Saturday, November 29, 2008

5-नेता जी आए हैं

5-नेता जी आए हैं
न मुण्डन है न चटावन, न मरसिया है न उठावन, न किसी का जन्मदिन है न मरणदिन, न स्वतंत्रता दिवस है न गणतंत्र दिवस, न नामकरण है न को त्योहार आखिर नेता जी कैसे आ गए। यह आश्चर्य का विषय सहीराम को तब लगा जब उनके पड़ोसी ने घर में आकर कहा की नेता जी आए हैं। सहीराम घर से बाहर निकलते ही नेता चौपटानंदन के समर्थकों ने सहीराम को घेर लिया और नेता जी के समर्थन में जोर-जोर से नारे लगे। नेता जी अपने चुनाव चिह्न् के साथ मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। नेता जी का चुनाव चिह्न सांड़ था लेकिन मौके पर उपलब्ध न होने के कारण वह भैंसे पर बैठकर आए थे। और उसके सींग में झंडों की लड़ी बंधी थी। सहीराम को पहली बार लग रहा था कि अब चुनाव आ गया है। नेता जी के समर्थक निरहू चुनाव चिह्न् वाला झंडा लेकर कर नेता जी का प्रचार कर रहे थे। माइक हाथ में लेकर वह कह रहे थे, विपक्ष के चोले को देगा फाड़, हमारा चुनाव चिह्न् हैं सांड़। भाइयों सांड़ पर मुहर लगाकर देश को भाड़ में जाने से बचाएं।
सभी समर्थक सुरा में मदमस्त होकर प्रचार में लीन थे। लोगों के दुख-सुख, खेत-खलिहान, नात-रिश्तेदार के हाल-चाल पूछे जा रहे थे। जरुरत मंदों को प्यार और गैर जरुरत मंदों पर लक्ष्मी बरसाई जा रही थी। नगाड़ों और ढोल ताशों के बीच कारवां गांव-गांव, गली मुहल्ले, नुक्क ड़, चौराहों से होकर गुजर रहा था इसी बीच उनकी मुठभेड़ विपक्षी पार्टी के नेता सुखभंजन से हो गई।
समर्थकों ने तनातनी शुरू, कट्टे से दनादन फायर, वाक युद्ध जबरदस्त और समर्थक पी कर एकदम मस्त। सुखभंजन के एक समर्थक ने जब ये देखा कि नेता चौपटानंदन चुनाव चिह्न् सांड़ होने के बावजूद भैंसा पर चढ़ कर वोट मांगने आया है, उसने तुरंत नारा दिया। सांड़ नहीं ये भैंसा है इसके पेट में जनता का पैसा है। बस अब मामला गरम हो गया। किसी तरह जब दोनों नेता गले मिले तब जाकर बीच-बचाव हुआ।
लेकिन अब मामला हाईकमान के पास जा पहुंचा था कि प्रत्याशी ने विपक्ष से सांठगांठ कर ली है। नेता जी बुलाए गए। चौपटानंदन ने अपनी बात रखी कि ये सांठगांठ नहीं भविष्य में होने वाले गठबंधन की नींव है। नोंक-झोंेक के बाद जादू की झप्पी का जादू बोला नेता जी पार्टी से पल्टी मारकर विपक्षी का चुनाव प्रचार करने लगे। पार्टी से निष्कासन के बाद भी चौपटानंदन ने चंदे का एक ढेला भी नहीं लौटाया। अब वह मस्तचित्त से सुखभंजन का प्रचार कर रहे हैं। सहीराम ने इस कारनामें का राज पूछा तो उन्होंने बताया कि चुनाव तो हम जीतने से रहे इसलिए चंदा बचाने की यह एक तरकीब थी।
अभिनव उपाध्याय

