Wednesday, January 25, 2012

जाति और डेरों का लोकतंत्र

यह जानकार हैरानी होती है कि पंजाब के ज्यादातर राजनेता चुनावी वैतरणी पार करने के लिए डेराओं के चक्कर लगा रहे हैं। सबसे ज्यादा भीड़ डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम के यहां हो रही है। हाल ही में कांग्रेस की नेता प्रणीत कौर और रनिंदर सिंह ने बाबा से मुलाकात की है। बाबा के प्रमुख लोगों की समिति पंजाब विधानसभा के चुनावों में अपनी भूमिका तय करने के लिए बैठक कर रहे हैं और जसा कि संकेत मिले हैं कि उनके असर को देखते हुए वे आगामी 30 तारीख को किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। पंजाब में बाबा के पचास लाख अनुयायी बताए जाते हैं और उनका राज्य की 117 में से 55 विधानसभा पर जोर और अन्य 30 सीटों पर असर बताया जाता है। इनमें कई क्षेत्र राज्य के 67 सीटों वाले मालवा क्षेत्र में पड़ते हैं।
पंजाब से सटे हरियाणा के सिरसा में डेरा सच्चा सौदा का आश्रम चलाने वाले बाबा राम रहीम वही हैं जिन पर अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार और अन्य आपराधिक मामले हैं और उनकी भूमिका पर पारंपरिक और अनुदार सिख पंथ को कड़ी आपत्तियां हैं जिसके चलते दंगे वगैरह भी हो चुके हैं। शायद इसीलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी डेरा सच्चा सौदा के लोग शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के हितों की रक्षा करने वाले शिरोमणि अकाली दल को उसी तरह से धक्का देंगे जसा उन्होंने 2007 के चुनावों में दिया था। यानी उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है और हो सकता है जल्दी ही इस बारे में कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष बयान भी आ जाए। यही स्थिति पंजाब के अन्य डेरों की भी है। पंजाब के तमाम डेरों में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। डेरा सच्चा सौदा ही नहीं संत रविदास के आदर्शो पर बना डेरा सचखंड, आशुतोष महराज का दिव्य ज्योति संस्थान , रोपड़ का बाबा भनियारेवाला और अन्य डेरों में राजनीतिक दल समर्थन मांगने और उनके मुद्दों को महत्व देने के लिए दौड़ रहे हैं। निरंकारियों का अपना दायरा है। यानी मध्ययुगीन डेरों के आगे आधुनिक राजसत्ता नतमस्तक हो रही है ताकि वह अपने लिए पर्याप्त ताकत बटोर सके।
दरअसल आधुनिक लोकतंत्र जिन दबाव समूहों के संगठनों के माध्यम से अपने को चलाना चाहता था उसका कोई आधुनिक स्वरूप विकसित करने में वह विफल रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के ट्रेड यूनियनों और कर्मचारी संगठनों या किसान संगठनों के पास जाने की खबरें कम आती हैं। या तो डेरा में माथा टेकने की खबरें आती हैं या गुरुद्वारों में। उसी तरह से उत्तर प्रदेश की पार्टियां विभिन्न जातिगत संगठनों के पास दौड़ती नजर आती हैं। उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के संगठन हैं जरूर पर उतने व्यवस्थित नहीं हैं जितने पंजाब वगैरह में। यही वजह है कि वहां राजनीति करने के लिए कई जाति के संगठन खड़े किए गए हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि वहां जातिविरोधी आंदोलन लगातार उतना शक्तिशाली नहीं रहा जितना पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में। आज जब उसका बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से उसका एक आक्रामक राजनीतिक स्वरूप उभरा है तो वह अपने को सामाजिक स्तर पर भी गोलबंद कर रहा है।
ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि पंजाब के भीतर राजनीति ने धर्म के साथ घालमेल किया है और वहां चाहे अकाली दल हो या कांग्रेस दोनों धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। अकाली दल की राजनीति को कभी धर्म और उसके संस्थानों से अलग हो ही नहीं पाई लेकिन कांग्रेस की भी मजबूरी उन्हीं धार्मिक संस्थानों के भीतर राजनीति करने की है जिनकोवह अपने सिद्धांत के विरुद्ध मानती है। तो क्या मान लिया जाए कि 62 गणतंत्र दिवस और 65 स्वाधीनता दिवस देखने के बाद वह वैसी नहीं हो सकी है जसी उससे अपेक्षा थी? भारतीय राजनीति की इन्हीं आशंकाओं को संविधान निर्माता डा भीमराव आंबेडकर ने अपने ढंग से व्यक्त किया था। उनका कहना था कि अगर समाज में समानता नहीं होगी तो इस लोकतंत्र में तमाम तरह की विकृतियां पैदा होंगी और संविधान का बार-बार उल्लंघन होगा।
चाहे पंजाब के डेरे हों या उत्तर प्रदेश के जाति संगठन या कर्नाटक के लिंगायत मठ उन सब की भूमिका इसलिए बढ़ी है क्योंकि समाज में असमानता बरकरार है और राजनीतिक दल उसे दूर करने में उस गति से सफल नहीं हो पा रहे हैं जसे होना चाहिए। पंजाब के डेरे एक तरह से गुरुद्वारों पर काबिज जाट सिखों के वर्चस्व के विरुद्ध एक चुनौती हैं। बाबा राम रहीम के ज्यादातर अनुयायी दलित और छोटी जातियों से संबंधित हैं। इन जातियों ने कभी कांग्रेस के साथ अपना गठजोड़ बनाया था लेकिन उनसे अपेक्षा पूरी न होते देख अपने धार्मिक और सामाजिक संगठनों को मजबूत करने पर जोर दिया। यह विडंबना है कि जिस हिंदू धर्म की जातिगत असमानता और अन्य बुराइयों से ऊब कर सिख धर्म निकला था वह अपने उन आदर्शो पर खरा नहीं उतरा। पंजाब के गुरुद्वारों में दलित सिखों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी उन्हें अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि उन्होंने अपने डेरों के माध्यम से जातिगत वर्चस्व को चुनौती दी है और आज भी वे आदि धरम, रविदासी और रामदासी जसे तमाम समुदायों से अपनी पहचान बनाते हैं। मालवा में सिख धर्म को दलितों(चमारों) ने बड़ी संख्या में अपनाया था। जबकि दोआबा के दलितों ने वैसा नहीं किया। उधर माझा इलाके में रामदासी और रविदासी समुदायों का जोर है। असमानता और उपेक्षा से उत्पन्न उनकी पीड़ा है और उसके खिलाफ नाराजगी व्यक्त करने के अपने तरीके हैं। इसी नाराजगी को व्यक्त होने और बराबरी आने से रोकने के लिए सवर्ण समाज भी धर्म का ही सहारा लेता है। अगर उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों के उभार के समय भाजपा ने मंदिर आंदोलन चलाकर उन्हें रोकना चाहा तो पंजाब में अकाली और पारंपरिक तौर पर अनुदार सिख डेरों के खिलाफ आक्रामक होते रहते हैं।
लेकिन डेरों ने समाज के महज असमानता के खिलाफ पंथीय गोलबंदी ही नहीं की है बल्कि समाज की अन्य बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई है। आज पंजाब के 40 से 60 प्रतिशत युवक नशे के शिकार हैं। अक्सर डेरों में घरों की महिलाएं रोती हुई यह अपील करने पहुंचती हैं कि उनके बेटे या पति को नशे से बचाया जाए। डेरे वाले नशे से बचने की अपील जारी भी करते हैं। पंजाब की दूसरी बड़ी समस्या जमीन का क्षरण है। वहां की मिट्टी की उर्वरता न सिर्फ खोती जा रही है बल्कि कई इलाकों का पानी जहरीला होता जा रहा है। नदियों की दशा बहुत खराब है। उमें्र दत्त जसे लोगों की अगुआई में खेती बिरासत मिशन इस दशा को सुधारने के लिए प्रयासरत है।
जाहिर सी बात है कि पूंजीवाद के साथ मिलकर चलने वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने और शासन चलाने के लक्ष्य पर अपने को कें्िरत किया लेकिन वे सामाजिक बदलाव और पर्यावरण जसे मुद्दो को छोड़ रखा है। डेरे वाले उसी खाली जमीन को भर रहे हैं। अब कोई उन्हें धर्म में राजनीति का घालमेल कहे तो कहता रहे। भारतीय राजनीति की विविधता का यही रंग है।

अरुण कुमार त्रिपाठी

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