Wednesday, November 11, 2009

एक उन्वान....



इंडिया गेट।
जमघट सैलानियों का।
एक उन्वान।
एक आनंद।
एक खुशी।
दस्तक गुलाबी सर्दी की।
और मौसम भी खुशनुमा।
चाह।
कैद कर लें हर पल।
क्षण।
प्रतिक्षण।
ले जाएंगे साथ।
संजोकर।
सहेजकर।
यह कोशिश।
काश!
कायम रहे।
ऐसे ही शांति।
आएं ऐसे ही सैलानी।
जो निहारे इंडिया गेट।
और उन्हे देख, सूरज भी ढलने में करे ढिठाई..

कभी लगती थी जहां महफिलें ...



एक समय उत्तर भारत की सबसे सशक्त महिला रही बेगम का नाम अब शायद कम लोग ही जानते हैं । दिल्ली के चांदनी चौक स्थिति बेगम समरू के महल में एक समय बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों और कुछ रियासतों के लोग विचार विमर्श करने आते थे लेकिन आज उस महल की वर्तमान हालत देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कभी उनकी हवेली रही होगी। दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के अंदर तंग गलियों से होकर किसी तरह वहां पहुंच भी जाएं तो उसकी हालत देखकर यह नहीं कह सकते कि यह कभी कोई हवेली रही होगी।
यहां गंदगी के बीच खड़ा है दिल्ली पर्यटन विभाग द्वारा लगाया गया बोर्ड जो इस महल के बारे में जानकारी दे रहा है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह जानकारी आधी-अधूरी ही नहीं बल्कि गलत भी है। यहां दी गई जानकारी दो भाषाओं में है। हिन्दी में जहां इसे 1980 में भगीरथमल द्वारा खरीदा गया बताया गया है वहीं अंग्रेजी में उन्हीं के द्वारा 1940 में खरीदा गया बताया गया है।
समरू के बचपन का नाम जोन्ना या फरजाना भी बताया जाता है लेकिन वह बेगम समरू के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। ‘समरूज् नाम के बारे में जहां इंडियन आर्कियालॉजिकल सर्वे (एएसआई) ने उनके फ्रेंच शौहर वाल्टर रेनहार्ड साम्ब्रे से माना है जो भारत में ब्रिटिश शासन में भाड़े का सिपाही था, वहीं स्टेट आर्कियॉलाजी ने समरू नाम का संबंध सरधना (मेरठ ) से माना है।
इस महल के कुछ हिस्से अपने समय की कला को अब भी समेटे हुए हैं। यूनानी स्तम्भों से सजे बरामदे की अपनी खूबसूरती है लेकिन वहां पर हुए अतिक्रमण के कारण इसे ठीक तरह से देखा नहीं जा सकता। एक दिलचस्प बात और है कि वर्तमान में इसका नाम भगीरथ पैलेस है लेकिन एक दुकानदार ने बताया कि दुकान के किराए की रसीद किसी रस्तोगी परिवार के नाम से कटती है। इस महल की उपेक्षा का यह आलम है कि बाहरी लोगों को छोड़िए स्थानीय लोगों को भी इसके बारे में ठीक से पता नहीं है। इस ऐतिहासिक इमारत की देखरेख और संरक्षण के बारे में प्रशासनिक अधिकारी भी कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं।
कश्मीरी मूल की बेगम समरू का जन्म 1753 में मेरठ के सरधना में माना जाता है। जो 1760 के आसपास दिल्ली में आई। बेगम समरु पर लिखी किताब ‘बेगम समरू- फेडेड पोर्टेट इन ए गिल्डेड फार्मज् में जॉन लाल ने लिखा है कि ‘45 वर्षीय वाल्टर रेनहर्ट जो यूरोपीय सेना का प्रशिक्षक था। यहां के एक कोठे पर 14 वर्षीय लड़की फरजाना को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपनी संगिनी बना लिया।ज्
बेगम समरू के बारे में कहा जाता है कि वह राजनीतिक व्यक्तित्व और शासन का कुशल प्रबंधन करने वाली महिला थी। शायद यही कारण था कि एक पत्र में तत्कालीन गवर्नर लार्ड बिलियम बैंटिक ने उन्हे अपना मित्र कहा और उनके कार्य की प्रशंसा की। बेगम समरू को सरधना की अकेली कैथोलिक महिला शासिका भी कहा जाता है। इस महल में 40 साल से दुकान कर रहे बुजुर्ग ने बताया कि इस महल के अंदर से सुरंग लाल किले से मिलती है जिसके रास्ते हाथी-घोड़े और सैनिक जाते थे और इस महल के चारो ओर तेरह कुंए थे। जिससे महल के समीप बागों को पानी दिया जाता था। इतिहासकारों का मानना है कि बेगम ने 18वीं और 19वीं शताब्दी में राजनीति और शक्ति संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक राजनीतिक जीवन व्यतीत करने के बाद उसकी मृत्यु लगभग 90 साल की आयु में सन 1836 में हुई। लेकिन इस ऐतिहासिक इमारत में अब कई रखवारे हैं सबका अपना स्वार्थ है लेकिन महल की दुर्दशा पर स्टेट आर्कियोलाजी भी मौन है।

