Saturday, September 11, 2010

एक संत की याद

आज की तारीख अब 9/11 के रूप में याद की जाती है पर हमारे लिए इसका एक और महत्व रहा है, जिसकी स्मृति क्षीण होती गई है। आज आचार्य विनोबा भावे की जयंती का भी दिन है। भारतीय समाज, राजनीति में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण रहा है। 9/11 के संदर्भ में भी देखें तो उनकी दृष्टि सत्य, प्रेम, करुणा की थी। वे हृदय परिवर्तन करके बदलाव करना चाहते थे। आज भी जमीन की समस्या देश की बड़ी समस्या है और उसके लिए बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। बाबा ने इसका हल भी भूदान आंदोलन में ढूंढा था और दान के जरिए लाखों एकड़ भूमि प्राप्त की थी। आज न विनोबा हैं, न भूदान और न सर्वोदय। समस्याएं जहां की तहां हैं। विनोबा-विचार की प्रासंगिकता पर विचार करती हुई सामग्री।

विश्व रत्न विनोबा

अरुण डिके
आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि लाखों एकड़ भूमि कोई दान से प्राप्त कर सकता है। यह करिश्मा विनोबा ने किया।
‘अमीरी नहीं, गरीबी बांटोज् यह विनोबाजी का अर्थपूर्ण नारा है। अपनी अनपढ़ मां की यह सीख लेकर कि- ‘देता है ह दे, रखता है ह राक्षस, थोड़े में मिठास, अधिक में लबारी (बदमाशी), पेट भर अन्न-तन भर स्त्र इससे ज्यादा की आश्यकता नहीं। यदि संत, सज्जन नहीं होते तो यह पृथ्ी टिकती किसके तप के आधार से? जीन संग्राम में पूरी तरह जीनेोले निोबाजी ने अपनी किशोर अस्था में ही सन्यस्त ्रत ले लिया था, इसीलिए े माता-पिता की अंत्येष्टि में भी नहीं गए और 30 जनरी 1948 को अपने गुरु महात्मा गांधी की दु:खद हत्या के बाद े जीनर्पयत दिल्ली भी नहीं गए। सन्यस्तमया: सन्यस्तं मया: (इसे छोड़, इसे छोड़) कहते हुए उन्होंने र्धा के निकट पनार आश्रम में ही कुछ समय के लिए अपने आप को समेट लिया।

उनका पहला गांधी दर्शन भी अत्यंत रोचक और प्रेरक था। 06 फररी, 1916 को बनारस हिन्दू श्ििद्यालय के उद्घाटन र्प पर महामना मदन मोहन मालीय के बुलो पर मोहनदास करमचंद गांधी भी मंच पर उद्बोधन देने मौजूद थे और दर्शकों में बैठा था निायक नरहरि भो नाम का द्यिार्थी। उद्घाटनकर्ता और मुख्य अतिथि थे भारत के वाइसराय हाíडंग। े निर्धारित समय से 20 मिनट देरी से आए। अपने उद्बोधन में गांधीजी ने उन्हें अत्यंत निम्र शब्दों में जो लताड़ लगाई उसे देख पूरी सभा स्तब्ध रह गई। मंच पर पीछे बैठी लेडी एनी बिसेंट ने भाषण दे रहे गांधीजी को इस कृत्य के लिए डपटा तो गांधी अपना भाषण अधूरा छोड़ बैठने लगे। सामने बैठे जनसैलाब ने उठकर इसका रिोध किया और गांधीजी से उनका भाषण जारी रखने का आग्रह किया। समय की पांबदी किसी सत्यादी को कितना बेखौफ और निडर बना सकती है यह देख, सामने बैठी भारत की गरीब जनता को मिला एक सत्यादी नेता और हमें मिले निोबा। उसी र्ष 7 जून को निोबा ने गांधीजी को पत्र लिखा और े हमेशा के लिए गांधी के संग्राम से जुड़ गए।
सन् 1951 में भूमि को लेकर आंध्र प्रदेश के तेलंगाना प्रान्त में जब साम्यादियों का आंदोलन चल रहा था तब उस हिंसाग्रस्त क्षेत्र में अहिंसा का पाठ पढ़ाते निोबा पैदल घूम रहे थे। एक दिन एक गरीब भूमिहीन किसान उनके पास भूमि के लिए याचना करने आया। 18 अप्रैल, 1951 को आयोजित एक सभा में निोबाजी ने उस गरीब किसान के लिए अपने हाथ पसारे और रामचन््र रेड्डी नाम के एक धनी किसान ने अपनी 100 एकड़ जमीन का दानपत्र उनके हाथों में रख दिया। उसी दिन से प्रारंभ हुई निोबा की भूदान यात्रा जो उन्हें शहरों से देहात, देहातों से जंगल, बीहड़, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से तेज प्राहोली नदी-नालों से, पगडंडियों से, तो कभी हाथी, बैलगाड़ी से पूरे देश की यात्रा कराती ले गई। 18 अप्रैल 1951 से प्रारंभ हुई यह यात्रा 29 मार्च, 1964 को समाप्त हुई। 14 सालों तक निोबा के कदमों ने भारत की 70 हजार किलोमीटर भूमि नापी। लाखों लोगों से मिलकर 40 लाख एकड़ भूमि दान में प्राप्त की ।


