Wednesday, January 27, 2010

पसंदीदा लोगों की पसंदीदा पुस्तकें


साहित्य से प्रेम मानवीय स्वभाव है और पढ़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया आइए जानते हैं विगत वर्ष विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को कौन-कौन सी पुस्तकें पसंद आई। बात तो बहुत लोगों से करनी थी लेकिन उपलब्ध इतने लोग ही हो सके-

राजेन्द्र यादव- वैसे तो इस वर्ष मैंेने कई किताबें पढ़ी हैं लेकिन हिन्दी भाषा की बात है तो लता शर्मा का उपन्यास ‘उसकी नाप के कपड़ेज् पढ़ा। इसमें एक स्वतंत्र लड़की की कहानी है जो खूबसूरत है और अपनी मेहनत से एक मशहूर अभिनेत्री बनती है। उसके पास करोड़ों रुपए आते हैं लेकिन उसे अपने ही लोगों द्वारा धोखा मिलता है। उसका अपना भाई ही उसकी प्रापर्टी बेंच देता है। वह बीमार पड़ जाती है पैसे के अभाव में उसे अस्पताल से बाहर निकाल दिया जाता है। और वह अपने गहने और कुछ सामान लेकर एक छोटा सा घर लेती है और फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करती है और अंत में अभाव में मर जाती है। इस उपन्यास ने यह सवाल खड़ा किया है कि किस तरह पूंजीवाद स्त्रियों को स्वतंत्र करता है और फेंक देता है। यहां अब लड़कियों को इससे आगे सोचना होगा कि शरीर उनकी है और इसका इस्तेमाल वह स्वयं करती हैं। क्या वह ऐसे ही शोषित होती रहेंगी? उन्हे इसके बारे में सोचना होगा।

अनामिका- पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर आई पुस्तक बिल्कुल कबीर के अंदाज में लिखी गई है। कत्थ्य और भंगिमा में लिखी गई अच्छी पुस्तक है। यह आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई है। निधि और संवेद अनुभव में लिखी गई यह पुस्तक कोमल कोलाहल मन से शांति की बात करती है। हालांकि आलोचना की पुस्तक एकेडमिक भाषा में लिखी जाती है लेखक ने इसमें अपनी ही स्टाइल को तोड़ा है। यह ऐसे समय में आई है जब हमें कबीर की जरुरत है।

उदय प्रकाश- इस वर्ष जब मैं जर्मनी में था तो वहां जहांआरा बेगम की जीवनी पढ़ी जो उन्होंने लिखी थी उसका अंग्रेजी में अनुवाद आया है। उस किताब में मुगलकाल की स्थिति को काफी सही तरीके से दर्शाया गया है। उसमें दारा शिकोह और औरंगजेब की स्थिति को भी बताया गया है। उसमें बताया गया है कि औरंगजेब कितना क्रूर और चालबाज था। जहांआरा बेगम दाराशिकोह को ही दिल्ली की सल्तनत पर बैठा हुआ देखना चाहती थी। उनका राजस्थान के एक राजपूत से प्रेम भी करती थी। अगर दाराशिकोह सुल्तान बनता तो उनकी यह आरजू शायद पूरी हो जाती। इस जीवनी को एक बहन ने बड़ी सच्चाई के साथ लिखा है। यह उनका उस समय का व्यक्तिगत अनुभव है।

विश्वनाथ त्रिपाठी- हमने इस साल जो किताबें पढ़ी उनमें दो कि चर्चा करना चाहूंगा। पहली तो कृष्णा सोबती की पुस्तक मित्रों मरजानी कहानी है जो अब नए कलेवर में आई है। नरेन्द्र श्रीवास्तव ने इसे टाइपोग्राफिकल व्याख्या के साथ छापा है। इसमें जो टेक्स्ट दिया गया है उसके दूसरी तरफ उसके चित्र दिए गए हैं। हिन्दी में संभवत: यह पहला प्रयोग है।
दूसरी पुस्तक बिहार के लेखक राकेश रंजन का कविता संग्रह ‘चांद पर अटकी पतंग ज् है। यह कविता की बेहतरीन पुस्तक है। इसमें देशज और भदेश शब्दों से सजी एकदम नए ढंग की कविताएं हैं। इस कविता में शब्दों का जीवन सुरक्षित है और जीवन के साक्षात अनुभव हैं। लेखक में राजनीतिक और आंचलिक समझ भी है।

