Wednesday, August 12, 2009

चरणदास चोर : खेलो और, और!


मो. रजा़

मशहूर नाटककार हबीब तनवीर का नाटक ‘चरनदास चोर फिर सुर्खियों में है। मंच पर कई बार अपनी काबिलियत साबित कर चुका यह मशहूर नाटक अब राजनीतिक गलियारों में अटक गया है। ‘चरनदास चोर नाटक को कुछ समुदायों की भावनाओं पर आघात करने वाला बताकर छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। इससे कला मंच से जुड़े लोगों और बुद्धिजीवियों में रोष हैं। इन लोगों का कहना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
‘चरनदास चोर नाटक कई बरसों से खेला जा रहा है। देश-दुनिया में उसको सराहा गया है। नाटक में ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी समुदाय को ठेस पहुंचे। यह नाटक ईमानदारी और सच बोलने की सीख देता है। यह कोई नया नाटक नहीं है बल्कि 1975 से लगातार मंचित हो रहा है। अपने जमाने में यह नाटक इतना मशहूर हुआ कि जाने-माने निर्देशक श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल को लेकर एक फिल्म भी बनाई। यह फिल्म काफी चर्चित रही। छत्तीसगढ़ सरकार की इस करनी पर संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों में बेहद क्षोभ है। हबीब तनवीर साहब का निधन हुए अभी दो महीने हुए हैं। उनके नाटक को प्रतिबंधित करने को मरणोपरांत उनका अपमान माना जा रहा है। वैसे भी यह सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। हबीब तनवीर का यह नाटक दुनिया भर में मशहूर और प्रशंसित हुआ। उनके नाटकों ने जन-मानस को गहरे तक प्रभावित किया। हबीब साहब और उनकी कला का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर असर अगाध है। सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने भी अपने स्तंभ ‘कभी-कभार में लिखा है-‘देश में ही नहीं, किसी हद तक सारी दुनिया में अगर छत्तीसगढ़ किसी एक व्यक्ति के नाम से जाना जाता है तो वह हबीब तनवीर है। आज भी वे छत्तीसगढ़ की सबसे उजली और अमिट तस्वीर हैं। उसी हबीब के नाटक को निहायत साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिबंधित करने की हिमायत उसी छत्तीसगढ़ सरकार ने की है। विनायक सेन की बेवजह गिरफ्तारी की देश भर में निंदा होती रही है। नक्सलियों की चुनौती का सामना करने में विफल यह सरकार उनके जनसंहार का अमानवीय तरीका अपना रही है। उसे हाल के चुनावों आदि में जो सफलता मिली है वह उसकी इस लांछित छवि को धो-पोंछ नहीं सकती। उसने अब इस प्रतिबंध द्वारा उस छवि को और मलिन कर लिया है। उसकी सख्त निंदा तो की ही जानी चाहिए। उसके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार के किसी आयोजन में न सिर्फ उस प्रदेश के लेखकों-कलाकारों को भाग न लेकर उसका बहिष्कार कम से कम तब तक करना चाहिए जब तक यह प्रतिबंध वापस नहीं लिया जाता।ज्
ऑल इंडिया रेडियो में चीफ प्रोड्यूसर ड्रामा के पद से रिटायर सत्येन् शरत् इसे अज्ञानता से उपजा विवाद बताते हैं। वे कहते हैं कि इतने सालों बाद नाटक पर प्रतिबंध लगाया जाना सरासर गलत है। उन्होंने कहा कि 1975 से लगातार खेले जा रहे इस नाटक का प्रत्येक शो हाउसफुल रहा है। उन्होंने कहा कि ‘चरनदास चोर को 1982 में एडिनबर्ग फ्रिंज महोत्सव में पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसके बाद नाटक के विषय में यह कहा जाना कि यह किसी समुदाय के लोगों की आस्था को ठेस पहुंचाता है, गलत है। उन्होंने कहा कि नाटक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि एक चोर जो झूठ न बोलने की कसम खाता है, अंत में उसे मार दिया जाता है।
