Saturday, August 29, 2009

अभी तो मैं जवान हूँ


सुप्रसिद्ध कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव 28 अगस्त को 80 वर्ष के हो गए । इस उम्र में भी वे वैसे ही जुझारू, बौद्धिक रूप से सजक और रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं जिसके लिए उन्हे शुरू से ही जाना जाता है। भारतीय वंचित समाजों के लिए भूमिका ऐतिहासिक महत्व की है। बहस तलब हर मुद्दे-प्रसंग पर राजेन्द्र यादव एक नई दृष्टि लेकर आए हैं। नयापन उनकी विशिष्टता है जिसके कारण वे हिन्दी जगत की चेतना पर हमेशा अपना दबदबा बनाए रखते हैं। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता के पीछे उनका नयापन है। वे खुद कहते हैं कि नयापन का अर्थ है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। सालगिरह के अवसर पर मशहूर कथाकार, विचारक और ‘हंसज् के संपादक राजेन्द्र यादव से पंकज चौधरी की बातचीत


प्रश्न 1-मशहूर कथाकार संजीव ने अपने एक इंटरव्यू में आपको ‘बांका जवानज् कहा था। आपकी सक्रियता, गतिशीलता और लड़ाकू तेवर को देखते हुए अभी भी संजीव की बात आपके ऊपर सटिक बैठती है। हालांकि अब आप अस्सी पार के हो गए हैं। इस उम्र में आकर मेरा ख्याल है कि एकाध अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के अमूमन मूर्धन्य भसिया जाते हैं?

-मैं मानता हूं कि आदमी उम्र से वृद्ध नहीं होता। उम्र शरीर की होती है, मन की नहीं। जब तक आपको संसार की सुंदरता आकर्षित करती है तब तक उम्र आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं अभी भी भीतर से अपने-आपको युवा ही महसूस करता हूं। उम्र का अर्थ होता है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। इस अर्थ में मैं भविष्यवादी हूं और जो मैं नहीं हूं उसे युवा मित्रों की आंखों में देखकर प्रेरणा पाता हूं। कुछ अतीतजीवी लोग बीस-पच्चीस वर्षो में ही बूढ़े होने लगते हैं। जो यथास्थिति को तोड़ नहीं सकता वह किस बात का युवा है। युवा होने का मतलब है कि मूल मान्यताओं, परंपराओं या विश्वासों को मानने से इनकार करना। हमारे बाप-दादा जहां खड़े थे अगर हम भी वहीं खड़े रहें तो फिर मैं समझता हूं कि हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है।

प्रश्न 2-उम्र के इस मोड़ पर आकर क्या कभी आपको ऐसा लगा कि जीवन अकारथ गया, व्यर्थ गया। आप फलां किताब लिखना चाहते थे, लिख नहीं पाए। कुछ और बड़े कामों को अंजाम देना चाहते थे, दे नहीं पाए। आपने कहीं लिखा है कि यदि आपका पैर सही होता तो आप लेखक की जगह पालिटिशियन होते?

-जितने भी असंतोष हैं सब युवा होने के प्रमाण हैं। मुङो वही सब करना है जो अभी तक मैं नहीं कर पाया। यहां मैं यह बात तुम्हें बता दूं कि पैर का टूटना मेरे लिए कभी भी बाधा नहीं बना। मैं पूरे भारतवर्ष और विदेशों में घूमा हूं। पहाड़ों से लेकर कन्याकुमारी तक। जीवन में कहीं भी ये भावना आड़े नहीं आई कि मुझमें कोई कमी भी है। हां, इसका एक फायदा यह हुआ कि मेरा ध्यान अध्ययन की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। अभी तक लगभग मेरी 60 किताबें छप चुकी हैं और आठ-दस छपने की तैयारी में हैं। फिर भी मुङो लगता है कि अभी तक मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो मेरा अपना हो।