कैलाश वाजपेयी- इस साल कुं वर नारायण की पुस्तक पढ़ी लेकिन हिमांशु जोशी के संपादन में प्रतिनिधि अप्रवासी हिन्दी कहांनियां बहुत ही अच्छी किताब है। संग्रह बहुत ही रोचक है। इसमें भारत में न रहने वालों भारतीयों के दर्द और समस्या के साथ पारिवारिक र्दुव्‍यवस्था को भी बताया गया है। इसमें उनकी सूक्ष्म पीड़ा भी दिखाई देती है। कीर्ति चौधरी की कहानी जहांआरा, दिव्या माथुर की फिर कभी सही, नार्वे में रहने वाले अमित जोशी की वीजा कहानी विशेष रूप से अच्छी लगी। इसमें जो घुटन है वह भारत में रहकर महसूस नहीं की जा सकती। हिमांशु जोशी का चुनाव भारतीय परिवेश के बाहर का है। लेकिन यह वहां के समाज की पेंचदार सहमतियां और असहमतियां दर्शाता है। ये हिन्दी साहित्य में नए क्षितिज की कहानियां हैं।

अर्चना वर्मा- पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक कबीर पर अकथ कहानी प्रेम की एक बेहतरीन पुस्तक है। यह हिन्दी समीक्षा और मध्य कालीन समीक्षा एवं समकालीन समीक्षा के भीतरी परिवर्तन को दिखाने वाली किताब है। यह हिन्दी में उत्तर औपनिवेशिक दृष्टिकोण हिन्दी में दिखाई देता है। यह पुस्तक पश्चिमी दर्शन से लोहा लेते हुए भारतीय दर्शन को दर्शाती है कि हमें खुद की पहचान करनी चाहिए। इसमें स्पष्ट रूप से दिखता है कि लेखक ने कई पांडुलिपियां पढ़ी हैं। यह पुस्तक हिन्दी के हर पाठक के पास होनी चाहिए।

जावेद अख्तर- इस वर्ष मैंने कई किताबें पढ़ी लेकिन जो सबसे अधिक पसंद आई या जिसकी मैं चर्चा करना चाहता हूूं वह किताब, रिचर्ड डाकिं स की गॉड डिलजन। लेखक ने इतिहास, विज्ञान और अन्य तत्थ्यों से जानकारियां जुटा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि ईश्वर नहीं है जबकि बहुत सारे लोगों को यह विश्वास है कि ईश्वर है। ईश्वर इंसान का भ्रम है। यह पुस्तक भगवान की अवधारणा को खंडित करती है।

शोभना नारायण- इस बार साल के अंत में सुजाता विश्वनाथन की पुस्तक द कोकोनट वाटर पढ़ा। यह पुस्तक एक सामाजिक समस्या को दर्शाती हुई साधारण कहानी है। इसमें प्रवासी भारतीय की कहानी और एक आम परिवार में होने वाली समस्या को दर्शाया गया है जो मानव जीवन के काफी करीब है। लेकिन अंतत: एक मानव द्वारा परेशानियों से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना अच्छा लगा। यह उपन्यास यह सीख देता है कि यदि आपने दृढ़ इच्छा शक्ति है तो आप अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे।

मंगलेश डबराल- इस साल कविता संग्रह में वीरेन्द्र डंगवाल का कविता संग्रह स्याही ताल पढ़ा। इसे कुंवर नारायण के कविता संग्रह हाशिए का आदमी के बाद पढ़ना सुखद रहा। इसमें वीरेन्द्र एक समर्थ कवि के रूप में आते है। इसमें उनकी काव्यात्मक ऊंचाई दिखाई देती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि कविता कहीं से भी शुरु हो सकती है। अनुभव का कोई टुकड़ा कविता बन सकता है। यह कविता संग्रह नए तत्थ्य और नए विन्यास के लिए जाना जाएगा। इसमें छोटे-छोटे अनुभव को बड़े यथार्थ से चीड़-फाड़ करते हुए दिखाई देते हैं।

