‘गाइड में राजू यानी देवानंद की मौत हो या न हों इस बारे में अलग-अलग राय थी। इस बहस में एक बार खीझकर विजय आनंद ने कहा था,‘दिलीप कुमार मर सकता है देवांनद नहीं मर सकता। जाहिर है उनका आशय फिल्मों में मरने से था लेकिन अंत में मरने पर ही फैसला हुआ और वही फिल्म देव साब की अमर फिल्म मानी गयी। फिल्मों में जो यौवन, ऊर्जा, स्टाइल, खिलंदड़ापन देवानंद लेकर आये वो बेजोड़ है और ये चीजें दरअसल उनके जीवन से उनकी फिल्मों में रूपांतरित होती रही। लगातार आगे बढ़ने का जज्बा, जीवन यानी भविष्य को लेकर उत्कट प्रेम और विश्वास, अपने में मग्न, पलटकर पीछे न देखने की जिद इनसे बनते रहे देव आंनद। एक और ‘देव इसी में साथ-साथ घूमते-मिलते रहे, जिसे लोग एटर्नल रोमांटिक के रूप में कहते-जानते रहे- एक दूसरे ‘देवज् यानी ‘प्रेम पुजारी शोखियां, मस्ती, शराब और शबाब के शाश्वत रोमानी तत्वों से मिलकर बने। रूपहले पर्दे पर इन दो छवियों के मेल से बनी इंद्रधनुषी छवि का जादू 50-60 के दशक में सिर चढ़कर बोला और छह दशक तक लोगों को मुग्ध किये रहा। लोगों ने प्रेम से तब उन्हें ‘सदाबहार कहा। महानायकों के इस दौर में तीन नायकों: दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद जिस तरह से हिंदी सिनेमा का कायाकल्प किया, वह अकल्पनीय है। नए- पुराने में ही नहीं समकालीनों में भी तुलना होती है। दिलीप-राज-देव के चाहने वालों में श्रेष्ठ की बहस होती ही रही है। पर तुलनाओं को एक तरफ रखें तो यह असंदग्धि रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय सिनेमा की यह त्रिमूर्ति अजर-अमर है।
दरअसल ये प्रेम की तीन धाराएं थी। दिलीप कुमार की ‘देवदास वाली धारा, राज कपूर की ‘आवारा वाली धारा, देवानंद की ‘बंबई की बाबू वाली धारा। दिलीप कुमार का बेहतरीन अभिनेता और उनकी ‘गंगा जमुना को अभिनय की पाठ्य पुस्तक मानने वाले, राजकपूर को उम्दा निर्देशक कहने वाले, देवानंद शायद तीनों में तीसरे नंबर पर थे। कहते हैं कि उस दौर में फिल्म पत्रिकाओं में यह अलिखित सा नियम था कि इनका एक साथ जिक्र आने पर दिलीप-राज- देव का रहेगा। इसी का हवाला देते हुए जब एक बार देवांनद से पूछा गया कि इसका मतलब तो यह हुआ कि आप थर्ड बेस्ट थे, तो उन्होंने कहा था कि ‘हमारे बीच टकराव नहीं था। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा थी। ऐसे किसी नियम को मैं नहीं जानता, हम तीनों अपने-अपने काम में मग्न थे, हमारी फिल्मों का क्षेत्र बेहद अलग था, पर एक बात बिना किसी दंभ के मैं कह सकता हूं कि जब मैं अपने एलीमेंट में होता हूं, तब मुङो कोई परास्त नहीं कर सकता।
