Sunday, July 26, 2009

गंगूबाई हंगल


गंगूबाई हंगल
यह एक अद्भुत संयोग है कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों तरह की संगीत धाराओं का गढ़ कर्नाटक में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक को बीच से काटने वाली तुंगभद्र नदी के उत्तर में पनपा और बढ़ा जबकि कर्नाटक संगीत नदी के दक्षिण में। हिंदुस्तानी संगीत की गायकी के लगभग सारे बड़े नाम उत्तरी कर्नाटक में एक-दूसरे से सटे तीन जिलों से आते हैं, जिनमें धारवाड़, हुबली और बेलगांव शामिल हैं। सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, बसवराज राजगुरु, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल और राजशेखर राजगुरु सब के सब इसी धरती की देन हैं।
गंगूबाई अपने परिवार में पहली गायिका नहीं थीं लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय गायकी के लिए बहुत अनुकूल नहीं थी। यह बात भी उनके खिलाफ जाती थी कि वे महिला होकर शास्त्रीय संगीत की पुरुष प्रधान बिरादरी में दाखिल होना चाहती थीं। गंगूबाई की मां अंबाबाई, यहां तक कि उनकी दादी भी देवदासी परंपरा से आती थीं और मंदिरों में गायन उनके लिए सहज-सामान्य था लेकिन मंदिर के बाहर सार्वजनिक मंच से शास्त्रीय गायन उतना ही कठिन। गंगूबाई का गायन आठ दशक में फैला हुआ है लेकिन शायद गायकी की पुख्तगी से ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने तमाम तरह की विषमताएं ङोलते हुए अपना मुकाम हासिल किया। कन्नड़ में लिखी अपनी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संगीतज् में गंगूबाई ने इसका विस्तार से हवाला दिया है और लिखा है कि उन्हें ऊंची जातियों के शुक्रवारपेठ मोहल्ले से निकलते हुए किस तरह की फब्तियां सुननी पड़ती थीं। उन्हें बाई और कोठेवाली कहा जाता था।
गंगूबाई के बचपन के गांव हंगल में मैंने उनका पुश्तैनी घर देखा। सौ साल पहले बने छोटे से अहाते वाले उस घर के पांच टुकड़े हो गए थे, जिस पर बंटवारे के बाद परिवार के लोगों ने अलग-अलग घर बना लिए थे। गंगूबाई की मां के हिस्से में आया टुकड़ा उजाड़ था। खपरैल की छत थी, पर टूटी हुई। सामने के दरवाजे पर ताला लगा था और लकड़ी की दोनों खिड़कियां गायब थीं। मुङो उस घर तक ले गई एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि गंगू उनकी बचपन की सहेली थी लेकिन अब यहां नहीं आतीं। उसने हुबली में घर बनवा लिया है। नई पीढ़ी के बच्चों में ज्यादातर ने उनका नाम नहीं सुना था और कुछ बुजुर्गो में वही हिकारत थी, जिसका जिक्र विषमताओं के रूप में गंगूबाई ने अपनी किताब में किया है। हुबली में गंगूबाई का छोटा सा घर है। सामने बरामदा, अंदर एक आंगन और उसके तीन तरफ बने कमरे। मैंने हंगल और उनके बचपन के बारे में पूछा तो गंगूबाई टाल गईं। बाद में उनकी बेटी और बहू, जो खुद बेहतरीन गायिका हैं, कहा कि बचपन में ङोले सामाजिक अपमान का असर मां पर इतना था कि उन्होंने पचपन साल की होने तक बेटी को सार्वजनिक मंच से गाने नहीं दिया। उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूला, जब गायन के दौरान श्रोताओं में से किसी ने कहा, ‘गाना बहुत हुआ बाई, अब ठुमका हो जाए।ज्
गंगूबाई ने अपनी आत्मकथा में बहुत संयम से लेकिन पीड़ा के साथ लिखा है कि शास्त्रीय संगीत में आज भी महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव होता है। शायद यही वजह है कि बड़ी से बड़ी गायिका बाई होकर रह जाती है जबकि पुरुष उस्ताद और पंडित बन जाते हैं। इस आधार पर कि वे मुसलमान हैं या हिंदू। उन्होंने इस सिलसिले में हीराबाई और केसरबाई का जिक्र किया है। इस बात पर हैरानी होती है कि शास्त्रीय संगीत में महिलाएं ऊंचे घरानों से क्यों नहीं आईं और जहां से आईं, उनकी स्वीकार्यता इतनी आसान क्यों नहीं थी। इसमें हीराबाई बारोडकर, केसरबाई केरकर, जद्दनबाई, रसूलनबाई और अख्तरीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। समाज ने बहुत बाद में केवल अख्तरीबाई को थोड़ी इज्जत बख्शी और उन्हें बेगम अख्तर कहा जाने लगा।
गंगूबाई का संबंध किराना घराने से था, जिसके उस्ताद अमीर खां मीरज में रहते थे। गंगूबाई की मां अंबाबाई जब अपने घर में गाती थीं तो उस्ताद अब्दुल करीम खां उन्हें सुनने आते थे। गंगूबाई के गुरु सवाई गंधर्व और हीराबाई भी अंबाबाई की गायकी के प्रशंसकों में थीं। धारवाड़ में अंबाबाई को सुनने के लिए उनके घर के बाहर भीड़ जमा हो जाती थी। अंबाबाई ने अपनी बेटी को संगीत की तालीम देने की जिम्मेदारी सवाई गंधर्व को सौंप दी, जिसके लिए गंगूबाई को 30 मील दूर जाना पड़ता था। वहां उनके गुरुबंधु थे पंडित भीमसेन जोशी। उस जमाने में दिन में सिर्फ दो बार रेल चलती थी जो धारवाड़ को सवाई गंधर्व के गांव से जोड़ती थी। यानी कि गाड़ी छूट जाए तो रात स्टेशन पर ही बितानी पड़ती। भीमसेन जोशी वापसी में अक्सर गंगूबाई को घर तक छोड़ने आते थे। फिरोज दस्तूर भी उन दिनों वहीं थे।
सवाई गंधर्व ने गंगूबाई को सिखाने में ख्याल पर जोर दिया और चाहा कि वह सात रागों पर महारत हासिल करें। जाहिर है, गंगूबाई के पास गायकी में भीमसेन जोशी जसी विविधता नहीं है लेकिन भैरवी, आसावरी, भीमपलासी, केदार, पूरिया धनाश्री और चंद्रकौंस में विलंबित में जिस तरह का राग विस्तार उनके पास है वह जोशी और दस्तूर के पास भी नहीं। अपनी हर रचना को प्रार्थना कहने वाली गंगूबाई की सिर्फ एक ख्वाहिश अधूरी रह गई कि वह सौ साल जीना चाहती थीं। प्रकृति ने उन्हें तीन और वर्ष नहीं दिए लेकिन उनकी अंदर तक धो देने वाली गंगाजल जसी पवित्र गायकी किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। वह सैकड़ों साल जिंदा रहेगी।
मधुकर उपाध्याय
(आज समाज से साभार)

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