प्रश्न 3- स्त्री विमर्श के आप बड़े पैरोकार हैं। यूपीए-2 का जब गठन हुआ तो कांग्रेस ने तीन महीने के अंदर महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने की बात की। पेंच इसमें यह है कि इस आरक्षण का दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं ने विरोध करना शुरू कर दिया है। माननीय शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अगर यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में पास होता है तो मैं सुकरात की तरह जहर खा लूंगा। इनका तर्क है कि राजनीति में दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को कम करने के लिए ‘महिला आरक्षणज् जसा षड्यंत्र रचा गया है। दूसरी ओर इनका कहना है कि हां, ‘आरक्षण के अंदर अगर आरक्षणज् हो तो इस विधेयक को पारित करने पर विचार किया जा सकता है। मेरा ख्याल है कि ‘आरक्षण के अंदर आरक्षणज् का जो तर्क है उसमें दम है, क्योंकि मायावती जसी पावरफुल दलित महिला के लिए भी रीता बहुगुना जोशी जसी महिला दिन-दहाड़े अपशब्दों का इस्तेमाल कर देती हैं?

- ये सारी की सारी राजनीति की बातें हैं जो समय और सुविधा को देखकर की जाती हैं। इन्हें गंभीरता से लेनी भी चाहिए और नहीं भी लेनी चाहिए। सही है कि महिला विधेयक अगर पास हुआ तो ऊंचे, प्रभावशाली और सम्पन्न महिलाएं ही विधायिका में छा जाएंगी। इस विधेयक में ऐसा प्रावधान जरूर होना चाहिए कि पिछड़ी और दलित जातियों की महिलाओं को सामने आने का अवसर मिले। अवसर मिलेगा तो मैं समझता हूं कि वे योग्यता भी अर्जित कर लेंगी। सारा खेल अवसरों का है। योग्यता तो बाद की चीज है। अभी तो यह भारत भी सन् 47 में दी गई उस स्वतंत्रता जसा ही लगता है जब उच्च सवर्ण पुरुषों ने सारे शासन को हथिया लिया और महिलाएं और दलित लम्बे वक्त तक इस भ्रम में बने रहे कि यह स्वतंत्रता उन्हें भी मिली है। भ्रम भंग की प्रक्रिया में महिला और दलित आंदोलन सामने आए। डा. आम्बेडकर ने तब भी इस स्वतंत्रता का विरोध किया था। आज अगर महिलाएं ऊंचे पदों पर दिखाई देती हैं तो हम इसे पचा नहीं पाते। जहां तक अशालीन शब्दों के प्रयोग की बात है तो क्या हमने कभी संसद और विधानसभाओं में उन दृश्यों की समीक्षा की है जहां एक-दूसरे को भयंकर गालियां दी जाती हैं। कुर्सियां फेंकी जाती हैं और बाहर निकलकर समझ लेने की धमकियां दी जाती हैं। सही है कि रीता बहुगुना जोशी को ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। मगर जब पूरे राजनीति के कुएं में ही भांग पड़ी हो तो अकेले इन्हें ही दोष देना क्यों जरूरी है।

प्रश्न 4-‘हंसज् ने एक लम्बे अरसे तक हिन्दी पट्टी में वैचारिक उत्तेजना पैदा करते रहने का काम किया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और उत्तर आधुनिकता जसे विमर्शो को हिन्दी में पैदा करने का श्रेय ‘हंसज् को जाता है। आपके लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लेखों ने हमारे जसे युवा लेखकों का निर्माण किया है। ‘हंसज् जब अपने शिखर पर था तो ज्ञानरंजन का वह कथन मुङो याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि राजेन्द्र यादव ने सारे सरस्वतियों को ‘हंसज् में बिठा रखा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ‘हंसज् का वो ‘तेजज् पता नहीं कहां गुम हो गया है। अब तो मैं इसे 1-5 में भी नहीं रखता?

