Monday, October 11, 2010

कहीं पर है कोई ऐसा, जिसे मेरी जरूरत है

राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान साहित्यि अकादमी में एक परिचर्चा में भाग लेने आए मशहूर शायर शहरयार से विभिन्न संदर्भो में बातचीत-

उर्दू को बढ़ावा देने के लिए सरकारी प्रयास जारी है? लेकिन क्या लगता है आपको उर्दू कितनी तरक्की कर रही है?
बहुत तरक्की कर रही है। उर्दू से मोहब्बत करने वाले और पढ़ने-लिखने वाले ऐसा कर कर रहे हैं। उर्दू को वो तमाम सुविधा हासिल है जो किसी भी जुबान को होनी चाहिए। सिविल सर्विस में यह एक विषय भी है। कुछ प्रदेशों की बोली में भी यह शामिल है। अकादमी भी है। दिल्ली बिहार में द्वितीय भाषा है कश्मीर में पहली भाषा है। मौलाना आजाद उर्दू युनिवर्सिटी है। दूरदर्शन का चैनल भी है। सरकार तो पैसा ही दे सकती है यह हिन्दी के साथ भी हो रहा है। हिन्दुस्तान में प्रॉसपेरिटी का मतलब यह हो गया है कि हम अपने कल्चर से दूर हो जाएं। अब मैनेजमेंट और बिजनेस की जो संस्कृति आ गई है उसमें हम अपनी भाषा को न जानने में फक्र महसूस करते हैं। उर्दू, हिन्दी अब मातृभाषा नहीं बल्कि मुंहबोली मां हो गई है। मामला यह है कि जब हम मकान से फ्लैट में आते हैें तो बदल जाते हैं। क्षेत्रीय जुबान में सब अपनी भाषा जानते हैं लेकिन हिन्दी उर्दू में ऐसा है जो जानते हैं वो भी शर्मिदगी महसूस करते हैं।

हिन्दी उर्दू में बहुत लिखा जा रहा है लेकिन पाठक कितने हैं?
जितने पाठक पहले थे उतने पाठक अब भी हैं। पाठक कम हो रहे हैें ये सब बहुत से धोखे हैं। न्यूज चैनल के आने के बाद कहा जाता था कि अखबार खत्म हो जाएगे लेकिन यह और बढ़ा। किसी ने किसी को रिप्लेस नहीं किया है । धोखा हो रहा है कि ऐसा हो जाएगा। जिसका महत्व है वह अब भी अपनी जगह कायम है। किताबें छप रही हैं, बिक रही हैं इसमें कोई मायूसी की बात नहीं है।
साहित्य में दिये जाने वाले पुरस्कार भी विवादों में आ रहे हैं लेकिन आपको पुरस्कार दिए जाने पर कोई विवाद नहीं हुआ?
हां, मेरा खयाल है कि ज्ञानपीठ के पुरस्कार विवादित नहीं होते हैं। ज्ञानपीठ के पिछले पुरस्कारों में भी विवाद नहीं हुआ था।

क्या लगता है ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने में देर हुई है?
कोई देरी नहीं हुई न कोई जल्दी हुई है। मेरा ख्याल है वक्त से मिला है।

आपकी आने वाली पुस्तकें कौन सी हैं?
मेरी दो किताबें आने वाली है। एक तो ‘सूरज को निक लता देखूं और दूसरी ‘फिर भी है।

आपने भारत से बाहर के देशों में भी यात्राएं की हैं वहां के साहित्य को किस तरह से देखते हैंे?

मानवीय समस्या सबके यहां एक जसी है। उनकी परंपरा, उनकी प्राथमिकता, उनकी संस्कृति अगल है और यह हमारे यहां से भिन्न है। तो उसका प्रभाव है उन पर।
पाकिस्तान में मुशायरे की क्या स्थिति है?
पाकिस्तान में की संस्कृति भारत से मेल खाती है वह भारत का हिस्सा रहा है। लेकिन यह दिलचस्प है कि पाकिस्तान में मुशायरा नहीं होता जबकि भारत में यह बहुत होता है। वहां मुशायरा न होने से मुशायरे की शायरी वहां पैदा नहीं हो पाई।

आपने फिल्मों में भी लिखा है लेकिन पिछले कई सालों से यह बंद है, ऐसा क्यों?
देखिए मैं कभी मुम्बई काम की तलाश में गया ही नहीं। मुङो कुछ फिल्मों के लिए बुलाया गया तो मैं गया। वो खास फिल्में थी, उसमें कहानी थी, उन फिल्मों का एक खास मकसद था। जाहिर है वह गाने पसंद किए गए। लेकिन आजकल की फिल्मों में कहानी होती ही नहीं है। एक ही तरह की मोहब्बत है जो हर फिल्म में हो रही है। लब्ज भी समझ में नहीं आते। बस धुनें हैं और लब्ज उनमें लिपटे रहते हैं।

ऐसे शायरों के बारे में क्या कहेंगे जो मंचो पर भी दिख रहे हैं और फिल्मों में भी लिख रहे हैं, मसलन गुलजार और जावेद अख्तर?
ये फिल्मों में पहले आए मंच से इनका कोई लेना देना नहीं था। फिल्मों की वजह से मंच पर बुलाए जाते हैं। शायर की हैसियत से उन्होने अपने को कभी परिचित नहीं कराया। दोनों की शायरी पर किताबें हैं लेकिन यह लेखक फिल्मों और किताबों में अगल-अगल है।

देश के वर्तमान हालात के बारे में आप क्या कहना चाहेगें?
हमें अपनी जुबान, अपने मजहब, हिन्दुस्तान से मोहब्बत करने का पूरा हक है। लेकिन इस मोहब्बत से हिन्दुस्तान में झगड़ा नहीं पैदा होना चाहिए। हिन्दुस्तान साथ में रहना चाहिए। जिससे हिन्दुस्तान में टकराव हो ऐसी मोहब्बत से बचना चाहिए। मैं कहना चाहूंगा कि ‘यही एक वहम है, जो और को जीने की हसरत है। कहीं पर है कोई ऐसा, जिसे मेरी जरूरत है।




एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...