Tuesday, September 22, 2009

गंगा- जमुनी तहजीब का कलावा




शेराज अहमद, अनारू, जुबैर, इसरार अहमद और ऐसे ही करीब 100 से भी ज्यादा लोग हर सुबह हिंदू धर्म के सबसे पवित्र धागे को अपनी मेहनत से तैयार करते हैं। यह दिलचस्प है कि जो धागा हिंदू धर्म में सबसे पवित्र व अहम माना जाता है उसे मुस्लिम धर्म के 22 घरों के करीब सौ से भी ज्यादा लोग तैयार करते हैं। जी हां हिंदू धर्म में सबसे पवित्र माने जाने वाले कलावा, कलाई नारा या रक्षा सूत्र को पूरे विश्व में एक ही जगह बनाया जाता है। संगम की पावन धरती प्रयाग (इलाहाबाद) से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर लालगोपाल गंज कस्बा पड़ता है और यही पर स्थित दो गांव अल्हादगंज व खंजानपुर में दिन रात कलावे (रक्षा सूत्र) बनाने का काम किया जाता है। नवरात्रि के समय कलावे की मांग बढ़ जाने पर यहां पर दिन रात कलावे व माता की चुनरी बनाने का काम तेजी से होते देखा जा सकता है। अल्हादपुर गांव के नफीस अहमद बताते हैं कि उनके दादा-परदादा इस काम को करते आ रहे हैं। यह काम पुश्तैनी हो चुका है नफीस अपने बच्चों को भी इस काम में लगा चुके हैं। नफीस ने बताया कि करीब 100 साल से यह काम पूरी दुनिया में सिर्फ इन्हीं दो गावों में किया जाता है। मुस्लिमों में रंगरेज बिरदारी ही इस काम को अंजाम दिया करती है। नफीस के यहां कलावे बनाने का काम प्रत्येक सुबह तीन बजे से शुरू हो जाता है। कच्चा माल भिवंडी से आता है जिसे लाछा या नारा कहा जाता है। यह 40 से 45 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिलता है। इसको घर की महिलाएं धागे के रूप में कई लच्छों में बांटतीं हैं। इसके बाद काम होता है रंगाई का। लाल व पीले रंगों को क्रमश: कांगो लाल व खपाची पीला कहा जाता है जिसे कानपुर से मंगाया जाता है। लच्छों को गर्म रंगीन पानी में डालकर सुखाने के लिए रखा जाता है। और फिर तैयार होता है रक्षासूत्र। रोजा रह रहे अफरोज रंगरेज ने बताया कि हर दिन उसे 40 से 60 किलो लच्छे को रंगना होता है। बीस किलो को एक नग या ताव कहा जाता है। एक ताव को तैयार करने के लिए यहां के लोगों को सत्तर रुपए मिलते हैं। प्रतिदिन 100 से ज्यादा लोग रंगाई के इस काम को करते हैं और तैयार करते हैं 20 से 30 कुंतल कलावा। मार्केट में कलावे की सप्लाई 55 से 60 रुपए प्रति किलो के रेट पर की जाती है। 15 रुपए के इस मुनाफे में 22 घर व सैकड़ों लोग अपनी जीविका चलाते हैं। 19 साल के रहमान कहते हैं कि जिसने जितना काम किया होता है उसे उसकी मजदूरी का पैसा तुरंत मिल जाता है। इसी गांव में आदिल सलाम उर्फ दलाल चुनरी बनाने का काम करते हैं। चुनरी के लिए कच्चा माल अहमदाबाद से लाया जाता है जिसमें नमकी कलर का प्रयोग कर विभिन्न डिजाइन देने के बाद चुनरी तैयार की जाती है। छोटी और बड़ी साइज की चुनरी तैयार करने के बाद इनमें इंटरलाकिंग का काम गांव की महिलाएं घरों में करतीं हैं। 