Saturday, September 11, 2010

एक संत की याद

आज की तारीख अब 9/11 के रूप में याद की जाती है पर हमारे लिए इसका एक और महत्व रहा है, जिसकी स्मृति क्षीण होती गई है। आज आचार्य विनोबा भावे की जयंती का भी दिन है। भारतीय समाज, राजनीति में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण रहा है। 9/11 के संदर्भ में भी देखें तो उनकी दृष्टि सत्य, प्रेम, करुणा की थी। वे हृदय परिवर्तन करके बदलाव करना चाहते थे। आज भी जमीन की समस्या देश की बड़ी समस्या है और उसके लिए बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। बाबा ने इसका हल भी भूदान आंदोलन में ढूंढा था और दान के जरिए लाखों एकड़ भूमि प्राप्त की थी। आज न विनोबा हैं, न भूदान और न सर्वोदय। समस्याएं जहां की तहां हैं। विनोबा-विचार की प्रासंगिकता पर विचार करती हुई सामग्री।

विश्व रत्न विनोबा

अरुण डिके
आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि लाखों एकड़ भूमि कोई दान से प्राप्त कर सकता है। यह करिश्मा विनोबा ने किया।
‘अमीरी नहीं, गरीबी बांटोज् यह विनोबाजी का अर्थपूर्ण नारा है। अपनी अनपढ़ मां की यह सीख लेकर कि- ‘देता है ह दे, रखता है ह राक्षस, थोड़े में मिठास, अधिक में लबारी (बदमाशी), पेट भर अन्न-तन भर स्त्र इससे ज्यादा की आश्यकता नहीं। यदि संत, सज्जन नहीं होते तो यह पृथ्ी टिकती किसके तप के आधार से? जीन संग्राम में पूरी तरह जीनेोले निोबाजी ने अपनी किशोर अस्था में ही सन्यस्त ्रत ले लिया था, इसीलिए े माता-पिता की अंत्येष्टि में भी नहीं गए और 30 जनरी 1948 को अपने गुरु महात्मा गांधी की दु:खद हत्या के बाद े जीनर्पयत दिल्ली भी नहीं गए। सन्यस्तमया: सन्यस्तं मया: (इसे छोड़, इसे छोड़) कहते हुए उन्होंने र्धा के निकट पनार आश्रम में ही कुछ समय के लिए अपने आप को समेट लिया।

उनका पहला गांधी दर्शन भी अत्यंत रोचक और प्रेरक था। 06 फररी, 1916 को बनारस हिन्दू श्ििद्यालय के उद्घाटन र्प पर महामना मदन मोहन मालीय के बुलो पर मोहनदास करमचंद गांधी भी मंच पर उद्बोधन देने मौजूद थे और दर्शकों में बैठा था निायक नरहरि भो नाम का द्यिार्थी। उद्घाटनकर्ता और मुख्य अतिथि थे भारत के वाइसराय हाíडंग। े निर्धारित समय से 20 मिनट देरी से आए। अपने उद्बोधन में गांधीजी ने उन्हें अत्यंत निम्र शब्दों में जो लताड़ लगाई उसे देख पूरी सभा स्तब्ध रह गई। मंच पर पीछे बैठी लेडी एनी बिसेंट ने भाषण दे रहे गांधीजी को इस कृत्य के लिए डपटा तो गांधी अपना भाषण अधूरा छोड़ बैठने लगे। सामने बैठे जनसैलाब ने उठकर इसका रिोध किया और गांधीजी से उनका भाषण जारी रखने का आग्रह किया। समय की पांबदी किसी सत्यादी को कितना बेखौफ और निडर बना सकती है यह देख, सामने बैठी भारत की गरीब जनता को मिला एक सत्यादी नेता और हमें मिले निोबा। उसी र्ष 7 जून को निोबा ने गांधीजी को पत्र लिखा और े हमेशा के लिए गांधी के संग्राम से जुड़ गए।
सन् 1951 में भूमि को लेकर आंध्र प्रदेश के तेलंगाना प्रान्त में जब साम्यादियों का आंदोलन चल रहा था तब उस हिंसाग्रस्त क्षेत्र में अहिंसा का पाठ पढ़ाते निोबा पैदल घूम रहे थे। एक दिन एक गरीब भूमिहीन किसान उनके पास भूमि के लिए याचना करने आया। 18 अप्रैल, 1951 को आयोजित एक सभा में निोबाजी ने उस गरीब किसान के लिए अपने हाथ पसारे और रामचन््र रेड्डी नाम के एक धनी किसान ने अपनी 100 एकड़ जमीन का दानपत्र उनके हाथों में रख दिया। उसी दिन से प्रारंभ हुई निोबा की भूदान यात्रा जो उन्हें शहरों से देहात, देहातों से जंगल, बीहड़, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से तेज प्राहोली नदी-नालों से, पगडंडियों से, तो कभी हाथी, बैलगाड़ी से पूरे देश की यात्रा कराती ले गई। 18 अप्रैल 1951 से प्रारंभ हुई यह यात्रा 29 मार्च, 1964 को समाप्त हुई। 14 सालों तक निोबा के कदमों ने भारत की 70 हजार किलोमीटर भूमि नापी। लाखों लोगों से मिलकर 40 लाख एकड़ भूमि दान में प्राप्त की ।