मैनेजर पांडेय- इस साल मुङो एक लघु उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवताज् पढ़ी जिसके लेखक झारखंड के रणेन्द्र हैं। आदिवासी समुदाय पर आधारित यह पुस्तक यह बताती है कि किस तरह भारतीय समाज में सदियों से आदिवासियों का दमन, शोषण और अपमान किया जा रहा है। यह उपन्यास उसी की कहानी है। इस उपन्यास से ही मुङो मालुम हुआ कि असुर नाम की एक जनजाति भी है। असुर नाम आते ही प्राचीन भारत असुरों के संघर्ष की कथाएं सामने आने लगती हैं। भूमंडलीकरण के दौर में भी आदिवासियों के दमन का चित्रण किया गया है। यह बहुत ही संवेदनशील और प्रभावशाली उपन्यास है।
सुधीश पचौरी- इस साल नंद किशोर आचार्य का कविता संकलन ‘उड़ना संभव करता आकाशज् पढ़ी। अच्छा संकलन है। इसमें छोटी-छोटी नए ढंग से लिखी गई कविताएं हैं। जिसमें कोई चीख पुकार नहीं है जसा प्राय: आजकल की कविताओं में देखने को मिलती है। सहज अनुभवों को समेटती यह कविता संकलन अच्छा लगा। इसमें मुख्यत: स्थितियों की विद्रुपताओं और विडम्बनाओं का चित्रण है।

दिन का पता नहीं लेकिन, इस दिन झंडा खूब बिकता है ......



भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां लोक मत से चुनाव होता है। 61 वां गणतंत्र दिवस लोग धूमधाम से मना रहे हैं। यह बात भारत का बुद्धिजीवी वर्ग भले ही जानता हो लेकिन आज भी झुग्गियों में रहने वाले लोग इस दिन को नहीं जानते। संवाददाता जब इस दिन झुग्गियों के लोगों से इस संबंध में बातें करने निकला तो इस दिन का सबके लिए अलग-अलग मतलब था।
मसलन दिल्ली के दिलशाद गार्डेन के कलंदर कालोनी झुग्गी में बंदर नचाने वाला असलम खुश था। क्योंकि छुट्टी का दिन होने के कारण उसका तमाशा देखने वाले अधिक लोग थे और उसे इस बात की खुशी थी उसे गणतंत्र दिवस की कोई जानकारी नहीं थी हां लोगों को देखकर वह अपनी साइकिल में झंडा लगाना नहीं भूला था।
नंद नगरी झुग्गी के बाहर झंडो की दुकान लगाए 10 वर्षीय रसूल की खुशी ग्राहकों के आने से दुगनी हो रही थी। उससे यह पूछने पर, कि क्या उसे पता है कि लोग झंडा क्यों खरीद रहे हैं, क्या कोई विशेष दिन है? उसका कहना था कि उसे यह नहीं मालूम लेकिन इस दिन झंडा खूब बिकता है।
झुग्गी के बच्चों में इस दिन को लेकर खास उत्साह था इसकी वजह स्कूल का बंद होना भी था क्योंकि गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले ही स्कूलों में ध्वजारोहण हो चुका था।
बच्चों के अलावा युवा और बुजुर्ग भी इस मामले में पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे कि वास्तव में यह दिन कौन सा है। क्योंकि झिलमिल कालोनी झुग्गी निवासी 65 वर्षीय रामसूरत का कहना था कि हमें दिन का पता नहीं लेकिन 26 जनवरी बचपन से मनाते आ रहे हैं पिता जी बताते थे कि इस दिन गांधी बाबा ने देश को आजाद किया था। लोगों को इस दिन का पता नहीं था लेकिन लोगों ने अपने घरों के बाहर झंडा लगा रखा था और देश भक्ति गाने बजाए जा रहे थे।

