Sunday, November 19, 2017

आज के संदर्भ में और प्रासंगिक मुक्तिबोध


रवीन्द्र त्रिपाठी

`भूल गलती’ गजानन माधव मुक्तिबोध की ऐसी कविता है जिस पर कभी दुर्बोधता का आरोप नहीं लगा। उस समय भी जब उनकी कविताओं के बारे मे कहा और माना जाता था कि वे जटिल हैं, `भूल गलती’ के बारे में काव्यमर्मज्ञों से लेकर कविता के राजनैतिक पाठक तक इसे क्रांति और जनविद्रोह की आह्वानपरक कविता मानते थे और आज भी मानते हैं। यानी ये ऐसी कविता है जिसका अर्थ साफ है। ये मुक्तिबोध की लोकप्रिय कविताओं में हैं। उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में बच्चन या दिनकर की कविताएं रही हैं। उस अर्थ में कि सजग रूप से राजनैतिक बदलाव की आकांक्षा वाले वामपंथियों (इसमें हर धारा के वामपंथी शामिल रहे हैं) से लेकर राजनैतिक कविताओं के प्रेमी इसका सार्वजनिक वाचन करते थे। कुछ आज भी करते हैं। इस कविता का छंद जय शंकर प्रसाद की कविता `हिमाद्री तुंग श्रृंग से’ वाला है। यानी पंचचामर छंद। ये प्रसाद जी का प्रिय छंद था। उस पारंपरिक छंद में इसका वाचन करें तो इसके भीतर की गीतात्मकता, लयात्मकता और अर्थमयता अधिक स्पष्ट होती है। इसे एक आह्वानगीत की तरह भी गाया जा सकता है। ये वाचन और पाठ करने वाले को भी जोश से भर सकती है और सुनने वाले को भी। इस कविता में एक नाद सौंदर्य है।
इसके आस्वाद के इतिहास पर नजर डालें तो कुछ और बातों की तरफ ध्यान जाता है। मिसाल के लिए ये कि अपने आरंभिक दोर में ये कविता जवाहर लाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री) की नीतियों और व्यक्तित्व की आलोचना मानी जाती है। यानी नेहरूवाद पर तीखी टिप्पणी। इसका संभावित रचनाकाल भी वही है, (मुक्तिबोध रचनावली के अनुसार सन् 1963) जो नेहरूवाद से मोहभंग का काल माना जाता है। लेकिन नेहरू उस समय सत्तानशीं थे इसलिए इस कविता में वर्णित सुलतानी सत्ता के प्रतीक मान लिए गए। कुछ लोगों द्वारा।.ये सरलीकरण अस्वाभाविक नहीं था। राजनैतिक कही जानेवाली कविताएं अपने वक्त के राजनैतिक माहौल के मुताबिक भी व्याख्यायित होती हैं। लेकिन किसी कविता या लेखन की असली ताकत उसकी तात्कालिकता में नहीं होती है। हो सकता है कि किसी रचना को रचनाकाल के तात्कालिक प्रसंग से जोड़ा जाए और उसके अनुसार उसका विश्लेषण किया जाए। लेकिन कोई रचना तभी कालजयी होती है जब उसके अर्थ और आशय सार्वकालिकता से जुड़ते हैं। आज के समय में नेहरूयुग की विफलता को दिखानेवाली रचना का क्या महत्व है? तब जबकि हम जानते हैं कि पिछले तिरेपन वर्षो में (यानी नेहरू के निधन के बाद) भारतीय राजनीति विकट दौरों से गुजरी है और ऐसे में नेहरूयुग, अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद, स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति का स्वर्णकाल लगने लगा है। फिर मुक्तिबोध की इस कविता के ताजा और प्रासंगिक लगने का कारण क्या है? मुझे तो लगता है कि ये हिंदी की ही नहीं विश्व की भी उन सनातन कविताओं में रहेगी जो विद्रोह का आह्वान करती है। हर युग में और हर देश में। इस कविता के अलग अलग भाषाओं में अनुवाद हों तो हर भाषा के पाठक और परिवर्तनकामी इसे सराहेंगे।