भारत के भिन्न प्रांतों के लोगों को, भिन्न जातियों को समझने के लिए निोबा ने 22 भारतीय भाषाएं सीखी। आसाम में ‘कीर्तनघोषाज् को कंठस्थ किया, जिसे पिछले 500 साल तक किसी ने छुआ नहीं था। तमिलनाडु में ‘तिरुक्कल तिरुाचकम्ज् को कंठस्थ किया और े तमिल जनता से एकरूप हो गए। इस ब्रह्मांड के सत्य को समझने, उनकी प्रज्ञा केल भारत तक ही सीमित नहीं रही। यूरोप को समझने के लिए उन्होंने लेटिन, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं को आत्मसात किया। ईसाई धर्म समझने हेतु ‘बाइबलज् का और इस्लाम धर्म समझने के लिए कुरान का अध्ययन किया। इन दोनों धर्मो के प्रकांड पंडित भी मान गए कि निोबा जितनी बारीकियों से े स्यं भी अपने धर्मो से रू-ब-रू नहीं हुए थे। कुरान की आयतें तो े इतनी खूबसूरती से पढ़ते थे कि एक बार गांधीजी ने मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के सामने जब निोबा का कुरान पाठ कराया तब उनकी खालिस अरबी बोली को सुन मौलाना भी नतमस्तक हो गए।
निोबाजी जब अक्टूबर 1930 से फररी 1931 तक धुलिया (महाराष्ट्र) की जेल में कैद थे तब उन्होंने ज्ञानेश्री से गीता का पाठ कैदियों को सिखाना प्रारंभ किया। महाराष्ट्र के गांधी चिारक साने गुरुजी ने उनके उद्बोधन को लिपिबद्घ किया। उसी से प्रकाशित पुस्तक को निोबा ने नाम दिया गीताई (गीता मां)। गीताई का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुाद हो चुका है। इस बात को लगभग 80 साल बीत गए हैं और गीता प्रचनों के 275 से ज्यादा संस्करण निकल चुके हैं तथा उनकी चालीस लाख से ज्यादा प्रतियां बगैर किसी तामझाम या ज्ञिापन के गंगा, कोरी और नर्मदा के प्राह की तरह देश-दिेश के कोने-कोने में पहुंच रही हैं। निोबा जी का लेखन, पठन, उद्बोधन, किसी बंद कमरे में या दानदाताओं के सुशोभित मंडप में किया गया कोरा प्रचन नहीं था। एक निष्काम कर्मयोगी की तरह उन्होंने बोला हुआ एक-एकोक्य जीकर बताया। आज के बाजाराद के माहौल में उनकी प्राप्ति को म्रुाओं में यदि तोला जाए तो कई टाटा, बिरला और अम्बानी पीछे रह जाएंगे। इतना सब कुछ करने के बाजूद निोबाजी अपनी जीकिा चलाने के लिए रोज 8 घंटे सूत कताई करते थे। उन्होंने बापू से शिकायत भी की थी कि आप सूत कताई की सलाह तो दे रहे हैं, लेकिन 8 घंटे सूत कातने के बाद भी इसका तागा बेचकर एक व्यक्ति का पेट नहीं पलता है। निोबाजी का आहार था 10 तोला दूध, 6 तोले छेना, 3 तोले गुड़, ढ़ाई तोला पपई, कुल 64़5 तोला। अपनी पदयात्रा की समाप्ति पर निोबा रोज सुबह 5.़30 से 7 बजे तक खेत में काम, दोपहर 4 बजे सूरज से तपे पानी से स्नान सायं 7़15 बजे सामूहिक प्रार्थना करते थे। निोबा का लेखन जितना सरल लगता है उतना ही उसका निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन है। (सप्रेस)

(अरुण डिके कृषि ैज्ञानिक हैं और उनका यह लेख सर्वोदय प्रेस सर्विस में प्रकाशित हुआ। वहीं से साभार)

सर्वोदय नहीं, भूदान विफल

बाबा ने जो भूदान यज्ञ शुरू किया वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्साभर था, पूरा सर्वोदय नहीं।

देवदत्त
सर्वोदय को लेकर विनोबा भावे के योगदान को जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि उन्होंने जिस सर्वोदय आंदोलन को 1950 व 1960 के दशक में आगे बढ़ाया, वह महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की सोच से प्रेरित था। गांधी एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें वे सभी व्यक्ति का उत्थान एवं कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई साधन सुझाए थे। भू-दान व ग्राम-दान उन्हीं में से एक था, जिसे लेकर विनोबा ने समाज को सुधारने की कवायद शुरू की। लेकिन 1950-60 के दशक के बाद इस आंदोलन का कोई नामलेवा नहीं रह गया। इसकी कई वजहें थीं। पहली तो यह कि जिस आंदोलन की शुरुआत विनोबा ने की, उससे आगे चलकर उन्होंने स्वयं ही अपने आप को अलग कर लिया। आंदोलन की विफलता का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि विनोबा ने जिस भू-दान या ग्राम-दान योजना की शुरुआत की, वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं।

