Thursday, November 11, 2010

गाँधी, स्मृति के झरोखे से

मनोहर नायक

ओबामा से लेकर देश के नामी और छुटभैये मूल्य-निरपेक्ष गांधी भक्तों के इस दौर में बुधवार को तीस जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति परिसर में कृष्णदेव मदान के संस्मरण सुनना व एके चेट्टियार का गांधी पर वृत्तचित्र देखना अत्यंत भावात्मक अनुभव था। गांधी की शहादत की यह स्थली वैसे भी महात्मा की यादों को जागृत कर देती है। आज जो अनुभव था वह उसे सजल कर देने वाला था। मदान या चेट्टियार का चालू अर्थ में गांधीवाद से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन एक शब्द और दूसरे के चलचित्र से गांधी के प्रति उनका अनन्य प्रेम न सिर्फ स्पष्ट था, बल्कि हैरत में डालता और रोमांचित भी करता था।
मदान साहब इस समय छयासी बरस के हैं। जब इस जगह पर गांधीजी के सायंकालीन प्रवचनों को रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी उन्हें मिली, 19 सितंबर, 1947 में, तब वे चौबीस बरस के थे और ऑल इंडिया रेडियो में कार्यक्रम अधिकारी थे। रोज यह काम करना उन्होंने खुद चुना। सिर्फ तीन दिन बीच में ऐसे आए जब उन्हें इससे छुट्टी मिली, एक तो जब गांधीजी कुरुक्षेत्र गए और बाद में दो दिन उपवास पर रहे। तीस जनवरी के अभागे दिन भी वे अपने उपकरणों को साधने में व्यस्त थे। सिर्फ आंख उठाकर उस ओर देखा भर था जहां से गांधी रोज प्रार्थना स्थल तक आते थे। गांधी आते दिखे। वे अपनी तैयारी में फिर लग गए। तभी गोली चलने की आवाज आयी। पहली बार उन्होंने ध्यान नहीं दिया। दूसरी और फिर तीसरी! उन्हें अंत:प्रेरणा से वह लगा, जो हो चुका था। सामान सुरक्षित कर दो-चार मिनट में वे वहां थे। आभा-मनु के कंधों पर हाथ रखे जिस गांधी को आते देखा था, वे निष्प्राण पड़े थे।

