Tuesday, January 31, 2012

मतदान की आंधी में मुद्दे

अरुण कुमार त्रिपाठी

सोमवार को पंजाब और उत्तराखंड और उससे पहले मणिपुर में जिस तरह मतदान की आंधी चली है उसे देखकर यही लगता है कि इस देश की जनता की दीवानी है और उस दीवानगी को बढ़ाने में राजनीतिक दलों के साथ भगवान भी लगे हुए हैं। अगर एेसा न होता तो बुरे मौसम के कारण चुनाव प्रचार को बाधित करने वाले उत्तराखंड में चुनाव के दिन धूप न खिली होती। पर इन चुनावों में हमेशा की भांति जिस तरह राजनीतिक दल मूल मुद्दों के भटकते रहे हैं उससे लगता है कि वे जनता की इसी दीवानगी का फायदा उठाते रहते हैं। इससे यह भी लगता है कि जनता मतदान को ही लोकतंत्र समझ कर उसके नशे में झूम रही है और राजनीतिक दल और उसे चलाने वाला कारपोरेट तंत्र उसे छलते हुए धन और सत्ता के मजे लूट रहा है। या फिर इसका मतलब यह भी हो सकता है कि जो जनता कुछ महीने पहले बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के साथ देश की मौजूदा राजनीति के प्रति अरुचि दिखाते हुए उसे बदलने को आतुर थी वह उसी को मजबूत करने को आतुर है। वही मणिपुर जहां पिछले दो महीनों तक नाकेबंदी चली और पूरे राज्य में हाहाकार मच गया था और वही राज्य जहां सश बल विशेष अधिकार अधिनियम को समाप्त करने के लिए इतना लंबा आंदोलन चल रहा है, वहां इसी लोकतंत्र में आस्था जताते हुए 82 प्रतिशत मतदान हुआ। इसी तरह वह पंजाब जहां कांग्रेस और अकाली दल दोनों पार्टियों पर भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार के अपने-अपने ढंग के आरोप चल रहे थे, वहां की जनता ने 77 प्रतिशत मतदान किया। दिलचस्प बात यह है कि पंजाब के उस मालवा इलाके में जहां किसानों और मजदूरों ने सबसे ज्यादा आत्महत्याएं की हैं भारी मतदान हुए। संगरूर जिले में 80 प्रतिशत मतदान और मुक्तसर में 84 प्रतिशत मतदान तक मतदान हुआ है। उससे भी रोचक तथ्य यह है कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र लांबी में 86 प्रतिशत और मनप्रीत सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र गिद्दरवाह में 88 प्रतिशत तक मतदान हुआ है। उसके विपरीत जीत और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के क्षेत्र पटियाला शहर में ‘महज 73 प्रतिशत मतदान हुआ है। उधर उत्तराखंड में हुआ 70 प्रतिशत मतदान एक दशक का सबसे ज्यादा मतदान है।