सब कुछ राम भरोसे

दिल्ली में डीटीसी और ब्लू लाइन का किराया बढ़ा लेकिन यात्रियों की सुरक्षा राम भरोसे। भाई ये पब्लिक है सामान से भी सस्ती। सामान लेते हैं तो गारंटी- वारंटी कुछ तो देता है, आजकल बड़ा-बड़ा बैनर जागो ग्राहक जागो का भोंपू बजा रहे हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन सरकार ने पब्लिक कि कोई गारंटी नहीं ली। चाहे चाइना धमकाए या पाकिस्तान अंगारे छोड़े। पब्लिक तो बस राम भरोसे.. सहीराम से अपनी व्यथा चतुर चटकोर जी बता रहे थे। सहीराम ने उनकी बात सुनते-सुनते कहा कि चटकोर जी मंहगाई के दौर में गारंटी की इच्छा न करें। बात आगे बढ़ी, सुना है बैल, गधा, घोड़ा, ऊंट के ऊपर कोड़ा चलता है तो वो तेज भागने लगते हैं लेकिन कुछ दिन पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पुलिस से भाग रहे थे। जनता मजे से टीवी पर उनके भागने और लुकाछिपी की कमेंट्री सुन रही थी और अंत में भागते-भागते वह थक कर बीमार पड़ गए। सबसे सुरक्षित जगह अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल से लौटकर अब वह जेल में आराम फरमा रहे हैं। यहां भी कोड़ा दूसरों पर चल गया। सुना है जो तारिकाएं उनका मनोरंजन करती थीं उनको पुलिस की नाक सूंघ रही है। कहीं उनके परफ्यूम के आगे बेहोश न हो जाएं। लल्लन मास्टर के बेटे का कहना था कि तारिकाओं का नाम हिरोइन इस लिए पड़ा कि जो इनके पास जाता था उन्हें हेरोइन चटा देती थीं। मैंने सोचा हो सकता है, कोड़ा को भी कुछ चटा या सुंघा दिया हो और उसकी मति मारी गई हो। जिससे वह बेचारा बना घूम रहा है। अच्छा हुआ उसे पुलिस हवालात ले गई। कहीं उसका दिमाग बौराया जाता तो न जाने कितनों का वारा-न्यारा हो जाता। वो तो भला हो जो अब साथ-साथ बीवी रहती है। अब अफसोस के बाद चटकोर जी ने बात का ट्रैक बदला,
देश में किसी को चैन नहीं। जनता तो जनता, सरकार को भी पता नहीं क्या हो गया है कि रोज कहीं न कहीं उठापटक चलती रहती है। संसद की समस्याएं सड़क तक आ गई हैं। स़ुना है दिल्ली के भिखमंगों को सड़क से हटा दिया जाएगा। यह चिंता भिखमंगों की कालोनी में चिंता का विषय था। भिखमंगों के सरदार खजांची राम ने अपनी समिति में चिंता प्रकट करते हुए कहा कि हमने भिखमंगों को विदेशी भाषा पढ़ाने में जो निवेश किया था उस पर पानी पड़ जाएगा।
इस सूचना के बाद भिखमंगों में उदासी छा गई। लेकिन सूचना मिली है इस खबर से पुलिस भी उदास है। बस किराया के बाद कोड़ा और अंत में भिखमंगों की समस्या और उसके बाद। अंत में सहीराम ने कहा भाई यही तो लोकतंत्र है!
अभिनव उपाध्याय