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि विनोबा अपने घर से ‘मुक्तिज् की तलाश में निकले थे, न कि किसी सामाजिक आंदोलन की मुहिम के तहत। इसी बीच, 1915-16 में वे गांधी के संपर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ‘मुक्तिज् का मार्ग छोड़ दिया। वे सार्वजनिक जीवन में उतर आए। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन 1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के सिलसिले में कोलकाता जाने के बाद उनका आध्यात्मिक मन एक बार फिर जागृत हुआ और उन्होंने गांधी से माफी मांगते हुए सार्वजनिक जीवन से किनारा कर लिया।
बहरहाल, विनोबा ने भू-दान व ग्राम-दान का जो आंदोलन चलाया, भूमि सुधार के संदर्भ में आज भी उसकी प्रासंगिकता है। जमीन की समस्या वास्तव में हिन्दुस्तान की समस्या है, जिसका दूसरा नाम कृषि है। 1947 में आजादी से लेकर अब तक किसी सरकार या राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि देश कृषि प्रधान नहीं है। कृषि को यहां जीवनशैली माना गया और सरकारों की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह इसे सुरक्षित रखे। विनोबा के भू-दान आंदोलन ने भी इसी मुद्दे को उठाया। आगे चलकर यह योजना ग्राम-दान के रूप में तब्दील हुई। गांव को एक इकाई के रूप में देखा गया और कहा गया कि कृषि से संबंधित जो भी समस्या हो या इसके विकास की बात हो, पूरे गांव के संदर्भ में हो। आज की कृषि समस्या के संदर्भ में भी यह पूरी तरह प्रासंगिक है। इस सिद्धांत या रणनीति के तहत गांवों की रचना से देश की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को एक इकाई मानकर सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी यह फॉर्मूला प्रासंगिक है।
यह कहना गलत है कि सर्वोदय के सिद्धांतों की आज उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1950-60 के दशक में था। जरूरत है तो उन्हें सही तरीके से अमल में लाने की। इसके लिए बेहतर वातावरण पंचायती व्यवस्था में हो सकता है। लेकिन मौजूदा पंचायती व्यवस्था में नहीं। बल्कि उस पंचायती व्यवस्था में, जहां शक्तियां नीचे से ऊपर तक जाती हों, न कि ऊपर से नीचे आती हों। मौजूदा व्यवस्था में पंचायतों को जो भी शक्तियां मिली हुई हैं, उनका स्रोत कें्र है।

अब अगर विनोबा द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन की विफलता की बात की जाए तो सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विनोबा द्वारा शुरू किया आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन था ही नहीं। यह भूमि सुधार आंदोलन था, जो भू-दान आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। यह सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं। फिर गांधी ने जिस सर्वोदय का विचार दिया था, वह समाज सुधार की बात नहीं करता, बल्कि इसके समानांतर एक नए समाज के निर्माण की बात करता है; जबकि विनोबा ने सर्वोदय के लिए आवश्यक एक सिद्धांत को अमल में लाकर सामाजिक सुधार की कवायद शुरू की थी। इसलिए यहां गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत विफल नहीं हुआ, बल्कि भू-दान आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन की विफलता का एक अहम कारण यह भी है कि विनोबा ने आगे चलकर इससे खुद को अलग कर लिया और इसमें सरकार को शामिल कर लिया। भूमि सुधार को लेकर कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपकर आंदोलनकारियों ने सरकार के समक्ष लगभग घुटने टेक दिए।
विनोबा ने ‘सबै भूमि गोपाल कीज् का नारा दिया था। उन्होंने जमीन पर लोगों के मालिकाना हक को स्वीकार किया, लेकिन इसका इस्तेमाल समाज द्वारा करने की बात कही। पूंजीवादी एवं समाजवादी व्यवस्था से अलग उन्होंने ट्रस्टीशिप व्यवस्था में यकीन जताया और हृदय परिवर्तन के माध्यम से भूमि सुधार लागू करने की कवायद शुरू की। लेकिन आंदोलनकारियों द्वारा सरकार के समक्ष घुटने टेकने के बाद सब वहीं समाप्त हो गया। हालांकि आज भी भूमि सुधार की बात उठती है। राजनीतिक दलों से लेकर विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता भी किसान हितैषी होने की बात करते हैं। औद्योगिक विकास के लिए अगर कहीं जमीन का अधिग्रहण हो रहा है और किसान उसका विरोध कर रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक दलों से लेकर तमाम संगठनों के कार्यकर्ता भी आ जाते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसानों के हितैषी नहीं, बल्कि प्रबंधात्म लोग हैं।

(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

विचार तो अब भी कायम

किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले, सर्वोदय आंदोलन के साथ यह नहीं हो सका।

