Wednesday, February 20, 2013

समझ और दृष्टिकोण


सीएसडीएस के फैलो डॉक्टर हिलाल अहमद से अभिव्यक्ति की आज़ादी और उसके आयाम से सम्बन्धित मेरी बातचीत पर आधारित एक लेख आज राष्ट्रीय सहारा अख़बार के हस्तक्षेप में 'समझ और दृष्टिकोण' शीर्षक के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित है . पढ़े आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है. 


अपने देश में अभिव्यक्ति की आजादी के दो पक्ष हैं। एक पक्ष अभिव्यक्ति की आजादी को कानूनसम्मत और उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित बताता है। उस पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा सकता। इसके विपरीत, दूसरे पक्ष का कहना है कि धर्म-संस्कृति आस्था के संवेदनशील मसले हैं। इनके विरुद्ध जाने से किसी भावनाएं आहत हो सकती हैं। इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी आस्था से बढ़कर नहीं हो सकती। तो ये दो पक्ष हैं। उदारवादी दर्शन के दो प्रकार हैंनका रात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक उदारवाद व्यक्ति को ही मूल मानते हुए उस पर किसी अंकुश का विरोध करता है। वहीं, सकारात्मक उदारवाद के नजरिये से व्यक्ति समाज के साथ रहता है। इसलिए उसकी बंदिश और आजादी समाज से अलग नहीं हैं। व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता तभी संभव है, जब वह उस समाज में रहे। टीएच ग्रीन, हेराल्ड जे लॉस्की जैसे ख्यातिनाम दार्शनिक इसी दूसरे सकारात्मक दृष्टिकोण के हैं। वे मानते हैं कि व्यक्ति समाज में फलता-फूलता है और उसके आदर्श इसी सामाजिक संदभरे में ही फलीभूत होते हैं। इसीलिए एक पूरी पण्राली जिसे संविधानवाद कहा जाता है; वह व्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा कुछ नियमों से तय कर देता है। चूंकि संविधान लचीला होता है और इसके निर्माता समय और जरूरतों के हिसाब से इसे बदलते रहते हैं। इसलिए व्यक्तियों और समाजों के बीच की एक गतिशीलता बनी रहती है। इस संदर्भ में, भारत में जब भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात की गई है, वह हमेशा सामाजिक संदभरे में की गई है। वह ‘एब्सल्यूट’ नहीं है। इस तरह से हम देखें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करना अपराध हो जाएगा, जो गलत होगा। उदारवाद में ही यह बात मौजूद है कि जो एब्सल्यूट है, उसके ऊपर संविधान की व्यवस्था है। यह पहला सिद्धांत है। दूसरे, कठमुल्ला और पोंगा पंडित हैं, जिनका मानना है कि व्यक्ति नहीं, समाज सवरेपरि होता है। इस तर्क से मेरे इत्तेफाक न रखने की दो वजहें हैं। पहली, तो यह कि जिस इस्लाम, हिन्दुत्व या ईसाइयत को हम जानते हैं, वह अपने आप में एक आधुनिक रूप लिए हुए है और इसका आधुनिक रूप, जिसे हम मानते हैं, उसका मतलब एक रचा-बसा, लिखित, संविधान- सम्मत रीति-पण्राली है। यह स्वरूप आधुनिकता ने दिया है। मध्यकाल में धर्म के मामले में बहुत खुलापन है। वहां आज के जैसे धर्मातरण के झगड़े ऐसे नहीं दिखते। दरअसल, जिस धर्म को हम आज जानते हैं, वह 19वीं सदी की देन है। आधुनिकता भी उसी सदी की देन है। इससे पहले धर्म और आधुनिकता पर बहसें नहीं मिलतीं। कबीर की साखी समाज और धर्म के आंतरिक रिश्तों को लेकर है। कहने का मतलब यह कि 19वीं सदी में धर्म को जो लिखित शक्ल दिया गया, वह अलिखित रूप में पहले से मौजूद था। बहरहाल, 19वीं सदी में जो धर्म बना, उसमें धर्म का एक ऐसा स्वरूप निकल कर आया जो सीमाओं से बंधा था। इससे ही धार्मिंक आस्थाएं तय होने लगीं। आज जिन आस्थाओं का हवाला दिया जाता है, वे तमाम आधुनिक आस्थाएं हैं। इसीलिए उन पर कंफ्लिक्ट है। धर्म संरचना में एकरूपता लाने की प्रक्रिया आधुनिक प्रक्रिया है जो ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुई। तब यहां सभी धर्मो में सुधार आंदोलन हुए। इसे आज की ईसाइयत के रूप में व्यवस्थित तरीके से लाया गया। इसमें ही यह तय हुआ कि ये मानेंगे, वो नहीं मानेंगे। जैसे इस्लाम में चित्र पर बनाने पर पाबंदी लगी। हालांकि ईरान में ऐसे बेशुमार लोग थे, जो चित्र बनाते थे। हिंदू धर्म में गाय नहीं खाई जाती लेकिन ऐसे बहुत-से कबीले हैं, जो अपने हिंदू मानते हैं और गाय खाते हैं। इस तरह सभी धर्मो में यह तय हुआ कि किसकी अनुमति है और किसकी अनुमति नहीं है। अब सवाल है कि इनके मूल्य क्या हैं, जिनका धर्म संकट में आ जाता है। जिस तरह उदारवादी बिना लिब्रलिज्म को समझे कह देते हैं कि ‘एब्सल्यूट लिबर्टी’ होनी चाहिए। लेकिन यह एब्सल्यूट शब्द उदारवाद की तरफ नहीं निरंकुशता की तरफ जाता है। पूरे यूरोप में, अमेरिका में, थॉमस पेन से लेकर हेराल्ड लॉस्की और आज भी, इस पर र्चचा है कि सीमा थोपी नहीं जा सकती। यह उपजी होती है। वह वहां गलत हैं और जहां-जिनका धर्म संकट में आ जाता है। जैसे एमएफ हुसैन का हिंदू देवी-देवताओं का अर्धनग्न चित्र बनाना। इसके चलते धर्म संकट आने का मतलब है कि उनकी नजर के अलावा और किसी नजरिये से भगवान- पैगम्बर को देखने की कोशिश हुई तो उनकी भावनाओं के विपरीत होगी, चोट पहुंचाएगी। जो ऐसा करेगा वह दंड का भागी होगा। ये बात हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मो के खिलाफ चली जाती है। कुरान में ऐसी कई आयतें हैं, जो कहती हैं कि ‘बख्श दो यदि बुरा करे कोई’। शरीयतें इसी तरह बनी हैं, जब सवाल उठने लगे तो इस्लाम में उन्हें नये तरीके से परिभाषित किया गया। फिर नया इस्लाम आया, नए कानून बनें। तो यह बहस है। मेरा कहना है कि अपना संशिलष्ट समाज है। अगर आप असहमत हैं फिर भी बात करना न छोड़ें। अगर आप बात नहीं करेंगे तो अभिव्यक्ति सीमित होकर रह जाएगी। अभिव्यक्ति न तो पूर्ण है, न मिश्रित।

