Sunday, March 3, 2013

यादें याद आती हैं...



महानगर की इस भाग दौड़ में कभी-कभी लगता है कि क्या सचमुच किसी को भूला जा सकता है? क्या यादों के लिए जगह सिमटने लगी है? क्या कि सी के न रहने की जो रिक्तता है वह किसी और से भरी जा सकती है? लेकिन नहीं जब बात किसी प्रिय की हो तो अपनी या पराई लाख व्यस्ततों के बीच उसकी सुखद-दुखद यादें स्मृतियों में कौंध जाती हैं।
मुझे याद आ रही हैं कि आज ही के दिन दो साल पहले छूटे उस भाई, गुरु और सखा की, जिसके निधन की खबर सुनकर फौरन निगम बोध घाट पर जैसे-तैसे भागा था। मेरे शुभचिंतक पूजा सिंह और रंजेश शाही ने मुझे रात एक बजे से कई बार फोन किया, लेकिन मैं सो रहा था और जब फोन पर उनका मैसेज देखा तो थोड़ी देर के सन्न रह गया। तबीयत तो ज्यादा खराब थी, लेकिन इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे ऐसा नहीं सोचा था। मैं गोरखपुर के चर्चित पत्रकार रोहित पांडेय की बात कर रहा हूं। आज उनकी दूसरी पुण्यतिथि है।
दरअसल दो दिन पहले पूजा को फोन किया था और उससे पूछा कि रोहित भाई की पुण्यतिथि पर कुछ करने की सोच रहा हूं। उसने अपनी तरफ से समर्थन की हामी भर  दी। लेकिन अंत तक मैं असमंजस में रहा कि क्या करूं। मुझे रंजेश की बात याद आई जो उसने निगम बोध घाट पर कही थी। उसने कहा था, ‘‘अभिनव, रोहित सर हम सबके बीच एक पुल की तरह थे। वैसे तो हम दिल्ली में रहते हैं, लेकिन उनके बहाने सबसे मुलाकात हो जाती है।’’ एक बार सोचा कि क्यों न फिर हम सब मिलें और कुछ यादों को साझा करें। बहरहाल, सभी  की अपनी व्यस्तता और शायद मेरा निकम्मापन भी, मैंने किसी को कुछ नहीं कहा.
रोहित भाई ने बहुत कम समय में जिंदगी के कई उतार-चढ़ाव देखे। कभी-कभी लगता है कि गोरखपुर को उन्होंने ‘ठीक से’ समझा और शायद गोरखपुर ने उन्हें भी ‘ठीक से’ ही समझा। मृत्यु के बाद हमारे यहां ‘महान’ बना देने की परंपरा है, लेकिन मैं बिना किसी लाग-लपेट के कहूंगा कि जितना मैं जान पाया कि रोहित भाई महान की श्रेणी में नहीं थे और उनको इसकी कभी  लालसा भी  नहीं थी। जिसकी लालसा थी वह अधूरी ही रही। कुछ संयोग ऐसा रहा कि उनकी मृत्यु के दो साल पहले से उनका दिल्ली आना-जाना लगा रहा और इस बीच हम सबसे मिलना-जुलना भी। हम ठीक से उन्हें इसी बीच जान पाए। कभी  खुद फोन कर बुलाते तो कभी  हम बिना बताए पहुंच जाते। केवल मैं नहीं, पूजा तो उनकी पड़ोसन थी और रंजेश भी  प्राय: आता था। यह रोहित भाई का स्नेह ही था कि हम उनके सामने बैठकर घंटों किसी भी मुद्दे पर बिना उनकी सहमति-असहमति के बात कर सकते थे। वह बिना किसी का पक्ष लिए अपनी बात रखते। कई बार ऐसा हुआ कि मेरी और पूजा की तीखी बहस उनके सामने हुई, लेकिन बिना किसी निष्कर्ष के खत्म भी हो गई। तब तुरंत भाई की कोई अपनी राय नहीं होती थी। किसी को बढ़ावा न किसी की खिंचाई। एक संतुलित दर्शक और रह-रह कर दोनों की तरफ से हामी। दरअसल मैं, पूजा और रंजेश उनके शिष्य हैं। वह पूजा के सच्चे अर्थों में मित्र थे। और, सच कहूं तो थोड़ी देर बाद भाई के साथ रहने पर कोई भी  उनसे खुल सकता था और उससे वह उसके ‘जियरा’ का हाल-चाल पूछ सकते थे।
बेबाकी ऐसी की नापसंदगी पर गाली भी  फरार्टेदार और फिर चाय की दावत भी। उनके पढ़ाए गए लगभग सभी छात्रों को ‘भौजी’ की चाय याद है। ऐसा नहीं है कि गोरखपुर के सभी पत्रकार उनके शुभचिंतक ही थे या वह सब पर जान लुटाते थे। कुछ ऐसे लोग भी मिले जो उन्हें पीठ पीछे कुछ भी कहने से नहीं चूकते थे। वजह, विश्वविद्यालय से लेकर प्रेस क्लब की राजनीति में उनका हस्तक्षेप या वैचारिक मतभेद।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कुछ मामलों में मैं उनका धुर विरोधी था। हमारा टकराव विचारधारा को लेकर था। अंतिम समय में उन्हें और करीब से जानने का मौका मिला। वह पूरी तरह से संघी थे और खुलकर कहते भी थे, जबकि मेरा झुकाव वाम की तरफ था (है)। वह कम्युनिज्म को अन्य संघियों की तरह आयातित विचारधारा मानते थे और मेरा मानना था कि विचारधारा कहीं की हो, यह कितनी सार्थक है, यह समझने की जरूरत है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अधिकतर लोगों की सोच अभी धर्मनिरपेक्ष नहीं है। दुनिया के नए विचारों और नई अवधारणाओं को कभी जानने, समझने की कोशिश वहां पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग कभी  नहीं करता है (मैं प्रबुद्ध नहीं हूं, लेकिन  मैं भी  नहीं कर पाया)। लेकिन जब आप गोरखपुर या ऐसे किसी शहर से बाहर जाएंगे तब आपको केवल भारत नहीं, बल्कि विश्व की गतिविधियों के बारे में जानने, सोचने, समझने की जरूरत पड़ेगी। मेरे अभी  कई मित्र और विश्वविद्यालय के जानने वाले शिक्षक हैं, जो कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं करते, ब्लाग, मेल या ई पेपर उन्हें नहीं पता। दुर्भाग्यवश उन्होंने कभी जानने की कोशिश भी  नहीं की। बहरहाल, विचारधारा के निर्माण में तकनीक का प्रयोग भी प्रभावी रूप से उभरा है।