मंहगाई की मार

अजी सुनती हो दरवाजा खोलो, कितनी देर से चिल्ला रहा हूं। मास्टर गनपत राम ने दरवाजे से आवाज लगाई, सुनकर श्रीमती कलावती ने कहा, बाजार क्या जाते हो लगता है खेत जोतकर आ रहे हो। दरवाजा खोलते ही उन्होने मास्टर की भीगी कमीज और हांफते चेहरे को देखकर कहा कि सब्जी लेने गए थे, तो हांफ क्यों रहे हो? क्या दौड़ते गए थे और दौड़ते आए हो क्या। मास्टर जी ने संभलते हुए कहा कि गया तो बस से था लेकिन आया हूं पैदल। एक तो सब्जी का भाव सुनकर गर्मी छिटक गई मोल-तोल कर रहा था तो उसने कहा कि अब बस का किराया भी बढ़ गया है। इसलिए पैदल चल पड़ा। कलावती जी ने यह सुनकर घनघोर निराशा जाहिर की ‘दूध, दही, चीनी, रसगुल्ला में तो आग लगी ही थी कि अब मुंआ किराया भी..ज्
मास्टर जी ने पानी का गिलास अभी मुंह से लगाया ही था कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी कि बढ़ सक ते हैं पानी के दाम.. और पानी का घूंट हलक में ही अटक गया।
सुरसा की तरह बढ़ रही मंहगाई को देखते हुए मोहल्ले में मीटिंग हुई कि सरकार चुनाव से पहले तो मस्का लगाती है और बीतने के बाद गर्म घी उड़ेल देती है। बढ़ती हुई मंहगाई के कारण किन चीजों में कटौती की जाए कि मामला बराबर हो जाए। किसी ने दूध किसी ने बिजली किसी ने फोन पर कम खर्च करने का सुझाव दिया।
किसी ने चिंता जाहिर की कि अब तो दफ्तर का बाबू का भी सुविधा शुल्क बढ़ा देगा। लेकिन किसी ने गाड़ी कम चलाने पर जोर दिया। यह उधेड़ बुन चलती रही कोई भी प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास नहीं हुआ। इसी बीच भीड़ देखकर सत्ता पक्ष के एक नेता वहां पहुंचे। उनके ऊपर सभी लोगों ने शब्द बाण छोड़े लेकिन नेता जी एक वीर योद्धा की तरह की तरह सब ङोल गए और बोले, सरकार आपकी दुश्मन नहीं है, आपकी तकलीफ हमारी तकलीफ है। आप इस मंहगाई को गलत नजरिए से देख रहे हैं। दरअसल आजकल लोगों में भाईचारा कम हो रहा है। अगर सबके घर आलू होगा तो क्या वह अपने पड़ोसी के घर जाएगा, आप अगर अपने पड़ोसी से चाय के लिए दूध मांगते हैं तो कम से कम चलकर जाते तो हैं। हम लोग सुविधाभोगी हो गए हैं। अभी भाषण चल ही रहा था कि झुग्गी से आया हुआ कुपोषित, शोषित और अस्थिपंजर लिए गंगूराम ने कहा कि किस भाईचारे की बात करते हैं। मंहगाई में भीख मांगने पर भी पेट नहीं भरता .. उसे देख नेता जी बगले झांकने लगे फिर जोर देकर कहा कि देश को भूखे नंगे लोग बदनाम कर रहे हैं। इस सभा में यह विपक्ष द्वारा प्रायोजित भिखमंगा है। जल्द ही कामनवेल्थ गेम तक इनका भी इंतजाम हो जाएगा..
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, November 4, 2009