Saturday, January 23, 2010

मुश्किल है सखाराम बाइंडर से उपजे सवालों के जवाब



मुङो अपने संस्थान की तरफ से लगातार 12वां भारत रंग महोत्सव की रिपोर्टिग करने के लिए कहा गया था। जिसमें कुछ पसंदीदा नाटक देखने को मिले। इसमें एक नाटक सखाराम बाइंडर भी था जो अपने समय का विवादित नाटक था। इसमें सखाराम का किरदार उस भारतीय मानस की मनोव्यथा कहता है जो समाज की परवाह किए बगैर एक उन्मुक्तता चाहता है।
वह शराब पीता है, अय्याशी करता है, अश्लील गाली और बीड़ी हमेशा उसके मुंह में रहती है। पखावज मन से बजाता है, लेकिन वह भात नहीं खाता। गांव के और लोगों की तरह झूठ नहीं बोलता। सारे कुकर्म खुलेआम करना पसंद करता है। उसका जुमला है ‘झूठ की सजा काला पानी और पाप भी करो तो सीना ठोक करज्। यही नहीं, उसका मानना है कि वह ब्राह्मण के घर चमार पैदा हुआ है। उसे यह कहने में कोई डर नहीं कि वह अपने बाप से भी नहीं डरता तो भगवान क्या चीज है। यही नहीं, वह धर्मनिरपेक्ष भी है। दैहिक आवश्यकता पर उसकी बेबाक टिप्पणी है कि जिसने यह देह बनाई, वह इसकी खुजली भी जानता है।
नाटक अपने प्रारंभ से ही दर्शकों के लिए हास्य के साथ एक कौतूहल लेकर प्रस्तुत होता है कि नाटक का मुख्य पात्र सखाराम नायक के रूप में है कि इससे इतर भी इसका कोई चरित्र है। एक तरफ तो वह स्त्री मुक्ति की बात करता है लेकिन वहीं वह अपनी पत्नियों के प्रति काफी कठोर है। अंतत: नाटक की परिणति उसके हाथों उसकी सातवीं पत्नी की हत्या के रूप में होती है। लेकिन नाटक वहीं खत्म नहीं होता नाटक अनेकों ऐसे सवाल छोड़ जाता है जो न जाने कितनें नाटकों की पटकथा बनते हैं।
नाटक की शुरुआत ही सखाराम की छठीं औरत लक्ष्मी के आगमन के साथ होती है, जो किसी की परित्यक्ता है। वह उसे घर में रहने, कम बोलने, बाहरी लोगों से न बोलने और सारा काम बखूबी करने की सलाह देता है लेकिन साथ में यह हिदायत भी कि वह जब चाहे उसे छोड़ कर जा सकती है अपनी जरुरत का सामान भी ले जा सकती है। उसे विदा करते वक्त वह किराया देना नहीं चूकता। एक साल रहने के बाद दोनों एक दूसरे से ऊब जाते हैं और लक्ष्मी अपने भतीजे के घर चली जाती है। सखाराम अब एक हवलदार की बीवी चंपा को लाता है जो हवलदार से ऊब चुकी होती है। वह चरित्रहीन है और सखाराम की आज्ञा बिल्कुल नहीं मानती। अंतत: सखाराम की पत्नी लक्ष्मी को उसका भतीजा चोरी के आरोप में निकाल देता है और फिर एक बार सखाराम के न चाहने पर भी उसकी पत्नी चंपा लक्ष्मी को अपने यहां नौकरानी के रूप में रख लेती है, लेकिन एक आपसी झगड़े में लक्ष्मी सखाराम को चंपा के चरित्र के बारे में बता देती है और वह उसकी हत्या कर देता है। इसी के साथ नाटक खत्म हो जाता है लेकिन वह बहुत से ऐसे सवाल छोड़ जाता है, जिसका जवाब तथाकथित सभ्य समाज के लिए आसान नहीं है।
इसमें परित्यक्ता पत्नी लक्ष्मी का चींटे से बात करना, सखाराम बाइंडर द्वारा चंपा को घर से निकाल देने के नाम पर शराब पीकर उसका शरीर सौंप देना और सखाराम द्वारा सम्भ्रांत कहे जाने वाले लोगों के ऊपर कटाक्ष दर्शकों को झकझोर देते हैं। ‘सखाराम बाइंडरज् नाटक जीवन की नग्न वास्तविकता, दर्द और सामाजिक पुरुषवादी मानसिकता को चुनौती देता है। अश्लील संवाद और भरपूर गाली को लेकर दर्शकों को थोड़ी असुविधा हो सकती है, लेकिन कलाकारों का अभिनय सराहनीय है। हिमाचल सांस्कृतिक शोध फोरम एंड थिएटर रेपर्टरी के कलाकारों द्वारा मंचित यह नाटक मूलत: विजय तेंदुलकर द्वारा लिखा गया है, लेकिन नाटक का निर्देशन सखाराम की भूमिका निभा रहे सुरेन्द्र शर्मा ने की।

