Tuesday, January 18, 2011

बदहाल खेती से भड़के गुर्जर

सत्येन्द्र सिंह
वही हुआ, जिसका अनुमान था। फिर झुक गया गुर्जर नेतृतव। 2007 और 2008 में भी ऐसा ही हुआ था। लेकिन तब और अब में कुछ अंतर रहा। उस समय उनका आंदोलन काफी उग्र था। न केवल रेल और सड़क यातायात में व्यधान उपस्थित हुआ था, बल्कि कई लोगों की जान भी चली गई थी। इस बार यह उग्र नहीं था। कहा जा सकता है कि दोनों पक्षों -सरकार और आंदोलनकर्ता- ने अपने पिछले अनुभ से कुछ सीखा। फिर भी गुर्जर नेतृत् कुछ खास अर्जित नहीं कर सका। फिलहाल सरकार जो चाहती थी, वैसा ही हुआ। ऐसा लगता है कि वर्तमान अशोक गहलोत सरकार पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सरकार की तुलना में गुर्जर आंदोलन की प्रकृति को बेहतर ढंग से समझ चुकी थी। उसने ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की, जिससे गुर्जर भड़कें। उन्होंने गुर्जरों को रेल पटरी पर थकाने की रणनीति अपनाई। किसी भी आंदोलन के लंबे समय तक चलने पर उसमें हताशा और फूट पैदा होने लगती है। फिर खेती-बारी करने वाले लंबे समय तक धरना-प्रदर्शन नहीं कर सकते। दूसरी ओर सरकार को आर्थिक नुकसान के अलावा कोई और परेशानी नहीं थी। गुर्जर नेता कर्नल किरोडी सिंह बैंसला को भी इन बातों का अहसास रहा होगा, अन्यथा 17 दिन तक रेल पटरी पर जमे रहने के बाद इस तरह का समझौता करने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता। इसमें उन्हें अपने समाज के भीतर अपना चेहरा छिपाने का एक बहाना भी मिल जाता। साल उठता है कि क्या गुर्जर हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं? इसकी क्या गारंटी है कि सरकार मौजूदा समझौते के तहत उनके हिसाब से कार्राई करेगी ? गौरतलब है कि मार्च 2010 में गुर्जरों और सरकार के बीच एक समझौता हुआ था। इसके अनुपालन को लेकर गुर्जरों की शिकायत रही थी।
कानूनी पेंचीदगियों के मद्देनजर राजस्थान सरकार के लिए गुर्जरों को तुष्ट करना आसान नहीं होगा। फिर राजस्थान उच्च न्यायालय का फैसला भी गुर्जरों के अनुकूल नहीं रहा। आगे क्या होगा, अभी कहना कठिन है। न केवल आरक्षण की अधिकतम सीमा को लेकर पेंच है, बल्कि विशेष पिछड़ा वर्ग के तहत गुर्जरों को दिए जाने वाले आरक्षण के औचित्य पर भी सवाल खड़ा हो चुका है। अगर गुर्जरों की मांग पूरी नहीं हो पाती है, तो क्या े फिर सड़क पर उतर आएंगे? आखिर गुर्जर बार-बार सड़क पर क्यों उतर आते हैं? क्या उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बहुत खराब है? क्या राजस्थान की बाकी पिछड़ी जातियों की हालत गुर्जरों की अपेक्षा ठीक है? यह साल गहन सामाजिक श्लिेषण की तलाश करता है। पहली नजर में यह आरक्षण प्राप्त जातियों की आपसी प्रतिस्पर्धा का नतीजा लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कुछ प्रतिद्वंद्वी जातियों के आसपास होते हुए भी प्रशासन में गुर्जरों की भागीदारी उनकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। इस लिहाज से अनुसूचित जनजाति में शामिल मीणा समुदाय की प्रशासन में महती भागीदारी उनकी इस भूख को और बढ़ा देती है। इस अंतर्रिोध को मंडल राजनीति ने खूब उभारा। मंडल राजनीति से प्रेरित होकर राजस्थान का जाट समुदाय नब्बे के दशक में आरक्षण की मांग करने लगा था। उन्हें आरक्षण दे भी दिया गया, लेकिन सैंधानिक पेंच के मद्देनजर आरक्षण की सीमा नहीं बढ़ सकी। यह कदम पहले से आरक्षण का लाभ उठा रही पिछड़ी जातियों के हित में नहीं था, क्योंकि जाट बेहतर आर्थिक स्थिति के कारण आरक्षण का लाभ ज्यादा उठा सकते थे। सभाकि था कि गुर्जर जसी जातियां इससे प्रभाति होतीं। यहां समस्या यह थी कि अनुसूचित जनजाति की सूची में गुर्जरों को शामिल करने पर मीणा समुदाय अपने पारंपरिक लाभ से ंचित हो जाता। मीणा समुदाय ने इसका रिोध भी किया।