4-पाड़े कौन कुमति तोहे लागी

4-पाड़े कौन कुमति तोहे लागी
स्वामी दयानंद पांडे उर्फ अमृतानंद उर्फ सुधाक र द्विवेदी इतने नाम मीडिया वालों के लिए हैं। चेला चुरकुन के लिए तो वह केवल पाड़े बाबा हैं। चेला बाबा की हरकत से अचंभित है। वह बाबा से कहता है कि बाबा पैंसठ किलो का गठीला बदन, भभूत, रुद्राक्ष, गटरमाला एकदम चकाचक। सुबह शाम रबड़ी-मलाई, नेता, मंत्री, व्यापारी द्वारा चरणवंदना, तारिकाओं, युवा दासियों और चंद्रमुखियों द्वारा अनवरत सेवा। बैंक एकाउंट मालामाल,सुबह शाम लक्ष्मी जी का साक्षात दर्शन, सैकड़ों एकड़ में फार्म हाउस, लक्जरी गाड़ियां लेकिन पांडे कौन कुमति तोहे लागी कि कट्टा, बम, बंदूक के चक्कर में पड़ गए।
बाबा साधू-संन्यासी तो धुनी रमाते हैं, चिलम चढ़ाकर बम भोले का दर्शन करते हैं। लोगों को ज्ञान का उपदेश देते हैं। भविष्यवाणी करते हैं। बाबा घोंघानंद बताते थे साधू-संन्यासियों को बारूद सूंघने से मूक्र्षा आती है। वह तो कमंडल से प्रसाद बांटते हैं। बाबाओं कि कृपा से न जाने कितनी भक्तिनें साध्वी बन गई। फिर बाबा आपको क्या सूझी कि साध्वी को बम फोड़ने की दीक्षा दे दी। अच्छी भली नारी थी, गाड़ी वाड़ी चला लेती थी कि उसकी भी मति मार दी। अब लोग पुजारिन लड़कियों से भी कतराने लगेंगे।
बाबा किस दुश्मन ने आपको यह सलाह दे दी कि बम फोड़ने का प्रशिक्षण दो। अरे, पहले ऐसे संगठन क्या कम थे जो एक नया स्कूल खोल दिया। अब तो कहीं दूसरे लोग भी बम फोड़ेगें तो तुम भी अंगुलियां उठेगीं।

बाबा धंधा बंद करने का विचार है क्या कि फौजी जसा काम कर रहे हो। मीडिया चिल्ला रही है आठ सौ लोगों को प्रशिक्षण दिया है। सब मार-काट मचाएंगे तो प्रवचन कौन सुनेगा।
पाड़े बाबा अब तो पूरा यकीन हो गया कि तुम्हारी नीयत बदल गई है।
चेला चुरकुन परेशान है वह बाबा की करतूतों पर चौंधिया रहा है उसे समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर क्या हो रहा है। बाबा के जेल में बंद होने से धंधे पर भी असर पड़ रहा है। लोगों को सफाई देते-देते उसका गला सूख रहा है। उसके बाबा की करतूत भी एक चाल नजर आ रही है लेकिन वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए वह परेशान है।
वह अपनी व्यथा सहीराम को भी सुना रहा है कि आजकल चुनाव का टाइम है भूले-भटके कितने नेता दर्शन को आते थे, अपनी व्यथा-कथा सुनाते थे। चढ़ावे में मुद्रा चढ़ाते थे। हम लोग भी जश्न में बुलाए जाते थे लेकिन बाबा की करतूत ने हमारी मिट्टी पलीत कर दी। कहीं ऐसा न हो कि हमारी रोजी-रोटी के लाले पड़ जाएं। अब तो ये डर है कि बाबा के चक्कर में हमारी घनचक्कर न हो जाए।
अभिनव उपाध्याय

3-न तीन में न तेरह में

3-न तीन में न तेरह में
सहीराम प्राय: देश की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करने अपने पड़ोसी और बुद्धिश्रेष्ठ कहावती राम के पास जाया करते हैं। सहीराम अभी कहावती राम के पास पहुंचे ही थे कि उन्होंने कहा कहो सहीराम दुइज का चांद इधर कैसे। सहीराम ने मुस्कुराते हुए कहा यूं ही आपसे चर्चा करने आ गए। फिर बोले,आजकल एक साध्वी चर्चा का विषय हैं। कहावती राम ने कहा त्रिया चरित्रं दैयो न जाने। महाराष्ट्र की स्थिति कैसी है आजकल क्या हो रहा है? कहावती राम ने कहा बिहारी लोगों को तीनों लोक दिखाई दे रहा है। और वहां की सरकार क्या कर रही है? सहीराम ने पूछा। वह न तीन में है न तेरह में। कहावती राम ने कहा। फिर सहीराम ने पूछा वहां का गृहमंत्री क्या कर रहा है? कहावती राम ने अपने अंदाज में उत्तर दिया, दम नहीं बदन में और नाम जोरावर खां। सहीराम ने फिर पूछा अरे, सुना है लोगों ने राज ठाकरे को बहुत समझाया गया लेकिन.. सहीराम आप भी भला गधा नहलाने से घोड़ा बन सकता है।
सहीराम ने इस पर हुई राजनीतिक परिचर्चा की बात छेड़ दी। लालू और मुलायम ने इस विषय पर तो कुछ बोला है, हां बोला है खग जाने खगही की भाषा। लेकिन इस संबंध में और नेता लोग भी तो बोल रहे हैं सहीराम ने कहा। कहावती राम ने कहा, लोग बोल क्या करे हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।
अच्छा, इस पूरे घटना में बिहारियों की क्या स्थिति है? सहीराम जी स्थिति क्या, बिहारी हो या यूपी के हों कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वह भी मना। बिहारियों की ऐसी स्थिति पर राज को दया नहीं आई? कहावती राम ने कहा दया धरम नहीं मन में मुखड़ा क्या देखेंे दरपन में।
सहीराम ने फिर कहा अरे दिल्ली में भी चुनाव आने वाला है। कहावती राम ने कहा तभी तो कौआ चला हंस की चाल। अच्छा इस बार पार्टियों में कुछ तालमेल होने की आशा है, सुना है अच्छे-अच्छे लोग पलटी मार रहे हैं। कहावती राम ने कहा भाई, धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपदाकाल परखिए चारी।
सहीराम ने फिर हिम्मत करके अमेरिका की विदेशमंत्री कोंडोलीजा राइस के बारे में पूछा कि कहावत राम जी उसके बारे में क्या कहना है? अजी कहना क्या है, न अक्ल, न शक्ल, और इनकी न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।
एक बात बताइये कहावत राम जी आपको इन सब घटनाओं के बारे इतनी बारीक जानकारी और होने वाली घटनाओं के बारे में इतने भरोसे से कैसे कह देते हैं? उन्होने मुस्कुराते हुए कहा, भाई जान हम तो खत का मजमूं भांप लेते हैं लिफाफा देखकर।
अभिनव उपाध्याय