Thursday, January 14, 2010

निरहू देश को तुम पर नाज है

बुद्धिसागर स्नेही को प्यार से लोग सनेही जी कहते हैं। जब इनके ज्ञान का घोड़ा कुलांचें मारता है तो यह श्रमजीवी या परजीवी टाइप लोगों के बीच देखे जाते हैं और इनके ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। प्राय: यह उन्ही जगहों पर देखे जाते जहां इनको लोगों की भीड़ हो। एक खास बात यह कि किसी भी विषय पर केवल एक पान खाकर घंटों व्याख्यान दे सकते हैं। आइडियोलाजी को पीछे धकिया कभी ओसामा और कभी बुश के साथ हो सकते हैं। यही नहीं कभी सर्वहारा कभी बुर्जआ को गाली भी दे सकते हैं। उनके ऊपर पूंजीपतियों और कंगाल पतियों का दबाव भी काम नहीं करता। माजरा बस एक पान का है। राजनीति की उठापटक हो या मौसम में ठंड। बिना पंचांग और सेटेलाइट देखे यह निरंतर भविष्य बांचते रहते हैं। लेकिन भविष्यवाणी झूठ निकलने पर तकनीकि खराबी को दोष देना नहीं भूलते। और कोई जिद करता तो सीधे कहते कि मैं इन्द्र नहीं हूं कि जब मन करे बारिश भेज दूं या बहुप्रचलित राजनेताओं के उदाहरण दे देते यही नहीं लोगों की समस्या का समाधान भी बखुबी करते। इतनी खुबियों के कारण कभी लोग सायस या अनायास आ ही जाते। निरहू पुत्र घुरहू दमके दतिया दुति दामिनी लेकर सनेही जी के पास पहुंचे तो चेहरे से खुशी उछल रही थी । सनेही जी ने पूछा कि ये उमंग क्यों निरहू? निरहू ने प्रसन्न मुद्रा में कहा कि इस बार भी मैं बीए में फेल हो गया यह मेरा चौथा प्रयास था।
फेल होने पर इतना प्रसन्न चित्त? आपके चेहरे से निराशा और हया छू मंतर, सनेही जी चौंके! आशय निरहू ने स्पष्ट कर दिया कि इस बार वह क म नम्बरों से फे ल हैं। उनके चेहरे पर संतोष तैर रहा था कि अब सफलता पाने में एक या दो प्रयास और करने होंगे। बुद्धिसागर सनेही ने स्नेहपूर्वक निरहू को बैठाया काव्यात्मक मुद्रा में पूछा, निरहू देश को तुम पर नाज है, लेकिन बार-बार फेल होने का क्या राज है? क्या क्लास की सुंदरियां बन रही थी बाधा या जानबूझकर परीक्षक नम्बर कर देता था आधा? या इस मोहन की परेशानी है कोई राधा? निरहू ने कहा ऐसा नहीं है चाचा सनेही, ऐसी हरक तों पर होगी हमारी ही जवाबदेही। सच नहीं है ऐसी कोई बात, दरअसल पिता जी हर बार देते थे डांट। वह लीक से हटकर करने को कहते थे काम सो मुङो फे ल होने का काम लगा आसान। लेकिन अब माजरा बदल रहा है, मेरी नकल युवा तेजी से कर रहा है। इसलिए अब मैं थोड़ा चेंज करना चाहता हूं। और आपसे सलाह चाहता हूं। सनेही जी गंभीर मुद्रा में बोले बेटा, अब पढ़ाई छोड़ पालिटिक्स में आओ। तुम नेता बनो हमें प्रवक्ता बनाओ। इससे दोनों की रोटी चलेगी। और इसी तरह देश की गाड़ी आगे बढ़ेगी।