भारत के भिन्न प्रांतों के लोगों को, भिन्न जातियों को समझने के लिए निोबा ने 22 भारतीय भाषाएं सीखी। आसाम में ‘कीर्तनघोषाज् को कंठस्थ किया, जिसे पिछले 500 साल तक किसी ने छुआ नहीं था। तमिलनाडु में ‘तिरुक्कल तिरुाचकम्ज् को कंठस्थ किया और े तमिल जनता से एकरूप हो गए। इस ब्रह्मांड के सत्य को समझने, उनकी प्रज्ञा केल भारत तक ही सीमित नहीं रही। यूरोप को समझने के लिए उन्होंने लेटिन, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं को आत्मसात किया। ईसाई धर्म समझने हेतु ‘बाइबलज् का और इस्लाम धर्म समझने के लिए कुरान का अध्ययन किया। इन दोनों धर्मो के प्रकांड पंडित भी मान गए कि निोबा जितनी बारीकियों से े स्यं भी अपने धर्मो से रू-ब-रू नहीं हुए थे। कुरान की आयतें तो े इतनी खूबसूरती से पढ़ते थे कि एक बार गांधीजी ने मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के सामने जब निोबा का कुरान पाठ कराया तब उनकी खालिस अरबी बोली को सुन मौलाना भी नतमस्तक हो गए।
निोबाजी जब अक्टूबर 1930 से फररी 1931 तक धुलिया (महाराष्ट्र) की जेल में कैद थे तब उन्होंने ज्ञानेश्री से गीता का पाठ कैदियों को सिखाना प्रारंभ किया। महाराष्ट्र के गांधी चिारक साने गुरुजी ने उनके उद्बोधन को लिपिबद्घ किया। उसी से प्रकाशित पुस्तक को निोबा ने नाम दिया गीताई (गीता मां)। गीताई का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुाद हो चुका है। इस बात को लगभग 80 साल बीत गए हैं और गीता प्रचनों के 275 से ज्यादा संस्करण निकल चुके हैं तथा उनकी चालीस लाख से ज्यादा प्रतियां बगैर किसी तामझाम या ज्ञिापन के गंगा, कोरी और नर्मदा के प्राह की तरह देश-दिेश के कोने-कोने में पहुंच रही हैं। निोबा जी का लेखन, पठन, उद्बोधन, किसी बंद कमरे में या दानदाताओं के सुशोभित मंडप में किया गया कोरा प्रचन नहीं था। एक निष्काम कर्मयोगी की तरह उन्होंने बोला हुआ एक-एकोक्य जीकर बताया। आज के बाजाराद के माहौल में उनकी प्राप्ति को म्रुाओं में यदि तोला जाए तो कई टाटा, बिरला और अम्बानी पीछे रह जाएंगे। इतना सब कुछ करने के बाजूद निोबाजी अपनी जीकिा चलाने के लिए रोज 8 घंटे सूत कताई करते थे। उन्होंने बापू से शिकायत भी की थी कि आप सूत कताई की सलाह तो दे रहे हैं, लेकिन 8 घंटे सूत कातने के बाद भी इसका तागा बेचकर एक व्यक्ति का पेट नहीं पलता है। निोबाजी का आहार था 10 तोला दूध, 6 तोले छेना, 3 तोले गुड़, ढ़ाई तोला पपई, कुल 64़5 तोला। अपनी पदयात्रा की समाप्ति पर निोबा रोज सुबह 5.़30 से 7 बजे तक खेत में काम, दोपहर 4 बजे सूरज से तपे पानी से स्नान सायं 7़15 बजे सामूहिक प्रार्थना करते थे। निोबा का लेखन जितना सरल लगता है उतना ही उसका निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन है। (सप्रेस)