रोहित भाई मेरी भी जबरदस्त आलोचना करते थे, पीठ पीछे नहीं, मुंह पर, सरेआम (यही उनकी खासियत थी)।लेकिन कई बार यदि उनकी शर्ट की तारीफ करता था तो बस मुस्कुराते हुए ये कहकर चुप कि अरे ज्यादा नहीं, बस 25 रुपये मीटर के कपड़े की है। मतलब आलोचना अपनी जगह और सम्बन्ध अपनी जगह. पैसा उनके लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। ऐसे कई पत्रकार हैं जो खबर बेचकर मालामाल हैं, लेकिन वह अपना खर्च कर पत्रकारिता करते थे। उनका साफ कहना था, ‘‘सभी संपादकों से तुम्हारे अच्छे संबंध हो सकते हैं, बस उनसे नौकरी मत मांगो।’’

एक वाकया याद आता है। अंतिम दिनों में निराश हो गए थे और एक दिन कहा, ‘‘बाबू ऐसा लगता है कि अब बचना मुश्किल है।’’ मैंने कहा, ‘‘जो आप किसी के हाथ में नहीं है उसकी चिंता छोड़िये, कल आबिदा परवीन (पाकिस्तान की मशहूर सूफी गायिका) को सुनने चलते हैं, सूफी गाएंगी तन-मन एक हो जाएगा।’’ भइया उत्साह से चलने के लिए तैयार हो गए। मेरी छुट्टी थी, हम पहले पहुंच गए। आबिदा का गाना शुरू होने में देर थी। लम्बी बातचीत हुई। अचानक उनका मन तीन-चार गानों के बाद बेचैन हो गया।  ऐसा लगा कि वह कुछ सोच रहे हैं। घबराए से बोले, ‘‘चलो अब चला जाए। मन नहीं लग रहा है।’’ आत्मा और परमात्मा, दोनों मे रोहित भाई का दृढ़ विश्वास था और आबिदा का सूफियाना कलाम रूह तक जाता था। वह अभी रूह से कोई संवाद नहीं करना चाहते थे।  हम लौट आए।
भाई ने तीन दिन तक कोई बात नहीं की। एक दिन रात को तीन बजे उन्होंने एक कविता एसएमएस की। मैंने तुरंत उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’ लेकिन उनकी कविता में निराशा साफ झलक रही थी। मैंने उसे नोट क्र लिया अभी बहुत खोजने के बाद भी  वह कविता नहीं मिली, फिर कभी साझा करूंगा।
कभी-कभी  मुझे लगता कि क्या उन्होंने जीने की आस सचमुच छोड़ दी थी? लेकिन अगले ही पल मुझे उनकी मूलचंद अस्पताल की हालत याद आती है। उनके बड़े भाई  ने मुझे फोन किया, ‘‘रोहित मूलचंद अस्पताल में भर्ती हैं तुम आ जाओ।’’ मैं कुवैत एम्बेसी में एक प्रेस कांफ्रेंस में था। भागा-भागा गया उनकी वह स्थिति देखी, जिसकी कल्पना नहीं कर सकता था। वह छटपटा रहे थे, बेचैन थे। ये बेचैनी दर्द की थी, जीजीविषा की थी। वहां से उन्हें फिर एम्स ले जाया गया, लेकिन वहां भी बेड की दिक्कत आ रही थी। डॉक्टर का साफ कहना था कि अब घर ले जाओ। लेकिन उनकी वह स्थिति देखकर रूह कांप गई। जब दर्द होता था तो किसी की नहीं सुनते थे। मुझसे वह स्थिति देखी नहीं जा रही थी और मैं कुछ देर रुकने के बाद चला गया।