एसएन सुब्बाराव
विनोबा मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और इसी रूप में वे सभी समस्याओं का समाधान तलाशते थे। नेता बनने की इच्छा उनमें नहीं थी। वे सभी को समान रूप से देखते थे और एक आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते थे। यह भी सच है कि वे घर से मुक्ति की तलाश में निकले थे, लेकिन गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। वे उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग छोड़ दिया और सामाजिक जीवन में उतर आए। फिर आजादी के आंदोलन से लेकर एक नए समाज की रचना तक के गांधी के कार्यक्रम में वे हर जगह उनके साथ रहे। लेकिन 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या के बाद हालात बदल गए। एकाएक हुई इस वारदात ने लोगों को सकते में डाल दिया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब उन सपनों को कैसे पूरा किया जाएगा, जो गांधीजी ने आजाद भारत की जनता के लिए देखे थे। कैसे एक नए समाज की रचना हो, जिसमें हर व्यक्ति का कल्याण हो। ऐसे में सबको विनोबा में उम्मीद की किरण दिखी। गांधी के रूप में देश का जो नेतृत्व एकाएक खो गया, वे विनोबा के रूप में दिखा। लोग उनके निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। विनोबा ने भी महसूस किया कि सर्वजन के हित में जिस समाज की संकल्पना गांधी ने की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यूं हाथ पर हाथ धरे रहने से बात नहीं बनेगी। उन्होंने गांधी के सपनों को साकार करने के लिए लोगों का आह्वान किया और कहा कि देश ने आजादी तो हासिल कर ली, अब हमारा लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना करना होना चाहिए, जिसमें सबका कल्याण सुनिश्चित हो सके।

गांधी के सपनों को साकार करने के लिए सर्वसेवा संघ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य समाज में सभी की सेवा करना था। अब तक विनोबा के मन में भू-आंदोलन जसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन देशभर का भ्रमण करने के बाद उन्हें इस बात का भान हो चला था कि समाज दो भागों में बंटा है, एक भूमिहीन लोगों का तबका और एक भू-स्वामियों का वर्ग। भूमिहीन लोगों की एक बड़ी संख्या है, जबकि मुट्ठीभर लोगों के पास आवश्यकता से अधिक भूमि है।
अपनी पदयात्रा के दौरान जब वे आंध्र प्रदेश के तेलंगाना पहुंचे तो वहां जमीन के टुकड़े के लिए लोगों को लड़ते देखा। भूमिहीन भू-स्वामियों से जमीन छीनने के लिए छापामार युद्ध चला रहे थे तो उन्हें काबू में करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गई थी। भूमिहीनों से उन्होंने हिंसा छोड़ने की अपील की तो उन्होंने अपने लिए जमीन की मांग की। खुद विनोबा को भी उस वक्त नहीं पता था कि वे इनकी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? इसी उधेड़बुन के बीच उन्होंने ग्रामीणों की सभा बुलाई और लोगों के सामने उनकी समस्याएं रखी। तब स्वयं विनोबा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी समस्याओं के समाधान के लिए इस तरह आगे आएगा। सभा में से एक व्यक्ति ने सौ एकड़ जमीन देने की पेशकश की। यहीं से विनोबा को मिल गया भूमिहीनों की समस्या का समाधान। देशभर में पदयात्रा कर वे और उनके अनुयायी भू-स्वामियों को भूमिहीनों के लिए जमीन का एक टुकड़ा देने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं विनोबा ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देशभर में लगभग छह हजार किलोमीटर तक पदयात्रा की। उनके प्रयास से देशभर में भू-स्वामियों द्वारा दान की गई लाखों एकड़ जमीन एकत्र की गई और इन्हें भूमिहीनों के बीच बांटा गया।


हां, यह सच है कि जमा की गई भूमि एक हिस्सा भूमिहीनों के बीच बंट नहीं पाया। लेकिन इसके लिए विनोबा और उनके अनुयायियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है, जो जमीन का सही वितरण सुनिश्चित नहीं कर पाई। जहां तक सर्वोदय आंदोलन की प्रासंगिकता की बात है तो सिर्फ इस आधार पर इसे अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता कि विनोबा द्वारा चलाई गई यह मुहिम आगे चलकर विफल हो गई। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले। सर्वोदय आंदोलन के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वरना इसके विचार और अवधारणा आज भी प्रासंगिक हैं। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से समझने और उस दिशा में प्रयास करने की।
आज भी देश में भूमिहीनों की एक बड़ी तादाद है। नक्सल समस्या इसकी एक बड़ी वजह है। कभी विनोबा ने कहा था कि हर बेरोजगार हाथ बंदूक पाने का हकदार है। अगर उन्हें रोजगार मिले तो वे भला बंदूक क्यों उठाएंगे? आज सरकार नक्सल समस्या से निपटने के लिए तरह-तरह की कार्य योजनाएं बना रही है और उस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन यह समस्या ही न हो, इसके लिए कोई कार्य योजना नहीं बना रही। अगर योजना बन भी रही है तो उन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण जसी समस्या का समाधान भी विनोबा के सिद्धांतों में ढूंढा जा सकता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र या अन्य विकासात्मक कार्यो के मद्देनजर अगर किसानों को स्वेच्छा से जमीन देने के लिए प्रेरित किया जाए तो देशभर में जमीनों के अधिग्रहण के लिए हो रहा विरोध रोका जा सकता है।
(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

