Wednesday, October 13, 2010

कानून को लेकर उदासीनता क्यों?



आजादी के बाद भारत जसे लोकतांत्रिक देश में सूचना के अधिकार कानून को लागू करने में आई दिक्कतों के बाद यह 12 अक्टूबर 2005 को जब लागू हो गया तो अब पांच साल बाद जब कोई प्रशासनिक अधिकारी, अध्यापक और पत्रकार इसके प्रति अनभिज्ञता जताता है तो बरबस यह सवाल उठता है कि इतने महत्वपूर्ण काननू के लागू होने के बाद इतनी उदासीनता क्यो? क्या सरकार इसके प्रति उदासीनता दिखा रही है या आम नागरिक इसके बारे में जानने का इच्छुक नहीं है? या वह इस कानून का प्रयोग करने के बाद इसके परिणाम से हतोत्साहित हो चुका है? हो सकता है यह सभी सवाल सही भी हो या नहीं भी लेकिन जब सरकारी प्रयास की बात आती है तो एक आरटीआई के माध्यम से यह जानकारी मिली कि लोगों को सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी देने के लिए विज्ञापन पर मामूली पैसे खर्च किए गए। जबकि अन्य विज्ञापनों में यह खर्च इसके मुकाबले काफी अधिक थे। 2008 में प्रधानमंत्री कार्यालय में विज्ञापन के संबंध में डाली गई एक आरटीआई के आवेदन में पता चला कि कानून लागू होने के बाद डीएवीपी द्वारा इस कानून के प्रति जागरूकता फै लाने के लिए महज 2 लाख रुपए खर्च किए गए। आज भी यह रकम किसी नेता के विज्ञापन के जन्मदिवस या पुण्यतिथि के विज्ञापन से काफी कम है।

गेल ने महासुरक्षा योजना के विज्ञापन में 4,18,22,903 रुपए खर्च किए। यही नहीं 2008-9 में पर्यटन मंत्रालय ने 65 करोड़ रुपए खर्च किए। इस मुकाबले सूचना के अधिकार पर कि या गया खर्च कोई मामूली ही है। इसे प्रसारित करने में फैसलों का महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगर दिल्ली के बटला हाउस इंकाउंटर का मामला देंखे तो इससे संबंधित मांगी गई सूचना भी खबर बनी। हालांकि प्रशासन कभी भी सूचना देने के पक्ष में नहीं रहा है। इस अधिकार के प्रयोग के लिए जब हम धरातल पर जाएं तो कई दिक्कतें देखते हैं। भारतीय प्रशासन में कहीं यह भाव ही सम्मिलित नहीं है कि वह जनता की सेवा या उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए है। जब वह किसी प्रशासक से इस एक्ट के तहत सवाल पूछता है तुरंत इसका प्रशासक के मन में इसको लेकर एक शंका उत्पन्न होती है कि यह सूचना वह क्यों दे उसके लिए उसके पास बहानों की लम्बी लिस्ट है। चाहे सूचना कितनी भी महत्वपूर्ण हो लेकिन तर्क हमेशा उसके पास रहता है। वजह चाहे तर्क संगत न हो तो भी। दिल्ली के बटला हाउस इंकाउंटर का ही मामला लें। जब इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से सूचना मांगी गई थी तो उसने इसे देने से साफ इंकार कर दिया था हालांकि जानकारी जांच से संबंधित नहीं बल्कि पोस्टमार्टम से संबंधित मांगी गई थी। एम्स ने सूचना का अधिकार कानून-2005 की उपधारा 8(1)बी और उपधारा 8(1)एच का हवाला दिया था। जिसे कानून के जानकारों ने उसी वक्त खारिज कर दिया था। दिलचस्प यह है कि वही रिपोर्ट मानवाधिकार आयोग ने बिना किसी लाग लपेट के दे दिया।


तंत्र की पारदर्शिता, सूचना की स्वतंत्रता अथवा जानने का अधिकार को लेकर भारत में विभिन्न स्तरों पर परिचर्चा हो रही है और इसके कुछ निष्कर्ष भी निकले हैं। लेकिन यह चर्चा जब भी बड़े स्तर पर हुई इसके केन्द्र में सरकारी गोपनीयता कानून यानी आफीसियल सिक्रेट एक्ट आया। सूचना को बेहद गोपनीय रखने वाला यह कानून 1889 में ही अस्तित्व में आ गया था लेकिन इसमें 1923 में बदलाव हुआ। लेकिन कुछ संशोधनों को छोड़ दिया जाए तो यह कानून अब भी उसी रूप में विद्यमान है। हालांकि सूचना के अधिकार कानून में 22 संबंधों में सूचना न देने की बात कानून में है। फिर भी यदि मामला किसी के जीवन से जुड़ा हो तो उस संबंध में सूचना देने पर विचार किया जा सकता है।
सूचनाओं के संबंध में प्रसिद्ध विचारक हेराल्ड लास्की ने कहा था कि ‘जिन लोगों को सही और विश्वसनीय सूचनाएं नहीं प्राप्त हो रही हैं, उनकी आजादी असुरक्षित है। उसे आज नहीं तो कल समाप्त हो जाना है। ..सत्य किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी थाती होती है। जो लोग और जो संस्थाएं उसे दबाने, छिपाने का प्रयास करती हैं अथवा उसके प्रकाश में आ जाने से डरती हैं, ध्वस्त और नष्ट हो जाना ही उसकी नियति है।ज् प्रश्न यह उठता है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हम तक कितनी सूचनाएं आती हैं। हमारी नौकरशाही हमें किस तरह की और कितनी सूचनाएं मुहैया कराती है।

