Friday, September 25, 2009

सादगी भी एक अदा ठहरी

भई, अपनी तो सरकार वही जो अदा रखती हो। सादगी के हो-हल्ले में लगा कि ये बेनाज-बेअदा बला कहां से आयी! अब मुतमइन हुए कि अरे यह सादगी भी एक अदा ही ठहरी। आज के खुल्लम-खुल्ला खुलेपन में लाज की गठरी बनी न जाने कहां सिमटी-सिकुड़ी बैठी थी। उसे उठाकर सरेबाजार फिर ले आयी सरकार तो शायद इस ख्याल से कि दुनिया देखे कि हमारी यह भी है कि एक अदा और! बेहद जतन से इसकी मिजाजपुर्सी चली। जरा सी ठेस जिससे लगी उस पर लानत भेजी। इसलिए ही तो शशि थरूर की, अब के जो लौटे सफर से खूब मेहमानी हुई। सोनियाजी, प्रणब दा और एंटनी साहब के दर-दर भटके। समझ में आ गया न हम सादगी समङो, न राजनीति समङो!
असल में गलती न थरूर की है न कृष्णा की, न उन किसी की भी जो घोर गरीबी और अंधेरों में रह रहे इस महादेश के करोड़ों लोगों से बेखबर, चमक-दमक के दिलदादा हैं। अब उनसे अपने बहिश्त को जनता के दोजख में डाल देने की उम्मीद करना मासूमियत ही है। देश की फिजां ही बदली हुई है। जलवों की लूट है। जश्नों की धूम है। कमाने-धमाने-खर्चने की छूट है। उदारीकरण में जीवन ही जीवन है। मरण तो उसके बाहर है। ऐसे में उल्टी गंगा बहाना अकारथ ही जाएगा। चील से मांस की रखवाली और घोड़े से घास से यारी की गुजारिश बेजा है। हफीज जलंधरी की ‘अभी तो मैं जवान हूंज् नज्म याद आती है- ‘सुनो जरा शेखजी/अजीब शै हैं आप भी/ हवाएं इत्रबेश हों/ अदाएं फित्नाखेज हों / तो जोश क्यों न तेज हो/सुगंध ही सुगंध और बाजारू मारक अदाएं! मोह मन मोहे, लोभ ललचाये इसमें नाजायज क्या!
कोई भी चीज, फिर चाहे वह सादगी हो या संयम, संकल्प के बिना बेमानी हैं। और जब तक कोई विचार, उद्देश्य और लक्ष्य न हो, तब तक संकल्प काहे का? बात सन् 1930 की है। मेरे पिता सोलह के होंगे। दुर्गावती की समाधि पर संकल्प लिया। खादी पहनेंगे। आंदोलन में शामिल होंगे। घर में घोर गरीबी। घरवालों की चाहत, कि नौकरी करें। तब आंदोलन के साथ पढ़ाई और पढ़ाई के लिए ट्यूशन करने लगे। 32-33 में खादी की कीमत दोगुनी हो गयी। क्या करें। बापू को चिट्ठी लिखी। अपना हाल बताया। पूछा, संकल्प कैसे पूरा हो? गांधीजी का जवाब आया। ‘डियर गणेश प्रसाद, ‘वेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे। कट शॉर्ट युअर एक्सपेंसेज। खर, पिता ने आजीवन संकल्प साधा। लेकिन बात गांधीजी की है। उनका एक उद्देश्य था। और खादी उसका एक औजार। इसीलिए एक गरीब छात्र को भी वे सलाह देते हुए निर्मोही थे। अब सोनियाजी ने खुद इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर एक संदेश देने की कोशिश की। राहुल और उनकी मजबूरी है सुरक्षा। लेकिन संदेश कौन ले? उल्टे शाही खर्चो और शौक के दफ्तरों की खबरें खुलने लगीं। अगर सादगी योजना है तो उसे वैसे ही लागू होना चाहिए। लेकिन तब फिर सरकारी योजनाओं की तरह सद्गति सादगी को मिलनी ही है।
दरअसल सादगी-संयम सभी सापेक्ष चीजें हैं। आज की सादगी पहले से अलग ही होगी। मुख्य चीज है सार्वजनिक शोभनीयता। उसी में से निकलती या उसके ही बरक्स दिखती है सादगी। और जब आप उसके सामने इसे रखते हैं तो सादगी भी बहुत बड़ी चीज हो जाती है। वह ज्यादा ध्यान, ज्यादा एकाग्रता और प्रयत्न मांगती है। सार्वजनिक शोभनीयता के ख्याल से जो भी असंगत है, हेच-पोच है वहां सादगी, संयम की दरकार है। बोलने-चालने, बर्ताव में। जीवन के सभी अंगों में। समाज-राजनीति-शिक्षा सभी क्षेत्रों में। इनमें जो भी फूहड़ है वहां सादगी की जरूरत है। भाजपा खुद मानती है कि चुनाव में अनाप-शनाप बोलना महंगा पड़ा। पता नहीं वह और उसके परिवारी कब समङोंगे कि हुसैन के साथ सलूक भी उनका बेजा और फूहड़ है। फिर एक अदद अनुपात और संतुलन भी चाहिए। ताजा मिसाल महाराष्ट्र के होने वाले चुनाव की है। कांग्रेस हो या भाजपा सभी के नेता पुत्र-पुत्रियों के लिए टिकटार्थी हैं। राष्ट्रपति के पुत्र भी। सोचिए सार्वजनिक शोभा के लिए यह सब कितना भदेस और त्रासद है। कांग्रेस की सरकार है इसलिए उसकी भूमिका बड़ी, नेतृत्वकारी है। यह कहना दूर की कौड़ी नहीं है कि महाराष्ट्र और अन्य जगहों का यह परिवारवाद आपकी सादगी के परखचे भी उड़ाता है। राहुल की युवा संगठनों में लोकतंत्र लाने की कोशिश को तो यह मजाक बनाता ही है। चुनाव महत्वपूर्ण है, चयन भी उतना ही और शोभनीयता भी उतनी ही। अफसोस यह है कि कोई भी चीज यहां मुद्दा या बहस नहीं बन पाती। गुजरात के दंगों पर बहस शुरू करो तो 84 की बात छेड़ दी जाती है। उस पर करो तो कोई बात और अधबीच शुरू हो जाती है। सादगी पर भी यही हुआ। फिजूलखर्ची के किस्सों में और दिखावा-छलावा के आरोप में वह धंस गयी। अजब हाल है मंत्री और मीडिया सादगी नहीं समझते। एक मुख्यमंत्री, सरकार-संगठन मजाक नहीं समझते। मुख्य विपक्षी दल कला नहीं समझता। थरूर बच गए पर हुसैन तो यहां के निकाले हुए ही हैं।
मनोहर नायक

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