महफूज नहीं मेहमान परिंदे



भारत का वातावरण केवल विदेशी सैलानियों को ही आकर्षित नहीं करता बल्कि दूर देश के परिंदों को भी लुभाता है। अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में आने वाले परिंदे साइबेरियाई देश, चीन, तिब्बत, यूरोप, लद्दाख आदि से भारी संख्या में भारत में आते हैं। नवंबर के प्रथम सप्ताह में ये बड़ी संख्या में आते हैं लेकिन वह जिस संख्या में आते हैं उतने लौट नहीं पाते। इसके कई कारण हैं। प्रमुख कारण इन परिंदों का शिकार करना है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के पक्षी विशेषज्ञ डा. एम शाह हुसैन का कहना है कि विदेशी पक्षी आने-जाने के लिए मूलत: दो रास्ते अपनाते हैं, एक पूर्वी रास्ता जो चीन-तिब्बत होकर आता है, दूसरा पश्चिमी रास्ता जो ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होकर आता है। जब यह लौटते हैं तो ये अपने शरीर में लम्बी यात्रा के लिए काफी चर्बी इकट्ठा कर लेते हैं जो उनकी यात्रा के लिए ऊर्जा देने का कार्य करते हैं। लेकिन इनकी तंदरुस्ती के कारण भी लोग बड़ी संख्या में इनका शिकार करते हैं। दिल्ली के यमुना जव विविधता पार्क के वन्य जीव वैज्ञानिक फैय्याज ए खुदसर का कहना है कि जलीय और स्थलीय दोनों तरह के पक्षी दिल्ली आते हैं। इन दिनों यूरोप व साइबेरिया में ठंड बढ़ जाती है। इनको खाने के लिए काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में ये परिंदे भारत आते हैं। फरवरी के पहले-दूसरे सप्ताह में पुराने पंख गिराकर नए पंख लेकर अपने देश लौट जाते हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों से इन पक्षियों को मारने की खबरें आती हैं लेकिन दिल्ली में ऐसा हो रहा है सुनने में नहीं आया है। ऐसा माना जाता है कि अगर 2004 के बाद साइबेरिया क्रे न भारत में नहीं आते हैं तो इसका प्रमुख कारण अफगानिस्तान युद्ध और उस समय उनका शिकार किया जाना है।

Sunday, November 1, 2009

यह इमारत तो इबादतगाह....



‘हमारे पूर्वज राव चुन्ना मल के बारे में लोग कहते थे कि आधी दिल्ली उनकी थी। उनका दिया हुआ आज भी हमारे पास बहुत कुछ है। चुन्नामल हवेली उनकी धरोहर है। वर्तमान में हवेली की देखरेख कर रहे व उनके वरिस अनिल प्रसाद बड़ी संजीदगी से ये बातें बताते हैं।
हवेली की पहचान अब ऐतिहासिक इमारतों के रूप में होती है। सैलानियों से लेकर फिल्म निर्माताओं के लिए यह पहली पसंद है। वर्तमान में इस हवेली की सुंदरता पर ग्रहण लग गया है। इसकी हालत देखकर फना कानपुरी का शेर ‘यह इमारत तो इबादतगाह..इस जगह एक मयकद़ा था क्या हुआ याद आता है। इस हवेली की कोई खास फिक्र किसी सरकारी संस्थान या गैर सरकारी संगठन को नहीं है। ऐतिहासिक महत्व की इस धरोहर के सामने बना पेशाब घर और खुलेआम वहां पर स्मैक पीते नशेड़ी देखे जा सकते हैं। हवेली के अंदर की सुंदरता को बरकरार रखने की अनिल प्रसाद ने पूरी कोशिश की है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि हॉलीवुड अभिनेत्री केट विसलेंट भी यहीं रहीं। हवेली की वास्तुकला देखने लायक है। 1842 में यह हवेली बनी। हवेली के हिस्से दर हिस्से को जोड़ते पुल अब भी देखे जा सकते हैं। वर्तमान में निचले फ्लोर पर दुकाने हैं, लेकिन 28,000 हजार वर्ग गज में फैली हवेली में तब संगमरमरी फव्वारे लगे होते थे। आज भी हवेली में प्रवेश करते ही चौड़ी सीढ़ियों पर पीतल की रेलिंग और अंतिम छोर पर शाही अंदाज दर्शाता शीशा देखा जा सकता है। यही नहीं यहां फारसी गलीचा, बड़े आइने, बोहेमियन ग्लास के झाड़ फानूस भी इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। इस हवेली में एक स्थान पर फारसी में लिखा हुआ है कि ‘यह कमरा 1842 में बना और बैठक खाने के लिए प्रयोग में लाया जाता था।ज्
अनिल प्रसाद बताते हैं कि यह हवेली भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए लोगों की शरणस्थली भी रही। उन्होंने इसकी प्रशासनिक उपेक्षा को लेकर भी चिंता जताई। इस हवेली की देख-रेख के बारे में वह बताते हैं कि ‘इसमें औसतन सत्तर रुपए एक दुकान से किराया आता है जिसकी बदौलत इसकी देखरेख संभव नहीं है। यह हमारे पुरखों की निशानी है। इसके संरक्षण की हम पूरी कोशिश करते हैं। अनिल प्रसाद पुलिस की मनमानी से भी दुखी हैं। उनका कहना है कि पुलिस उनके रिश्तेदारों तक से यहां आने के पैसे ले लेती है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...