Saturday, August 11, 2012


भटकाव नहीं है यह

अन्ना आंदोलन को एक राजनीतिक विकल्प देने की राह पर आगे बढ़ने की सलाह देने वालों में सर्वप्रमुख प्रो. योगेंद्र यादव से अभिनव उपाध्याय की बातचीत


आप इस पूरे घटनाक्रम को किस तरह से देखते हैं? 

पिछले डेढ़ साल से चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की दिशा और दशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया है। मैं समझता हूं कि शुरू से ही इस आंदोलन में तीन धाराएं थीं। पहली धारा राजनीति विरोध और राजनीति मात्र से खड़ा करने की धारा थी। दूसरी धारा कांग्रेस विरोध को तरजीह देने की थी, चाहे उससे भाजपा या अन्य विपक्षी दलों को लाभ हो। तीसरी धारा लोकतांत्रिक राजनीति के भीतर लेकिन स्थापित ढांचे से बाहर थी। पिछले साल भर से समय-समय पर यह तीसरी धारा प्रबल हुई है। इस अनशन को खत्म करते वक्त राजनीतिक विकल्प बनाने की घोषणा इस बुनियादी बदलाव का संकेत देती है। घोषणा भले ही जल्दी में की गई, लेकिन यह प्रक्रिया दीर्घकालिक थी।

क्या यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है?

 मैं नहीं समझता कि यह भटकाव है। ऐसा उन लोगों और इस आंदोलन के कार्यकर्ताओं को लग सकता है जो विरोध को एक गैर राजनीतिक काम मानते हैं। मैं मानता हूं कि इस देश में भ्रष्टाचार का विरोध करना अपने आप में राजनीति की शुरु आत करता है। भ्रष्टाचार की जड़ राजनीति में है तो उसका निदान करने की हर कोशिश अंतत: हमें राजनीति की ओर ही ले जाएगी। यूं भी लोकतांत्रिक समाज में किसी भी बुनियादी सार्वजनिक मुद्दे पर आमूल-चूल परिवर्तन की कोशिश लोकतांत्रिक राजनीति से परे रहकर नहीं की जा सकती। चोर दरवाजे से राजनीति करने से बेहतर है कि खुलकर और पूरी जिम्मेदारी से राजनीति की जाए। इस लिहाज से मैं राजनीतिक विकल्प बनाने की इस चेष्टा को आंदोलन का भटकाव नहीं, बल्कि उसकी तार्किक परिणति के रूप में देखता हूं।

कुछ लोग इसकी तुलना जयप्रकाश आंदोलन से कर रहे हैं, क्या आंदोलन उसी तरफ जा रहा है?

 हमें अतिशयोक्तिसे बचना चाहिए। मैंने खुद जयप्रकाश नारायण का आंदोलन नहीं देखा, लेकिन जितना पढ़ा-सुना है, उससे लगता है कि वह आंदोलन ज्यादा व्यापक और गहरा रहा होगा। लेकिन इस आंदोलन का जन-उभार, लोगों की स्वत: स्फूर्त भागीदारी और पूरे सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देने की जिद, उस आंदोलन की याद जरूर दिलाती है।

जिस राजनीतिक विकल्प की बात की जा रही है, क्या वह कोई लोकतांत्रिक बदलाव ला सकता है? 

संभावना है लेकिन गारंटी नहीं। एक ऐतिहासिक अवसर हमारे सामने है। यदि अन्ना आंदोलन देश भर में चल रहे जनांदोलनों से रिश्ता बनाए और अपने विचार और संगठन को एक बड़े उद्देश्य से जोड़ सके तो यह संभावना बनती है। एक वैकल्पिक किस्म की राजनीति स्थापित हो सकेगी। दूसरी ओर यह खतरा है कि केवल चुनावी राजनीति के फेर में पड़कर आंदोलनकारी भी स्थापित राजनीति का हिस्सा बन जाएंगे।

इसकी आगे की नीति क्या होगी?