कृष्णदेवजी ने वहां उपस्थित लोगों को गांधी में तल्लीन कर दिया। वे अत्यंत सधी वाणी और आत्मीय भाव से उस युगपुरुष को याद कर रहे थे, जिनके बिल्कुल पास बैठकर वे कई महीने रिकॉर्डिग करते रहे। वे माइक लेकर उन जगहों तक गए और सब कुछ चित्रवत बताते रहे। उन्हें आज तक पता नहीं कि वह कौन व्यक्ति था जो गांधी की पार्थिव देह को अकेले कमरे तक उठाकर ले गया। उनका अंदाज था वे बापू के प्राकृतिक चिकित्सक दिनशा मेहता थे। पर बाद में दिनशा मेहता ने बताया कि उन्हें तो बापू ने कराची भेजा हुआ था। मदानजी के दिल को जो बात उस रोज छू गयी, वह थी किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा उस जगह, जहां गांधी गिरे थे, एक छोटी मोमबत्ती जला देना, जो उस अंधकार में कंपकंपाती जलती रही।
मदान साहब ने कहा, ‘उस वक्त आज के जसा सूचना-संचार नहीं था। हादसा शाम 5.17 पर (मदानजी के अनुसार उनकी घड़ी 5.16 बजा रही थी।) हुआ। सबसे पहले माउंटबेटन आए, फिर नेहरू, फिर आजाद और फिर कुछ ही देर पहले बापू से मिलकर गए पटेल आए। और कुछ ही मिनटों में बड़ी तादाद में लोग आने शुरू हो गए। हर मिनट वे बढ़ते जा रहे थे। फिर नेहरू भीगी आंखों से कमरे से निकले। मुख्यद्वार पर आकर अपने को स्थिर किया और फिर ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गयाज् वाला अपना प्रसिद्ध भाषण दिया। मदान साहब ने नेहरू को ‘कवि बताते हुए वह श्रद्धांजलि फिर पढ़ी और कहा नेहरू सुबक रहे थे, पर बहते आंसुओं को वे बहने दे रहे थे।
गांधीजी का प्रवचन आधे घंटे से एकाध मिनट ज्यादा हो जाता था। साढ़े सात बजे उसका प्रसारण आठ बजे के समाचारों से ठीक पहले होता था। टेलीफोन के जरिये गांधी की वाणी आकाशवाणी के कंट्रोल रूप पहुंचती और वहां उसे रिकॉर्ड किया जाता। एक-दो मिनट का भाषण संपादित करना पड़ता। एक दिन हिम्मत कर उन्होंने सुशीला नैयर से कहा कि बापू से उनतीस मिनट बोलने को कहिए जिससे संपादित न करना पड़े। यह सुनते ही वे बिफर गयीं, बोलीं-‘तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई उसे एडिट करने की। तुम्हें तो नौकरी से निकाल देना चाहिए। उन्होंने डायरेक्टर जनरल की भी यही मंशा बतायी तो गांधीजी की बेहद करीब रहीं सुशीलाजी ने कहा कि उन्हें भी निकाल देना चाहिए। तब एक दिन मदानजी ने बापू से ही यह कहने का साहस किया, यह मानते हुए कि वे कम से कम निकालने की बात तो नहीं करेंगे। गांधीजी ने उनकी इल्तिजा सुनी और कहा, ‘इसमें क्या है, तुम अंगुली उठा दिया करना। उन्हें रोज अपना काम करते देख वे उन्हें पहचानने लगे थे। मदान साहब ने कहा, उस दिन से बस उनतीस मिनट होते ही मैं अंगुली उठा देता। गांधीजी वाक्य भी पूरा नहीं करते और कहते बस हो गया। उस दिन के बाद से जो भी उनके भाषण हैं वे इसी बात पर खत्म होते थे-‘बस हो गया।

