Sunday, August 30, 2009

यह जिन्न है कि ..

बचपन में अलादीन का चिराग से निकला जिन्न कभी-कभी सपने में आ जाता था लेकिन एक बार साध्वी सुगंधा का प्रवचन सुना कि सब गायब। लेकिन जिन्न होता है कि नहीं इस बात की पुष्टि रह-रह कर संदेह पैदा करती है। मान लेते हैं कि नहीं होता है तो बार-बार जिन्ना का जिन्न बोतल से बाहर क्यों आ जाता है। और अगर मान लेते हैं कि होता है तो मुंहमांगी मुराद पूरी क्यों नहीं कर देता। जनाब जिन्न को लेकर मामला आम आदमी के लिए ही क्रिटिकल नहीं है पार्टियों के नेताओं को भी सपने आते हैं। आज का जिन्न बहुत उदार है बिना रगड़े बाहर निकल कर कहता है कि ‘क्या हुक्म है मेरे आका!ज्। जिन्ना का जिन्न तो हमेशा के लिए चिराग से बाहर आकर किताबों में बस गया है। रसातल में जा रही पार्टी को उबारने के लिए अक्सर जिन्ना का जिन्न किताबों से बाहर आता है और दो चार को लपेट कर चला जाता है। लेकिन इससे किसी को खास नुकसान नहीं होता है। मीडिया को मसाला मिल जाता है। बुद्धिजीवी बहस के लिए बुलाए जाते हैं। अखबार वाले भी पन्ने रंगते हैं। पाकिस्तान-भारत नए सिरे से रिश्तों की गरमाहट और ठंडई महसूस करते हैं।
एक विज्ञापन कंपनी ने सहीराम से आइडिया मांगा कि धंधा मंदा है क्या किया जाए? वह बोले, बस कुछ नहीं अपने ग्राहक से कह दो कि वह चिल्लाकर एक बार कह दे कि जिन्ना सेक्युलर नेता था। बाकी काम उसका जिन्न संभाल लेगा।
भाजपा के आडवाणी को जिन्ना प्रेम हुआ कि पार्टी ने कमर कस ली। अब जसवंत सिंह ने अपनी किताबों में जिन्ना को कुछ- कुछ कह दिया। पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। मामला थमने का नाम नहीं ले रहा है। चक्र सुदर्शन की तरह जिन्ना का जिन्न घूम रहा है जो मिला उसे लपेटा, जो छूट गया उसे अगली बार के लिए छोड़ दिया। जिन्न को सुदर्शन ने भी पकड़ लिया और वही बात कह दी जो जिन्ना प्रेमियों ने कही थी। बस मामले ने तूल पकड़ लिया। आश्चर्य की बात यह है कि जिन्न को खुद पता नहीं है कि उसके पास कितनी शक्ति है। वह तो बस ऐसे ही लोगों को छूता है कि असर दिखने लगता है। यह असर अगर चुनाव में दिखा तो चारों तरफ जिन्न ही जिन्न की चर्चा होने लगेगी। बाकी मुद्दों को भूत पकड़ लेगा और शायद पार्टयां दाल-रोटी का भाव भी भूल जाएं।
अभिनव उपाध्याय

Saturday, August 29, 2009

अभी तो मैं जवान हूँ


सुप्रसिद्ध कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव 28 अगस्त को 80 वर्ष के हो गए । इस उम्र में भी वे वैसे ही जुझारू, बौद्धिक रूप से सजक और रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं जिसके लिए उन्हे शुरू से ही जाना जाता है। भारतीय वंचित समाजों के लिए भूमिका ऐतिहासिक महत्व की है। बहस तलब हर मुद्दे-प्रसंग पर राजेन्द्र यादव एक नई दृष्टि लेकर आए हैं। नयापन उनकी विशिष्टता है जिसके कारण वे हिन्दी जगत की चेतना पर हमेशा अपना दबदबा बनाए रखते हैं। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता के पीछे उनका नयापन है। वे खुद कहते हैं कि नयापन का अर्थ है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। सालगिरह के अवसर पर मशहूर कथाकार, विचारक और ‘हंसज् के संपादक राजेन्द्र यादव से पंकज चौधरी की बातचीत


प्रश्न 1-मशहूर कथाकार संजीव ने अपने एक इंटरव्यू में आपको ‘बांका जवानज् कहा था। आपकी सक्रियता, गतिशीलता और लड़ाकू तेवर को देखते हुए अभी भी संजीव की बात आपके ऊपर सटिक बैठती है। हालांकि अब आप अस्सी पार के हो गए हैं। इस उम्र में आकर मेरा ख्याल है कि एकाध अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के अमूमन मूर्धन्य भसिया जाते हैं?

-मैं मानता हूं कि आदमी उम्र से वृद्ध नहीं होता। उम्र शरीर की होती है, मन की नहीं। जब तक आपको संसार की सुंदरता आकर्षित करती है तब तक उम्र आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं अभी भी भीतर से अपने-आपको युवा ही महसूस करता हूं। उम्र का अर्थ होता है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। इस अर्थ में मैं भविष्यवादी हूं और जो मैं नहीं हूं उसे युवा मित्रों की आंखों में देखकर प्रेरणा पाता हूं। कुछ अतीतजीवी लोग बीस-पच्चीस वर्षो में ही बूढ़े होने लगते हैं। जो यथास्थिति को तोड़ नहीं सकता वह किस बात का युवा है। युवा होने का मतलब है कि मूल मान्यताओं, परंपराओं या विश्वासों को मानने से इनकार करना। हमारे बाप-दादा जहां खड़े थे अगर हम भी वहीं खड़े रहें तो फिर मैं समझता हूं कि हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है।

प्रश्न 2-उम्र के इस मोड़ पर आकर क्या कभी आपको ऐसा लगा कि जीवन अकारथ गया, व्यर्थ गया। आप फलां किताब लिखना चाहते थे, लिख नहीं पाए। कुछ और बड़े कामों को अंजाम देना चाहते थे, दे नहीं पाए। आपने कहीं लिखा है कि यदि आपका पैर सही होता तो आप लेखक की जगह पालिटिशियन होते?

-जितने भी असंतोष हैं सब युवा होने के प्रमाण हैं। मुङो वही सब करना है जो अभी तक मैं नहीं कर पाया। यहां मैं यह बात तुम्हें बता दूं कि पैर का टूटना मेरे लिए कभी भी बाधा नहीं बना। मैं पूरे भारतवर्ष और विदेशों में घूमा हूं। पहाड़ों से लेकर कन्याकुमारी तक। जीवन में कहीं भी ये भावना आड़े नहीं आई कि मुझमें कोई कमी भी है। हां, इसका एक फायदा यह हुआ कि मेरा ध्यान अध्ययन की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। अभी तक लगभग मेरी 60 किताबें छप चुकी हैं और आठ-दस छपने की तैयारी में हैं। फिर भी मुङो लगता है कि अभी तक मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो मेरा अपना हो।

प्रश्न 3- स्त्री विमर्श के आप बड़े पैरोकार हैं। यूपीए-2 का जब गठन हुआ तो कांग्रेस ने तीन महीने के अंदर महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने की बात की। पेंच इसमें यह है कि इस आरक्षण का दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं ने विरोध करना शुरू कर दिया है। माननीय शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अगर यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में पास होता है तो मैं सुकरात की तरह जहर खा लूंगा। इनका तर्क है कि राजनीति में दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को कम करने के लिए ‘महिला आरक्षणज् जसा षड्यंत्र रचा गया है। दूसरी ओर इनका कहना है कि हां, ‘आरक्षण के अंदर अगर आरक्षणज् हो तो इस विधेयक को पारित करने पर विचार किया जा सकता है। मेरा ख्याल है कि ‘आरक्षण के अंदर आरक्षणज् का जो तर्क है उसमें दम है, क्योंकि मायावती जसी पावरफुल दलित महिला के लिए भी रीता बहुगुना जोशी जसी महिला दिन-दहाड़े अपशब्दों का इस्तेमाल कर देती हैं?