इस कारण प्रथम दृष्टि में गुर्जर आंदोलन का स्रूप जातीय दिखाई पड़ता है और आर्थिक पक्ष दब जाता है। इससे न केल बुनियादी मुद्दे से लोगों का ध्यान हट जाता है, बल्कि तथाकथित जातीय सर्थ की अधारणा भी प्रतिष्ठित होती है। भारतीय समाज में जाति एक ऐसी संस्था है, जिसके इर्द-गिर्द लोगों को एकजुट करने में मदद मिलती है। लेकिन इस बात को खारिज करना मुश्किल होगा कि गुर्जर आंदोलन आर्थिक सिंगति की विकृत अभिव्यक्ति है। साल उठता है कि पिछले दो दशक में राजस्थान की सरकारों ने हां की ग्रामीण अर्थव्यस्था की सेहत सुधारने पर क्या अपेक्षित ध्यान दिया है? राजस्थान की सरकारें समस्या की जड़ में जाने के बजाय उसका सतही समाधान खोजने में लगी रही हैं। ग्रामीण अर्थव्यस्था के किास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। आरक्षण उसका कारगर समाधान नहीं है।
उदारीकरण के दौर में पिछले 20 षरें में राजस्थान की अर्थव्यस्था का जिस तरीके से किास हुआ है, ह कोई सुखद संकेत नहीं है। जयपुर स्थित कि बस अध्ययन संस्थान के सुनील राय आदि शोधकर्ताओं ने राजस्थान की अर्थव्यस्था के कि बस पैटर्न का जो अध्ययन पेश किया है, उसमें ऐसे आंदोलनों के बीज की तलाश की जा सकती है। यह मूलत: आर्थिक विकास की सिंगति का नतीजा है। 2008-09 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर 8 प्रतिशत रही। लेकिन जीएसडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटता जा रहा है। इस दशक के शुरू में यह 30 प्रतिशत था, जो अब करीब 20 प्रतिशत हो गया है। 1990-91 में राज्य के शुद्ध घरेलू उत्पाद में यह करीब 45 प्रतिशत था। दूसरी ओर राज्य की करीब दो-तिहाई आबादी खेती पर निर्भर है और खेती करनेोलों की संख्या बढ़ती जा रही है। अगर पशुपालन पर नजर डाली जाए, तो उसकी भी तस्ीर अच्छी नहीं है। अकाल के समय में पशुपालन किसानों की रोजी-रोटी का एक प्रमुख आधार होता है, कई इलाकों में कृषि से भी अधिक। राजस्थान के लिए यह और भी महत्पूर्ण है, क्योंकि हां अक्सर अकाल पड़ता रहा है। लेकिन राजस्थान में चरागाह घटते जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि राजस्थान में आंदोलनरत गुर्जर समुदाय के लोगों की जीविका का प्रमुख आधार कृषि और पशुपालन ही है।
आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में राजस्थान की ग्रामीण अर्थव्यस्था की जो हालत है, ही स्थिति शहरी और अद्र्घ शहरी क्षेत्र की अर्थव्यस्था का नहीं है। इनकी स्थिति बेहतर हुई है और इसका लाभ ग्रामीण क्षेत्रों को कम ही मिला। राज्य की आय में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा कृषि से ज्यादा हो गया है। यह 30 प्रतिशत से अधिक बताया जा रहा है। पर्यटन और निर्माण क्षेत्र में उल्लेखनीय ृद्घि हुई। यही प्रवित्ती सेवा क्षेत्र में भी दिखाई पडृी। राज्य की आय में इसका हिस्सा सबसे अधिक (40 प्रतिशत से अधिक) हो गया। होटल व्यसाय ने उल्लेखनीय सफलता दर्ज की। लेकिन इस प्रक्रिया में लोगों को रोजगार उपलब्ध करानेोले छोटे-मोटे उद्योग-धंधे बंद होते गए। यहां तक कि कारखानों की संख्या भी घटती गई। उस पर तुर्रा यह कि प्रति कारखाना औसत मजदूरों की संख्या भी घटती गई। दुनिया को दिखाने के लिए सरकार के पास यह रहा कि राजस्थान में निेश बढ़ रहा है। खनन को छोड़ दें, तो किसी और क्षेत्र में रोजगार में ृद्घि नहीं हुई। ऐसा किास किसके हित में होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।
आम आदमी को लाभ पहुंचानेोला यह किास नहीं है। सभाकि था कि इसका लाभ गांों को कम ही मिलता। गांों के पढ़े-लिखे युवाओं को इन जगहों में कम ही रोजगार मिला। खास बात यह कि उनमें से बहुत से ऐसे हैं, जो गां में रहकर खेती नहंीं करना चाहते। यही अंतर्रिोध उनमें असंतोष के रूप में प्रकट हो रहा है, जो जाति के आधार पर आरक्षण जसी मांग के रूप में सामने आ रहा है। यह किसी दूसरे मुद्दे पर किसी और रूप में भी सामने आ सकता है। ह जाति गुर्जर ही नहीं, कोई और भी हो सकती है। सामान्य बुद्घि तो यही कहती है कि इसमें केल युकों को शामिल होना चाहिए था, लेकिन रोजगार कें्िरत आरक्षण के मुद्दे पर युकों के साथ बुजुगरें और महिलाओं का सड़कों पर उतरना समस्या की गहराई का सूचक है। 1857 के गंगा-यमुना दोआब के किसान गिरोह पर शोध करने बेले एरिक स्टोक्स (द पीजेंट आर्म्ड-द इंडियन रिवोल्ट आफ 1857) के अध्येता इसका अनुमान लगा सकते हैं।