उन्हें अभी  बहुत कुछ करना था। बहुत कुछ लिखना था, कई अधूरे ख्वाब पूरे करने थे। आखिर बच्चों के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया था, थिसिस भी  अधूरी थी। दिल्ली में पत्रकारिता का सपना बस सपना रह गया। यह भी अजीब विडंबना है कि उनके पढ़ाए हुए लोग आज अखबारों और चैनलों में विभिन्न पदों पर हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी भी अखबार ने बतौर रिपोर्टर नौकरी नहीं दी और न इतना पैसा कि वह अपने बाद अपने परिवार के बारे में सोच सकें । जब बात स्थाई करने की आई तो ऐसी स्थिति नहीं रही। लेकिन गोरखपुर के पत्रकारों का उनके प्रति स्नेह ही था कि उन लोगों ने उनकी हर तरह से मदद की।
रोहित भाई भी  अपने शिष्यों, मित्रों और जानने वालों के लिए हमेशा खड़े रहे। अंतिम समय तक लाभ लेने वालों ने उन्हें नहीं छोड़ा। डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद वह उनसे बात करने वालों के फोन सुनते थे। लेकिन कभी अपने लिए किसी से कुछ नहीं कहा।
प्रभाष जोशी सहित कई ऐसे पत्रकारों,साहित्यकारों से उनका गहरा लगाव था। प्रभाष जी के निधन की खबर उन्होंने सुबह मुझे फोन पर दी थी और खराब सेहत के बावजूद उनके घर गए थे। अभी पिछले साल जब काशीनाथ सिंह को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तो मैं उनका इंटरव्यू करने गया था। जब मैंने उनसे उनकी रचना ‘रेहन पर रग्घू’ को लेकर बात की तो उन्होंने रोहित पांडेय का नाम लिया। उनका कहना था, ‘‘इस पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में रोहित ने मेरा पहला इंटरव्यू लिया था।’’
मेरे लिए इन सब बातों को याद करना एक बार फिर उस पीड़ा से गुजरना है। बहुत कुछ है और बहुत यादें हैं, लेकिन कुछ ऐसा भी है जिसका अपराधबोध होता है, जैसे- अब हम दिल्ली में रहने वाले दोस्त आपस में नहीं मिल पाते। दिल्ली में उनके भाई के घर मार्च 2011 के बाद फिर मैं जाने की हिम्मत नही जुटा पाया। मैं एक बार भी  उनकी पत्नी और बच्चों का हाल-चाल नहीं ले पाया।
ऐसा लगता है कि हम सचमुच कंक्रीट के जंगल में संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। हम मशीन हो रहे हैं, जो जड़ है जिसके चलने की ध्वनि तो है, लेकिन गति नहीं है। और इसके जिम्मेदार हम खुद हैं। अब कोई ऐसा नहीं है हमारे बीच  जो फकीरी का मतलब समझाए, बताए, बुलाए और लड़ने का जज्बा पैदा करे। आज मेरे जैसे पत्रकारिता में ही नहीं बहुत से  क्षेत्रों में उनके जानने वाले लोग हैं जो उनके आत्मीय हैं जिनके पास काफी कुछ हैं उनके बारे में कहने के लिए, गिले-शिकवे भी होंगे तो स्नेह भी होगा। मेरे पास भी है बहुत कुछ लेकिन कुछ साझा कर रहा हूँ।
उनकी कमी, उनका स्नेह, उनसे मतभेद, सबका अपना स्थान है। और इसके साथ ही मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि देता हूँ।  रोहित भाई, आपकी मौजूदगी की यादें आज आपकी गैर मौजूदगी में भी हमें रास्ता दिखाती हैं और सदा दिखाती रहेंगी।

नमन! 

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...