- ये सारी की सारी राजनीति की बातें हैं जो समय और सुविधा को देखकर की जाती हैं। इन्हें गंभीरता से लेनी भी चाहिए और नहीं भी लेनी चाहिए। सही है कि महिला विधेयक अगर पास हुआ तो ऊंचे, प्रभावशाली और सम्पन्न महिलाएं ही विधायिका में छा जाएंगी। इस विधेयक में ऐसा प्रावधान जरूर होना चाहिए कि पिछड़ी और दलित जातियों की महिलाओं को सामने आने का अवसर मिले। अवसर मिलेगा तो मैं समझता हूं कि वे योग्यता भी अर्जित कर लेंगी। सारा खेल अवसरों का है। योग्यता तो बाद की चीज है। अभी तो यह भारत भी सन् 47 में दी गई उस स्वतंत्रता जसा ही लगता है जब उच्च सवर्ण पुरुषों ने सारे शासन को हथिया लिया और महिलाएं और दलित लम्बे वक्त तक इस भ्रम में बने रहे कि यह स्वतंत्रता उन्हें भी मिली है। भ्रम भंग की प्रक्रिया में महिला और दलित आंदोलन सामने आए। डा. आम्बेडकर ने तब भी इस स्वतंत्रता का विरोध किया था। आज अगर महिलाएं ऊंचे पदों पर दिखाई देती हैं तो हम इसे पचा नहीं पाते। जहां तक अशालीन शब्दों के प्रयोग की बात है तो क्या हमने कभी संसद और विधानसभाओं में उन दृश्यों की समीक्षा की है जहां एक-दूसरे को भयंकर गालियां दी जाती हैं। कुर्सियां फेंकी जाती हैं और बाहर निकलकर समझ लेने की धमकियां दी जाती हैं। सही है कि रीता बहुगुना जोशी को ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। मगर जब पूरे राजनीति के कुएं में ही भांग पड़ी हो तो अकेले इन्हें ही दोष देना क्यों जरूरी है।

प्रश्न 4-‘हंसज् ने एक लम्बे अरसे तक हिन्दी पट्टी में वैचारिक उत्तेजना पैदा करते रहने का काम किया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और उत्तर आधुनिकता जसे विमर्शो को हिन्दी में पैदा करने का श्रेय ‘हंसज् को जाता है। आपके लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लेखों ने हमारे जसे युवा लेखकों का निर्माण किया है। ‘हंसज् जब अपने शिखर पर था तो ज्ञानरंजन का वह कथन मुङो याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि राजेन्द्र यादव ने सारे सरस्वतियों को ‘हंसज् में बिठा रखा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ‘हंसज् का वो ‘तेजज् पता नहीं कहां गुम हो गया है। अब तो मैं इसे 1-5 में भी नहीं रखता?

- जितनी बातें तुमने ‘हंसज् के बारे में बताई हैं इस संदर्भ में मेरा कुछ भी कहना इसलिए गलत है क्योंकि हंस की उपलब्धियों की चर्चा करना पाठकों का काम है मेरा नहीं। कुछ पाठक तो यह भी कहते हैं कि ‘हंसज् ने जिस तरह की जागरूकता पाठकों में फैलाई है वैसी जागरूकता न कभी किसी पत्रिका ने फैलाई थी और न ही स्वतंत्रता के बाद के किसी भी आंदोलन ने। मगर मैं मानता हूं कि ये सब हिम्मत बढ़ाने की बातें हैं। मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने अपने मित्रों की मदद से ही की। हां, ये सही है कि आप हमेशा एक आवेग, गुस्से और उत्तेजना में नहीं बने रहते। ठहराव भी आता है। हो सकता है ‘हंसज् में इधर कोई ठहराव आया हो, मगर शायद हम भारतीयों की आदत है कि जो कुछ पहले हो चुका है वही महान है। जो मिठाइयां और चाट हमने अपने बचपन में खाए थे वैसी आज कहीं नहीं मिलती। जबकि स्थिति यह है कि दोनों पकवानों की कलाओं और स्वाद में बहुत संपन्नता आई है। ‘हंसज् को लेकर तुम्हारी बातों में भी यही है। और यहां तुम्हारा पुराण मोह दिखाई देता है।


प्रश्न 5- ‘हंसज् के सलाना कार्यक्रम में हाल ही में डा. नामवर सिंह ने जिस तरह से दलित लेखक अजय नावरिया के लिए ‘लौंडाज् शब्द का इस्तेमाल किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम होगी। क्योंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘लौंडाज् शब्द के क्या मायने हैं इसको नामवर सिंह से बेहतर कौन जानता होगा। लेकिन यह भी तो सच है कि आप अजय नावरिया को जरूरत से ज्यादा प्रमोट करते रहते हैं। आपके इसी प्रमोशन के कारण बहुत सारे दलित लेखक भी आपके खिलाफ हो गए हैं?

-इसका जवाब मैं ‘हंसज् के अगस्त अंक में दे चुका हूं। वैसे दिल्ली और आगरा की मुसलमानी संस्कृति में ‘लौंडाज् शब्द प्यार में इस्तेमाल किया जाता है। ‘यह आप का लौंडा है।ज् बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो यह शब्द ‘लमड़ाज् हो जाता है। खर! हिन्दी का तीसरा शब्द ‘चेष्टाज् मराठी में अश्लील प्रयत्नों के लिए इस्तेमाल होता है, जिस तरह हिन्दी के ‘बालज् और बांग्ला के ‘बालज् में जमीन आसमान का अंतर है। इसलिए इतना ही नहीं नामवरजी की बाकी बातों को भी गंभीरता से लेने की क्या जरूरत है। वे कहते चाहे जो हों लेकिन वे मूलत: स्त्री, दलित या युवा विमर्श को बहुत समर्थन नहीं देते। ये उनका पुराना रवैया है। उस दिन वे राहुल गांधी की युवा राजनीति को भी साहित्य के आगे चराते रहे।


प्रश्न 6- हिन्दी में दलित विमर्श को शुरू हुए 20 वर्षो से अधिक हो गए हैं। इन वर्षो के दरम्यान एक-से-एक ब्रिलिएंट दलित चिंतक पैदा हुए हैं। मसलन डा. धर्मवीर, कंवल भारती, तुलसीराम, चंद्रभान प्रसाद। इस क्रम में मैं राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस का भी नाम लेना चाहूंगा। हालांकि आप और मुद्राराक्षस दलित नहीं हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि जिस दलित विमर्श ने एक-से-एक धुरंधर रैडिकल विचारक पैदा किए हों और जिनके विचारों की प्रखरता ने हजार वर्षो के सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य पर सवाल खड़े कर दिए हों, वहां कायदे का एक भी कविता संग्रह, कहानी संग्रह या उपन्यास देखने को क्यों नहीं मिलता? क्या मैं यह मानकर चलूं कि अभी हिन्दी का दलित विमर्श कुछ अच्छी आत्मकथाओं को यदि छोड़ दिया जाए तो रचनात्मक साहित्य की पीठिका ही तैयार कर रहा है?

- हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो। मगर मुङो ऐसा लगता है कि जिस साहित्य में विचार, विवेचना और विश्लेषण का वर्चस्व होता है वहां रचनात्मक साहित्य प्राय: कमजोर हो जाता है या सिर्फ फार्मूलाबद्ध होकर के ही रह जाता है। मार्क्‍सवादी वैचारिकता को लेकर जो साहित्य रचा गया है उसमें भी बहुत कुछ ऐसा ही है। और यह हमें याद भी नहीं रहता या इसे हम याद भी रखने लायक नहीं समझते। वैसे भी हिन्दी में दलित चेतना राजनीतिक आंदोलनों के बाद आई है। जबकि मराठी में फुले से लेकर अब तक दलित जागरूकता ने ही वहां के रचनाकार और विचारक पैदा किए। चूंकि दलितों और स्त्रियों के पास अपना कोई इतिहास नहीं होता और वहां सिर्फ मालिकों के शासन में रहने वाले स्वामीभक्तों का इतिहास होता है। इसलिए दलित और स्त्रियां अपने आपसे ही इतिहास का प्रारंभ मानती हैं और यह सही भी है। स्वाभाविक है कि ऐसी मानसिकता में आत्मकथाएं ही आएंगी जो वर्तमान से लेकर भविष्य की ओर जाती हुई दिखाई देंगी। वर्तमान से अतीत की ओर तो सिर्फ यातना, प्रताड़ना और शोषण का लंबा इतिहास है इसलिए मैंने पहले भी कई बार कहा है कि हमारे साहित्य का मूलमंत्र ‘सत्यम, शिवम, सुंदरमज् का कुलीनतावादी दृष्टिकोण नहीं हो सकता, बल्कि यातना, संघर्ष और स्वप्न का जुझारू सिद्धांत है।


प्रश्न 7- संजीव और उदय प्रकाश हमारे दौर के दो विशिष्ट कथाकार हैं। संजीव एक ओर जहां, चालू शब्दों में कहें कि प्रेमचंद की परंपरा को लगातार विकसित और समृद्ध करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उदय प्रकाश साहित्य की दुनिया में जहां कुछ भी नया हो रहा है, उसका प्रयोग बहुत ही खूबसूरती से अपनी कहानियों में करते दीख रहे हैं। कहानी की सेहत के ख्याल से इसीलिए दोनों का महत्व है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उदय प्रकाश के नाम को जिस तरह से उछाला जा रहा है और संजीव के नाम को भुलाने का प्रयास दिख रहा है, उसके पीछे आप क्या देखते हैं?