(आज समाज से साभार)

Sunday, January 16, 2011

प्रवासी भारतीय अब भी नास्टेल्जिक- सुषम बेदी

न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापिका और प्रसिद्ध लेखिका सुषम बेदी से अभिनव उपाध्याय की बातचीत-

भारत और प्रवासी साहित्यकारों की रचनाओं में किस तरह का अंतर आप देखती हैं?

भारत से बाहर अलग-अलग समय पर लोग गए। लोग अपने समय में बंधे होते हैं। शुरू में लिखा गया साहित्य नास्टेल्जिया का लेखन था। कई लोग प्रसाद, निराला आदि को पढ़कर आए तो उसका पूरा प्रभाव उनमें दिखाई देता है। लेकिन अब भी ज्यादातर नास्टेल्जिया का साहित्य लिखा जाता है। मैं वहां रहकर वहां के लोगों के जीवन की नब्ज पकड़ती हूं। भारत में रहकर लिखने वाला भारतीयों को बेहतर और करीब से जानता है। प्रवासी लोग जल्दी खुलते नहीं हैं, वहां पर ज्यादातर साथ पढ़ने वाले लोग मिलते हैं या पब में मिलते हैं और अपने मन की ढेर सारी बातें कह डालते हैं। अन्यथा उनके मन में एक दीवार होती है जिन्हें वे फांदना नहीं चाहते।

