Sunday, January 16, 2011

प्रवासी भारतीय अब भी नास्टेल्जिक- सुषम बेदी

न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापिका और प्रसिद्ध लेखिका सुषम बेदी से अभिनव उपाध्याय की बातचीत-

भारत और प्रवासी साहित्यकारों की रचनाओं में किस तरह का अंतर आप देखती हैं?

भारत से बाहर अलग-अलग समय पर लोग गए। लोग अपने समय में बंधे होते हैं। शुरू में लिखा गया साहित्य नास्टेल्जिया का लेखन था। कई लोग प्रसाद, निराला आदि को पढ़कर आए तो उसका पूरा प्रभाव उनमें दिखाई देता है। लेकिन अब भी ज्यादातर नास्टेल्जिया का साहित्य लिखा जाता है। मैं वहां रहकर वहां के लोगों के जीवन की नब्ज पकड़ती हूं। भारत में रहकर लिखने वाला भारतीयों को बेहतर और करीब से जानता है। प्रवासी लोग जल्दी खुलते नहीं हैं, वहां पर ज्यादातर साथ पढ़ने वाले लोग मिलते हैं या पब में मिलते हैं और अपने मन की ढेर सारी बातें कह डालते हैं। अन्यथा उनके मन में एक दीवार होती है जिन्हें वे फांदना नहीं चाहते।

भारत और वहां के लोगों में भाषाई अंतर नहीं है। भारत में जितना भाषा का विकास होता है उतना विदेशों में नहीं होता, क्योंकि हम भारत से ही भाषा लेकर गए हैं। हिन्दी में नई शैलियां आई हैं। हर साहित्यकार का अलग ढंग है। ज्यादातर मैं देखती हूं प्रवासी लेखकों के विषय सीमित है, भारत जितनी विविधता वहां के साहित्य में नहीं मिलती। प्रवासियों के सामाजिक, आर्थिक समझौते की समस्याएं वहां की प्रमुख समस्याएं हैं जो कहानियों में दिखती हैं। विदेश में भारतीयों के साथ एक प्रमुख समस्या है कि वह कितना भारत के मूल्यों के साथ जिएं कितना विदेशी मूल्यों के साथ, क्योंकि यहां से जो लोग जाते हैं उनमें अस्मिता का सवाल सबसे बड़ा है कि मैं क्या हूं, कौन हूं, हिन्दुस्तानी हूं या अमेरिकी हूं।
क्योंकि वहां के बच्चे अमेरिकी स्कूलों में पढ़ते हैं। अमेरिकी बच्चों के साथ खेलते हैं शादी भी करते हैं। लड़कियों के सामने डेटिंग एक अहम विषय है। वहां के अभिभावक लड़कियों को इसके लिए मना करते हैं। इससे उनमें काफी तनाव है। मेरी कई कहानियों में भी यह समस्या दिखाई देती है। बहुत पहले सोमा वीरा की कहानी में यह मुद्दे दिखाई देता था। बच्चों पर पढ़ाई के लिए भी मां-बाप दबाव डालते हैं। उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भी पढ़ाई के दबाव में बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। लड़कियों को अपनी वर्जिनिटी को बचाने के लिए बड़ी चिंता रहती है। मेरी कहानी सड़क की लय में यह चिंता भी उभरी है, इसमें मां बाप को असमंजस है कि लड़की को किस हद आजादी दें।
हिन्दी आलोचना अभी भी कविता केन्द्रित है, आपकी क्या राय है?
मैं यह मानती हूं कि हिन्दी का वर्तमान में सबसे सशक्त साहित्य कथा साहित्य है। कविता भी सशक्त है लेकिन आज यह बात नहीं। आलोचकों ने कथा साहित्य पर खूब लिखा है। प्रेमचंद से पहले कथा साहित्य नाम का था। आलोचकों का वर्ग इसे महत्व दे या न दे। लेकिन प्रवासी हिन्दी को नजरंदाज किया गया है तो इसलिए कि इसमें कम लिखा गया है। बाहर से लिखने वाले लोगों को हिन्दी का आलोचक समझ नहीं पाता कि इन्हें किस दायरे में रखा जाए इसलिए नजरंदाज कर देता है, अभी आलोचकों ने कोई ऐसी श्रेणी नहीं बनाई है।

हिन्दी के पांच बड़े कथाकार आप किसे मानती हैं?
इसका जवाब मुश्किल है, क्योंकि हिन्दी में बहुत कथाकार हैं। मुङो सबसे पहले अज्ञेय पसंद हैं, क्योंकि उनका चरित्रों की गहराई और विश्लेषण मुङो बहुत अच्छा लगता है। निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, फनीश्वरनाथ रेणु और मोहन राकेश भी हैं मुङो इनको पढ़ाने का मौका मिला। लेकिन बहुत लेखक हैं यदि किसी और दिन मुझसे कोई पूछे तो मैं शायद कुछ और नाम ले सकूं।
अभी आप नया क्या कर रही हैं?
मेरा नया उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से छपा है। ‘मैंने नाता तोड़ा, ‘तान और आलाप शीर्षक से आत्मकथा लिखी है, एक और उपन्यास शुरू किया है जो वहां के जीवन की समानांतर जिंदगियां हैं उनको लेकर है।
क्या ऐसा लगता है कि 9/11 के बाद अमेरिका भाषा को लेकर सचेत हो गया है?
बिल्कुल, मैंने अपने एक लेख में शुरुआत ही इससे की है कि हिन्दी उर्दू या अन्य भाषाओं के न आने से अमेरिकीयों को बुद्धू बनाया जा सकता है इसलिए सेना ने हिन्दी, उर्दू, पश्तो, अरबी और वे भाषाएं जिसका रणनीतिक महत्व हो उस पर जोर दिया जा रहा है। अरेबिक को पढ़ाना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
विदेशों में हिन्दुस्तानी बच्चों पर हए हमलों को आप किस तरह से देखती हैं?
रंगभेद के कारण ऐसा हो रहा है। लोग अकेले लोगों को निशाना बनाते हैं। कुछ हमलों के लिए भारतीय भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वे अलग-थलग रहते हैं। ये चीज भारत में भी है अगर हिन्दू मुसलमान में भी संपर्क हो तो यहां भी झगड़े शायद न हों।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...