-संजीव शुद्ध भारतीय गांवों और कस्बों की संघर्ष चेतना के कथाकार हैं। उनके पास जो जानकारियां, शोध और कलात्मक संतुलन हैं वे शायद ही हिन्दी के किसी लेखक के पास हों। निश्चय ही उनकी रचनाओं में प्रेमचंद से ज्यादा विविधता ही नहीं बल्कि अनेक तरह के पात्रों की विशेषताएं भी हैं। उदय प्रकाश देशी-विदेशी रचनाकारों के गंभीर पाठक रहे हैं। उनके पास एक चमकदार और विचारगर्भी भाषा है और वे अपनी भाषा से खेलना जानते हैं। इसी के बल पर वे लम्बे-लम्बे विवरणों और नाटकीयता से पाठकों को बांधे रखते हैं। उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हैं लेकिन वे निश्चय ही बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी के ये दोनों कथाकार अपने-अपने क्षेत्र में विलक्षण हैं। पाठकों का दृष्टिकोण इनके प्रति वही है जो बड़े और छोटे शहरों के समाजकर्मियों की होती है। एक मीडिया के केन्द्र में होता है और दूसरा सिर्फ स्थानीय हो सकता है, जो स्थानीय है वह ज्यादा मूलगामी कार्य कर रहा है।

प्रश्न 8- हिन्दी अकादमी के विवाद का पटाक्षेप हो गया है। अशोक चक्रधर उपाध्यक्ष के रूप में अकादमी के कार्यो को अंजाम दे रहे हैं। आप लोगों का ‘चक्रधर मिशनज् फेल हो चुका है। अशोक चक्रधर के पीछे आपलोग लट्ठ लेकर इसलिए पड़ गए क्योंकि वे एक मंचीय और हास्य कवि हैं। हिन्दी साहित्य में अभी भी हास्य और लोकप्रियता को इस तरह से देखा जाता है जसे ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत।ज् मेरा मानना है कि जीवन में और प्रकृति में जिस तरह की डायवर्सिटी है, मतलब जीवन में यदि गंभीरता है तो हास्य भी है। दुख है तो सुख भी है, घृणा है तो प्रेम भी है। मतलब जीवन और प्रकृति में एकरसता नहीं है। तो फिर साहित्य में यह डायवर्सिटी क्यों नहीं होनी चाहिए?

- शब्दों के ये विलोम हमें कहीं नहीं ले जाते। व्यक्तिगत रूप से अशोक चक्रधर को मैं आज भी बहुत प्यार करता हूं और मानता हूं कि उन्होंने कविता के मंच को जो सम्मान वापस दिलाया है उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। ज्यादातर कवि जो राजू श्रीवास्तव के प्रतिलोम दिखाई देते हैं। मगर मैं अपने बेटे को चाहे जितना प्यार करता होऊं और उसकी योग्यता से खुद भी आतंकित होऊं लेकिन मैं उसे शायद युद्ध के किसी मोर्चे का इंचार्ज बनाने से पहले कई बार सोचूं। पिछला अध्यक्ष तो लगभग निष्क्रिय ही था। मगर अशोक एक एजेंट के तौर पर लाए गए हैं। उनका समर्थन करने वालों के नाम अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि या तो सब भाजपा से जुड़े रहे हैं या लगभग ढुलमुल किस्म के रचनाकार हैं। पुरानी कार्यकारिणी के लगभग सारे महत्वपूर्ण सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए हैं। अब अशोक अपने मत के उन्हीं लोगों को कार्यकारिणी में लाएंगे जो उनकी योजनाओं को कार्यरूप दे सकें। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक खेदजनक कृष्ण बलदेव वैद को बदनाम करना है। भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तो बाकायदा वैद की रचनाओं को अश्लील रेखांकित कर दिया है। मुङो नहीं लगता कि कृष्ण बलदेव जसी भाषा, शब्दों पर उनका अधिकार और खिलंदड़ी शैली किसी और लेखक के पास है। उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टियों के साथ अपने पात्रों की मानसिकताओं को पकड़ने की कोशिश की है। अगर तथाकथित अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के आधार पर ही साहित्य का मूल्यांकन करना हो तो कालिदास का तुसंहार, जयदेव के रति वर्णन या रीतिकाल को कूड़े में डाल देना चाहिए। चलिए कृष्ण बलदेव वैद न सही, लेकिन केदारनाथ सिंह और रमणिका गुप्ता को तो इस सम्मान का मैं सबसे बड़ा अधिकारी मानता हूं। केदारनाथ सिंह के बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं है, मगर जिस लगन और समर्थन से रमणिका गुप्ता ने पूर्वोत्तर प्रांतों के आदिवासियों पर काम किया है वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। स्त्री और दलितों का एजेंडा तो है ही लेकिन आदिवासियों पर किया गया उनका यह काम बड़े से बड़े सम्मान का अधिकारी है।

Wednesday, August 26, 2009

एक माया मिस्र की

मधुकर उपाध्याय
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपनी मूर्तियों के कारण सुर्खियों और विवाद में हैं। अमरत्व की कामना, इतिहास में गुम न हो जाने की आशंका और इसलिए अपने को समाज पर थोपने की कोशिश कम ही कामयाब होती है। मिस्र की महिला बादशाह हातशेपसत की कहानी भी कुछ यही बताती है। उसे भी यही खौफ था कि इतिहास कहीं मुङो भुला न दे। उसने भी मूर्तियां बनवाईं। 1458 ईसा पूर्व हातशेपसत की मृत्यु हुई तब शासक बने उनके सौतेले बेटे ने अपनी मां के सारे स्मारक नष्ट करने का आदेश दिया। शाही मैदान से उसकी ममी भी हटवा दी। फिर हातशेपसत का नाम जिंदा है। तो क्या इतिहास को मिटा देने की कोशिश में समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की तरह ही नाकाम रहती है।
कई बार ऐसा लगता है कि कुछ चीजें पहली बार हो रही हैं और ऐसी चीजों के लिए ‘इतिहास अपने को दोहराता हैज् एक बेमानी कथन है। दरअसल, इसकी असली वजह शायद यह है कि इतिहास की हमारी समझ और पीछे जाकर चीजें टटोलने की क्षमता सीमित है। जसे ही इतिहास का कोई नया पन्ना खुलता है, पता चलता है कि आज जो हो रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। दुनिया ऐसे लोग और उनकी बेमिसाल सनक पहले भी देख चुकी है।
दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मिस्र की सभ्यता है, जिसका लिखित इतिहास सवा पांच हजार साल पुराना है। उसके प्राचीनतम साक्ष्य तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से पहले के हैं। उसकी वंश परंपरा पांच हजार साल पहले शुरू होती है और लगातार तीन हजार साल तक चलती है। इसी परंपरा में बीस वर्ष का एक ऐसा कालखंड आता है, जिसमें मिस्र की बादशाहत एक महिला के हाथ में थी। सामाजिक स्थितियों और परंपराओं में महिला शासक की स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए उस ‘महिला बादशाह-हातशेपसतज् को तकरीबन पूरा कार्यकाल पुरुष बनकर पूरा करना पड़ा। इस घटना का उल्लेख दस्तावेजों में है कि उसे ‘शी किंगज् कहा जाता था। हातशेपसत का कार्यकाल असाधारण उपलब्धियों वाला था। वह एक कुशल शासक थी। नई इमारतें तामीर कराने में उसकी दिलचस्पी थी। राजकाज से आम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके बीस साल के कार्यकाल को मिस्र के स्वर्णिम युग की तरह याद किया जाता है। हातशेपसत का कार्यकाल 1479 से 1458 ईसा पूर्व में था। एक अध्ययन के अनुसार, हातशेपसत की मां अहमोज एक राजा की पुत्री थी। उसके पिता टुटमोज प्रथम सही मायनों में राजशाही खानदान के नहीं थे। इसकी वजह से हातशेपसत को थोड़ी सामाजिक स्वीकार्यता मिली, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने पति के निधन के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। हालांकि टुटमोज प्रथम ने अपने सौतेले बेटे को गद्दी सौंपी थी लेकिन वह कभी सत्ता में रह नहीं पाया।
पूरा इतिहास कुछ इस तरह गडमड था कि हातशेपसत की मौजूदगी और बेहतरीन सत्ता संचालन के बावजूद उसे स्थापित करने के ठोस प्रमाण नहीं मिल रहे थे। कुछ अमेरिकी और मिस्री विद्वानों को अचानक एक दिन एक खुली कब्र मिली, जिसके बाहर एक ममी पड़ी थी। यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव होता कि मिस्र के शासक रह चुके किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार हो सकता है कि उसकी ममी खुले में पड़ी हो। यह बात सौ साल पुरानी है। करीब 75 साल पहले एक और मिस्री विद्वान को उस ममी के पास सोने के गहने मिले। इससे उसे संदेह हुआ कि यह ममी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। पूरी चिकित्सकीय प्रक्रिया के बावजूद ममी का काफी हिस्सा नष्ट हो गया था और ले-देकर एक दांत सही सलामत मिला। उसी दांत के सहारे हातशेपसत की पहचान हुई और फिर उस ममी को सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया।