Sunday, January 10, 2010

मीडिया के मनोरथ नहीं

सुधीश पचौरी
(मीडिया समीक्षक)

पत्रकारिता का काम खबर लेना-देना है। डराना-धमकाना नहीं। मीडिया अगर किसी कमजोर के पक्ष में खड़ा होना चाहती है तो भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि कैसे खड़ा हुआ जाए।
मीडिया ट्रायल टीआरपी लेने के लिए एक हड़बड़ी की पत्रकारिता का ट्रायल है। यदि कोई व्यक्ति आरोपी हुआ तो उसे आरोपी नहीं कहते उसे सीधे तौर पर वहशी आदमी कहते हैं। मीडिया अपनी तरफ से सभी नकारात्मक विशेषण लगा देती है। जब तक कोर्ट द्वारा सिद्ध न हो जाए तब तक मीडिया को इतना ही कहना चाहिए जितना आरोप कहता है। उसे अपनी तरफ से विश्लेषित नहीं करना चहिए कि फलां आदमी राक्षस है। जसे निठारी में कोली और पंढ़ेर के मामले में हुआ था। इसी तरह आरुषी मामले में किया था। जसे एसपीएस राठौर के मामले में जो सीबीआई ने कहा है या न्यायालय ने कहा है उस आरोप को पढ़कर मीडिया कहता तो ठीक था अन्यथा मीडिया यह कहे कि वह राक्षस है, बेकार है आदि कहना भावनात्मक उत्तेजना पैदा करता है। मीडिया ट्रायल में पहले ही दोषी करार दे देते हैं हालांकि अभी न्यायालय का निर्णय आना बाकी होता है। कानून निष्पक्ष निर्णय देता है जबकि मीडिया को भी ऐसा करना चाहिए। मीडिया यदि आंदोलनकारी की तरह से भूमिका निभाए तो उसे एक या दो केस के बारे में भी सोचना चाहिए या हजारों केस के बारे में सोचना चाहिए। हां, यदि उसने कुछ मामलों में अच्छा किया है तो यह ठीक बात है इससे जागरूकता पैदा होगी। मीडिया कानूनों पर बहस कराए कि कैसे काम नहीं हुआ या कैसे अन्यायी को न्याय नहीं मिला या न्यायालय या पुलिस पर दबाव बनाना यह एक लोकतांत्रिक तरीका है। लेकिन यदि आप विशेषण लगा देते हैं कि यह गलत है तो आप बुनियादी पत्रकारिता के नियमों की अनदेखी करते हैं।
कई बार वह नियमों की अनदेखी करता है। हमारी भवनाएं कितनी भी भड़कें लेकिन कानून का मसला कानून में है। मीडिया मामलों को सामाजिक बना देता है। अब राठौर के मामले में जो उन्होंने किया वह गलत हो सकता है लेकिन यदि किसी के पीछे अभियान कर पीछे पड़ा जाए तो दया दोषी के प्रति होने लगती है। समाज में यदि कोई ताकतवर कमजोर को सता रहा हो तो मीडिया कमजोर के पक्ष में खड़ा हो। लेकिन कमजोर के पक्ष में भी कैसे खड़ा हो? एक सहयोगी की तरह या किसी और रूप में, क्या मीडिया के अपने मनोरथ नहीं हो सकते ।
मीडिया की हर जगह भूमिका एक जसी नहीं है। मुम्बई 26/11 वाले मामले में सनसनी वाली मीडिया थी। वहां पर भी मीडिया का गैर जिम्मेदारी वाला काम यह था कि घटनास्थल के साथ जो तमीज का संबंध बनना चाहिए वो नहीं था। वहां भी संवेदनशीलता नहीं दिखी। वहां पहले सरकार को कटघरे में खड़ा किया फिर मंत्री को खड़ा किया। कवरेज के चक्कर में मीडिया यह भूल गया कि आतंकी टीवी के जरिए भी अपने लोगों को संदेश दे सकते हैं। हमने अपनी बाइट दे देकर उसे बताया कि यहां मारो। लेकिन आदमी की जान की जहां कीमत हो वहां यह दिखाना दुश्मनों के लिए फायदेमंद है। अब यह कहना कि मीडिया होती तो बाबरी मस्जिद जसी घटना नहीं होती बिल्कुल गलत है क्योंकि मीडिया होती तो भी यह घटना होती, क्योंकि करने वाले करते हैं जसे आतंकवादी करते हैं।
मीडिया घटनाओं को रोक नहीं सकता लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष जनदबाव बना सकता है। लेकिन मीडिया जानता ही नहीं कि धर्मनिरपेक्षता कैसे पैदा किया जाए। मीडिया को पता नहीं है कि साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए क्या चीज है जो न दिखाई जाए। मीडिया ने आडवाणी की रथयात्रा को लगातार कवरेज देकर ताकत दे दी यदि वह ताकत नहीं देती तो ऐसा नहीं होता। आज मीडिया सबसे कम निवेश करके सबसे अधिक पैसा कमाना चाहती है इसलिए सेक्स, हिंसा और सिनेमा पर ज्यादा ध्यान है और महत्वपूर्ण मुद्दे छूटते जा रहे हैं। मीडिया हाउसों की कम से कम निवेश पर अधिक मुनाफे वाली बनियागिरी है।
इससे मीडिया का भविष्य बाधित नहीं होने जा रहा लेकिन शक्तिशाली लोगों के बीच में मीडिया ने अपनी एक ब्लैक मेलर की तरह अपनी कीमत बढ़ा ली है। लोग इसलिए मीडिया से डरते हैं। लेकिन मीडिया से लोग क्यों डरते हैं और पत्रकार अपने को डरावना क्यों जताना चाहता है? पत्रकार का काम खबर लेना-देना है न कि किसी को डराना। यह ठीक नहीं है, पत्रकारिता ब्लैकमेलिंग नहीं है। कुछ प्राइवेट मीडिया हाउसों ने इसके लिए आचार संहिता बनाई थी लेकिन वे लोग इसको भूल गए। ये केवल न्यूज में आचार-संहिता की बात करते हैं जिससे सरकार पर दबाव बनाया जा सके लेकिन बहुत से मामलों में इसका भी पालन नहीं करते।
-अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

