Monday, March 16, 2009

भूत-वूत कुछ नहीं होता...

भूत-वूत कुछ नहीं होता...
लोकसभा चुनावों की नजदीकी से राजनीतिक दल बेकरार हो उठे हैं। उनकी बेकरारी उनके बयानों में साफ झलकने लगी है। वैसे तो चुनावी दंगल में उठापटक होना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार तीसरे मोर्चे ने पहले स्थापित दो मोर्चो कांग्रेस और भाजपा के लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। भूत से डरने वाला व्यक्ति बार-बार कहता है भूत-वूत कुछ नहीं होता। कांग्रेस भी कुछ ऐसा ही करती नजर आ रही है। तीसरे मोर्चे से मोर्चा लेने की कमान पार्टी ने अपने तेजतर्रार नेता प्रणव मुखर्जी को दी है। मुखर्जी ने हमला बोलते हुऐ कहा तीसरे मोर्चे के पास न तो कोई राजनीतिक दृष्टि है और न हीं कोई जनहित कार्यक्रम। प्रणव ने अतीत की दुहाई देते हुए कहा कि पहले भी दो बार 1989 और 1996 में तीसरा मोर्चा बना था उसका हस्र किसी से छिपा नहीं है। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी चुप नहीं रह पाए आखिर बोल ही पड़े वैसे तो तीसरा मोर्चा जीतेगा नहीं और अगर जीता भी तो चलेगा नहीं। भगवा पार्टी के सामने तो सबसे बड़ी समस्या पारिवारिक अंतर्कलह पर पर्दा डालने की है। सुधांशु मित्तल को पूर्वोत्तर का कार्यभार सौंपने पर जेटली ने पार्टी अध्यक्ष से खुलकर नाराजगी जताई। मोदी-आडवाणी के बीच टकराव तो गाहे-बगाहे सामने आता ही रहता है। बीजद भी अब तीसरे मोर्चे की तरफ रुख कर चुका है। इनमें से अधिकतर एनडीए का हिस्सा रहे हैं। अपने मुखिया दल से खफा इन दलों ने तीसरे मोर्चे का हाथ थामकर भाजपा के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। मुखर्जी और राजनाथ सिंह जी डरने की जरूरत नहीं है, भूत-वूत कुछ नहीं होता।
एक दूसरे के धुर विरोधी कांग्रेस और भाजपा तीसरे मोर्चे को फिजूल का ठहराने में एक दूसरे के सुर में सुर मिला रहे हैं। और क्यों न हो विज्ञान का सर्वमान्य सिद्धांत है कि विपरीत ध्रुवों में गजब का अकर्षण होता है। यह तो हुई विपरीत ध्रुवों के साझा मंच की बात अब बात करें तीसरे मोर्चे की तो यह तो भानुमति का कुनबा है। बेचारे वामदल कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा लाकर कुनबा जोड़ने में लगे हैं। लेकिन जहां माया होगी, वहां पर तो कहीं धूप कहीं छाया वाले हालात तो पैदा ही होते रहेंगे। प्रधानमंत्री पद को लेकर मोर्चे के भीतर जारी उठापटक से भला कौन वाकिफ नहीं है। फिलहाल तो
मायाजाल में उलङो तीसरे मोर्चे को बहन जी ने यह कहकर फौरी राहत दे दी है कि चुनाव नतीजे आने के बाद पीएम पद के बारे में चर्चा होगी। पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों से उत्साहित माया मेमसाब ने कह दिया भई नतीजे आ जाने दीजिए, जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी होगी भागीदारी। अब उत्तरप्रदेश में तो माया की सत्ता फिलहाल तो मजबूत ही दिखाई देती है, लेकिन विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में बढ़े मत प्रतिशतों से बहनजी उत्साहित हैं तो अतिविश्वास में रहना ज्यादा ठीक नहीं है।
संध्या द्विवेदी- आज समाज

ये इश्क नहीं आसां ...

ये इश्क नहीं आसां ...
सोमवार को हम मिले, मंगलवार को नैन, रविवार आने तक एक दूसरे से अलग रहना मुश्किल हो गया। चांद-फिजा का इश्क भी कुछ ऐसे ही परवान चढ़ा था। महज दो माह पहले दोनों एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले मुहब्बत के दुश्मन जालिम जमाने को ठेंगा दिखा रहे थे। न जाने इस इश्क को किसकी नजर लग गई की चांद-फिजा से रूठ गया। कल तक आई लव यू और आई कांट लिव विदाउट यू के संदेश भेजने वाला चांद आज नए युग के प्रेमवाहक यंत्र (नया युग का इसलिए क्योंकि कहा जाता है कि पहले प्रेमीजनों के संदेश कबूतर लेकर जाते थे) मोबाईल से तलाक,तलाक, तलाक का संदेश भेज रहा है। उधर फिजा तूफानी हो गई है। उन्होंने भी चांद को दिन में तारे दिखाने की ठान ली है। और पति-पत्नी की बेहद अंतरंग बातों को खुलकर लोगों के बीच बोल रही हैं। उन्होंने उन पर हवस मिटाने और बलात्कार करने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं फिजा को अब अपने पिता की मौत की भी याद आ गई है। उनका कहना है कि जब चांद ने घर पर शादी का प्रस्ताव रखा था तभी मेरे पिता को दिल का दौरा पड़ा था। यानी अब्बा जान, पिता कुछ भी कह लो क्योंकि अब तो फिजा मोहम्मद उर्फ अनुराधा बाली हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मो का बराबर आदर करती हैं। दूसरी तरफ चांद को अब अपनी पहली बीवी और बच्चे याद आ रहे हैं। घर, परिवार और पद की कीमत पर इस्लाम कुबूल कर चांद और फिजा बने, चं्र और अनुराधा के सिर से इतनी जल्दी प्यार का बुखार उतर जाएगा इस बात का तो एहसास मीडिया धुरंधरों को भी नहीं था। वैसे पत्रकारों के अलावा समाज में बुद्धिजीवियों की जमात से कई वर्ग ताल्लुक रखते हैं लेकिन यहां पर पत्रकारों का जिक्र इसलिए किया क्योंकि, क्योंकि उनके सामने नई-नई खबरों को खोजने की चुनौैती बनी रहती है। जसे इस वक्त खबरनवीसों को खाना खराब है कि आखिर चुनाव नतीजे किस पाले में जाएंगे। समीकरण भी बनाने शुरु कर दिए हैं। कौन किससे मिलाएगा हाथ। इतना ही नहीं जोड़-तोड़ से सरकार बनी तो कितने दिनों चलेगी। वगैराह-वगैराह। खैर राजनीति की दशा तो हरी अनंत, हरी कथा वाली है। मेरा मकसद राजनीति करना नहीं था, यह तो बात चली तो दाल भात में मूसर बनने वाली अपनी आदत से मजबूर मैंने अपनी जानकारी आप लोगों से शेयर कर ली। वापस अपने मुद्दे चांद बनाम फिजा पर आते हैं। यह पूरी रामकथा पर खबरनवीसों की लगातार नजर है। चुनाव की चिल्ल-पों के बीच दास्तान-ए-मुहब्बत का जिक्र दर्शकों और टीवी लगातार सीधा प्रसारण करने वालों के लिए राहत का काम करता है। ये इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। वैसे मामला बेहद व्यक्तिगत है लेकिन लगता है कि फिजा और चांद ने दरिया के किनारे बैठकर ही इश्क कर लिया, डूबने की जरूरत नहीं समझी। डूबे होते तो दूर तक साथ जाते।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...