हातशेपसत का शासन दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहले हिस्से में करीब छह वर्ष तक वह टुटमोज द्वितीय के बेटे के उत्तराधिकारी के रूप में शासन करती रही। सारे फैसले उसके होते थे लेकिन नाम उस नाबालिग बच्चे का रहता था। छह साल बाद हातशेपसत ने नाबालिग टुटमोज तृतीय को बेदखल कर दिया और खुद सत्ता संभाल ली। इसके बावजूद महिला के रूप में समाज के सामने जाने का साहस हातशेपसत नहीं जुटा सकी और हमेशा पुरुषों के कपड़े पहनती रही। इतना ही नहीं, उस समय की तमाम प्रतिमाओं में भी उसे पुरुष की तरह चित्रित किया गया।
शक्तिशाली फरोहा होने के बावजूद समाज द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के डर की वजह से हातशेपसत में एक तरह का जटिल व्यक्तित्व विकसित हुआ। उसे यह डर हमेशा लगा रहता था कि ताकतवर पुरुष प्रधान मिस्री समाज उसे खारिज कर देगा। उसका योगदान भुला देगा और उसका अस्तित्व इतिहास से मिटा दिया जाएगा। साढ़े तीन हजार साल पुरानी इस इतिहास-कथा ने हातशेपसत के इसी डर और चिंता के कारण एक नया मोड़ लिया। उसने तय कर लिया कि आगे का पूरा शासन वह एक पुरुष फरोहा की तरह चलाएगी और एक अभियान चलाकर समाज में अपनी छवि एक पुरुष की तरह स्थापित करेगी। उसकी बाद की प्रतिमाओं में उसके महिला होने के संकेत तक नहीं मिलते बल्कि चेहरे पर दाढ़ी भी दिखती है। ऐसे कई दस्तावेज मिलते हैं, जिसमें हातशेपसत ने कहा कि वह शासन करने के लिए भेजी गई ईश्वरीय देन है। इसी दौरान उसने यह फैसला लिया कि पूरे साम्राज्य में उसकी विराट प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, ताकि किसी को उसके फरोहा होने पर संदेह न रह जाए। मिस्र के छोटे से छोटे इलाके तक संदेश भेजे गए कि हातशेपसत बादशाह है और कोई उसे चुनौती देने की कोशिश न करे। इसी के साथ उसने एक शब्द गढ़ा, जिसे ‘रेख्तज् कहते थे और इसका अर्थ था-आम लोग। मिस्र की जनता को हातशेपसत प्राय: ‘मेरे रेख्तज् कहती थी और हर फैसला यह कहकर करती थी कि रेख्त की राय यही है। लोकप्रियता हासिल करने की सारी सीमाएं हातशेपसत ने तोड़ दीं। हातशेपसत ने लगभग बीस साल के अपने शासन के दौरान हमेशा यह ख्याल रखा कि उसके किसी फैसले पर नील नदी के दोनों ओर बसे रेख्त की राय क्या होगी। एक दस्तावेज में उसने यहां तक लिखा कि अगर रेख्त की मर्जी नहीं होगी तो मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा।
हातशेपसत की मृत्यु 1458 ईसा पूर्व में हुई, जिसके बाद उसके सौतेले बेटे टुटमोज तृतीय ने उन्नीसवें फरोहा के रूप में सत्ता संभाली। अपनी सौतेली मां की तरह टुटमोज तृतीय को भी स्मारक बनाने का शौक था। मुर्गी को भोजन की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा उसी ने शुरू की और उन्नीस साल के शासन में सत्रह सैनिक अभियान चलाए और कामयाब रहा। अपने शासनकाल के अंतिम दौर में उसने अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट होकर आराम से रहने की जगह एक अजीबोगरीब फैसला किया। यह फैसला था-अपनी सौतेली मां हातशेपसत द्वारा निर्मित सारे स्मारक और उसकी सारी प्रतिमाएं नष्ट कर देने का ताकि इतिहास में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। टुटमोज तृतीय अपने इस अभियान में भी सफल रहा और अपनी सौतेली मां को उसने साढ़े तीन हजार साल के लिए इतिहास से गायब कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी सौतेली मां की ममी को भी फरोहा के शाही मैदान से हटा दिया। उसे एक ऐसी जगह ले जाकर रखा, जहां किसी को संदेह ही न हो कि वह हातशेपसत हो सकती है।
निश्चित तौर पर अमरत्व की कामना, इतिहास में खो जाने के डर और समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की कोशिश में किए गए प्रयास कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकते। लेकिन साथ ही यह भी लगता है कि इतिहास को नष्ट करने या उसे मिटा देने की कोशिश भी उतनी ही नाकामयाब होती है।