भारत और वहां के लोगों में भाषाई अंतर नहीं है। भारत में जितना भाषा का विकास होता है उतना विदेशों में नहीं होता, क्योंकि हम भारत से ही भाषा लेकर गए हैं। हिन्दी में नई शैलियां आई हैं। हर साहित्यकार का अलग ढंग है। ज्यादातर मैं देखती हूं प्रवासी लेखकों के विषय सीमित है, भारत जितनी विविधता वहां के साहित्य में नहीं मिलती। प्रवासियों के सामाजिक, आर्थिक समझौते की समस्याएं वहां की प्रमुख समस्याएं हैं जो कहानियों में दिखती हैं। विदेश में भारतीयों के साथ एक प्रमुख समस्या है कि वह कितना भारत के मूल्यों के साथ जिएं कितना विदेशी मूल्यों के साथ, क्योंकि यहां से जो लोग जाते हैं उनमें अस्मिता का सवाल सबसे बड़ा है कि मैं क्या हूं, कौन हूं, हिन्दुस्तानी हूं या अमेरिकी हूं।
क्योंकि वहां के बच्चे अमेरिकी स्कूलों में पढ़ते हैं। अमेरिकी बच्चों के साथ खेलते हैं शादी भी करते हैं। लड़कियों के सामने डेटिंग एक अहम विषय है। वहां के अभिभावक लड़कियों को इसके लिए मना करते हैं। इससे उनमें काफी तनाव है। मेरी कई कहानियों में भी यह समस्या दिखाई देती है। बहुत पहले सोमा वीरा की कहानी में यह मुद्दे दिखाई देता था। बच्चों पर पढ़ाई के लिए भी मां-बाप दबाव डालते हैं। उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भी पढ़ाई के दबाव में बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। लड़कियों को अपनी वर्जिनिटी को बचाने के लिए बड़ी चिंता रहती है। मेरी कहानी सड़क की लय में यह चिंता भी उभरी है, इसमें मां बाप को असमंजस है कि लड़की को किस हद आजादी दें।
हिन्दी आलोचना अभी भी कविता केन्द्रित है, आपकी क्या राय है?
मैं यह मानती हूं कि हिन्दी का वर्तमान में सबसे सशक्त साहित्य कथा साहित्य है। कविता भी सशक्त है लेकिन आज यह बात नहीं। आलोचकों ने कथा साहित्य पर खूब लिखा है। प्रेमचंद से पहले कथा साहित्य नाम का था। आलोचकों का वर्ग इसे महत्व दे या न दे। लेकिन प्रवासी हिन्दी को नजरंदाज किया गया है तो इसलिए कि इसमें कम लिखा गया है। बाहर से लिखने वाले लोगों को हिन्दी का आलोचक समझ नहीं पाता कि इन्हें किस दायरे में रखा जाए इसलिए नजरंदाज कर देता है, अभी आलोचकों ने कोई ऐसी श्रेणी नहीं बनाई है।

हिन्दी के पांच बड़े कथाकार आप किसे मानती हैं?
इसका जवाब मुश्किल है, क्योंकि हिन्दी में बहुत कथाकार हैं। मुङो सबसे पहले अज्ञेय पसंद हैं, क्योंकि उनका चरित्रों की गहराई और विश्लेषण मुङो बहुत अच्छा लगता है। निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, फनीश्वरनाथ रेणु और मोहन राकेश भी हैं मुङो इनको पढ़ाने का मौका मिला। लेकिन बहुत लेखक हैं यदि किसी और दिन मुझसे कोई पूछे तो मैं शायद कुछ और नाम ले सकूं।
अभी आप नया क्या कर रही हैं?
मेरा नया उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से छपा है। ‘मैंने नाता तोड़ा, ‘तान और आलाप शीर्षक से आत्मकथा लिखी है, एक और उपन्यास शुरू किया है जो वहां के जीवन की समानांतर जिंदगियां हैं उनको लेकर है।
क्या ऐसा लगता है कि 9/11 के बाद अमेरिका भाषा को लेकर सचेत हो गया है?
बिल्कुल, मैंने अपने एक लेख में शुरुआत ही इससे की है कि हिन्दी उर्दू या अन्य भाषाओं के न आने से अमेरिकीयों को बुद्धू बनाया जा सकता है इसलिए सेना ने हिन्दी, उर्दू, पश्तो, अरबी और वे भाषाएं जिसका रणनीतिक महत्व हो उस पर जोर दिया जा रहा है। अरेबिक को पढ़ाना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
विदेशों में हिन्दुस्तानी बच्चों पर हए हमलों को आप किस तरह से देखती हैं?
रंगभेद के कारण ऐसा हो रहा है। लोग अकेले लोगों को निशाना बनाते हैं। कुछ हमलों के लिए भारतीय भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वे अलग-थलग रहते हैं। ये चीज भारत में भी है अगर हिन्दू मुसलमान में भी संपर्क हो तो यहां भी झगड़े शायद न हों।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...