Monday, September 6, 2010

परंपरा कमजोर पड़ी, उम्मीद नहीं

रीता-बीता दिवस
अब दिवस आाते हैं, जाते हैं। महिला दिवस, बाल दिवस, पर्यावरण दिवस। दिवसों की भरमार है। उन्हें शुरू करने के पीछे गहरे सरोकार और उद्देश्य थे। धीरे-धीरे उद्देश्य, सरोकार लुप्त होते गए और बची रह गई निरी समारोहिकता। इसके साथ ही उनको लेकर समाज में उत्साह भी क्षीण होता गया। अब सारे दिवस एक औपचारिकता में सिमट चुके हैं। पांच सितंबर को शिक्षक-दिवस होता है और अब इसकी सबसे बड़ी खबर शिक्षकों को मिलने वाले राष्ट्रपति के पदक हैं। हमारे जसे गरीब देश में बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है और सबको शिक्षा का हमारा मंतव्य सिर्फ नारा बनकर रह गया है। वहां शिक्षा, उसका माहौल, उसकी दिशा-दशा और छात्र-शिक्षक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए और शिक्षक दिवस उस पर आत्ममंथन का दिन होना चाहिए।


विश्वनाथ त्रिपाठी


आज का समाज पहले के समाज की तरह नहीं है। वर्तमान का दौर पहले से बदला है। लेकि न जो बदलाव है उसकी सीमारेखा 1990 के बाद खींचनी चाहिए जब पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को हमने सुधार के नाम पर स्वीकार किया। बाजारवाद को हमने पूरी तरह से अपनाया। धन को ही हमने मूल्य मान लिया। सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को हमने तिलांजलि दे दी। आज पैसे को लेकर सिनेमा, क्रिकेट, समाचार पत्र में समाचार खत्म हो रहा है। आज कुछ बुद्धिजीवी कबीरदास के शब्दों में कहें तो ‘भरम ज्ञानीज् अर्थात जो भ्रम को ज्ञान समझते हैं वह कहते हैं कि इतिहास का अंत हो रहा है लेकिन इतिहास का अंत नहीं हो रहा है बल्कि मूल्यों का अंत हो रहा है। पंचमहाभूतों का अंत हो रहा है।
विद्वान ये नहीं सोचते कि आदमी-आदमी के बीच संबंध क्या है। ये पैसा को ही सब कुछ मानते हैं। गांधी-नेहरू का जिसने देश जो चरखा और नमक के साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी अब वह नहीं है। अब ऐसे में हमें गुरु और शिष्य का संबंध भी देखना है। अब शिक्षा नहीं है। पहले भी कहा जाता था कि विद्या अर्थ का साधन है लेकिन वर्तमान में तो सरस्वती ने लक्ष्मी के आगे समर्पण कर दिया है। हमारे शास्त्रों में भी यह है कि जो अच्छा काम पैसों के लिए करता है उसे अच्छा नहीं माना जाता है। हमारे यहां एक गुरु होता है और एक उपाध्याय होता है। गुरु ज्ञान देता है जबकि ट्यूटर पैसा लेकर शिक्षा प्रदान करता है। जो गरिमा गुरु की है वह ट्यूटर की नहीं है। जो स्थान संदीपनि का है वह द्रोणाचार्य की नहीं है। अब वर्तमान स्थिति में हम देखते हैं कि परंपरा में बहुत बल होता है। मैं स्वयं अध्यापक रहा हूं और आज भी अध्यापकों का बहुत आदर है। लेकिन वर्तमान अर्थव्यवस्था में ये सम्मान की बात नहीं हो रही है। आज शिक्षा खरीदी और बेची जाती है। लेकिन ऐसे में भी कुछ गुरुओं का आदर होता है। हमारे यहां गुरु को ज्ञान देने वाला बताया गया है। ज्ञानी वही हो सकता है जो निर्भीक हो। गुरु दुनियादार नहीं होता। आज तो एड गुरु और मैनेजमेंट गुरु हो गए हैं लेकिन इनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। ये दुनियादारी सिखाते हैं। ये पैसा कमाना सिखाते हैं। ये जानकारी देते हैं, ज्ञान नहीं देते। ज्ञान और जानकारी में अंतर है। वह तरीके बता सकते हैं। जीवन जगत जड़ और चेतन का संबंध नहीं बताते हैं। मानव जीवन की सफलता का मतलब बताते हैं वह मानव जीवन का मूल्य नहीं बताते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि एक आदमी की तकलीफ से दूसरे को भी तकलीफ होनी चाहिए।
लेकिन ऐसे में शिक्षक दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता, क्योंकि एक शिक्षक केवल विषय की जानकारी नहीं देता बल्कि वास्तविक जीवन की जानकारी देता है। अच्छा शिक्षक विषयगत जानकारी तो देता है लेकिन वह यह भी बताता है कि मानव मानव के बीच जो भावनात्मक संबंध है उसे बनाए रखना चाहिए। मनुष्य यदि मनुष्य है तो उसे समाज में रहना पड़ेगा और ऐसे में हमें एक दूसरे की चिंता करनी पड़ेगी। आधुनिक शिक्षा की बहुत बड़ी कमी यह है कि वह पूरी तरह से बाजारू हो गई है। इस पर ध्यान देना चाहिए। आज न शिक्षक के मन में छात्रों के लिए चिंता रह गई है और न छात्रों के मन में शिक्षक के लिए आदर। यह एकतरफा नहीं है। पहले विद्यार्थियों के लिए शिक्षक केवल उन्हें रोजगार का साधन नहीं मानता था बल्कि साधन से वंचित छात्रों की तरफ भी ध्यान देता था उसका छात्र सम्मान भी करते थे। लेकिन अब अध्यापकों की तनख्वाह बढ़ गई है। अब यदि शिक्षक आंदोलन करते हैं तो उनकी मांगों में कहीं भी यह नहीं होता कि छात्रों को सुविधा दी जाए, इनकी फीस कम की जाए बल्कि उन्हें अपने वेतन और सुविधा की चिंता होती है। छात्र उसे देखते हैं और उसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए भी एक दूसरे के मूल्यों में गिरावट आई है। ऐसे में सोचना कि पहले जसा छात्र सम्मान करेंगे यह कुछ अधिक सोचना है लेकिन यह कहना कि वह पूरी तरह से सम्मान नहीं करते यह गलत है, क्योंकि यहां एक लम्बी परंपरा रही है जो क्षीण हुई है, समाप्त नहीं हुई है और मैं इसको लेकर आशावान हूं।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