Thursday, August 13, 2009

सच का कैसे हो सामना

रज्जन सुल्तानपुरी सुल्तानपुर के हैं कि नहीं ये प्रमाणिक नहीं है लेकिन सुल्तानपुरी उनके नाम के साथ ऐसा चिपका है जसे जलेबी के साथ चाशनी चिपक जाती है। बस उन्होंने किसी तरह खुद को चींटिंयों से बचा कर रखा है नहीं तो उन्हे चींटे कब के चट कर गए होते। उनके स्वभाव से यूं तो सभी वाकिफ थे लेकिन वह नजर-ए-इनायत करते-करते, कब तीर-ए-नज़्ार कर देगें किसी को पता नहीं चलता। अगर बच गए तो तकदीर अच्छी अगर तीर लग गई तो भगवान बचाए...।
उनसे लोग प्रश्न पूछने से कतराते हैं क्योंकि दोहा, छंद यही नहीं विभिन्न विधाओं में वह उसका उत्तर देने में सक्षम हैं। उनकी प्रशंसा कब आलोचना बन जाए कहा नहीं जा सकता। सीधे प्रश्नों के उत्तर भी लताओं जसे होते हैं। समसामयिक मुद्दा दाल पर उनकी परिचर्चा सुनने कई लोग आए, यह परिचर्चा उनके किसी तथाकथित साहित्यकार मित्र छज्जन ने प्रायोजित की थी। वजह यह थी कि इसी बहाने लोग उन्हे भी जान जाएंगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही, सभा में तमाम तरह के साहित्यिक और गैर साहित्यिक प्रश्न उठाए गए। बात आते-आते मंहगाई पर टिक गई। कु छ लोग उन्हे राजनीतिक प्रतिनिधि समझ कर प्रश्नों के तीर मारे जा रहे थे लेकि न सभी प्रश्नों के उत्तर वह सधे हुए देते थे। किसी ने अरहर के दाल की चर्चा कर दी, उन्होंने कहा कि अरहर की दाल ने उड़द, मटर, मसूर की लाज रख ली नहीं तो इनको कौन पूछता। अब मूंग की दाल खिचड़ी केवल बीमार ही नहीं खाएंगे, बल्कि मुस्टंडे भी चखेंगे। बात यहीं खत्म नहीं हुई। एक सज्जन ने सवाल उठाया कि दाल के साथ चीनी का भी मामला कुछ ऐसा ही होता जा रहा है। इस पर उनका जवाब था कि चीनी तो शुरू से ही बुर्जआ वर्ग के जीभ का स्वाद बढ़ाती आई है यह तो मजदूरों की दुश्मन है। अब तो अमीर लोग भी मधुमेह के कारण इससे तौबा कर रहे हैं। सभा अब पूरी तरह से असाहित्यिक हो चुकी थी कि किसी सज्जन ने कहा सुना है आप कवि टाइप हृदय रखते हैं उन्होंने गिलौरी मुंह में दबाकर दो इंच में मुस्कान बिखेरी बाद में पता चला कि कुर्ता खराब हो गया है।
इसके बाद रज्जन सुल्तानपुरी ने रिक्शा लिया और बड़े अपनत्व के साथ चल निकले रास्ते भर जी भर के अपनी योग्यता के बारे में बताया उसकी योग्यता जाना। लेकिन उतरते समय किराया को लेकर झकझक हो गई, बात हाथापाई तक आ गई। रिक्शे वाला तुनक खड़ा हो गया और बोला, मां का दूध पिया है तो आ जा.. इस पर रज्जन सुल्तानपुरी ने कहा मां का दूध तो सब पीते हैं तू अमूल या मदर डेरी का दूध पिया है तो हाथ आजमा ले.. रिक्शावाला सच का सामना नहीं कर पाया।
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, August 12, 2009

चरणदास चोर : खेलो और, और!


मो. रजा़

मशहूर नाटककार हबीब तनवीर का नाटक ‘चरनदास चोर फिर सुर्खियों में है। मंच पर कई बार अपनी काबिलियत साबित कर चुका यह मशहूर नाटक अब राजनीतिक गलियारों में अटक गया है। ‘चरनदास चोर नाटक को कुछ समुदायों की भावनाओं पर आघात करने वाला बताकर छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। इससे कला मंच से जुड़े लोगों और बुद्धिजीवियों में रोष हैं। इन लोगों का कहना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
‘चरनदास चोर नाटक कई बरसों से खेला जा रहा है। देश-दुनिया में उसको सराहा गया है। नाटक में ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी समुदाय को ठेस पहुंचे। यह नाटक ईमानदारी और सच बोलने की सीख देता है। यह कोई नया नाटक नहीं है बल्कि 1975 से लगातार मंचित हो रहा है। अपने जमाने में यह नाटक इतना मशहूर हुआ कि जाने-माने निर्देशक श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल को लेकर एक फिल्म भी बनाई। यह फिल्म काफी चर्चित रही। छत्तीसगढ़ सरकार की इस करनी पर संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों में बेहद क्षोभ है। हबीब तनवीर साहब का निधन हुए अभी दो महीने हुए हैं। उनके नाटक को प्रतिबंधित करने को मरणोपरांत उनका अपमान माना जा रहा है। वैसे भी यह सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। हबीब तनवीर का यह नाटक दुनिया भर में मशहूर और प्रशंसित हुआ। उनके नाटकों ने जन-मानस को गहरे तक प्रभावित किया। हबीब साहब और उनकी कला का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर असर अगाध है। सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने भी अपने स्तंभ ‘कभी-कभार में लिखा है-‘देश में ही नहीं, किसी हद तक सारी दुनिया में अगर छत्तीसगढ़ किसी एक व्यक्ति के नाम से जाना जाता है तो वह हबीब तनवीर है। आज भी वे छत्तीसगढ़ की सबसे उजली और अमिट तस्वीर हैं। उसी हबीब के नाटक को निहायत साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिबंधित करने की हिमायत उसी छत्तीसगढ़ सरकार ने की है। विनायक सेन की बेवजह गिरफ्तारी की देश भर में निंदा होती रही है। नक्सलियों की चुनौती का सामना करने में विफल यह सरकार उनके जनसंहार का अमानवीय तरीका अपना रही है। उसे हाल के चुनावों आदि में जो सफलता मिली है वह उसकी इस लांछित छवि को धो-पोंछ नहीं सकती। उसने अब इस प्रतिबंध द्वारा उस छवि को और मलिन कर लिया है। उसकी सख्त निंदा तो की ही जानी चाहिए। उसके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार के किसी आयोजन में न सिर्फ उस प्रदेश के लेखकों-कलाकारों को भाग न लेकर उसका बहिष्कार कम से कम तब तक करना चाहिए जब तक यह प्रतिबंध वापस नहीं लिया जाता।ज्
ऑल इंडिया रेडियो में चीफ प्रोड्यूसर ड्रामा के पद से रिटायर सत्येन् शरत् इसे अज्ञानता से उपजा विवाद बताते हैं। वे कहते हैं कि इतने सालों बाद नाटक पर प्रतिबंध लगाया जाना सरासर गलत है। उन्होंने कहा कि 1975 से लगातार खेले जा रहे इस नाटक का प्रत्येक शो हाउसफुल रहा है। उन्होंने कहा कि ‘चरनदास चोर को 1982 में एडिनबर्ग फ्रिंज महोत्सव में पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसके बाद नाटक के विषय में यह कहा जाना कि यह किसी समुदाय के लोगों की आस्था को ठेस पहुंचाता है, गलत है। उन्होंने कहा कि नाटक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि एक चोर जो झूठ न बोलने की कसम खाता है, अंत में उसे मार दिया जाता है।
दरअसल नाटक के बीच में हबीब जी द्वारा चोर के पात्र को एक गाने के माध्यम से दर्शाया गया है ‘एक चोर ने रंग जमाया सच बोल के, संसार में नाम कमाया सच बोल के, धोखे में गुरु को वचन दिया, सच्चाई निभाने का प्रण किया और ऐसा प्रण किया कि पूरा निभा लिया। चोर चरनदास कहलाया सच बोल के।
संक्षेप में इस नाटक की कथा इस प्रकार है ‘एक चोर जिसका यह मानना है कि ईश्वर ने किसी को राजा बनाया, किसी को मंत्री बनाया, मुङो ईश्वर ने चोर बनाया इसलिए मैं चोरी करूंगा। एक दिन चरनदास एक सोने की थाली चोरी कर भाग रहा था उसके पीछे महल के सिपाही पड़े थे। बचने के लिए चरनदास एक ढोंगी के पास चला जाता है। सिपाही आकर उस ढोंगी से पूछते हैं कि क्या तुमने किसी चोर को देखा, वो कहता है कि नहीं। सिपाही चले जाते हैं। ढोंगी चरनदास से कहता है कि तुम चोरी छोड़ दो। चरनदास कहता है कि मैं चोरी नहीं छोड़ सकता हूं। बदले में ढोंगी चरनदास से चार वचन लेता है। पहला तुम कभी किसी देश के राजा नहीं बनोगे। दूसरा सोने-चांदी के बर्तन में खाना नहीं खाओगे। तीसरा किसी रानी से शादी नहीं करोगे। चौथा, हाथी-घोड़े की सवारी नहीं करोगे। चरनदास तैयार हो जाता है अंत में वह चरनदास से एक और वचन लेता है कि तुम कभी झूठ नहीं बोलोगे। चरनदास कहता है कि अगर मैं सच बोलूंगा तो पकड़ा जाऊंगा। ढोंगी कहता तुम अगर मुङो ये वचन दोगे तभी मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊंगा। चरनदास यह सोचकर यह सारे वचन दे देता है कि एक चोर के नसीब में सोने-चांदी के बर्तन में खाना खाना, हाथी घोड़े की सवारी करना आदि कहां लिखा है। लेकिन धीरे-धीरे ये सारी घटनाएं चरनदास के जीवन में आती हैं। एक दिन चरन दास महल से पांच सोने की मोहरे चुराता है। खजाने के सिपाही सोचते हैं कि चरनदास ने पांच मोहरे चुराई हैं मैं भी पांच चुरा लेता हूं और इल्जाम चरनदास पर जाएगा। लेकिन महल में चरनदास पांच सोने की मोहरे चुराने की बात स्वीकार करता है। रानी उसके सच बोलने की बात पर खुश हो जाती है और वह उसे छोड़ देती है। रानी सिपाहियों को चरनदास को बुलाने के लिए हाथी-घोड़े भेजती हैं कि जाओ चरनदास को ले आओ। चरनदास आने से मना कर देता। रानी उसे जेल में डाल देती है। जेल में उसे सोने के बर्तन में खाना खाने के लिए दिया जाता है। चरनदास खाना नहीं खाता। अंत में रानी उससे शादी करने के लिए कहती है चरनदास मना कर देता है। रानी कहती है कि तुम किसी को यह मत बताना कि मैंने तुमसे शादी के लिए कहा था। लेकिन चरनदास शादी की बात लोगों से बताने को कहता है जिस पर रानी कहती है कि अगर जिंदा बचोगे तो बताओगे और रानी सिपाहियों को बुलाकर उसे मरवा देती है। इस तरह इस नाटक का मार्मिक अंत होता है।
सत्येन् शरत् ने कहा कि आज हबीब तनवीर हमारे बीच नहीं हैं इसलिए इस तरह की बात की जा रही है। उन्होंने कहा कि आज हबीब साहब जिंदा होते तो उनकी कलम में वो ताकत थी कि इस विरोध का मुंहतोड़ जवाब देते। उन्होंने सरकार द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाए जाने की कड़े शब्दों में आलोचना की है। नाटक का दर्शक यह क भी सोच भी नहीं सकता था कि सच बोलने की इतनी सजा दी जा सकती है या सच बोलना वाकई इतना खतरनाक साबित होगा। अब जहां लगातार झूठ का बोलबाला है वहां चरनदास चोर समाज को एक नई सीख देता है।