(अरुण डिके कृषि ैज्ञानिक हैं और उनका यह लेख सर्वोदय प्रेस सर्विस में प्रकाशित हुआ। वहीं से साभार)

सर्वोदय नहीं, भूदान विफल

बाबा ने जो भूदान यज्ञ शुरू किया वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्साभर था, पूरा सर्वोदय नहीं।

देवदत्त
सर्वोदय को लेकर विनोबा भावे के योगदान को जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि उन्होंने जिस सर्वोदय आंदोलन को 1950 व 1960 के दशक में आगे बढ़ाया, वह महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की सोच से प्रेरित था। गांधी एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें वे सभी व्यक्ति का उत्थान एवं कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई साधन सुझाए थे। भू-दान व ग्राम-दान उन्हीं में से एक था, जिसे लेकर विनोबा ने समाज को सुधारने की कवायद शुरू की। लेकिन 1950-60 के दशक के बाद इस आंदोलन का कोई नामलेवा नहीं रह गया। इसकी कई वजहें थीं। पहली तो यह कि जिस आंदोलन की शुरुआत विनोबा ने की, उससे आगे चलकर उन्होंने स्वयं ही अपने आप को अलग कर लिया। आंदोलन की विफलता का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि विनोबा ने जिस भू-दान या ग्राम-दान योजना की शुरुआत की, वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं।

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि विनोबा अपने घर से ‘मुक्तिज् की तलाश में निकले थे, न कि किसी सामाजिक आंदोलन की मुहिम के तहत। इसी बीच, 1915-16 में वे गांधी के संपर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ‘मुक्तिज् का मार्ग छोड़ दिया। वे सार्वजनिक जीवन में उतर आए। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन 1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के सिलसिले में कोलकाता जाने के बाद उनका आध्यात्मिक मन एक बार फिर जागृत हुआ और उन्होंने गांधी से माफी मांगते हुए सार्वजनिक जीवन से किनारा कर लिया।
बहरहाल, विनोबा ने भू-दान व ग्राम-दान का जो आंदोलन चलाया, भूमि सुधार के संदर्भ में आज भी उसकी प्रासंगिकता है। जमीन की समस्या वास्तव में हिन्दुस्तान की समस्या है, जिसका दूसरा नाम कृषि है। 1947 में आजादी से लेकर अब तक किसी सरकार या राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि देश कृषि प्रधान नहीं है। कृषि को यहां जीवनशैली माना गया और सरकारों की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह इसे सुरक्षित रखे। विनोबा के भू-दान आंदोलन ने भी इसी मुद्दे को उठाया। आगे चलकर यह योजना ग्राम-दान के रूप में तब्दील हुई। गांव को एक इकाई के रूप में देखा गया और कहा गया कि कृषि से संबंधित जो भी समस्या हो या इसके विकास की बात हो, पूरे गांव के संदर्भ में हो। आज की कृषि समस्या के संदर्भ में भी यह पूरी तरह प्रासंगिक है। इस सिद्धांत या रणनीति के तहत गांवों की रचना से देश की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को एक इकाई मानकर सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी यह फॉर्मूला प्रासंगिक है।
यह कहना गलत है कि सर्वोदय के सिद्धांतों की आज उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1950-60 के दशक में था। जरूरत है तो उन्हें सही तरीके से अमल में लाने की। इसके लिए बेहतर वातावरण पंचायती व्यवस्था में हो सकता है। लेकिन मौजूदा पंचायती व्यवस्था में नहीं। बल्कि उस पंचायती व्यवस्था में, जहां शक्तियां नीचे से ऊपर तक जाती हों, न कि ऊपर से नीचे आती हों। मौजूदा व्यवस्था में पंचायतों को जो भी शक्तियां मिली हुई हैं, उनका स्रोत कें्र है।