अब पैमाना योग्यता नहीं

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

शिक्षक दिवस सिर्फ भारत में नहीं मनाया जाता, बल्कि दुनियाभर में मनाया जाता है। हां, दुनिया के विभिन्न देशों में इसकी तिथि अलग-अलग जरूर है। हमारे यहां हर साल यह पांच सितंबर को मनाया जाता है। देश के पहले उप राष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर इसे मनाने की परंपरा है, जिनकी गिनती महान दार्शनिक व शिक्षाविदों में होती है। समाज निर्माण में शिक्षकों की अहम भूमिका अतीत काल से है। आज भी शिक्षकों की भूमिका का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, परिस्थितियां और हालात कुछ ऐसे हो गए हैं, जिसके कारण गुरु-शिष्य संबंध परंपरागत नहीं रह गए हैं। उसमें काफी बदलाव आया है।

यह सच है कि शिक्षकों और छात्रों का संबंध पहले जसा नहीं रह गया है। छात्रों के मन में शिक्षकों के लिए पहले जसा सम्मान नहीं रह गया है और न ही अब शिक्षक छात्र हितों की बात करते हैं। शिक्षक हों या छात्र, अपने-अपने हितों की बात ही उठाते हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि शिक्षकों की जो भर्ती हो रही है, उसका एकमात्र पैमाना योग्यता नहीं रह गया है। शिक्षकों की नियुक्ति अब जोड़तोड़ और तिकड़मों से होने लगी है। हालांकि सभी नियुक्तियों का आधार यही नहीं होता, लेकिन ज्यादातर भर्तियां इसी तरीके से होती हैं। ऐसे में वे लोग, जिनके पास सिर्फ योग्यता है, कहीं पीछे छूट जाते हैं। इसका असर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई और शिक्षक-छात्र संबंध पर भी होता है। जाहिर है, जब शिक्षक ही योग्य नहीं होंगे तो वे छात्रों को कैसे उचित शिक्षा दे पाएंगे? इससे शिक्षा का स्तर तो गिरेगा ही। और अगर शिक्षक उचित शिक्षा नहीं दे रहे, तो छात्र उनका सम्मान क्यों करने लगे?
ऐसे में अगर छात्र अपनी राह और शिक्षक अपनी राह चल रहे हैं, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। हां, योग्य शिक्षकों और छात्रों के बीच संबंध आज भी बेहतर होते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि योग्य युवा शिक्षा के क्षेत्र में आना ही नहीं चाहते। इसका बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन कम होना है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रोफेशनल्स को मोटा वेतन दे रहे हैं, वहां भला कौन युवा कम वेतन लेकर शिक्षा को अपने कॅरियर के रूप में अपनाना चाहेगा?
शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सरकारी नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार साक्षरता दर बढ़ाने पर जोर दे रही है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर नहीं। ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही। युवाओं का एक बड़ा वर्ग देश में शिक्षा प्राप्त करके नौकरी के लिए विदेशों का रुख कर लेता है, क्योंकि वहां उन्हें वेतन और अन्य सुविधाएं यहां से बेहतर मिलती हैं। आखिर यही चीजें उन्हें यहां क्यों नहीं दी जा सकती? मैनेजमेंट गुरू और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए संस्थानों और इसके शिक्षकों के संबंध में केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दुकानें हैं, वास्तविक गुरु नहीं। गुरु-शिष्य परंपरा से इनका कोई लेना-देना नहीं है।

जहां तक आज छात्राओं द्वारा शिक्षकों पर लगाए जाने वाले यौन शोषण के आरोप की बात है तो यह निश्चित रूप से चिंताजनक है। ऐसे आरोप शोधार्थी छात्राओं के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं और निश्चित रूप से गुरु-शिष्य संबंध को लज्जित करते हैं। कई बार इसके लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं। बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं, जहां छात्राएं नैतिकता को परे रखकर अपने कॅरियर को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के आगे समर्पण कर देती हैं। लेकिन मूल रूप से इसके लिए वे नियम जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से शिक्षकों को ऐसा अधिकार मिल जाता है कि वे छात्राओं को अपने इशारे पर नचा सकें। अगर छात्राओं को यह भरोसा हो जाए कि शिक्षक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो वे कभी उनके आगे समर्पण नहीं करेंगी। इस संबंध में नियम व नीतियां बदलने की जरूरत है।