लेकिन साथ ये भी जोड़ना चाहूंगा कि सिर्फ अपने राजनैतिक मंतव्यों के लिए नहीं बल्कि अपने कलात्मक सौष्ठव के लिए भी ये, मुक्तिबोध की कुछ अन्य कविताओं की तरह, चिरस्मरणीय है। इसमें `अंधेरे में’ जैसी महाकाव्यात्मकता भले न हो, परंतु वह नाटकीयता और दृश्यात्मकता है जो आधुनिक हिंदी कविता में बहुत कम हैं। मेरे लिहाज से तो मुक्तिबोध कविता में नाटक लिखनेवाले, कविता में फिल्म और पेंटिंग की रचना करनेवाले अकेले कवि हैं। और पेंटिंग भी दोनों तरह की। आकृतिमूलक और अमूर्त। मुक्तिबोध हिंदी के जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े आलोचक हैं और साथ ही कविता में अन्य कलाओं के तत्वों को लानेवाले अपनी तरह के अकेले रचनाकार हैं। उनकी कविताएं पढ़ते समय़ मुझे ये हमेशा लगता है कि मैं एक ऐसे सभागार में हूं जहां किसी कविता का वाचन हो रहा है, उसी समय एक फिल्म चल रही है और नाटक भी हो रहा है, साथ ही एक कला प्रदर्शनी भी लगी है। मुक्तिबोध का एस्थेटिक्स ( यहां मैं एस्थेटिक्स के लिए हिंदी में प्रचलित शब्द सौंदर्यशास्त्र का प्रयोग जान बूझकर नहीं कर रहा हूं क्योंकि ये मुझे अपर्याप्त लगता है।) बहुकलात्मक है। उनके जैसा बहुकलात्मकता की संभावना लिए आधुनिक हिंदी में कोई अन्य कवि नहीं है। कोई अगर सिर्फ कविता प्रेमी है तो बेशक वो मुक्तिबोध से गहरे में प्रभावित होगा? किंतु जो लोग एकाधिक कलाओं के प्रेमी हैं उनको तो लगेगा कि अरे, मुक्तिबोध के यहां तो कई कलाओं का सामूहिक आयोजन हो रहा है। ऐसे पाठकों को आस्वाद की चुनौती झेलनी होगी। मुक्तिबोध की कविताओं का आस्वाद कठिन रहा है। वह एक प्रक्रिया है जो अनवरत चलती रहती है। यही कारण है कि उनकी कविताएं बार बार पढ़ी जाने की मांग करती हैं। और जितनी बार पढ़ेंगे उससे अधिक बार पढ़ने की इच्छा बलवती होती रहेगी। आइए देखते हैं कि `भूल गलती’ में ये पक्ष किस तरह उद्घाटित होते हैं।
पर सबसे पहले इस कविता का संक्षिप्त सार, ताकि जो इस कविता को न पढ़ें हों उनको भी मोटे तौर पर पता चल जाए कि इसका सिनॉप्सिस क्या है।
संक्षेप में कहें तो ये कविता ये कहती है कि चाहे कोई भी सत्ता कितनी भी ताकतवर क्यों न हो उसके खिलाफ संघर्ष होगा और किसी तरह के जिरहबख्तर या कुंडल कवच किसी आततायी सत्ता को सुरक्षित नहीं रख पाएंगे, जनज्वार हर लौह दीवार को भेद देगी। कविता में एक भूल- गलती नाम की सुल्तानी सत्ता है। वो जिरह बख्तर पहने हुए है और उसने ईमान को कैद कर लिया है। सुल्तानी निगाह तेज पत्थर की तरह हैं। सुल्तान के दरबार मे कई बड़े आलिम फाजिल यानी विद्वान हैं। सब मौन हैं। कोई ईमान की तरफदारी नहीं कर रहा है। हालांकि ईमान बेखौफ है। पूरे दरबार में सन्नाटा है। लेकिन तभी कोई कराह की तरह निकल भागता है। आगे कवि कहता है लगता है कि कोई बुर्ज की दूसरी तरफ लश्कर (सेना) का निर्माण कर रहा है और वो हमारी हार का बदला चुकाने आएगा। हमारी हार का आशय पीड़ित जनता से है। इस तरह इस बारे में संदेह नहीं रह जाता कि ये कविता जनविद्रोह की वकालत करती है। ये पीड़ित जनता के समर्थन में लिखी गई है और मार्क्सवादी रहे मुक्तिबोध की राजनैतिक पक्षधरता को दिखाती है।
अब आगे बढ़ें और इसके कलात्मक पक्ष की बातें करें।
आइए इसके नाटकीय पक्ष को देखें। ऐसा लगता है कि मानों एक मंच सज्जा है जिसमें दरबार का दृश्य है। उस दरबार में शायर सूफी, मनसबदार सब खड़े हैं। वे खामोश हैं। और तभी एक अप्रत्याशित और नाटकीय घटना घटती है। जैसा कि नाटकों होता है-