अब अगर विनोबा द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन की विफलता की बात की जाए तो सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विनोबा द्वारा शुरू किया आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन था ही नहीं। यह भूमि सुधार आंदोलन था, जो भू-दान आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। यह सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं। फिर गांधी ने जिस सर्वोदय का विचार दिया था, वह समाज सुधार की बात नहीं करता, बल्कि इसके समानांतर एक नए समाज के निर्माण की बात करता है; जबकि विनोबा ने सर्वोदय के लिए आवश्यक एक सिद्धांत को अमल में लाकर सामाजिक सुधार की कवायद शुरू की थी। इसलिए यहां गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत विफल नहीं हुआ, बल्कि भू-दान आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन की विफलता का एक अहम कारण यह भी है कि विनोबा ने आगे चलकर इससे खुद को अलग कर लिया और इसमें सरकार को शामिल कर लिया। भूमि सुधार को लेकर कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपकर आंदोलनकारियों ने सरकार के समक्ष लगभग घुटने टेक दिए।
विनोबा ने ‘सबै भूमि गोपाल कीज् का नारा दिया था। उन्होंने जमीन पर लोगों के मालिकाना हक को स्वीकार किया, लेकिन इसका इस्तेमाल समाज द्वारा करने की बात कही। पूंजीवादी एवं समाजवादी व्यवस्था से अलग उन्होंने ट्रस्टीशिप व्यवस्था में यकीन जताया और हृदय परिवर्तन के माध्यम से भूमि सुधार लागू करने की कवायद शुरू की। लेकिन आंदोलनकारियों द्वारा सरकार के समक्ष घुटने टेकने के बाद सब वहीं समाप्त हो गया। हालांकि आज भी भूमि सुधार की बात उठती है। राजनीतिक दलों से लेकर विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता भी किसान हितैषी होने की बात करते हैं। औद्योगिक विकास के लिए अगर कहीं जमीन का अधिग्रहण हो रहा है और किसान उसका विरोध कर रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक दलों से लेकर तमाम संगठनों के कार्यकर्ता भी आ जाते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसानों के हितैषी नहीं, बल्कि प्रबंधात्म लोग हैं।

(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

विचार तो अब भी कायम

किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले, सर्वोदय आंदोलन के साथ यह नहीं हो सका।

एसएन सुब्बाराव
विनोबा मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और इसी रूप में वे सभी समस्याओं का समाधान तलाशते थे। नेता बनने की इच्छा उनमें नहीं थी। वे सभी को समान रूप से देखते थे और एक आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते थे। यह भी सच है कि वे घर से मुक्ति की तलाश में निकले थे, लेकिन गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। वे उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग छोड़ दिया और सामाजिक जीवन में उतर आए। फिर आजादी के आंदोलन से लेकर एक नए समाज की रचना तक के गांधी के कार्यक्रम में वे हर जगह उनके साथ रहे। लेकिन 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या के बाद हालात बदल गए। एकाएक हुई इस वारदात ने लोगों को सकते में डाल दिया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब उन सपनों को कैसे पूरा किया जाएगा, जो गांधीजी ने आजाद भारत की जनता के लिए देखे थे। कैसे एक नए समाज की रचना हो, जिसमें हर व्यक्ति का कल्याण हो। ऐसे में सबको विनोबा में उम्मीद की किरण दिखी। गांधी के रूप में देश का जो नेतृत्व एकाएक खो गया, वे विनोबा के रूप में दिखा। लोग उनके निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। विनोबा ने भी महसूस किया कि सर्वजन के हित में जिस समाज की संकल्पना गांधी ने की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यूं हाथ पर हाथ धरे रहने से बात नहीं बनेगी। उन्होंने गांधी के सपनों को साकार करने के लिए लोगों का आह्वान किया और कहा कि देश ने आजादी तो हासिल कर ली, अब हमारा लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना करना होना चाहिए, जिसमें सबका कल्याण सुनिश्चित हो सके।

