Wednesday, November 23, 2011

हर हंसी चीज का तलबगार.....

भारतीय मध्य वर्ग के उपभोक्तावादी मानस के हंस विजय माल्या का साम्राज्य जमीन से आसमान तक और सपनों से हकीकत तक फैला हुआ है। देश के आधे बीयर मार्केट पर उनका कब्जा है और वे आईपीएल की टीम रायल चैलेंजर्स आफ बंगाल से लेकर मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, फार्मूल वन ही नहीं टीपू की तलवार और महात्मा गांधी के कटोरी चम्मच खरीदने का शौक रखते हैं। राज्य सभा के माध्यम से राजनीति में उनकी उपस्थिति तो है ही। लेकिन महत्वाकांक्षा की यही उड़ान उन्हें विमानन कंपनी किंगफिशर के मोर्चे पर भारी पड़ रही है। देखना है मंदी के बादलों से टकराती उनकी यह उड़ान कैसे सुरक्षित लैंडिंग करती है? अरुण कुमार त्रिपाठी कि विजय माल्या पर टिप्पणी.....


‘रस का फूलों का गीतों का बीमार हूं। हर हंसी चीज का मैं तलबगार हूं। सौदागर फिल्म का यह गीत भारत के जिस उद्योगपति के लिए सबसे ज्याादा सटीक बैठता है वह हैं विजय माल्या। संसार की हर बेहतरीन चीज का आनंद लेने की इसी इच्छा के चलते वे कामयाबी के इस मुकाम पर पहुंचे और शायद इसी के चलते वे संकट में पड़े। ग्लैमर और चर्चा का वह कौन सा क्षेत्र है जहां विजय माल्या नहीं हैं। शराब, शबाब, क्रिकेट, कार, रेस, विमान कंपनी, राजनीति, सांस्कृतिक और एेतिहासिक धरोहर और मीडिया जिस भी किसी चर्चित व्यवसाय का नाम लीजिए उन सभी में विजय माल्या मौजूद मिलेंगे। उनकी कार्यशैली ब्रिटेन के उद्योगपति रिचर्ड ब्रान्सन जसी बताई जाती है। यानी वे उन पारंपरिक उद्योगपतियों की तरह से नहीं हैं जो परदे के पीछे से काम करने वाले और प्रचार से दूर रहते हुए अपने साम्राज्य के विस्तार को अंजाम देते हैं। वे उन उद्योगपतियों में हैं जो कुछ भी करते हैं, तो चाहते हैं कि वह अखबार और मीडिया की सुर्खियां बने। वे उदारीकरण के पोस्टरबॉय हैं और उसकी विफलता के एक उदाहरण। संसार संपत्ति है और वह भोग के लिए है। इसी दर्शन पर वे काम करते हैं।

उनकी विमान कंपनी किंगफिशर जब नरेश गोयल की जेट एअरवेज से विलय करने वाली थी तब हिंदुस्तान टाइम्स के समिट में एक दिलचस्प चर्चा हुई। उस मंच पर तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के साथ मंच पर विजय माल्या और नरेश गोयल भी मौजूद थे। बात दो साल पहले की है। उस सत्र में विमानन कंपनियों के घाटे की चर्चा चल रही थी। प्रफुल्ल पटेल के एक तरफ माल्या और दूसरी तरफ गोयल बैठे थे। उन लोगों का जोर इस बात पर था कि अब सरकार को हस्पक्षेप कर इन कंपनियों को घाटे ले उबारना चाहिए। उस पर थोड़ा चुटकी लेते हुए कें्रीय मंत्री ने कहा कि पहले यह लोग कहते थे कि हमें व्यापार करने दो और सरकार हस्तक्षेप बंद करे। उदारीकरण बाजार को मुक्त करने के इसी सिद्धांत पर खड़ा हुआ है। अब यह लोग कह रहे हैं कि सरकार हस्तक्षेप करे। बताइए कि यह लोग तब सही थे या अब? उदारीकरण के उद्योगपतियों की यही दुविधा है और विजय माल्या इसी के शिकार हैं। उनकी डूबती हुई किंगफिशर कंपनी आज एक तरफ सरकार से मदद मांगती है तो दूसरी तरफ कहती है हमें सरकार जबरदस्ती घाटे वाले मार्गो पर चलने को बाध्य करती है इसलिए हम दिक्कत में हैं। उनका दावा है कि उनकी विमानन कंपनी के घाटे की बड़ी वजह यह भी है कि विमानों में इस्तेमाल होने वाले तेल की कीमत बहुत ज्यादा है। उनके मैनेजर कहते हैं कि यह काम अब सरकार का है कि वह देश को तेज गति के परिवहन देना चाहती है या उसे फिर बैलगाड़ी के युग में ठेलना चाहती है? दूसरी तरफ बाजार के सिद्धांत को मानने वालों का कहना है कि सरकार को उन्हें बचाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अगर वे बाजार की प्रतिस्पर्धा में खड़े रह पाते हैं तो रहें, नहीं तो डूब जाएं और उनके साथ कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए।