‘जिस लाहौर.... खूब वेख्या



सुप्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असगर वजाहत ने भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को अपने मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नई में उभारा था। इस नाटक को बेहद सराहा गया और देश-विदेश में इसके खूब मंचन हुए। हबीब तनवीर ने 1990 में इसे पहली बार दिल्ली में मंचित किया था। दो दशक बीत जाने के बाद भी इसे बराबर खेला जा रहा है। हबीब तनवीर की याद में अब इसे चौदह अगस्त को वाशिंगटन में खेला जाएगा। इस नाटक को लेकर मोहम्मद रजा ने असगर वजाहत से बातचीत की है। उसी पर आधारित यह लेख।

भारत-पाकिस्तान विभाजन को छह दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन विभाजन का दर्द आज भी दोनों देशों के लोगों के दिलों में एक नासूर बनकर जिंदा है। विभाजन के इसी दर्द को हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असग़र वजाहत ने अपने नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माइ नई में प्रस्तुत किया है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या का सबसे पहले मंचन मशहूर नाटककार स्व. हबीब तनवीर ने दिल्ली के श्रीराम सेंटर में 27 सितंबर 1990 को किया था। नाटक को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। इसके बाद नाटक का कई देशों और भाषाओं में मंचन किया गया, जिसे लोगों ने खूब सराहा। नाटक का दिल्ली, मुंबई, वाशिंगटन, लंदन और सिडनी जसे शहरों में भी मंचन किया गया, जिससे नाटक को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी खूब ख्याति मिली। इसी कड़ी में वाशिगंटन के जॉन एफ केनेडी सेंटर में नाटककार हबीब तनवीर की याद में 14 अगस्त 2009 को नाटक का मंचन किया जा रहा है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या की विषयवस्तु का सूत्र उर्दू के पत्रकार संतोष भारती की किताब ‘लाहौरनामा की देन है। संतोष भारती 1947 में लाहौर से दिल्ली आ गए थे। इस दौरान हुए दंगों में संतोष के भाई की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी।
लेखक का संबंध उस पंजाब से नहीं है, जिसने विभाजन के दर्द को ङोला और न वे निजी रूप से उस युग के साक्षी रहे हैं, लेकिन उन्होंने विभाजन के उस युग पर कलात्मक ढंग से लिखा है। असगर वजाहत ने ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या नाटक को केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं किया है, बल्कि दोनों समुदायों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है। इस प्रयास का उद्देश्य यह बताता है कि दोनों समुदायों के बीच क्या हुआ कि सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास और भाईचारा समाप्त हो गया था। लेखक ने यह दर्शाया है कि समाजविरोधी तत्व किस तरह से धर्म का फायदा उठाते हैं। पात्रों का विकास तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृतियों का मानवीय स्तर पर समागम अत्यंत संवेदनशील है। बुद्धिजीवियों और साधारण जनता के बीच का जो संबंध होना चाहिए, वह नाटककार ने मौलवी, कवि और जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के माध्यम से दर्शाया है। नाटक का जो नया पक्ष लेखक को अन्य लेखकों से अलग करता है, वह यह है कि उसमें मौलवी को संकुचित विचारों वाला दकियानूसी नहीं चित्रित किया गया है। असगर वजाहत का मौलवी खलनायक नहीं है। वह हर तरह से मानवीय है। मस्जिद में मौलवी की हत्या एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से स्वार्थी तत्वों द्वारा धर्म तथा जीवन के महान मूल्यों को नष्ट कर देने की बात कही गई है।
नाटक में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पैदा हुई स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नाटक में दिखाया गया है कि लखनऊ से विस्थापित एक परिवार को लाहौर में 22 कमरों की एक बड़ी सी हवेली मिलती है। लेकिन उन्हें अपने घर के मुकाबले यह हवेली कुछ भी नहीं लगती। विभाजन के बाद जहां काफी सारे हिंदू पाकिस्तान से हिन्दुस्तान चले जाते हैं, वहीं एक बुढ़िया अपना घर छोड़कर नहीं जाती और फसाद के वक्त अपने घर में छिप जाती है। उसके घर को खाली समझकर कस्टोडियन वालों ने लखनऊ से विस्थापित एक परिवार सिकंदर मिर्जा को एलाट कर दी जाती है। जब इस परिवार को पता चलता है कि यह बुढ़िया इस हवेली में है तो वो उसे वहां से हटाने की काफी कोशिश करते हैं।
इसी सिलसिले में सिकंदर मिर्जा का लड़का मोहल्ले के ही एक पहलवान से उस बुढ़िया को हटाने की बात करता है। पहलवान सिकंदर मिर्जा से बुढ़िया को जान से मारने की बात कहता है, जिसे मिर्जा और उसके परिवार वाले मना कर देते हैं। धीरे-धीरे उस बुढ़िया की हमदर्दी सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में रहने वाले सभी मुस्लिम परिवार से हो जाती है। एक दिन अचानक उस बुढ़िया की मौत हो जाती है। उसकी मौत से सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ मोहल्ले वालों को बहुत दुख होता है। बुढ़िया के क्रिया-कर्म के लिए मौलवी से सलाह ली जाती है तो मौलवी कहता है कि बुढ़िया हिन्दू थी, लिहाजा उसका अंतिम संस्कार उसी के धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। मौलवी की ये बात पहलवान को नागवार गुजरती है और वे मस्जिद में मौलवी की हत्या कर देता है।
वर्तमान में इस जब इस वैश्विक व्यवस्था में आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरवाद और उपनिवेशवाद के दौर में मुसलमानों की छवि खराब की जा रही है और जहां मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं, लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, वहां यह नाटक एक विभाजन की त्रासदी के बाद लोगों के मनोभावों को समझने और संवेदनाओं को सुरक्षित रखते हुए मूल्यों को संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। दर्शक इसे देखकर विभाजन के छह दशक बाद भी इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है।

(यह चित्र जिन्हे लाहौर नहीं वेख्या के प्रथम मंचन का है। )

Sunday, August 9, 2009

खुश रखे, खुश करे सो पुरस्कार !