गांधी के सपनों को साकार करने के लिए सर्वसेवा संघ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य समाज में सभी की सेवा करना था। अब तक विनोबा के मन में भू-आंदोलन जसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन देशभर का भ्रमण करने के बाद उन्हें इस बात का भान हो चला था कि समाज दो भागों में बंटा है, एक भूमिहीन लोगों का तबका और एक भू-स्वामियों का वर्ग। भूमिहीन लोगों की एक बड़ी संख्या है, जबकि मुट्ठीभर लोगों के पास आवश्यकता से अधिक भूमि है।
अपनी पदयात्रा के दौरान जब वे आंध्र प्रदेश के तेलंगाना पहुंचे तो वहां जमीन के टुकड़े के लिए लोगों को लड़ते देखा। भूमिहीन भू-स्वामियों से जमीन छीनने के लिए छापामार युद्ध चला रहे थे तो उन्हें काबू में करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गई थी। भूमिहीनों से उन्होंने हिंसा छोड़ने की अपील की तो उन्होंने अपने लिए जमीन की मांग की। खुद विनोबा को भी उस वक्त नहीं पता था कि वे इनकी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? इसी उधेड़बुन के बीच उन्होंने ग्रामीणों की सभा बुलाई और लोगों के सामने उनकी समस्याएं रखी। तब स्वयं विनोबा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी समस्याओं के समाधान के लिए इस तरह आगे आएगा। सभा में से एक व्यक्ति ने सौ एकड़ जमीन देने की पेशकश की। यहीं से विनोबा को मिल गया भूमिहीनों की समस्या का समाधान। देशभर में पदयात्रा कर वे और उनके अनुयायी भू-स्वामियों को भूमिहीनों के लिए जमीन का एक टुकड़ा देने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं विनोबा ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देशभर में लगभग छह हजार किलोमीटर तक पदयात्रा की। उनके प्रयास से देशभर में भू-स्वामियों द्वारा दान की गई लाखों एकड़ जमीन एकत्र की गई और इन्हें भूमिहीनों के बीच बांटा गया।


हां, यह सच है कि जमा की गई भूमि एक हिस्सा भूमिहीनों के बीच बंट नहीं पाया। लेकिन इसके लिए विनोबा और उनके अनुयायियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है, जो जमीन का सही वितरण सुनिश्चित नहीं कर पाई। जहां तक सर्वोदय आंदोलन की प्रासंगिकता की बात है तो सिर्फ इस आधार पर इसे अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता कि विनोबा द्वारा चलाई गई यह मुहिम आगे चलकर विफल हो गई। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले। सर्वोदय आंदोलन के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वरना इसके विचार और अवधारणा आज भी प्रासंगिक हैं। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से समझने और उस दिशा में प्रयास करने की।
आज भी देश में भूमिहीनों की एक बड़ी तादाद है। नक्सल समस्या इसकी एक बड़ी वजह है। कभी विनोबा ने कहा था कि हर बेरोजगार हाथ बंदूक पाने का हकदार है। अगर उन्हें रोजगार मिले तो वे भला बंदूक क्यों उठाएंगे? आज सरकार नक्सल समस्या से निपटने के लिए तरह-तरह की कार्य योजनाएं बना रही है और उस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन यह समस्या ही न हो, इसके लिए कोई कार्य योजना नहीं बना रही। अगर योजना बन भी रही है तो उन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण जसी समस्या का समाधान भी विनोबा के सिद्धांतों में ढूंढा जा सकता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र या अन्य विकासात्मक कार्यो के मद्देनजर अगर किसानों को स्वेच्छा से जमीन देने के लिए प्रेरित किया जाए तो देशभर में जमीनों के अधिग्रहण के लिए हो रहा विरोध रोका जा सकता है।
(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

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