दरअसल विजय माल्या ने उन्हीं हथकंडों को अपनाया जिन पर चलकर उदारीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बढ़ रही थीं। विलय और अधिग्रहण इस दौर का महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है। आज इसी को बाजार के विश्लेषक उनका दोष बताते हैं। उनका कहना है कि विजय माल्या की यूनाटेड ब्रीवरीज यानी यूबी फायदे में चलने वाली कंपनी है। खपत के लिहाज से उनकी कंपनी दुनिया की दूसरे नंबर की शराब कंपनी है। उनकी कंपनी से बना बीयर भारत में सबसे ज्यादा पीया जाता है। लेकिन विमानन में उतर कर उन्होंने यूबी के शेयरधारकों के साथ अन्याय किया। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज से पढ़े इस कोंकणी मूल के उद्योगपति ने 1984 में अपने पिता विट्ठल माल्या की कंपनी संभाली। उन्होंने दुबई से अपना व्यापार बढ़ाना शुरू किया था। आज इसकी कुल संपत्ति 1.4 अरब डालर की है और इसका 11.2 अरब डॉलर का कारोबार है। यह दुनिया भर में फैली 60 कंपनियों का एक बहुराष्ट्रीय कांग्लोमिरेट है। इसके कारोबार में 63.9 प्रतिशत सालाना की वृद्धि हुई।

इसी बीच उन्हें विमानन कंपनी चलाने का शौक चढ़ा ताकि वे तेजी से समृद्धि का आसमान छू सकें। उसके लिए उन्होंने 2006 में किंगफिशर एअरलाइंस शुरू की, जो आरंभ से ही घाटे में चल रही है। वह उधार में सरकारी कंपनियों से तेल भरवाती है और हवाई अड्डों का सरकार को किराया भी समय पर नहीं चुकाती। जिस भी कंपनी का कर्ज वह नहीं चुका पाती उसमें भागीदार हो जाती है। यह कंपनी 32 शहरों को जोड़ती है। इस कंपनी ने पहले एअर डेकन का 26 प्रतिशत शेयर खरीदा और बाद में जेट एअरवेज को हथिया लिया। बाजार के विश्लेषकों का कहना है कि यहीं उन्होंने गलती की। फायदे के चक्कर में उन्होंने तमाम कंपनियों का घाटा खरीद लिया। अपनी अन्य कंपनियों की तरह विजय माल्या ने विमानन कंपनी को देखने के लिए प्रोफेशनल सीईओ नहीं नियुक्त किए। ही व्यस्तता के चलते इस कंपनी पर अपना समय दे पाए। उन्होंने तीसरी गलती यह की कि घरेलू मार्गो पर मजबूती लाए बिना ही विदेशी मार्गो पर भी चल दिए। यही कारण है आज वे संकट में हैं और कभी स्टेट बैंक आफ इंडिया से 400 करोड़ मांग रहे हैं और कभी विदेशी कंपनियों से तालमेल का प्रयास करते हैं। वे यह भूल रहे हैं कि यह खाड़ी युद्ध के साथ ही तेल के दामों में आए उछाल से पैदा हुआ विमान कंपनियों का संकट है। इसका समाधान इतना आसान नहीं है।

लेकिन विजय माल्या अपनी योजनाओं को पूरा करने में माहिर हैं। एेसा होता तो वे आईपीएल की टीम रायल चैलेंजर्स आफ बंगलूर के मालिक होते, ईस्ट बंगाल और मोहन बागान का प्रायोजन करते, ही फार्मूला वन की रेस में हिस्सेदारी करते। उनका शौक और महत्वाकांक्षा ही उन्हें 280 कारें रखने और उनका संग्रहालय बनाने की इजाजत देता है। उनके यूबी के ग्लैमर वाले कैंलेडरों को देखने की जिज्ञाशा तो बहुचर्चित है। उन्होंने राजनीति में अपनी पकड़ बनाने के लिए 2000 में कर्नाटक की 224 सीटों पर चुनाव लड़ा दिया। हालांकि उन्हें एक भी सीट नहीं मिली पर आखिरकार वे राज्यसभा के सदस्य बन ही गए। धरोहरों के शौक के चलते उन्होंने 2004 में लंदन से टीपू की तलवार खरीदने के लिए 175,000 पौंड खर्च कर दिए। इसी तरह महात्मा गांधी के चश्मे और वर्तन न्यूयार्क से खरीदने के लिए 18 लाख डालर दांव पर लगा दिए। विजय माल्या भारतीय मध्यवर्ग के सपनों में विचरने वाले एेसे उद्योगपति हैं जिन्हें नई योजनाएं हमेशा सूझती रहती हैं। अब देखना है कि अपनी विमानन कंपनी को बचाने के लिए वे कौन सा शिगूफा छोड़ते हैं और तब बीयर की पार्टी होती है या व्हिस्की की?

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...