शायद देव के इसी बात में उनके लीजेंड होने का राज छिपा हुआ है। वे खुद का बेहद खराब एक्टर(फिल्मों में आने से पहले संघर्ष वाले दौर में ख्वाजा अहमद अब्बाज द्वारा लिखित नाटक‘जुबैदा में हीरो चेतन आंनद के छोटे भाई बने देवांनद से रिहर्सल के दौरान झल्लाकर निर्देशक बलराज साहनी ने कहा था ‘यार देव तू कभी एक्टर नहीं बन सकता बन सकता। ) मानने वाले, बेहद सीमित अदाकारी और अदाओं वोलद देव साहब फिल्मों की निर्मम दुनिया में दौड़ में बराबर बने ही नहीं रहे, बल्कि अपने दोनों प्रतिभाशाली समकालीनों की बराबरी में दौड़ते रहे। यह ताज्जुब में डालता है। शायद 1957 में गजब ही हुआ जब फिल्म फेयर अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ एक्टर के लिए तीनों के ही नाम थे तब ‘काला पानी के लिए देवानंद को अवॉर्ड मिला।
फिर भी इस बात पर आम सहमति रही कि तीनों में सर्वश्रेष्ठ दिलीप कुमार ही हैं। लेकिन स्टारडम देवानंद का बड़ा रहा। उनके पहनावे, चाल-ढाल, हेयर स्टाइल आदि का जितना क्रेज रहा और जिस तरह अपनाया गया, उसकी कोई मिसाल रहीं। किसी को बने-ठने देखकर यही फब्ती सुनाई देती है कि ‘बड़ा देवानंद बना फिरता है।ज् कुछ ही माह पहले ‘ द हिंदूज् में दिलीप कुमार की एक टिप्पणी ने हैरत में डाला। दिलीप कुमार से जब राज-देव के बारे में पूदा गया, तो उन्होंने कहा ‘अगर मैं लीजेंड हूं, तो वे दोनों भी लीजेंड हैं। अब आवारा में राज जबरदस्त तो गाइड में देव बेजोड़। देवानंद जसा सुंदर चेहरा इंडस्ट्री में आज तक नहीं आया।
देवानंद की खास बात इसी में है कि उन्होंने किस तरह अपनी सीमाएं पहचानी और उसे चमकाकर एक अद्वितीय पारी खेली। देवानंद के नक्कालों की सूची भी लंबी है और इसमें कमल हसन भी हैं, जिन्होंने एक बार कहा था कि उन जसा करने की कोशिश में कभी सफल नहीं हुआ। फिल्म ‘सौदागर में सुभाष घई, विवेक मुसरान को यही टिप्स देते थे कि वैसा ही करो जसा देवानंद करते थे। इस फिल्म के एक समीक्षक ने यह बात नोट करते हुए लिखा कि विवेक युवा देवानंद की याद दिलाते हैं देवानंद का करिश्मा यही था कि उनकी छवि लोगों की स्मृति में टंक गई। दिलचस्प बात यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी हुआ।
‘सिने ब्लिट्ज पत्रिका में ‘देवी ने अपने कॉलम में तबके सुपर स्टार राजेश खन्ना को जज करते हुए लिखा कि ‘मैं वॉकर लेकर बच्चे को घुमाता फिरूं, तब भी ये जनाब हीरो बनते रहेंगे। हीरो नाम का जो जादुई शब्द है शायद देवानंद इसके सबसे करीब थे। एक अत्यंत उज्जवल छवि उन्होंने गढ़ी लगभग वैसी जसी ‘बात एक रात कीज् के गाने में चित्रित होती है। ‘ऐसे में कहीं प्यारे/ झील के किनारे/हंस अकेला निकले/ ऐसे ही देखो जी/ ये मनमौजी/ मौजों के सीनों पार चले/ चांद सितारों के तले।
