Wednesday, September 14, 2011

पाखंड है हिंदी दिवस मानना- अशोक वाजपेयी

प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस सरकारी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। प्रस्तुत है हिन्दी दिवस और उसकी स्थिति पर वरिष्ठ साहित्यकारों की बातचीत-

अशोक वाजपेयी-(कवि, आलोचक)

भारत में हिन्दी के नाम पर लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। ऐसे हिन्दी दिवस मनाना किसी पाखंड से कम नहीं है। हिन्दी सिनेमा, मीडिया और बाजार से बढ़ रही है। यदि मनाना ही है तो हिन्दी प्रदेशों में मातृभाषा दिवस मनाएं या भारतीय भाषा दिवस मनाया जाना चाहिए।

नित्यानंद तिवारी-(आलोचक)

हिन्दी दिवस सरकार का आनुष्ठानिक व्यापार बन गया है। इस व्यापार को बदलने की जरूरत है। सरकार का राजभाषा विभाग है, जो तरह-तरह की योजनाएं चलाता है। हिन्दी के विकास के लिए दूसरी तरफ सरकार का ही ज्ञान आयोग है, जिसमें एक सदस्य को हिन्दी में बोलने के बाद माफी मांगनी पड़ी। यह विरोधाभास है। ऐसा लगता है कि राममनोहर लोहिया के बाद भारतीय भाषाओं के आंदोलन की बात पुरानी पड़ गई है। अब हमें औपनिवेशिक मानसिक ढांचे को तोड़ने की जरूरत है। बिना इसके भारतीय भाषाएं महत्व नहीं पा सकती। यदि प्राथमिक कक्षाओं में हिन्दी की स्थिति सुधरती है यह हिन्दी के विकास के लिए शुभ संकेत है।

रामशरण जोशी-(साहित्यकार)

सवाल हिन्दी दिवस की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता का नहीं है। मूल प्रश्न यह है कि हिन्दी को हम किस तरह से देखते हैं। हिन्दी दिवस के ऐसे आयोजन औपचारिकता मात्र होते हैं। लेकिन ऐसे दिवस के मौके पर हमें आत्मविवेचन का अवसर भी मिलता है। ऐसे में इन आयोजनों का तात्कालिक महत्व तो है। मेरा मानना है कि आजादी के बाद हिन्दी का विस्तार हुआ है। यह हिन्दी के लिए उत्सव का काल है विलाप का नहीं। मैं हिन्दी को राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर देखता हूं।

अर्चना वर्मा-(साहित्यकार)

हम हिन्दी के विकास के लिए इसे केवल दिवस के रूप में नहीं देख सकते। लेकिन कोई एक दिन तो है जिसे हम हिन्दी दिवस के रूप में याद करते हैं। लेकिन यह विडंबना है कि फिर हम उसे भूल जाते हैं। लेकिन इससे हिन्दी को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। हाल के आए आंकड़े बताते हैं कि एक बड़ी आबादी है जिसकी शिक्षा हिन्दी में हो रही है। हिन्दी संपर्क की भाषा तो बहुत पहले से है लेकिन अब यह बाजार की भाषा भी बन रही है। ऐसे में हम अब हिन्दी को नकार नहीं सकते। पहले के मुकाबले अब हिन्दी में अंधकार की स्थिति नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि हिन्दी बोलने वालों के साथ अभी आत्मविश्वास नहीं जुड़ा है। ऐसा इसलिए भी है कि भारत काफी समय तक गुलाम रहा है और गुलाम हमेशा अपने मालिक की तरह बनना चाहता है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...