विश्वनाथ त्रिपाठी
पुरस्कारों पर बात करना मेरा प्रिय विषय नहीं है। कुछ साहित्यकार ऐसे हो सकते हैं जो पुरस्कार पाने की उम्मीद रखते हैं और पुरस्कार न पाने से कुंठित होते हैं। कु छ ऐसे भी साहित्यकार हो सकते हैं जो पुरस्कारों की दौड़ में नहीं रहते हैं। कुछ लोग जो अपने लेखन से इतना संतुष्ट हों या पाठकों का प्रेम मिला हो वो पुरस्कार न मिलने से चिंतित नहीं होते। पुरस्कारों की चिंता इसके व्यवस्थापकों को करनी चाहिए रचनाकारों को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि उन्हे पुरस्कार मिला या नहीं। यदि किसी को पुरस्कार मिलता है तो बाकी रचनाकारों को इसमें खुशी होनी चाहिए उसे खुशी-खुशी मनाना चाहिए।
हिन्दी जगत में वह स्थिति आदर्श होती कि जिसे पुरस्कार के लिए नामित किया है वह स्वयं दूसरे को हकदार बताता। साहित्य जगत में ऐसी स्थितियां होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है। अमरकांत की पुस्तक ‘इन्हीं हथियारों सेज् को और मेरी पुस्तक ‘नंगा तलाई का गांवज् को साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए चुनना था, निर्णायक डा. निर्मला जन ने जब मुङो बताया कि उन्होने अमरकांत की पुस्तक को चुना है तो मैंने कहा कि आप ने ऐसा निर्णय लेकर स्वयं को, मुङो और अकादमी को कलंकित होने से बचा लिया। कहां अमरकांत और कहां मैं! उन्हे यह पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। जब मैंने अमरकांत को फोन करके बधाई दी तो उन्होंने सरल स्वर में कहा था कि यह पुरस्कार आपको है। मुङो अफसोस है कि मैं यह बात कह रहा हूं लेकिन मैं शायद एकाध समीक्षक में से हूं जिसने इस उपन्यास की प्रशंसा की थी।
जो लोग साहित्य उद्योग में रहते हैं जो अच्छाइयां न देखकर बुराइयां देखते हैं उनका नाम ज्यादा होता है। अशोक वाजपेयी ने भी साहित्य अकादमी सम्मान लेने के बाद विनोद शुक्ल को यह पुरस्कार मिलने की बात की थी। डा. राम विलास शर्मा की कृति ‘निराला की साहित्य साधनाज् को जब चुना गया तो इसमें तीन निर्णायक थे, सुमित्रा नंदन पंत, बाल कृष्ण राव और पं हजारी प्रसाद द्विवेदी। इस पुस्तक में पंत की छवि को ध्वस्त किया गया है। बाल कृष्ण राव की भी आलोचना की गई है। इन दोनों ने इस पुस्तक की संस्तुति की और पंत ने तो कहा कि बाकी सभी किताबों को कूूड़े में फेंक देना चाहिए।
जब हम साहित्य अकादमी पर बातें करते हैं तो सब बुरे ही नहीं दिखते। कई बड़े साहित्यकार हैं जिन्हे पुरस्कार नहीं मिला, निराला, रेणु, मुक्तिबोध आदि रचनाकारों को साहित्य अकादमी नहीं मिला। रचनाकारों के बड़े होने का मानदंड पुरस्कार नहीं हो सकता। साहित्य अकादमी की स्थापना नेहरु ने फ्रेंच अकादमी के आधार पर की थी। फ्रेंच अकादमी में 40 सदस्य होते थे जिन्हे चालीस कालजयी (फोर्टी मार्टल) कहा जाता है। इसके पहले अध्यक्ष पं नेहरू थे। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि उन्होंने न किसी का नाम प्रस्तावित किया था और न ही किसी का विरोध किया था। साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए दिनकर ने दबाव डाला था कि यशपाल के उपन्यास झूठा-सच को पुरस्कार न मिले क्योंकि इसमें नेहरू की आलोचना की गई उस वर्ष यशपाल को पुरस्कार नहीं मिला। भाषाओं से हिन्दी का क्षेत्र काफी बड़ा है। इसमें कई योग्य साहित्यकार हैं इसलिए हिन्दी पुरस्कारों में विवाद है। दिल्ली में ही कई योग्य साहित्यकार हैं, कोई न कोई छूट ही जाता है। के न्द्रीय साहित्य अकादमी की स्थिति प्रांतीय अकादमियों से अच्छी हैं। यहां राजनीति का हस्तक्षेप कम है। जब मार्कण्डेय सिंह दिल्ली के उप-राज्यपाल थे, तब हिन्दी अकादमी दिल्ली की कार्यकारिणी में भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, असगर वजाहत, स्वयं मैं था, प्रो. हरभजन उपाध्यक्ष थे तब त्रिलोचन शास्त्री और मन्मथ नाथ गुप्त को सम्मान लेने के लिए उनके पैर पकड़ कर मनाना पड़ा था कि आप सम्मान ले लें। हिंदी अकादमी से संबंधित लोग जो उससे जुड़े रहते थे उन्हे किसी प्रकार की वित्तीय सहायता अकादमी की तरफ से नहीं दी जाती थी। जब हरभजन सिंह हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष थे। वे बीमार थे और आर्थिक संकट से गुजर रहे थे लेकिन चूंकि वह उपाध्यक्ष थे इसलिए उन्होंने अकादमी की तरफ से कोई सहायता राशि नहीं ली।
जब पीके दवे दिल्ली के राज्यपाल थे तो उस समय हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष नामवर सिंह थे। तब शलाका सम्मान के लिए कृ ष्णा सोबती और साहित्यकार सम्मान के लिए मुङो नामित किया गया था लेकिन भाजपा शासन में मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने तीन साल तक यह पुरस्कार हमें नहीं दिया। इस पर कृष्णा सोबती ने पत्र लिखकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया। इसके बाद मैंने भी मना कर दिया। बाद में जब जनार्दन द्विवेदी हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष बने तो दोनों को सम्मान दिया।
अरुण प्रकाश जसे स्वाभिमानी साहित्यकार बहुत कम है । मुझसे छोटे हैं लेकिन उन लोगों में से हैं जिनसे मैं मर्यादा की शिक्षा लेता हूं। घोर आर्थिक संकट से गुजरे लेकिन उनके अंदर भारी जीजिविषा है और मैनें उसे कभी टूटते नहीं देखा। बीमारी से जूझ रहे अरुण प्रकाश ने हाल ही में बिहार सरकार का सम्मान लेने से मना कर दिया क्योंकि वहां की सरकार भाजपा समर्थित है। वे हमारे निकट हैं लेकिन पुरस्कार न लेने की बात पुष्पराज ने बताई उन्होंने स्वयं नहीं बताई। यह एक नैतिक मर्यादा और आचरण है जो साहित्यकार को अपने समय का सभ्य और सुसंस्कृ त नागरिक बनाता है। एक तरफ ऐसे लोग भी हैं और दूसरी तरफ वे हैं जो स्वार्थान्ध होकर विज्ञापनी मानसिकता से ग्रस्त हैं ।
(अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)
आज समाज से साभार

