Sunday, October 23, 2011

बाजार में लुटी सिनेमा की सार्थकता

अभिनव उपाध्याय

सिनेमा भारतीय दर्शकों के लिए मनोरंजन मात्र नहीं है। यह महज मनोरंजन हो भी नहीं सकता। खालिस मनोरंजन के लिए और भी साधन हैं। सिनेमा ने ऐसे बहुत से कार्य किए हैं जो बहुत सी संस्थाएं नहीं कर पाई हैं खासकर भाषाई योगदान और अभिव्यक्ति की सशक्त प्रस्तुति। सितंबर से लेकर दिसम्बर तक का महीना बालीवुड के लिए कमाऊ महीनों में गिना जाता है। क्योंकि ईद,दशहरा,दीवाली और क्रिसमस के अलावा वर्षात सिने उद्योग को लाभ पहुंचाने वाला होता है। इस लाभ पहुंचाने वाले सिनेमा के बीच मेरी चिंता उदीयमान और प्रयोगधर्मी निर्देशकों का व्यावसायिक सिनेमा की तरफ बढ़ते रूझान को लेकर है। हाल ही में हासिल और शार्गिद जसी फिल्में बना चुके निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की पोलिटिकल थ्रिलर फिल्म साहेब बीवी और गैंेगेस्टर देखी। फिल्म का कथानक और कलाकारों की अदाकारी काबिलेतारीफ है लेकिन प्रस्तुतिकरण में कहीं भी तिग्मांशु धूलिया का वह अंदाज नहीं है जिसके लिए वह जाने जाते हैं। मुद्दापरक सारगर्भित फिल्म बनाने वाले तिग्मांशु इस बार ट्रैक से हटकर लगे। उनका ट्रैक से हटना कहीं बाजार का वह दबाव तो नहीं है जिससे कारण उनको अपनी रचनाधर्मिता के साथ समझौता करने पर मजबूर कर रहा है। भूमंडलीकरण का प्रभाव सिनेमा पर सीधे तौर पर देखा जा रहा है।

एक समय था जब गुरुदत्त, बिमल राय और षिकेश मुखर्जी सहित कई ऐसे निर्देशक थे जिनके लिए सिनेमा एक मिशन की तरह था फिल्मों में लिखने वाले गीतकारों के लिए गीत में माधुर्यता के साथ एक बिम्ब क्रांति और चेतना का भी था। और यह फिल्म में बोझिलता नहीं बल्कि सार्थक उत्तेजना लाता था लेकिन यह दुखद है कि युवा उससे विमुख हो रहे हैं। हां वही गाने जब रीमिक्स में आते हैं तो युवा उसे सुनकर गुनगुनाता है,उछलता है,झूमता है। मतलब अब मामला प्रस्तुतिकरण का है। बाजार सिनेमा पर हावी है और इस तरह हावी है कि उसे हिलने की भी मोहलत नहीं देता। क्योंकि सिनेमा अब स्वात: सुखाय के लिए नहीं, संदेशपरक, मुद्दों पर आधारित नहीं बन रहे बल्कि यह कामुक बाजार का वह उत्पाद हो गए हैं जिसे लोग बर्गर की सेक्स और हिंसा का सॉस लगाकर चबाना और चाटना पसंद करते हैं। यह भारतीय सिनेमा की विडंबना ही है कि कहीं कहीं इसके केंद्र बिन्दु में हमेशा से लव, सेक्स और धोखा ही होता है और फिल्मों की कहानी इसी के इर्द गिर्द घूमती, इतराती और अंत में सिमट कर कर रह जाती है।

मुद्दो पर आधारित सिनेमा की गिनती भारतीय सिनेमा में बहुत कम है। जो मुद्दों पर आधारित सिनेमा बनाते भी थे वह भी अब उससे परहेज कर रहे हैं क्योंकि इससे फिल्म में लगाई गई लागत की सूद भी बड़ी मुश्किल से निकल पाती है। अपनी खास शैली की फिल्मों के लिए मशहूर प्रकाश झा जिन्होन दामुल,परिणति बनाई बाद में व्यावसायिक सिनेमा की तरफ रुख कर गए। अब वह मंचों पर खुलेआम कहते फिरते है, कला फिल्मों से उसकी लागत भी नहीं निकाली जा सकती। दरअसल यह समस्या केवल प्रकाश झा के साथ नहीं है और भी बहुत से निर्देशक हैं जो कला फिल्मों के लिए जाने तो जाते हैं लेकिन अपनी उस छवि को बरकरार नहीं रख पाते। उनकी समस्या फिल्म बनाने के बाद उसकी मंहगी प्रचार प्रसार और विपणन प्रणाली में उलझ कर रह जाती है। यह बालीवुड के लिए चिंता का विषय है। शायद यह चिंता तब नहीं थी जब भारतीय सिने जगत के ऊपर किसी वुड का ठप्पा नहीं लगा था। मेरा ऐसा मानना है कि भारत में भूमंडलीकरण के बाद मुर्गी पालन उद्योग और फिल्म उद्योग में जबरदस्त निवेश हुआ। वजह मांसाहारियों का बढ़ना नहीं बल्कि स्वाद परिवर्तन का था। कभी-कभी बर्ड फ्लू की समस्या से मुर्गियों को मार दिया जाता है लेकिन फिल्म के साथ निर्माता ऐसा नहीं कर सकता और वह वाद-विवाद और संवाद के बाद आखिर समझौता करने के साथ दर्शकों के सामने इसे परोस ही देता है। अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो दुबारा आर्थिक मंदी की आहट के बाद भी फिल्म निर्माण का बाजार गर्म है आज भी भारत में प्रतिवर्ष निर्मित होने वाली हिन्दी फिल्मों की संख्या किसी भीवुडज् से अधिक है। ऐसे में अब सवाल अभिव्यक्ति के सबसे प्रभावी माध्यम का है जिसकी सार्थकता बाजार की भेंट चढ़ रही है और हम मनोरंजन के नाम पर कुछ भी निगलने, गटकने और ठूसने के लिए तैयार हैं। अब शाहरूख खान भी दीपावली में छम्मक छल्लो के साथ पठाखा छोड़ने की अपील कर रहे हैं उम्मीद है मसाला प्रेमी दर्शक रा वन को जी वन देगा..

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...