दरअसल नाटक के बीच में हबीब जी द्वारा चोर के पात्र को एक गाने के माध्यम से दर्शाया गया है ‘एक चोर ने रंग जमाया सच बोल के, संसार में नाम कमाया सच बोल के, धोखे में गुरु को वचन दिया, सच्चाई निभाने का प्रण किया और ऐसा प्रण किया कि पूरा निभा लिया। चोर चरनदास कहलाया सच बोल के।
संक्षेप में इस नाटक की कथा इस प्रकार है ‘एक चोर जिसका यह मानना है कि ईश्वर ने किसी को राजा बनाया, किसी को मंत्री बनाया, मुङो ईश्वर ने चोर बनाया इसलिए मैं चोरी करूंगा। एक दिन चरनदास एक सोने की थाली चोरी कर भाग रहा था उसके पीछे महल के सिपाही पड़े थे। बचने के लिए चरनदास एक ढोंगी के पास चला जाता है। सिपाही आकर उस ढोंगी से पूछते हैं कि क्या तुमने किसी चोर को देखा, वो कहता है कि नहीं। सिपाही चले जाते हैं। ढोंगी चरनदास से कहता है कि तुम चोरी छोड़ दो। चरनदास कहता है कि मैं चोरी नहीं छोड़ सकता हूं। बदले में ढोंगी चरनदास से चार वचन लेता है। पहला तुम कभी किसी देश के राजा नहीं बनोगे। दूसरा सोने-चांदी के बर्तन में खाना नहीं खाओगे। तीसरा किसी रानी से शादी नहीं करोगे। चौथा, हाथी-घोड़े की सवारी नहीं करोगे। चरनदास तैयार हो जाता है अंत में वह चरनदास से एक और वचन लेता है कि तुम कभी झूठ नहीं बोलोगे। चरनदास कहता है कि अगर मैं सच बोलूंगा तो पकड़ा जाऊंगा। ढोंगी कहता तुम अगर मुङो ये वचन दोगे तभी मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊंगा। चरनदास यह सोचकर यह सारे वचन दे देता है कि एक चोर के नसीब में सोने-चांदी के बर्तन में खाना खाना, हाथी घोड़े की सवारी करना आदि कहां लिखा है। लेकिन धीरे-धीरे ये सारी घटनाएं चरनदास के जीवन में आती हैं। एक दिन चरन दास महल से पांच सोने की मोहरे चुराता है। खजाने के सिपाही सोचते हैं कि चरनदास ने पांच मोहरे चुराई हैं मैं भी पांच चुरा लेता हूं और इल्जाम चरनदास पर जाएगा। लेकिन महल में चरनदास पांच सोने की मोहरे चुराने की बात स्वीकार करता है। रानी उसके सच बोलने की बात पर खुश हो जाती है और वह उसे छोड़ देती है। रानी सिपाहियों को चरनदास को बुलाने के लिए हाथी-घोड़े भेजती हैं कि जाओ चरनदास को ले आओ। चरनदास आने से मना कर देता। रानी उसे जेल में डाल देती है। जेल में उसे सोने के बर्तन में खाना खाने के लिए दिया जाता है। चरनदास खाना नहीं खाता। अंत में रानी उससे शादी करने के लिए कहती है चरनदास मना कर देता है। रानी कहती है कि तुम किसी को यह मत बताना कि मैंने तुमसे शादी के लिए कहा था। लेकिन चरनदास शादी की बात लोगों से बताने को कहता है जिस पर रानी कहती है कि अगर जिंदा बचोगे तो बताओगे और रानी सिपाहियों को बुलाकर उसे मरवा देती है। इस तरह इस नाटक का मार्मिक अंत होता है।
सत्येन् शरत् ने कहा कि आज हबीब तनवीर हमारे बीच नहीं हैं इसलिए इस तरह की बात की जा रही है। उन्होंने कहा कि आज हबीब साहब जिंदा होते तो उनकी कलम में वो ताकत थी कि इस विरोध का मुंहतोड़ जवाब देते। उन्होंने सरकार द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाए जाने की कड़े शब्दों में आलोचना की है। नाटक का दर्शक यह क भी सोच भी नहीं सकता था कि सच बोलने की इतनी सजा दी जा सकती है या सच बोलना वाकई इतना खतरनाक साबित होगा। अब जहां लगातार झूठ का बोलबाला है वहां चरनदास चोर समाज को एक नई सीख देता है।