Wednesday, January 6, 2010

भोर का तारा

कभी चांद था मेरा वो कभी रात अलबेली

भरी भीड़ में भी अक्सर कर जाता मुङो अकेली

बातें करता, रातें करता और करता गुस्ताखी।

लेकिन झट से मांग भी लेता था मुझसे वो माफी

गर हो जाए गुस्सा तो बस एक मुस्कान थी काफी।

अब जब वह सूरज बन बैठा किससे करूं गुजारिश

कोई आकर कर दे जलते अरमानों पर बारिश ।

धूप खिले या बादल छाए दाग हैं अब भी उजले

कैसे कहूं कि मिलते हैं अब वो बदले-बदले।

हम तो बस अब डूब गए थे लहरों के संग बहते

मांझी ने जब हाथ बढाया हम थे सहमे-सहमे।

मांझी का एहसास रुहानी नहीं कोई मजबूरी

फिर भी मैने रख ली है उससे थोड़ी दूरी....।

डर लगता है मुझको, फिर ऐसी कोई रात न आए

बातों-बातों में फिर उस जैसी कोई बात न आए।

दिल टूटे, ना सपने रूठे, फि र ना छोड़े अपना

शायद सच हो जाए, इस बार दिन का सपना।

लेकिन डरती हूं, फिर ना अतीत दुहराए

मैं राहों में खड़ी रहूं, और छोड़ मुङो चला जाए।

अभी बहुत कुछ कहना उससे, डरता है दिल हमारा

कहीं निकल ना जाए वो भी ‘भोर का तारा।

अभिनव उपाध्याय

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...