नौकरशाही के स्वभाव और उसके उसकी कार्यप्रणाली पर प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर की टिप्पणी सटीक बैठती है, कि सरकारी गोपनीयता की अवधारणा नौकरशाही की विशिष्ट इजाद है। नौकरशाही उतनी कट्टरता से किसी और चीज की रक्षा नहीं करती जितनी गोपनीयना की करती है। असीमित सूचनाओं के आधार पर एकत्रित किए गए ज्ञान को गोपनीय रखने का कानून बनवाकर ही वह अपनी श्रेष्ठता स्थापित करती है। इसलिए वह कम जानकार संसद और मूर्ख जनता की भूरि-भूरि प्रशंसा करती है।
हालांकि भारतीय संविधान की धारा 19 में स्पष्टत: है कि ‘हर व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। बिना किसी हस्तक्षेप के विचार निर्मित करना और उसे व्यक्त करना इस अधिकार में सम्मिलित है। देश की सीमाओं की चिंता किए बगैर किसी भी माध्यम से सूचनाएं एवं विचार एकत्र करने, प्राप्त करने और उन्हे लोगों तक पहुंचाने का अधिकार भी इस अधिकार में शामिल है। लेकिन बस शामिल है। क्योंकि आदाजी के बाद भारत जसे लोकतांत्रिक देश में किसी अलोकतांत्रिक देश के जसे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ है। भारत में यह कानून भी विश्व के कई देशों में लागू होने के बाद प्रकाश में आया हालांकि समय समय पर इसके लिए कुछ सरकारी भी प्रयास हुए लेकिन वह बस नाम मात्र के थे। लेकिन कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा 1990 के बाद कई प्रयास सामने आए। 1988 में कर्नाटक में सरकारी प्रयास हुए लेकिन वह बहुत असरदार नहीं रहे। राजस्थान में अरुणा राय, महाराष्ट्र में बाबा आम्टे, मध्यप्रदेश में शंकरगुहा नियोगी, गोवा, तमिलनाडू,उत्तर प्रदेश में सामूहिक प्रयास हुए। लेकिन आज पांच साल बाद यह सवाल एक बार फिर है कि आखिर कितने लोग इसे जान पाए? प्रशासनिक अधिकारियों का मानना है कि यह हथियार बंदर के हाथ में कानून है? भारतीय जनता अभी इसके लिए तैयार नहीं है। उधर अगर हम कुकुरमुत्ते की तरह उगे गैर सरकारी संगठनों की आय पर ध्यान दें तो इस कानून के प्रसार के नाम पर उन्होने करोड़ों कमाएं हैं उनके पास सैकड़ों आरटीआई हैं। अब तो वह प्रशासकों को पुरस्कार भी देने लगे हैं लेकिन भारत की एक बड़ी आबादी इससे वंचित है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया भी इसमें बहुत रूचि नहीं दिखा रहा है अभी भारत के बहुत से शहरों में लोग पूछते हैं कि क्या ऐसा भी कोई अधिकार है? बहुत से अखबार और चैनलों में आरटीआई डेस्क नहीं हैं नहीं तो उन्हे भूत प्रेत और अपराध की खबरों के जरिए अपनी टीआरपी के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ता। 1936 में जवाहर लाल नेहरु ने एक भाषण में कहा था कि ‘पत्रकारिता और पत्रकारों को आधुनिक युग मे एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी। इस बात की पूरी आशंका है कि भारत में तत्थ्यों और सूचनाओं को छिपा लेने तथा उन पर रोक लगाने का प्रयास किया जाए। यह काम सरकार भी कर सकती है और विज्ञापन दाताओं के दबाव में अखबारी घरानों के मालिकान भी। ...मैं समाचारों और सूचनाओं को प्रतिबंधित करने के सख्त खिलाफ हूं क्योंकि विभिन्न घटनाओं पर राय निर्मित करने के लिए जनता के पास इसके अलावा अन्य कोई साधन नहीं है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...