उनके परिश्रम, लगर और मर्मपक्ष की बातें करें, तो फिर ‘ तेरे घर के सामनेज् की ये पंक्तियां दिल में बसने लगती हैं : ‘दिल में वफाएं हों, तो तूफां किनारा है। बिजली हमारे लिए प्यार का इशारा हैज् या ‘दिल में जो प्यार हो तो, आग भी फूल है। सच्ची लगन जो हो तो पर्वत भी धूल है।ज् 1944 अगस्त के एक बारिश भरे दिन में जेब में तीस रुपए लिए गुरदासपुर से लाला किशोरीमल के तीसरे नंबर के बेटे की बंबई पहुंचने और लंबा संघर्ष के बाद सफलता चूमने की यह कहानी दिलकश और रोमांचक है। छह दशक के इस सफर में तीन दशक सफलता के रहे और बाद के तीन घोर असफलता के। उकनी फिल्में एक ही दिन में थियेटर से उतरीं, पर न देव की छवि धूमिल हुई और न लोगों का प्रेम कम हुआ और न उनका उत्साह और जीवट। विजय आनंद ने एक बार कहा था िक देव साहब जो कुछ करते हैं मैं उन्हें करने देता हूं। अमिता मलिक ने अपने कॉलम में लगभग अपील भी की कि देव जो कर रहे हैं, उन्हें करने दिया जाए। उनके अत्यंत प्रतिभाशाली दोस्त गुरुदत्त नाकामी नहीं ङोल पाए जबकि देव आगे बढ़ते रहे। अपनी शर्तो पर जाहिर है उनकी छवि कामयाब छवि थी। देव की छवि में सम्मोहन था। एक दिलकश अदा थ्ज्ञी। यह वह छवि थी जिसमें फिजा ही बदल दी। रवींद्रनाथ ने जवाहर लाल नेहरू के राजनीति में आगमन को लेकर जो कहा था उसे बदलकर हम कह सकते हैं : ‘देवानंद का फिल्मों में आना वसंत का आना था।
नवकेतन के जरिए उन्होंने अपने तरह की फिल्में बनाईं। गुरुदत्त, राज घोसला जसे कितने लोगों को सामने लाए, पर फिर देव का नहीं, उनकी फिल्मों का जादू उतरता गया। लोग उनकी उत्साह-ऊर्जा की तराीफ करते हुए भी सवाल करने लगे, ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला और ‘गाता रहे मेरा दिल तो ठीक है पर देवसाहब ‘फिर ेस वह सावन अब क्यों न आए पर वे दुखी न हो, इसलिए कि इस बातों का अंदाज वही होता था कि देव साबह ‘यह प्यार है पर गिला नहीं¯.
देवसाहब अपनी शर्तो पर काम करते रहे। इमरेजेंसी के खिलाफ उठकर खड़े हुए, लोगों से वादा निभाते रहे। इंडस्ट्री में सबसे शरीफ माने गए, समझौता कभी किया नहीं। हां, अपनी छवि का ख्याल रखा। अपनी फिल्मों में ज्यादा से ज्यादा सूट बूट में रहे। शांताराम को मास्टर साब जसा मानते हरे, तो कभी उनके पास फटके नहीं। ‘इंसानियत को छोड़ दें, तो कभी और किसी बड़े कलाकर के साथ काम नहीं किया, लोगों ने आत्ममुग्ध कहा तो बोले, ‘इसी से हासिल हुआ आत्मविश्वास।
देवानंद के अनगिनत किस्से हैं, उनकीं उदारता, मददगारी के किस्से जानकी दास की किताब के पन्नो में ‘देवीज् जसों के स्तंभों तक में थे। देवी ने तो मरने से पहले देवानंद से मिलने की ख्वाहिश जताई थी। देवानंद का जाना प्रेम की दूसरी धारा का लुप्त हो जाना है। एक युग का अवसान होगा। यह एक संयोग है कि साल के शुरू में हमने अपने एक बड़े कलाकार हुसैन को खोया, जो नब्बे पार होकर भी बेहद सक्रिय और जीवन्तता से सराबोर थे और साल के अंत में उन्हीं जसे देवानंद को खोया तो अब संयोग यही है कि दोनों ने अंतिम सांसे लंदन में ली और अंतिम क्रिया भी वहीं पर हुई।