- जितनी बातें तुमने ‘हंसज् के बारे में बताई हैं इस संदर्भ में मेरा कुछ भी कहना इसलिए गलत है क्योंकि हंस की उपलब्धियों की चर्चा करना पाठकों का काम है मेरा नहीं। कुछ पाठक तो यह भी कहते हैं कि ‘हंसज् ने जिस तरह की जागरूकता पाठकों में फैलाई है वैसी जागरूकता न कभी किसी पत्रिका ने फैलाई थी और न ही स्वतंत्रता के बाद के किसी भी आंदोलन ने। मगर मैं मानता हूं कि ये सब हिम्मत बढ़ाने की बातें हैं। मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने अपने मित्रों की मदद से ही की। हां, ये सही है कि आप हमेशा एक आवेग, गुस्से और उत्तेजना में नहीं बने रहते। ठहराव भी आता है। हो सकता है ‘हंसज् में इधर कोई ठहराव आया हो, मगर शायद हम भारतीयों की आदत है कि जो कुछ पहले हो चुका है वही महान है। जो मिठाइयां और चाट हमने अपने बचपन में खाए थे वैसी आज कहीं नहीं मिलती। जबकि स्थिति यह है कि दोनों पकवानों की कलाओं और स्वाद में बहुत संपन्नता आई है। ‘हंसज् को लेकर तुम्हारी बातों में भी यही है। और यहां तुम्हारा पुराण मोह दिखाई देता है।


प्रश्न 5- ‘हंसज् के सलाना कार्यक्रम में हाल ही में डा. नामवर सिंह ने जिस तरह से दलित लेखक अजय नावरिया के लिए ‘लौंडाज् शब्द का इस्तेमाल किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम होगी। क्योंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘लौंडाज् शब्द के क्या मायने हैं इसको नामवर सिंह से बेहतर कौन जानता होगा। लेकिन यह भी तो सच है कि आप अजय नावरिया को जरूरत से ज्यादा प्रमोट करते रहते हैं। आपके इसी प्रमोशन के कारण बहुत सारे दलित लेखक भी आपके खिलाफ हो गए हैं?

-इसका जवाब मैं ‘हंसज् के अगस्त अंक में दे चुका हूं। वैसे दिल्ली और आगरा की मुसलमानी संस्कृति में ‘लौंडाज् शब्द प्यार में इस्तेमाल किया जाता है। ‘यह आप का लौंडा है।ज् बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो यह शब्द ‘लमड़ाज् हो जाता है। खर! हिन्दी का तीसरा शब्द ‘चेष्टाज् मराठी में अश्लील प्रयत्नों के लिए इस्तेमाल होता है, जिस तरह हिन्दी के ‘बालज् और बांग्ला के ‘बालज् में जमीन आसमान का अंतर है। इसलिए इतना ही नहीं नामवरजी की बाकी बातों को भी गंभीरता से लेने की क्या जरूरत है। वे कहते चाहे जो हों लेकिन वे मूलत: स्त्री, दलित या युवा विमर्श को बहुत समर्थन नहीं देते। ये उनका पुराना रवैया है। उस दिन वे राहुल गांधी की युवा राजनीति को भी साहित्य के आगे चराते रहे।


प्रश्न 6- हिन्दी में दलित विमर्श को शुरू हुए 20 वर्षो से अधिक हो गए हैं। इन वर्षो के दरम्यान एक-से-एक ब्रिलिएंट दलित चिंतक पैदा हुए हैं। मसलन डा. धर्मवीर, कंवल भारती, तुलसीराम, चंद्रभान प्रसाद। इस क्रम में मैं राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस का भी नाम लेना चाहूंगा। हालांकि आप और मुद्राराक्षस दलित नहीं हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि जिस दलित विमर्श ने एक-से-एक धुरंधर रैडिकल विचारक पैदा किए हों और जिनके विचारों की प्रखरता ने हजार वर्षो के सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य पर सवाल खड़े कर दिए हों, वहां कायदे का एक भी कविता संग्रह, कहानी संग्रह या उपन्यास देखने को क्यों नहीं मिलता? क्या मैं यह मानकर चलूं कि अभी हिन्दी का दलित विमर्श कुछ अच्छी आत्मकथाओं को यदि छोड़ दिया जाए तो रचनात्मक साहित्य की पीठिका ही तैयार कर रहा है?

- हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो। मगर मुङो ऐसा लगता है कि जिस साहित्य में विचार, विवेचना और विश्लेषण का वर्चस्व होता है वहां रचनात्मक साहित्य प्राय: कमजोर हो जाता है या सिर्फ फार्मूलाबद्ध होकर के ही रह जाता है। मार्क्‍सवादी वैचारिकता को लेकर जो साहित्य रचा गया है उसमें भी बहुत कुछ ऐसा ही है। और यह हमें याद भी नहीं रहता या इसे हम याद भी रखने लायक नहीं समझते। वैसे भी हिन्दी में दलित चेतना राजनीतिक आंदोलनों के बाद आई है। जबकि मराठी में फुले से लेकर अब तक दलित जागरूकता ने ही वहां के रचनाकार और विचारक पैदा किए। चूंकि दलितों और स्त्रियों के पास अपना कोई इतिहास नहीं होता और वहां सिर्फ मालिकों के शासन में रहने वाले स्वामीभक्तों का इतिहास होता है। इसलिए दलित और स्त्रियां अपने आपसे ही इतिहास का प्रारंभ मानती हैं और यह सही भी है। स्वाभाविक है कि ऐसी मानसिकता में आत्मकथाएं ही आएंगी जो वर्तमान से लेकर भविष्य की ओर जाती हुई दिखाई देंगी। वर्तमान से अतीत की ओर तो सिर्फ यातना, प्रताड़ना और शोषण का लंबा इतिहास है इसलिए मैंने पहले भी कई बार कहा है कि हमारे साहित्य का मूलमंत्र ‘सत्यम, शिवम, सुंदरमज् का कुलीनतावादी दृष्टिकोण नहीं हो सकता, बल्कि यातना, संघर्ष और स्वप्न का जुझारू सिद्धांत है।


प्रश्न 7- संजीव और उदय प्रकाश हमारे दौर के दो विशिष्ट कथाकार हैं। संजीव एक ओर जहां, चालू शब्दों में कहें कि प्रेमचंद की परंपरा को लगातार विकसित और समृद्ध करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उदय प्रकाश साहित्य की दुनिया में जहां कुछ भी नया हो रहा है, उसका प्रयोग बहुत ही खूबसूरती से अपनी कहानियों में करते दीख रहे हैं। कहानी की सेहत के ख्याल से इसीलिए दोनों का महत्व है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उदय प्रकाश के नाम को जिस तरह से उछाला जा रहा है और संजीव के नाम को भुलाने का प्रयास दिख रहा है, उसके पीछे आप क्या देखते हैं?

-संजीव शुद्ध भारतीय गांवों और कस्बों की संघर्ष चेतना के कथाकार हैं। उनके पास जो जानकारियां, शोध और कलात्मक संतुलन हैं वे शायद ही हिन्दी के किसी लेखक के पास हों। निश्चय ही उनकी रचनाओं में प्रेमचंद से ज्यादा विविधता ही नहीं बल्कि अनेक तरह के पात्रों की विशेषताएं भी हैं। उदय प्रकाश देशी-विदेशी रचनाकारों के गंभीर पाठक रहे हैं। उनके पास एक चमकदार और विचारगर्भी भाषा है और वे अपनी भाषा से खेलना जानते हैं। इसी के बल पर वे लम्बे-लम्बे विवरणों और नाटकीयता से पाठकों को बांधे रखते हैं। उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हैं लेकिन वे निश्चय ही बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी के ये दोनों कथाकार अपने-अपने क्षेत्र में विलक्षण हैं। पाठकों का दृष्टिकोण इनके प्रति वही है जो बड़े और छोटे शहरों के समाजकर्मियों की होती है। एक मीडिया के केन्द्र में होता है और दूसरा सिर्फ स्थानीय हो सकता है, जो स्थानीय है वह ज्यादा मूलगामी कार्य कर रहा है।