‘जिस लाहौर.... खूब वेख्या



सुप्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असगर वजाहत ने भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को अपने मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नई में उभारा था। इस नाटक को बेहद सराहा गया और देश-विदेश में इसके खूब मंचन हुए। हबीब तनवीर ने 1990 में इसे पहली बार दिल्ली में मंचित किया था। दो दशक बीत जाने के बाद भी इसे बराबर खेला जा रहा है। हबीब तनवीर की याद में अब इसे चौदह अगस्त को वाशिंगटन में खेला जाएगा। इस नाटक को लेकर मोहम्मद रजा ने असगर वजाहत से बातचीत की है। उसी पर आधारित यह लेख।

भारत-पाकिस्तान विभाजन को छह दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन विभाजन का दर्द आज भी दोनों देशों के लोगों के दिलों में एक नासूर बनकर जिंदा है। विभाजन के इसी दर्द को हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असग़र वजाहत ने अपने नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माइ नई में प्रस्तुत किया है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या का सबसे पहले मंचन मशहूर नाटककार स्व. हबीब तनवीर ने दिल्ली के श्रीराम सेंटर में 27 सितंबर 1990 को किया था। नाटक को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। इसके बाद नाटक का कई देशों और भाषाओं में मंचन किया गया, जिसे लोगों ने खूब सराहा। नाटक का दिल्ली, मुंबई, वाशिंगटन, लंदन और सिडनी जसे शहरों में भी मंचन किया गया, जिससे नाटक को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी खूब ख्याति मिली। इसी कड़ी में वाशिगंटन के जॉन एफ केनेडी सेंटर में नाटककार हबीब तनवीर की याद में 14 अगस्त 2009 को नाटक का मंचन किया जा रहा है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या की विषयवस्तु का सूत्र उर्दू के पत्रकार संतोष भारती की किताब ‘लाहौरनामा की देन है। संतोष भारती 1947 में लाहौर से दिल्ली आ गए थे। इस दौरान हुए दंगों में संतोष के भाई की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी।
लेखक का संबंध उस पंजाब से नहीं है, जिसने विभाजन के दर्द को ङोला और न वे निजी रूप से उस युग के साक्षी रहे हैं, लेकिन उन्होंने विभाजन के उस युग पर कलात्मक ढंग से लिखा है। असगर वजाहत ने ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या नाटक को केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं किया है, बल्कि दोनों समुदायों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है। इस प्रयास का उद्देश्य यह बताता है कि दोनों समुदायों के बीच क्या हुआ कि सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास और भाईचारा समाप्त हो गया था। लेखक ने यह दर्शाया है कि समाजविरोधी तत्व किस तरह से धर्म का फायदा उठाते हैं। पात्रों का विकास तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृतियों का मानवीय स्तर पर समागम अत्यंत संवेदनशील है। बुद्धिजीवियों और साधारण जनता के बीच का जो संबंध होना चाहिए, वह नाटककार ने मौलवी, कवि और जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के माध्यम से दर्शाया है। नाटक का जो नया पक्ष लेखक को अन्य लेखकों से अलग करता है, वह यह है कि उसमें मौलवी को संकुचित विचारों वाला दकियानूसी नहीं चित्रित किया गया है। असगर वजाहत का मौलवी खलनायक नहीं है। वह हर तरह से मानवीय है। मस्जिद में मौलवी की हत्या एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से स्वार्थी तत्वों द्वारा धर्म तथा जीवन के महान मूल्यों को नष्ट कर देने की बात कही गई है।
नाटक में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पैदा हुई स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नाटक में दिखाया गया है कि लखनऊ से विस्थापित एक परिवार को लाहौर में 22 कमरों की एक बड़ी सी हवेली मिलती है। लेकिन उन्हें अपने घर के मुकाबले यह हवेली कुछ भी नहीं लगती। विभाजन के बाद जहां काफी सारे हिंदू पाकिस्तान से हिन्दुस्तान चले जाते हैं, वहीं एक बुढ़िया अपना घर छोड़कर नहीं जाती और फसाद के वक्त अपने घर में छिप जाती है। उसके घर को खाली समझकर कस्टोडियन वालों ने लखनऊ से विस्थापित एक परिवार सिकंदर मिर्जा को एलाट कर दी जाती है। जब इस परिवार को पता चलता है कि यह बुढ़िया इस हवेली में है तो वो उसे वहां से हटाने की काफी कोशिश करते हैं।
इसी सिलसिले में सिकंदर मिर्जा का लड़का मोहल्ले के ही एक पहलवान से उस बुढ़िया को हटाने की बात करता है। पहलवान सिकंदर मिर्जा से बुढ़िया को जान से मारने की बात कहता है, जिसे मिर्जा और उसके परिवार वाले मना कर देते हैं। धीरे-धीरे उस बुढ़िया की हमदर्दी सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में रहने वाले सभी मुस्लिम परिवार से हो जाती है। एक दिन अचानक उस बुढ़िया की मौत हो जाती है। उसकी मौत से सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ मोहल्ले वालों को बहुत दुख होता है। बुढ़िया के क्रिया-कर्म के लिए मौलवी से सलाह ली जाती है तो मौलवी कहता है कि बुढ़िया हिन्दू थी, लिहाजा उसका अंतिम संस्कार उसी के धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। मौलवी की ये बात पहलवान को नागवार गुजरती है और वे मस्जिद में मौलवी की हत्या कर देता है।
वर्तमान में इस जब इस वैश्विक व्यवस्था में आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरवाद और उपनिवेशवाद के दौर में मुसलमानों की छवि खराब की जा रही है और जहां मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं, लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, वहां यह नाटक एक विभाजन की त्रासदी के बाद लोगों के मनोभावों को समझने और संवेदनाओं को सुरक्षित रखते हुए मूल्यों को संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। दर्शक इसे देखकर विभाजन के छह दशक बाद भी इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है।

(यह चित्र जिन्हे लाहौर नहीं वेख्या के प्रथम मंचन का है। )

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...