कृष्णदेवजी ने ऐसे कुछेक संस्मरण सुनाए। प्रवचन के पहले सर्वधर्म प्रार्थना होती थी। किसी को कोई आपत्ति हो तो उससे हाथ उठाने को पहले ही कहा गया था। कुरान के पाठ के समय एक सरदारजी गुरुकीरत सिंह नियमित रूप से हाथ उठाते थे। कुछ दिनों बाद गांधी उनका हाथ उठने पर मुस्कुराकर हाथ हिला देते। नवंबर 47 में गांधीजी एक दिन के लिए कुरुक्षेत्र गए थे। वहां शरणार्थियों के शिविर में कंबल नहीं था। तब पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव थे। दूसरे दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इतना भर कहा कि, गोपीचंद का क्या इंतजाम है, कंबल भी नहीं हैं। दूसरे दिन अखबारों में यह बात हेडलाइन बनी। शाम को प्रार्थना सभा में गोपीचंद आगे बैठे हुए थे। उन्होंने वहां दो बार एडविना माउंटबेटेन को भी पालथी मारे बैठे देखा। आजाद, पटेल तो जब-तब आते ही थे। मदानजी से एक व्यक्ति ने सवाल किया, क्या बापू के अंतिम शब्द ‘हे राम थे? उन्होंने कहा, ‘मैंने तो सुना नहीं। मैं कुछ मिनट बाद उस जगह पर पहुंचा। पर यह किंवदंती है तो इसे किंवदंती ही रहने देना चाहिए। बाद में जब उनसे पूछा कि क्या वे अक्सर यहां आते हैं तो उन्होंने कहा, ‘हां, मैं यहां बहुत आता हूं। यह जगह तो मंदिर-मस्जिद से बड़ी जगह है।ज्
अन्नामलई कुरुयाप्पन चेट्टियार की गांधी-प्रेम की कहानी भी विलक्षण है। संयोग से चार नवंबर, 1911 में जन्मे एके चेट्टियार यह जन्मशती वर्ष भी है। 10 सितंबर, 1983 को उनका निधन हुआ। तमिलनाडु में करारकुडी के पास कोट्टायुर में उनका जन्म हुआ था। वे व्यवसायी नाट्टकोट्टई चेट्टियार समुदाय से थे। टोक्यो और अमेरिका में फोटोग्राफी की पढ़ाई की थी। गांधी और सिनेमा का उन्हें सम्मोहन था। दो अक्टूबर, 1937 में न्यूयॉर्क से डबलिन जाते हुए उन्हें सूझा कि क्यों न गांधी पर डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाई जाए। अर्थ-संकट था। फिर सभी ने हतोत्साहित भी किया। आखरिश उनके समुदाय ने उनकी मदद की। फिर वे जुट गए। चार महाद्वीपों में एक लाख किलोमीटर से ज्यादा यात्रा कर जिस किसी के पास भी गांधी के फुटेज थे, वे प्राप्त किए।
दुनियाभर के कोई सौ फोटोग्राफरों का तीस साल का काम जमा किया। उनके पास गांधी की पचास हजार फुट की सामग्री जमा हो गई। उसे संपादित कर बारह हजार फुटेज का वृत्तचित्र तैयार किया। काम शुरू करते वक्त वे छब्बीस के थे, फिल्म जब बन गई तब उनतीस के। चेन्नई में 1940 में रॉक्सी सिनेमा में यह रिलीज हुई। फिल्म पहले तमिल में बनी थी, फिर उसे तेलुगू और फिर हिंदी में डब किया गया। हॉलीवुड जाकर उन्होंने इसका अंग्रेजी संस्करण भी तैयार किया। आजादी के पहले राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में फिल्म दिल्ली के रीगल सिनेमा में दिखाई गई थी। तीनों भारतीय भाषाओं की फिल्म करीब दो घंटे से ज्यादा अवधि की थी। लेकिन फिर दशकों से यह फिल्म ओझल रही। इसे ढूंढने की बहुतेरी कोशिश हुई। अंतत: हॉलीवुड वाला इक्यासी मिनट का हिस्सा (ट्वेंटिअथ सेंचुरी प्रॉफिट : महात्मा गांधी) कुछ समय पहले मिला। चेट्टियारजी की यह दास्तान दिलचस्प, प्रेरणास्पद और लंबी है। उन्होंने तमिल में गांधी पर किताब भी लिखी (महात्मा के चरणों में)। उनकी किताब से भी फिल्म के कुछ सुराग मिले। अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित भी किया था तभी से मूल फिल्म गायब हो गई। लेकिन बुधवार को जो अंग्रेजी संस्करण देखने को मिला वह अद्भुत था। समय का पता ही नहीं चला। 1912 में गांधी के गुरु गोखले दक्षिण अफ्रीका गए थे। उसके अंश तो गांधी पर उपलब्ध फिल्मी फुटेजों में भी कहीं नहीं है। गांधी, कस्तूरबा, पटेल, आजाद सब हैं। नेहरू हैं और सिगरेट हाथ में दबाए उनके पिता मोतीलाल भी, देशबंधु से बतियाते हुए। आजादी का पूरा आंदोलन उस पारदर्शी युग से झांकता और झंकारता दिखाई देता है। एक बच्चे को गोद में लेकर उनका मुक्तहास्य तो एक बच्ची को अपनी सूत की माला पहनाकर दूसरे सिरे में अपना सिर डालने का कौतुक..विनोद! गांधी की अनेक विभोर करती भंगिमाएं तो नेहरू की सम्मोहिनी मुद्राएं। एक पूरा युग आपके सामने जीवंत! फिल्म के समाप्त होने पर रह जाता एक अफसोस, कि, काश, पूरी फिल्म भी देखने को मिल पाती! गांधी-स्मृति का यह आयोजन बेहद आत्मीय था, जिसमें चरखा और गांधी साहित्य देकर मदानजी का सम्मान किया गया। पत्रकार और लेखक देवदत्त ने गांधी की प्रासंगिकता को रेखांकित किया। गांधी संस्थाओं को फिल्म की सीडी भेंट की गई।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...