प्रस्तुति : श्वेता यादव

नालंदा का महास्वप्न


प्रखर प्रकाश मिश्रा


हम खुशनसीब हैं कि हम अपनी विरासत को संजोने की पहल कर रहे हैं। इस बार लोकतंत्र के मंदिर, यानी संसद ने सरस्वती के प्राचीन मंदिर नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया है। इतिहास गवाह है कि सदियों बाद वह खुद को दोहराता है। इतिहास का एक ऐसा ही वरक हम आपके सामने पलट रहे हैं, जिस पर वर्तमान अपने अतीत को तलाशता हुआ भविष्य के लिए नई इबारतें लिख रहा है। यह सच्ची कहानी है उस नालंदा की जो 800 साल पहले कहीं अंधेरों में खो गया था।
नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण पांचवीं और छठी शताब्दी में गुप्त वंश के समय किया गया था। तब यह विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म की शिक्षा का केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म और हीनयान बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण कर छात्र पूरे विश्व को ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणं गच्छामि, संघ शरणम् गच्छामिज् का संदेश देकर दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाते थे। पंद्रह सौ वर्ष पहले के इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि नालंदा में अन्य धर्मो के साथ-साथ विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष विज्ञान और संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। तब दुनिया में कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, हार्वर्ड जसे नामों का कहीं नामो-निशां न था। तब नालंदा में चीन, बर्मा, थाइलैंड, श्रीलंका, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, इरान, तुर्की जसे कितने ही देशों के छात्रों को आचार्य, वैज्ञानिक और ज्ञानी बनाया जाता था।

नालंदा में दस हजार छात्र पढ़ते थे और दो हजार अध्यापक उन्हें पढ़ाते थे। वहां छात्रावास की परंपरा तभी से थी और जानकर आपको आश्चर्य होगा कि नालंदा में छात्रसंघ भी होता था। नालंदा के इतिहास को चंद लब्जों में समेटा नहीं जा सकता। अगर इसे समेटना है तो नालंदा तक चलकर जाना होगा, गर ये न हो सके तो नालंदा को पढ़ना होगा। नालंदा को ह्वेनसांग और इत्सिंग ने याद रखा था, फिर इसे एलेक्जेंडर कर्निघम ने खोज निकाला था। सदियों पहले नालंदा में ज्ञान की गंगा बहा करती थी और इस शहर में गूंजा करती थी छात्रों की और गुरुजनों की वाणियां।
मानसून सत्र में नालंदा का विधेयक पारित करनेवाले सांसद और यूपीए सरकार भी नालंदा को पुनर्जीवित करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी। संसद में नालंदा विधेयक पास कर इसे एक हजार पांच करोड़ रुपए दिए हैं। केन्द्र सरकार यूनिवर्सिटी के लिए संसाधन मुहैया करा रही है। इसके नए रंग-रूप के लिए पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के पंद्रह सदस्य देश पैसा दे रहे हैं। बिहार सरकार ने इसके पुनर्निर्माण के लिए पांच सौ एकड़ जमीन दी है। नालंदा में अलग-अलग छह संकायों में इतिहास, भूगोल, दर्शन, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, साहित्य, व्यापार समेत करीब-करीब हर विषय की पढ़ाई होगी।
प्रो. अमर्त्य सेन की अध्यक्षता में एक मेंटर ग्रुप बनाया गया है जो अंतरिम गवर्निग बोर्ड के तौर पर नालंदा में काम करेगा। इस विधेयक का मकसद नालंदा को जीवित कर दुनिया को अमन चैन का पाठ पढ़ाना है। बहाना तो विश्वविद्यालय का है, लेकिन इसी के जरिए पूर्वी एशिया को एक मंच पर लाया जाएगा, ताकि बेहतर तालमेल बन सके। प्राचीन नालंदा दक्षिण और पूर्व एशिया की संस्कृतियों का संगम था, तब इसने अलग-अलग सभ्यताओं के बीच पुल का काम किया था। इतिहास से सबक लेते हुए नालंदा विश्वविद्यालय के जरिए एशिया प्रशांत क्षेत्र में देशों के हितों को जोड़कर सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी बनाई जा सकती है। यह पहल एशियाई नवचेतना में मील के पत्थर की तरह साबित हो सकती है, अगर अपनी आर्थिक हैसियत के बूते दक्षिण और पूर्वी एशिया के देश भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक मंच पर आकर सभ्यताओं के संगम को नालंदा का कुंभ बना दें और यह तब संभव है जब दुनिया शांति के पथ पर चलती हुई उस भूख की आग को बुझा सके। नालंदा आज भी हम से वादा करते हुए यह अपील कर रहा है कि अगर तुम विरासत को संभाल लोगे तो मैं तुम्हें आर्यभट्ट, शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल जसे ज्ञानी दूंगा।

