Tuesday, May 28, 2013


गांधी को माओ की बंदूक न थमाओ
सुकमा जिले की घटना ने सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को धो कर रख दिया है, जो उसने मानवाधिकार, राज्य के कर्त्तव्य और आदिवासियों के हक के नाम पर दिया था। आखिर जो लड़ाई आदिवासी और परोक्ष तौर पर माओवादी जीत चुके थे, उसका जश्न महेंद्र कर्मा को मारकर मनाने की क्या जरूरत थी? छत्तीसगढ़ की माओवादी हिंसा न सिर्फ निंदनीय है बल्कि क्रांति के शास्त्रीय सिद्धांतों से विचलन भी है। पं. सुदंरलाल कहते थे कि अगर माओ के हाथ में गांधी की लाठी थमा दें तो वे गांधी लगेंगे और गांधी के हाथ में बंदूक थमा दो तो वे माओ लगेंगे। जरूरत गांधी के हाथ में लाठी की ही है और हो सके तो माओ के हाथ में भी लाठी थमायी जानी चाहिए
छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने महेंद्र कर्मा को जिस तरह से मारा, उससे जाहिर होता है कि समाज में बदलाव और विजय उनका लक्ष्य नहीं है बल्कि हिंसा, प्रतिहिंसा और बदला लेने का रोमांच ही उनका असल मकसद है क्योंकि वह महज हत्या और वीरोचित हत्या नहीं थी, बल्कि मौत और क्रूरता का तांडव था। अगर यही माओवाद है तो स्पष्ट तौर पर उससे किसी नए राज्य और नए समाज की रचना नहीं होती। महेंद्र कर्मा को मारे जाने के पीछे साफ वजह सलवा जुड़ूम को बताया जा रहा है। सलवा जुड़ूम यानी शांति मार्च के नाम से उन्होंने जो नक्सल विरोधी अभियान शुरू किया था, वह शांति लाने के बजाय आपसी हिंसा का पर्याय बन गया था। वह विफल रहा और निंदनीय भी था पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि उसकी सबसे ज्यादा कड़ी और वैधानिक निंदा सुप्रीम कोर्ट ने की। नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ के मुकदमे में न्यायालय ने उस अभियान को न सिर्फ मानवाधिकार का उल्लंघन बताया बल्कि राज्य सरकार को उसे तत्काल बंद करने की सख्त हिदायत भी दी थी।
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वजहों से महेंद्र कर्मा को मारा गया, वे वजहें तो समाप्त हो चुकी थीं और अगर माओवादियों और उनके समर्थकों को आदिवासियों के अधिकारों की चिंता है तो उसकी जीत हो चुकी थी। कम से कम उन्हें यह तो मानना ही होगा कि भारतीय राष्ट्र राज्य और उसकी न्यायपालिका में यह संभावना है कि वह न सिर्फ सलवा जुड़ूम जैसे नक्सलवाद विरोधी जन अभियान को सिरे से खारिज करता है बल्कि आदिवासियों के हक को नवउदारवाद के माध्यम से छीने जाने की कड़ी आलोचना भी करता है। यह वही सर्वोच्च न्यायालय है जो विनायक सेन को माओवादियों का जासूस बताकर सजा दिए जाने को भी नकारने का साहस दिखाता है। ध्यान देने की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के सलवा जुड़ूम के फैसले की दक्षिणपंथी नीतिकारों ने यह कहते हुए कड़ी आलोचना की थी कि न्यायपालिका में वामपंथी बौद्धिकों का कब्जा हो गया है और वे संविधान को अपने ढंग से हांकना चाहते हैं। उनका आरोप था कि वे देश के विकास की रफ्तार को रोककर उस पर समाजवाद का भार डाले रहना चाहते हैं। पर सुकमा जिले की दरभा घाटी की घटना ने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को धो कर रख दिया है जो उसने मानवाधिकार, राज्य के कर्त्तव्य और आदिवासियों के हक के नाम पर दिए थे। आखिर जो लड़ाई आदिवासी और परोक्ष तौर पर माओवादी जीत चुके थे, उसका जश्न महेंद्र कर्मा को मारकर मनाने की क्या जरूरत थी? यह कहीं से भी माओवाद और क्रांति का दशर्न नहीं है बल्कि हिंसा का दशर्न है जिसके आधार पर जो भी राज्य बनेगा, वह हाथ के बदले हाथ और आंख के बदले आंख के दर्शन में यकीन करेगा। इस हिंसा का असर क्या होगा, यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन इस पर क्षणिक तौर पर माओवादी जीत का अहसास करेंगे और आदिवासियों को हिंसा के नए रोमांच में ढालने की कोशिश करेंगे। संभव है, इस हिंसा से उनके शहरी समर्थक भी खुश