इन मतदानों के बाद राजनीतिक दल इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। सत्तारूढ़ पार्टियों का दावा है कि यह तो उसे फिर से सत्ता में लौटाने के लिए हुआ मतदान है और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कहा भी है कि उन्हें 80 सीटें मिलेंगी। दूसरी तरफ विपक्षी दलों का कहना है कि यह सत्ता विरोधी मतदान की आंधी है। जनता शासक दलों के नाकारापन और भ्रष्टाचार से ऊबी हुई है। इसलिए यह वोट उन्हें सत्ता से हटाने के लिए पड़े हैं। लेकिन उत्तराखंड और पंजाब दोनों में शासक और विपक्षी दलों के बीच बराबरी का टक्कर बताने वाले भी कम विश्लेषक नहीं हैं। जाहिर है परिणाम तो छह मार्च को ही सामने आएंगे लेकिन एक जो सबसे बड़ा परिणाम आया है वह लोकतंत्र के प्रति आस्था और रुचि का। इस देश में जब-जब लोकतंत्र से ऊबने और उसके नाकाम होने का हल्ला मचता है, तब-तब जनता उसमें डूब कर आस्था व्यक्त करती है। इसलिए यह दावा करने वाले भी खूब हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन फुस्स हो गया। एक तरफ भारतीय संसद ने भ्रष्टाचार विरोधी कानून को खारिज कर दिया तो दूसरी तरफ जनता ने भी उन्हीं पार्टियों के तंत्र में ज्यादा रुचि दिखाई जिन्होंने उसे पास नहीं होने दिया। अन्ना आंदोलन जिस प्रकार कांग्रेस पार्टी को निशाना बना रहा था (हालांकि निशाना बनाने लायक आचरण भाजपा सहित अन्य क्षेत्रीय दलों का भी पर्याप्त था) उसके होते हुए अगर चार राज्यों में कांग्रेस सत्ता में आ गई और उत्तर प्रदेश में उसकी सीटें बढ़ गईं तो अन्ना आंदोलन का क्या अर्थ रह जाएगा? या रामदेव का ही क्या मतलब होगा?
मामला भ्रष्टाचार का ही नहीं लोगों के अस्तित्व और जीवन का भी है। समस्याएं उत्तर प्रदेश जसे पिछड़े राज्य की ही नहीं हैं, समस्याएं पंजाब जसे अगड़े राज्य की भी गंभीर हैं। पंजाब की अर्थव्यवस्था ठहरी हुई है। बेरोजगारी बढ़ी है। आज वहां कोई निवेशक आने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ नशे की गिरफ्त में फंसे युवाओं की पीड़ा अलग है। इसके उदाहरण के तौर पर पंजाब के चार गांव बलरां, जज्जर, हरकिशनपुर, मलसिंह वाला हैं। पंजाब के इन गांवों ने अगर हरित क्रांति का सुख भोगा है तो अब वे उसके अभिशाप को ङोलने को विवश हैं। संगरूर जिले के बलरां गांव में 85 आत्महत्याएं हो चुकी हैं। उसी तरह हरकिशनपुर एेसा गांव है जहां कभी लोगों ने बोर्ड लगा दिया था कि यह गांव बिकाऊ है। जज्जर और मल¨सहवाला गांव रासायनिक खादों और कीटनाशकों का जहर ङोल रहे हैं। वहां कई लोगों का मौतें हो चुकी हैं और दर्जनों अपाहिज हो चुके हैं। लोग कैंसर से पीड़ित हैं। विडंबना देखिए कि राजनीतिक दल खेती के तरीके में बुिनयादी परिवर्तन करने के बजाय महज मुफ्त बिजली देने और कुछ दूसरे किस्म की राहत देने का वादा करके चल देते हैं। वे उस प्रणाली का विकल्प ढूंढने की बात बिल्कुल नहीं करते जिसके चलते यह स्थितियां आई हैं।
एेसी ही चिंताजनक स्थितियां उत्तराखंड में हैं। वहां उत्तराखंड क्रांतिदल जसी जिन पार्टियों ने अलग राज्य के लिए आंदोलन किया उनका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। वे या तो राष्ट्रीय दलों में विलीन हो चुकी हैं या फिर मुरझा गई हैं। पर्वतीय राज्य जिस मकसद के लिए बना था वह तो भुला दिया गया और फिर उन्हीं मैदानी इलाकों और तराई में विकास हो रहा है जिनके नाते पहाड़ उजड़ रहे थे। देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल के तराई वाले इलाके की आबादी 20 प्रतिशत के करीब बढ़ी है वहीं अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जसे जिलों की आबादी घट रही है।
दिलचस्प बात यह है कि सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों और दृष्टिपत्रों में विकास का दावा किया है लेकिन उसके लिए वे कौन सा नजरिया अपनाएंगे यह साफ नहीं है। उत्तर प्रदेश के विखंडन को मुख्यमंत्री मायावती ने एक चुनावी मुद्दा बनाकर उछाला था। वह मुद्दा इस चुनाव की आंधी में बह गया है। किसी अन्य दल को तो छोड़िए बसपा भी उन पर चर्चा नहीं कर रही है। उसके कार्यकर्ताओं को यह डर सता रहा है कि कहीं प्रदेश बंट जाने से बहनजी की हैसियत कम न हो जाए। उधर भट्टा परसौल और टप्पल के किसानों का कहना है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उनके मुद्दों को उठाकर वाहवाही तो खूब लूटी लेकिन उनके लिए कुछ किया नहीं। बल्कि उन्होंने उनका इस्तेमाल किया।
सवाल उठता है कि क्या भारी मतदान की आंधी में जनता के मुद्दे उड़ गए? या वे छह मार्च को किसी नए रूप में प्रकट होने का इंतजार कर रहे हैं? या हमारा लोकतंत्र मुद्दों को हल करने के बजाय चलती का नाम गाड़ी बन कर गया है और उसमें समाधान के लिए उसके समांतर सतत प्रयास जरूरी है?

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...