 यदि यह आंदोलन संपूर्ण क्रांति के उद्देश्य से बंधा है, जैसा कि अरविंद केजरीवाल ने कहा तो उसे अपनी विचारधारा का पुनर्निर्माण करना होगा। इस आंदोलन की शुरु आत भ्रष्टाचार विरोध के एक सूत्र से हुई। शुरू से ही इसमें देशभक्तिका विचार भी जुड़ा हुआ था। हाल ही में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने इसे ‘स्वराज’ के विचार से भी जोड़ा है। अब चुनौती है कि इन तीन सूत्रों को एक समग्र विचार का स्वरूप दिया जाए। नेताओं और अफसरों के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के साथ भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियों और व्यवस्था पर भी एक दृष्टि बनाई जाए। एकांगी और संकीर्ण देशभक्तिकी जगह इस देश के अंतिम नागरिक की निष्ठा जीतने वाले राष्ट्रवाद की कल्पना की जाए। गांधीजी के स्वराज की कल्पना से स्वराज आए। इस वैचारिक चुनौती के अलावा बड़ी सांगठिनक चुनौतियां भी हैं कि ऐसा राजनीतिक संगठन कैसे बने जो स्थापित पार्टी की बीमारियों से मुक्त रह सके। इस देश की क्षेत्रीय और सामाजिक विविधता को आत्मसात कैसे किया जाए? संगठन में मर्यादा बनाने के लिए क्या प्रक्रिया बनाई जाए? आंतरिक लोकतंत्र की व्यवस्था सुदृढ़ कैसे हो? साथ ही देशभर के जनांदोलनों के साथ रिश्ता कैसे बनाया जा सके? यह सब आसान काम नहीं है।

आप भी इससे जुड़े हैं, आपकी इसमें क्या भूमिका है?

 पिछले साल अप्रैल में ही मैंने इस आंदोलन का स्वागत किया था। इसकी कमजोरियों और खतरों को दर्ज करते हुए इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ घटना बताया था। अगस्त के महीने में रामलीला मैदान में मैंने दो-तीन बार संबोधन भी किया और कहा कि यह आंदोलन एक अन्ना हजारे का नहीं देश के हर कस्बे, हर गांव में बैठे किसी न किसी अन्ना का है। उसके बाद लोकपाल बिल पर हुई बहस में मैंने आंदोलनकारियों को सिर्फ एक पार्टी का विरोध करना और भाजपा जैसी पार्टी का समर्थक दिखने के प्रति आगाह किया था। दिसम्बर में भी मैंने रामलीला मैदान से संबोधन किया था। इस बार भी मैंने इस आंदोलन के शुभचिंतक की हैसियत से जंतर मंतर से कई बार बोला। जिन लोगों ने पत्र लिखकर अनशन समाप्त करने और वैकल्पिक राजनीति की शुरु आत का अनुरोध किया था, मैं उनमें से एक था। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों की हर बात से मैं सहमत हूं। मुझे लगता है कि उनके लोकपाल बिल में कमजोरियां थीं और अरु णा राय और साथियों द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर ज्यादा गौर करना चाहिए था। फिर भी यदि आंदोलनकारियों की कमजोरी और सत्ता के भ्रष्टाचार और अहंकार में से मुझे किसी एक को चुनने के लिए कहा जाएगा तो जाहिर है कि मैं

इस आंदोलन का भविष्य किस तरह से देखते हैं? राजनैतिक आंदोलनों के बारे में भविष्यवाणी करना समझदारी नहीं है। आंदोलन के साथियों को बहुत आशाएं हैं, शायद जरूरत से ज्यादा। आलोचकों के मन में आशंकाएं हैं, शायद जरूरत से ज्यादा। भाविष्य इस पर निर्भर करेगा कि यह आंदोलन कितनी गंभीरता और गहराई से चुनौतियों का सामना करेगा जिसका जिक्र हमने पहले किया है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...