हों, जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की हारी हुई लड़ाई और भारतीय राज्य की क्रूरता और अंतरराष्ट्रीय पूंजी को चुनौती देने का यही एक रास्ता है। पर यह रास्ता न तो कहीं से पूंजी का खेल रोक पा रहा है न ही आदिवासी समाज के जीवन को अपेक्षित बेहतरी दे पा रहा है। अगर बुर्जुआ राजनीति के चुनावी लोकतंत्र ने महेंद्र कर्मा जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता और आदिवासी समाज के एक जुझारू व्यक्ति को उठाकर अपने ही समाज का दुश्मन बना दिया तो माओवादी भी सैकड़ों आदिवासियों को हिंसक और अपराधी बना रहे हैं। उनका संघर्ष और उसके लिए संसाधनों का इंतजाम जिस तरह के स्रेतों पर निर्भर है, वह अवैध कमाई ही होती है।उनके बंद संगठन में स्त्रियों और दलितों के अधिकार कितने सुरक्षित हैं, इस बारे में भीतर से आने वाली तमाम खबरें चौंकाने वाली कहानी कहती हैं। कभी दलित सवर्णों के लिए बंदूक उठाने से मना करते हैं तो कभी स्त्रियां दैहिक शोषश की शिकायत कर विद्रोह करती हैं। भारत का यह माओवाद जहां गांधीवादी संघर्ष की विफलता से पैदा हुआ राजनीतिक प्रतिरोध है, वहीं वह माओ त्से तुंग के दशर्न से भी भटका हुआ है। जीवन के अंतिम दिनों में आलोक प्रकाश पुतुल को दिए एक इंटरव्यू में नक्सलबाड़ी आंदोलन के नायक रहे कानू सान्याल ने कहा था कि दरअसल माओवाद जैसी कोई चीज होती ही नहीं हैं। उनका मानना था कि माओ भी मार्क्‍सवाद और लेनिनवाद को मानते थे। इसलिए जन संघर्ष के इस सिद्धांत को कानू सान्याल मार्क्‍सवाद लेनिनवाद और माओ के विचार की संज्ञा देते थे। उनका कहना था कि भारतीय क्रांतिकारी पूरी दुनिया की क्रांतियों से सबक लेंगे पर भारतीय क्रांति होगी तो भारतीय तरीके से। यह बात लेनिन और माओ ने भी मानी है कि अगर उनके सामने आज की तरह संसदीय संघर्ष और चुनावी लोकतंत्र का रास्ता उपलब्ध होता तो शायद उन्हें इतनी बड़ी हिंसा का सहारा न लेना पड़ता। अमेरिका के अग्रणी मार्क्‍सवादी नेता बॉब अवेकिन माओवादी माने जाते हैं। उन्होंने साफ तौर पर सचेत किया है कि कम्युनिस्टों को अपना मकसद हासिल करने के लिए सच को विकृत नहीं करना चाहिए। क्रांति के बारे में वे साफ तौर पर कहते हैं कि-क्रांति न तो बदला लेने की कार्रवाई है और न ही मौजूदा वर्गीय ढांचे में कुछ स्थितियां बदले जाने की प्रक्रिया है, बल्कि यह संपूर्ण मानवता की मुक्ति का उपक्रम है। उनकी इसी बात को बहुत पहले भारत के महान क्रांतिकारी शहीदे आजम भगत सिंह ने भी अपने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ वाले लेख में माना था कि जनता की बड़े परिवर्तन की लड़ाई अहिंसक ही होगी। छत्तीसगढ़ की माओवादी हिंसा न सिर्फ निंदनीय है बल्कि क्रांति के शास्त्रीय सिद्धांतों से विचलन भी है। आज भले ही भारतीय रक्षामंत्री एके एंटनी कह रहे हों कि माओवादियों पर सेना का प्रयोग नहीं होगा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कानून के काम करने की बात कर रहे हैं लेकिन दरभा घाटी की यह हिंसा स्पष्ट तौर पर दो तरह से रास्ते खोलती है। एक रास्ता फिर उन्हीं कांग्रेसियों की वापसी की तरफ जाता है जिनकी नीतियों ने आदिवासियों को असुरक्षा और अस्तित्व के संकट में डाल रखा है। दूसरी तरफ यह हमला नरेंद्र मोदी जैसे दक्षिणपंथियों के आगमन का मार्ग प्रशस्त करता है और हमारा कॉरपोरेट वर्ग उसी के लिए लालायित है। इस मार्ग से निकलने का तीसरा विकल्प है गांधीवादी तरीके से शोषणविहीन और समतामूलक समाज की तलाश। भारत गांधी का देश है, माओ का नहीं। पंडित सुदंरलाल कहते थे कि अगर माओ के हाथ में गांधी की लाठी थमा दें तो वे गांधी लगेंगे और अगर गांधी के हाथ में बंदूक थमा दो तो वे माओ लगेंगे। जरूरत गांधी के हाथ में लाठी ही रखने की है और हो सके तो माओ के भी हाथ में लाठी ही थमायी जानी चाहिए।


अरुण त्रिपाठी

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गहमा-गहमी...