर रंग डालतीं - चेहरों पर हरे-लाल गुलाल लगातीं और सबके चेहरे देखकर खूब हंसती। हमें बाद में पता चला कि धुरेड़ी उनका जन्मदिन था। उस रात वे हमारे साथ मेस में खाना खातीं, बाईजी को विशेष हिदायत रहती खीर-पुड़ी-हलवा बनाने की। हमारे साथ बैठ कर वे भोजन करतीं और फिर छात्रावास की एक-एक लड़की को गुलाल लगाकर गले मिलतीं। बड़वानी की मनोरमा गायकवाड़ से बहुत हल्के मिलतीं क्योंकि उनके दुबले-पतले शरीर की हड्डियां उन्हें गड़ती थीं - पर अपने नाम के अनुरूप शैल बहिनजी से बार-बार मिलतीं, उन्हें देर तक गले लगाये रखतीं, क्योंकि वे अपने नाम के अनुरूप अच्छी गुलगुली थीं। इस तरह गुरुजी के साथ उनका जन्मदिन धुरेड़ी का दिन हंसते-खिलखिलाते बीतता। दसवीं के बाद की परीक्षा देने हमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जाना होता था - तो वे बहुत उदास होकर कहतीं तुम लोगों के बिना अच्छा नहीं लगेगा। परीक्षा के बीच यदि होली पड़ती तो वे कह देतीं तुम लोग होली के लिये यहां भाग आना।
तो गुरु- गंभीर महादेवी का खिलखिलाता रूप जो मैंने देखा है- चौदह वर्ष उनके सानिध्य में रहीं हूं- आज भी मन को उनकी खिलखिलाती वह छवि अभिभूत कर देती है। उनके साथ की खेली होली अब भी याद आती है। फिर वैसी सरस रंगभरी होली नहीं खेली- विद्यापीठ छोड़े लगभग बासठ वर्ष हो गये पर विद्यापीठ का छात्रावास, मैदान का कुआं, गुरुजी का दफ्तर और विशेषकर उनका बंगला, बैठक, भक्तिन की रसोई, गुरुजी के साथ खेली होली, उनका सहज-सरल खिलखिल रूप आज भी स्मृति में जीवंत है। उनके सानिध्य में बिताये चौदह वर्ष मेरे जीवन की अनमोल निधि है: ‘कांटों में नित फूलों सा खिलने देना अपना जीवन / क्या हार बनेगा वह प्रसून सीखा न जिसने हृदय को बिंधवानाज्।
आने वाली प्रत्येक होली मेरे लिये मेरी गुरुजी की खिलखिलाती छवि लेकर आती है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...