यह आम बहस की बात है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा होनी चाहिए कि नहीं? इस पर आम बहस होनी चाहिए। अब प्रगाश ग्रुप की बात करें तो मुफ्ती साहब ने एक बयान जारी कर कहा कि यह फतवा नहीं था। उनका कहना था कि औरतों को गाना नहीं गाना चाहिए और इस्लाम में संगीत मना है। ये दोनों बातें इस्लाम के दृष्टिकोण से गलत हैं। इस्लाम में संगीत की एक लम्बी परंपरा है। बहुत-सी कश्मीरी औरतें गणतंत्र दिवस की परेड में अपने पारंपरिक गीत- संगीत का प्रदर्शन करती हैं। मतलब यह कि एतराज इस्लामिक दृष्टिकोण से ही यह दुरु स्त नहीं है। कमल हासन की विश्वरूपम का हर जगह अलग-अलग तरीके से विरोध हुआ। इसके पीछे केवल मुस्लिम विरोध ही नहीं था। बहुत-से लोगों ने कहा कि इस फिल्म में विवादित कुछ भी नहीं था। आज मुसलमान तो ऐसा सिंबल है कि उसे यदि उछाल दो तो उसे अंतरराष्ट्रीय पब्लिसिटी मिल जाती है। आज दुनिया बनाम इस्लाम का विमर्श है। ऐसे में प्रचार आसान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में हमें दो-तीन मुद्दों पर बात करनी पड़ेगी, एक बात लीगल फेमवर्क की है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसको बैन कर दो या उठा लो। इसके तीन स्तर हैं। पहला स्तर संविधान का है। इसका मतलब है कि यह हमारा बेसिक ढांचा है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में इसको देखिए। फिर हमारे पास व्यवस्थित कानून हैं; जैसे इंडियन पीनल कोड, सेंसर बोर्ड आदि। ये मुद्दे पर बने कानून हैं। तीसरा, इन पर अमल करने/कराने वाली संस्थाएं हैं। इसके आगे मसले पर व्यापक परिर्चचा होनी चाहिए। इसके तीन रूप हैं-व्यापक जन संवाद, मीडिया और पॉलिसी। सरकार को एक पॉलिसी फ्रेमवर्क बनाना चाहिए जिसमें मीडिया सहित दूसरे लोगों को जोड़ा जाए। सरकार और राजनीति को इससे अलग नहीं रख सकते। हम कम राजनीतिक हैं, तभी यह विवाद है। लिहाजा, हमें ज्यादा राजनीतिक होना पड़ेगा। जब एक व्यापक प्रक्रिया शुरू हो जो मूलभूत सवालों को उठाए और इसके तीन तरीके मैंने बताए हैं। पहला, कानून जिसमें तीन स्तर हैं-संविधान, दूसरे कानून और पॉलिसी। दूसरा स्तर है, संस्थाओं का प्रतिनिधित्व। और आखिर है, लोगों के विचारों को बांटने का। हमें और लोकतांत्रिक और ज्यादा राजनीतिक होना पड़ेगा। अभी हम थोड़ी-सी राजनीति और थोड़ी-सी नीति लेकर चल रहे हैं, ऐसा आगे ठीक नहीं होगा।

अभिनव उपाध्याय की बातचीत पर आधारित

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