प्रश्न 8- हिन्दी अकादमी के विवाद का पटाक्षेप हो गया है। अशोक चक्रधर उपाध्यक्ष के रूप में अकादमी के कार्यो को अंजाम दे रहे हैं। आप लोगों का ‘चक्रधर मिशनज् फेल हो चुका है। अशोक चक्रधर के पीछे आपलोग लट्ठ लेकर इसलिए पड़ गए क्योंकि वे एक मंचीय और हास्य कवि हैं। हिन्दी साहित्य में अभी भी हास्य और लोकप्रियता को इस तरह से देखा जाता है जसे ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत।ज् मेरा मानना है कि जीवन में और प्रकृति में जिस तरह की डायवर्सिटी है, मतलब जीवन में यदि गंभीरता है तो हास्य भी है। दुख है तो सुख भी है, घृणा है तो प्रेम भी है। मतलब जीवन और प्रकृति में एकरसता नहीं है। तो फिर साहित्य में यह डायवर्सिटी क्यों नहीं होनी चाहिए?

- शब्दों के ये विलोम हमें कहीं नहीं ले जाते। व्यक्तिगत रूप से अशोक चक्रधर को मैं आज भी बहुत प्यार करता हूं और मानता हूं कि उन्होंने कविता के मंच को जो सम्मान वापस दिलाया है उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। ज्यादातर कवि जो राजू श्रीवास्तव के प्रतिलोम दिखाई देते हैं। मगर मैं अपने बेटे को चाहे जितना प्यार करता होऊं और उसकी योग्यता से खुद भी आतंकित होऊं लेकिन मैं उसे शायद युद्ध के किसी मोर्चे का इंचार्ज बनाने से पहले कई बार सोचूं। पिछला अध्यक्ष तो लगभग निष्क्रिय ही था। मगर अशोक एक एजेंट के तौर पर लाए गए हैं। उनका समर्थन करने वालों के नाम अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि या तो सब भाजपा से जुड़े रहे हैं या लगभग ढुलमुल किस्म के रचनाकार हैं। पुरानी कार्यकारिणी के लगभग सारे महत्वपूर्ण सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए हैं। अब अशोक अपने मत के उन्हीं लोगों को कार्यकारिणी में लाएंगे जो उनकी योजनाओं को कार्यरूप दे सकें। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक खेदजनक कृष्ण बलदेव वैद को बदनाम करना है। भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तो बाकायदा वैद की रचनाओं को अश्लील रेखांकित कर दिया है। मुङो नहीं लगता कि कृष्ण बलदेव जसी भाषा, शब्दों पर उनका अधिकार और खिलंदड़ी शैली किसी और लेखक के पास है। उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टियों के साथ अपने पात्रों की मानसिकताओं को पकड़ने की कोशिश की है। अगर तथाकथित अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के आधार पर ही साहित्य का मूल्यांकन करना हो तो कालिदास का तुसंहार, जयदेव के रति वर्णन या रीतिकाल को कूड़े में डाल देना चाहिए। चलिए कृष्ण बलदेव वैद न सही, लेकिन केदारनाथ सिंह और रमणिका गुप्ता को तो इस सम्मान का मैं सबसे बड़ा अधिकारी मानता हूं। केदारनाथ सिंह के बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं है, मगर जिस लगन और समर्थन से रमणिका गुप्ता ने पूर्वोत्तर प्रांतों के आदिवासियों पर काम किया है वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। स्त्री और दलितों का एजेंडा तो है ही लेकिन आदिवासियों पर किया गया उनका यह काम बड़े से बड़े सम्मान का अधिकारी है।

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