इतने में, हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरवाजे आम मे मैं भी
संभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते, 
सहमकर, रह गए
अब इसके आगे की पंक्तियां देखिए। आगे जो दृश्य है वह अतियथार्थवादी है और जिसे फिल्म में भी चित्रित करना कठिन है
दिल में अलग जबड़ा लिए, अलग दाढ़ी लिए 
दुमुंहेपन के सौ तजुर्बे की बुजुर्गी से भरे
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गए।
शब्द में कहना सरल है लेकिन जो बिंब मुक्तिबोध बनाते हैं वह किसी चित्रकार या फिल्मकार के लिए भी दिखाना एक टेढ़ी खीर है। सोचिए दिल में जबड़ा और दाढ़ी रखने का बिंब कितना मौलिक और मुक्तिबोधीय है। वे लोग जो दोमुंहापन रखते हैं और सत्ता के सामने कभी सच नहीं बोलते उनकी धूर्तता और चालाकी को रेखांकित करने का काम मुक्तिबोध ने कई कविताओं में किया है। मुक्तिबोध रचनावली में संकलित एक कवितांश में (जिसका शीर्षक नहीं दिया हुआ है) वे लिखते हैं-
समीक्षक हैं, पंडित हैं, कवि हैं
स्वयं प्रधान धारा से हटकर 
उससे कटकर
तट पर
सिद्धांतों के हस्तिदंती स्वप्नों पर
स्वयं शिल्प-मूर्ति 
रूप में स्थित हो
स्वर्गचुंबी बनते है
वे दंभी हैं।
दोमुंहे बुद्धिजीवियों को मुक्तिबोध अपनी कई कविताओं में निशाने पर लेते हैं। इस कविता में में भी जब वे अल गजाली, इब्न सिना और अलबरूनी का उल्लेख करते हए उनको सुल्तान के दरबारी के रूप मे चित्रित करते हैं तो वे चालाक बुद्धिजीवियों को ही प्रतीकात्मक रूप से पेश कर रहे होते हैं। हालांकि मैं यहां जरूर कहूंगा कि आज अगर मुक्तिबोध होते तो इन तीन नामों से दो के नाम- इब्न सिना (980-1037) और अल बरूनी (973- 1048)- अपनी कविता में नहीं रखते। कविता के रचना के समय इब्न सिना और अलबरूनी के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम जानकारियां थीं। ये दोनों मध्य एशिया के बड़े वैज्ञानिक चेतनासंपन्न व्यक्तित्वों में थे और इनके बौद्धिक दाय के बारे में अभी भी बहुत सारी चीजें अज्ञात हैं। पर इतना तय है इन दोनों की ज्ञान-पिपासा का असर यूरोपीय पुनर्जागरण पर भी पड़ा। इब्न सिना का प्रभाव तो यूरोपीय मेडिकल साइंस पर भी है। वैसे कविता में इस तरह की आजादी ली जा सकती है जैसी `भूल गलती’ में इन दो व्यक्तित्वों के प्रतीकात्मक उल्लेख से ली गई है, लेकिन आस्वाद और विश्लेषण के समय मुक्तिबोध के काव्य-सिद्धांत `ज्ञानात्मक संवेदना’ को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। वैसे विद्वान तो अल- गजाली (1058-1111) भी था। वह सूफी भी था। लेकिन वह कठमुल्लावाद का प्रवक्ता भी बन गया था। इसलिए उसे दरबारी के रूप में प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करने में किसी तरह का अनौचित्य नहीं है।
आखिर में सिर्फ इतना कि मुक्तिबोध की ये कविता अपने शाब्दिक आकार में जितनी लंबी है उससे कहीं अधिक अपने प्रभाव में। उसका आयतन कई युगों तक फैलेगा और कई अन्य कलाओं के प्रिज्म से भी उसे देखा जा सकता है। जी हां. ये कविता सिर्फ पढ़ने की ही नहीं बल्कि देखने की भी है। ये कविता कई तरह की प्रतिध्वनियां पैदा करती है और हमारी ओर लौटती हुई प्रतिध्वनियां हमें उठाकर ऐसे लोक में ले जाती हैं जिसमें ईमान `बेखौफ नीली बिजलियां’ फेकता है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...