Saturday, August 8, 2009

दिल्ली से गायब होती गौरैया




चूं चू करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया। ये गीत बच्चे कभी मुंडेरों पर गौरैया देखकर जोर से गाते थे। लेकिन अब न मुंडेरों पर गौरैया दिखती है और न ही बच्चों के मुंह से ये गीत सुनाई देते हैं। घर, रसोई और बरामदे में कभी अपनी आवाज से गुलजार करने वाली गौरैया अब नहीं दिखती। इस संबंध में यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के वन्य जीव विशेषज्ञ फैय्याज ए खुदसर का कहना है कि अगर शहरों में गौरैया नहीं दिख रही तो इसके कई प्रमुख कारण हैं, जिसमें कबूतरों की संख्या में इजाफा भी है क्योंकि दिल्ली में कबूतरों को दाना दिया जाता है, जिससे कबूतर एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं और उसी इलाके में उनकी संख्या बढ़ती जाती है। अब जहां गौरैया रहती थी, वहां कबूतर रहने लगे हैं। गौरैया का वैज्ञानिक नाम पैसर डोमेस्टिकस है, जिससे इसे घरेलू चिड़िया कहा जाता है। लेकिन दुर्भाग्यवश दिल्ली में ऐसे मकान बनाए जा रहे हैं कि उनमें चिड़ियों के लिए जगह नहीं है। गौरैया कीड़ों में इल्लियां खाती हैं, जिसमें प्रोटीन मिलती ये इल्लियां मिट्टियों में होती हैं, लेकिन दिल्ली में अब जमीन पर भी कंक्रीट बिछाई गई है इसलिए इनको खाद्य सुरक्षा नहीं मिल पा रही है। इसके अतिरिक्त इन्हें प्रजनन करने के लिए जगह का अभाव है।
हालांकि इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग में वन जीव विशेषज्ञ डा. एम शाह हुसैन का कहना है कि गौरैया बड़े शहरों की चिड़िया नहीं है। लेकिन दिल्ली में इसे रहने के लिए माकूल जगह नहीं है। झाड़ियां कम हो गई हैं। ये घास, पौधों के बीज खाती हैं। लेकिन अब दिल्ली में सजावटी पौधे लगाए जा रहे हैं, जो इसके लिए उपयोगी नहीं है। दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में जो खेत हैं, उनके बीज वह दवाओं के छिड़काव के कारण नहीं खा सकते। लेकिन इस संबंध में ओखला पक्षी विहार के संरक्षक जेएन बनर्जी का कहना है कि गौरैया आजकल बड़े होटलों में भी खाने में प्रयोग हो रही है, जिससे इसकी संख्या तेजी से घटी है।
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, August 5, 2009

बदले कैसे कैसे रंग

आप एक बार फिर सुन लीजिए, यह अंतिम चेतावनी है समय से आइए नहीं तो गैरहाजिरी लग जाएगी फिर यह मत कहिएगा कि तनख्वाह कट गई। जबसे बड़े बाबू की गैरहाजिरी में छोटे बाबू को मझले बाबू का कार्यभार सौंप दिया गया है तब से उनकी मानसिक स्थिति पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ गया और वह प्राय: जूनियर, थोड़ा सा सीनियर और मौका मिले तो मुस्कुराते हुए सीनियर लोगों को भी सीख दे देते थे। लेकिन दिक्कत यह होती थी कि उन्हे अपने कर्तव्य का ज्ञान कभी-कभी होता था जब कार्यभार सौंपा जाता था। वह प्राय: दफ्तर में आम नागरिक की तरह नमक, तेल, दाल,चावल का भाव लगाते और घर जाते ही बाबू बन जाते। पत्नी से चाय, पानी, रोटी से लेकर जूते में पालिश तक करवाते। सामान खरीदने के लिए पैसे निकालना उनके लिए प्रसव पीड़ा से अधिक कष्टदायक था। इन सारी व्यथाओं से तंग आकर
उन्होनें तलाक दे दिया। काफी दिनों तक वे दुखी रहे लेकिन कब तक रहते। कुछ दिनों बाद उन्होंने दूसरी शादी रचा ली लेकिन शादी कुछ-कुछ राखी के स्वयंवर जसी थी। वह खर्च के बोझ से दबे जा रहे हैं। कभी-कभी आफिस में बाबू और घर पर पति बनने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन कभी सफल कभी विफल। अब वह लोगों को आप बीती सुनाते हैं । इसी बीच वह सहीराम से टकरा गए, उनका चेहरा देखकर सहीराम ने उनसे पूछा दिया, ‘क्या बात है आजकल चेहरे से बाबूगिरी नहीं दिख रही।ज् उन्होंने मुंह लटकाकर कहा कि जबसे नई बीबी ने दादागिरी दिखाई है तब से आफिस और घर दोनों जगह पति बनकर रहने लगे हैं। सहीराम के साथ एक और सज्जन बीच में ही बोल पड़े कि पत्नी के मायके जाने के बाद भी यह इत्र लगाकर साते हैं लेकिन स्वप्न सुंदरी टिकती नहीं है । रात में सूंघकर चली जाती है। इससे इनकी कोमल भावनाएं निरंतर आहत होती हैं। सहीराम ने उनकी आपबीती सुनकर कहा कि परेशान मत हो पत्नी से सुप्रीम कोर्ट के जज तक भयभीत हैं। आप पत्नी के मायके वालों की सेवा किया करें उन्हें, खुश रखें महंगे तोहफे और खाने के सामान लाया करें। उन्होनें इस बात को गांठ बांध लिए और अपने ससुर के आने पर उन्होंने दाल का सूप और फूलों की जगह गोभी रख दिया पत्नी के कारण पूछने पर कहा कि अभी बाजार में दोनों के भाव आसमान छू रहे हैं।
अभिनव उपाध्याय

Sunday, August 2, 2009

बच के कहां जाएंगे

जनाब, बच के कहां जाएंगे। लगभग अपनी हर बात के अंत में बांगड़ू बिदेशिया यही कहते हैं। लोग उनकी अदा के कायल हैं लेकिन इसके पीछे उनकी मीलों लम्बी व्यथा है। किसी सज्जन ने उनसे मंद मुस्कान बिखेरते पूछ दिया कि बिदेशिया जी ये क्या आप बार-बार कहते हैं कि बच के कहां जाएंगे, जनाब धरती इतनी बड़ी है यहां दिक्कत हुई तो कहीं भी सरक जाएंगे। लेकिन आपका बार-बार कहना कि बच के कहां जाएंगे मन में विभिन्न तरह की आशंका पैदा करता है।
सज्जन की ऐसी बात सुनकर बांगडू़ बिदेशिया ने उनकी मंद मुस्कान के आगे अपनी मुस्कान बिखेर दी जो निश्चित रूप से उन पर भारी पड़ रही थी। कह डाला कि, मैं सच कहता हूं,समझिए बचपन में पोलियो, बुखार, खसरा से बचे तो हेपेटाइटिस मार देगी। थोड़े जवान हुए तो पढ़ने चले गए अब पढ़ने में नरम हो तो मास्टर जी रोज कान गरम करेगें और तुर्रम खां हो तो क्लास के दादा लोग नरम कर देगें।
मामला यहीं शांत नहीं होता, तमाम जगह गिर गए तो लड़खड़ाते उठ जाएगें लेकिन प्रेम सागर में भूल कर भी फिसले तो कहां जाएंगे बस सोच लीजिए! मतलब यहां भी गए मियां रहिमन..।
अगर शादीशुदा हो गए तो मुसीबत ही समझो उसके चक्कर में पड़ोसी से पिटते-पिटते बच भी गए तो श्रीमती से बच के कहां जाआगे। अगर चस्का राजनीति का लग गया तो समझिए ये रोज का आना-जाना, उठना-गिरना यही नहीं लड़खाना भी लगा रहेगा और अंत में बस समझ जाइए..
अगर काम करने में अव्वल हैं, बास मेहरबान है तो मजे चल रहे हैं लेकिन मालिक जब कुर्बानी करने को तैयार हो तो कहां जाएगे? ये तो अंदर की बात है, जनाब मुश्किलें यहां भी कम नहीं हैं। सड़क पर चलना हो या आसमान में उड़ना लेकिन बात फिर वहीं आकर टिकती है कि बच कर कहां जाएंगे। डीटीसी में बस में पाकेट बच गई तो ब्लू लाइन में काम तमाम समझिए। उतरने के बाद लाख संभल कर चले लेकिन मौका पाते ही ब्ल्यू लाइन अपना चिर परिचित काम कर देगी। खुदा इससे भी बचा दे तो अब के हालात देखकर मेट्रो की माया से तो बचना मुश्किल है।
ये सारी बातें सुनकर पहले तो सज्जन एकदम सन्न रह गए और अपनी बात पर पछताने जसी मुद्रा लेकर मुंह लटका दिया। ये देखकर बांगडू बिदेशिया ने आगे तर्क देना चाहा कि सज्जन खुद ही बोल पड़े ‘अरे भाई सच कहते हो अगर सबसे बच गए तो मंहगाई से बच के कहां जाओगे।
अभिनव उपाध्याय

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...