100 चुनरी की इंटरलाकिंग 20 से 25 रुपए के रेट पर की जाती है। रेहाना खातून 70 साल की हैं और सुबह घर के काम काज से खाली होकर दिन भर इसी काम में मशगूल हो जातीं हैं। रेहाना ने बताया कि नवरात्रि और मेले में चुनरी की मांग तेज हो जाती है। रेहाना के शौहर का इंतकाल 20 साल पहले हो गया था और तब से वह अपनी दो बेटियों और तीन बेटों की पढ़ाई का खर्चा इसी से निकाल रही हैं। इस धंधे में मंदी का कोई असर पड़ने के बारे में आदिल उर्फ दलाल ने बताया कि पूरी दुनिया में वास्तविक कलावा लालगोपालगंज में ही बनाया जाता है और इसी कारण भारत ही नहीं बल्कि मलेशिया, नेपाल, ब्रिटेन, अमेरिका, लंदन पाकिस्तान जसे देशों में भी इसकी सप्लाई की जाती है। भारत के सभी प्रसिद्ध मंदिरों में कई महीनों पहले से ही आर्डर देकर थोक के भाव कलावे व चुनरी बनवाई जातीं हैं। मैहर, मुंबा देवी, विंध्याचल, वैष्णो देवी, कालका जी, ज्वाला देवी, बालाजी मंदिर, सिद्धीविनायक जसे तमाम बड़े धार्मिक स्थलों के आर्डर महीनों पहले यहां पर आ चुके हैं। आदिल बताते हैं कि वर्तमान में आदमी कम पड़ जाते हैं लेकिन सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आज के दिन में अल्हादपुर व खंजान पुर के लोगों के पास इतना काम है कि वह 24 घंटे भी काम करें तो भी डिमांड पूरी नहीं की जा सकती है। प्राइवेट कंपनियों के कलाई नारा बनाने के काम में कूदने पर यहां का रंगरेज समुदाय खासा नाखुश है इनका मानना है कि सरकार को इस काम को बढ़ावा देना चाहिए। सरकार की ओर से एक रुपए की भी मदद न मिलने से गांव वाले खासे नाराज हैं। लेकिन काम इतना ज्यादा है कि किसी को गिला तक करने की फुर्सत नहीं हैं। बिजली समय पर आ जाती है तो चुनरी में डिजाइन व प्रेसिंग का काम समय पर हो जाता है वरना रंगाई व धुलाई के लिए कुएं व हैंडपंप के पानी पर ही आश्रित रहना पड़ता है। गांव की दो मस्जिदों के इर्द-गिर्द रहने वाले इन लोगों की दिनचर्या पांचो वक्त नमाज अदा कर इस धागे में रंग घोलने तक सीमित है। इनके बच्चे इन धागों व चुनरियों को सुखाने के लिए खेतों में ले जाया करते हैं। खेतों में फैले रंगीन धागे व चुनरयिां सुबह के वक्त किसी मनोरम दृश्य से कम नहीं होते हैं। 12 साल के सादिक उर्फ सोनू को इन लाल रंग के धागों से खेलना अच्छा लगता है, उसे नहीं पता कि इन धागों की अहमियत क्या है, वह तो बस इतना जानता है कि उसके अब्बू व भाईजान सुबह तीन बजे से ही इन धागों व चुनरियों को रंगने में व्यस्त थे और अब उसकी जिम्मेदारी है कि जब ये सूख जाएं तो करीने से इनको घर ले जाकर अम्मी को देना है। गांव के ही एक मस्जिद के मौलवी अश्फाक अहमद ने नमाज अदा करने के बाद बातचीत में बताया कि यह एकता का जीता जागता प्रमाण ही है कि हिंदू धर्म के सबसे बुनियादी व अनिवार्य वस्तु से मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा अपनी रोजी रोटी चला रहा है। सरकार को इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण व्यवसाय को व्यवस्थित करने के लिए कुछ मदद करनी चाहिए।
सर्वेश उपाध्याय
चित्र- अभिषेक शुक्ल

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