हमारी आकांक्षाओं से बेमेल शिक्षा

गोपेश्वर सिंह
वर्तमान शिक्षा पद्धति अंग्रेजी राज के साथ आई। अंग्रेजों की ये बुनियादी धारणा थी कि भारत में कोई शिक्षा पद्धति थी ही नहीं। उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भारत में लागू की और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बनाया और पूरे भारत में उसी शिक्षा नीति का प्रचार-प्रसार हुआ। लार्ड मैकाले की देख-रेख में भारतीय ब्रिटिश सरकार ने जो शिक्षा नीति और भाषा नीति तैयार की उसका मूल उद्देश्य ब्रिटिश उपनिवेश को मजबूती देना था। यह शिक्षा मूल रूप से मनुष्य का अपनी जमीन, अपनी भाषा और अपने लोगों से सरोकार खत्म करने वाली थी। यह समाज के प्रति उत्तरदायित्वहीन व्यक्ति पैदा करने वाली शिक्षा थी। इस शिक्षा के जरिए आत्मकेन्द्रित शिक्षित मध्यवर्ग पैदा करने की शुरुआत हुई। वहां से चलकर और अब तक इसी शिक्षा व्यवस्था का प्रसार हुआ है। गांधीजी इस शिक्षा नीति के विरोधी थे। वे चाहते थे कि हमारी शिक्षा प्रारंभिक रूप में मातृभाषा में हो। इसी के साथ वे यह भी चाहते थे कि शिक्षा रोजगारपरक हो। आजादी के बाद आधे-अधूरे मन से भारत सरकार ने कुछ बुनियादी विद्यालयों की नींव रखी। यहां छात्रों के लिए किताबी शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान था। वहां शिक्षा और शारीरिक काम के बीच तालमेल की गुंजाइश थी, लेकिन चूंकि आधे-अधूरे मन से वह योजना शुरू हुई थी, इसीलिए उसकी परिणति विफलता के रूप में हुई और उसे विफल होना ही था।
असल में प्रारंभ से ही इस देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती रही हैं। एक निजी क्षेत्र में चलने वाले अंग्रेजी माध्यम के हाई-फाई स्कूल, दूसरी तरफ देशी भाषा माध्यम के स्कूल। चूंकि शासन और सफलता की कुंजी अंग्रेजी भाषा के पास है इसलिए अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल फलते-फूलते रहे हैं। उनका विस्तार होता रहा है। उन शिक्षण संस्थानों से निकले लोग ही सरकार और समाज चलाने वाली मशीनरी के अंग होते रहे हैं इसलिए देशी भाषा माध्यम के स्कूल मजबूरी का नाम भर है। यह दोहरी शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश राज की स्थापना से लेकर अब तक जारी है और फल-फूल रही है। ब्रिटिश काल में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर ठीक था और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की संख्या कम थी इसलिए पहले बहुत सारे समर्थ लोग सरकारी शिक्षा व्यवस्था में भी जाते थे लेकिन आजादी के बाद सरकारी शिक्षा व्यवस्था लचर होती गई और अंग्रेजी माध्यम से चलने वाली निजी शिक्षा व्यवस्था फलती-फूलती रही और उसका द्रुत गति से विस्तार होता रहा। इस तरह की दोहरी शिक्षा पद्धति का होना हमारी लोकतांत्रिक और समतावादी आकांक्षा के विपरीत है। यह समाज में वर्ग भेद पैदा करने वाली शिक्षा नीति है। यह शासक और शासित लोगों का फर्क पैदा करती है। यह एक तरह की नई वर्ण व्यवस्था पैदा करने वाली शिक्षा है। वर्तमान शिक्षा पद्धति श्रम भेद पर आधारित है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण व्यक्तित्व देना है, साथ ही उसे जीवन और जगत के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण भी बनाना है।
जहां तक शिक्षकों की बात है तो आज के शिक्षकों में वह प्रतिबद्धता और आदर्श नहीं है जो पहले के शिक्षकों में होता था। पहले शिक्षक और छात्र का संबंध व्यावसायिक नहीं था। अब शिक्षा का व्यावसायिकरण हो रहा है और शिक्षकों का भी। नई आर्थिक नीति जब से आई है तब से शिक्षा के अनेक निजी संस्थान भी खुलते जा रहे हैं। उनका उद्देश्य व्यवसाय करना है और उसका असर पूरे शिक्षा जगत और शिक्षक समुदाय पर पड़ा है। शिक्षण और प्रशिक्षण के नए-नए संस्थान रोज खुल रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां अपना परिसर खोलने की सुविधा दी जा रही है, जो पहले के विश्वविद्यालय हैं वहां ज्यादा जोर नौकरी देनेवाले विषयों पर है। ऐसे में मानविकी ओर समाज विज्ञान के विषयों की उपेक्षा हो रही है और शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। शिक्षा का मतलब नौकरी दिलाने वाले विषय का अध्ययन हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षक वही सफल माना जाता है जो छात्रों को नौकरी दिलाने में मदद करे। शिक्षा का उद्देश्य जब शुद्ध रूप से अर्थकरी होगा तो शिक्षकों से पुराने आदर्श की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में भी अभी भी थोड़े शिक्षक ऐसे हैं जो मानते हैं कि शिक्षा से रोजगार तो मिले लेकिन सबसे पहले एक अच्छा नागरिक और मनुष्य पैदा हो।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- पंकज चौधरी से बातचीत पर आधारित

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