ये भी ना बड़े वो हैं

2-ये भी ना बड़े वो हैं
लोग अपनी बीवी, बच्चों को क्या क्या का लाकर देते हैं उनकी कोशिश होती है कि क्या खिला दूं क्या पिला दूं और एक आप हैं कि जिसे कोई फिकर ही नहीं। सच में आप भी ना बड़े वो हैं। क्रांतिकारी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार घनघोर जी की श्रीमती हर तीसरे यह बात उनसे कहती हैं। उन्हें यह शिकायत हमेशा रहती है कि जब शिवराज पाटिल बम फटने के बाद भी तीन बार कपड़े बदल सकते हैं तो यह ससुराल जाते समय आफिस का कपड़ा पहन कर क्यों जाते हैं। एक बार सखी ने भी अपने घर पर टोक दिया कि, बहन एक बात कहूं बुरा तो नहीं मानोगी, तुम्हारे पति सनकी तो नहीं हैं, उस पर भी वह मुस्कुराकर कह देती है क्या बताऊं सनकी तो नहीं लेकिन, हां जरा वो हैं। कभी-कभी तो लिखने बैठते हैं बच्चों जसे सारे सामान फैला देते हैं। सारा दिन बस सरस्वती की पूजा, कितनी बार कहा कि जरा लक्ष्मी के बारे में सोचो लेकिन ये हैं कि इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती बस एक धुन कलम, किताब। अरे, लोग पत्रकारिता करते-करते क्या-क्या नहीं बना लेते हैं और ये हैं कि..।
पड़ोस वाले अंकल के जब बुरे दिन थे तो उन्होंने भी एक अखबार पकड़ा था और इतना कस कर पकड़ा कि आज तक चांदी ही चांदी है। कितनी बार कहा कि मेरी नानी कहती थी कि लक्ष्मी और सरस्वती में छत्तीस का आंकड़ा चलता है। न जाने किसने कह दिया कि पत्रकार बनो। मुङो भी एक बार यह नशा चढ़ा था वो तो मामा ने कह दिया कि बेगार, बेकार और पत्रकार एक जसा ही समझो तभी से नशा उतर गया। पापा को भी जाने क्या सूझी जो..। घनघोर जी की पत्नी अपनी रौ में ये बातें कही जा रही थी कि सहेली ने उन्हे एक गिलास पानी लाकर दिया पानी क्या मिला बैट्री फिर चार्ज हो गई और शुरू हो गई, हां तो मैं कह रही थी अरे लिखना-पढ़ना कामचोरों का काम है। प्रापर्टी डीलिंग करते, कुछ तीन-पांच करते तो शायद दीवाली तक लक्ष्मी मेहरबान हो जाती लेकिन ये भी ना हरिश्चंद के चाचा बनते हैं। सहेली ने आग में घी डालते हुए कहा, इस बार दशहरे में साड़ियों की लम्बी सेल लगी थी साढ़े पांच हजार की साड़ी साढ़े तीन हजार में मिल रही थी वो भी एकदम बनारसी। अब क्या था, पत्नी भी घनघोर पर बिजली बन कर टूटी, बोली इस बार दीवाली तक एक बनारसी साड़ी आनी चाहिए। घनघोर जी को कुछ न सूझा इस बार सरकार की तरह आश्वासन दिया, केवल एक साड़ी, हम तो इस बार एक दर्जन लेने की सोच रहे थे। पत्नी को विश्वास नहीं हो रहा था उसने मुस्कुराते हुए कहा आप भी ना बड़े वो हैं।

turki-ba-turki-बिन आफर सब सून

1-बिन आफर सब सून
त्योहार क्या आया बाजार में आफरों की झड़ी लग गई। ऐसा लगता है त्योहार और आफर का चोली-दामन का साथ है। मतलब बिना आफर के त्योहारों की मर्यादा को भारी ठेस पहुंचती है। ऑफर भी ऐसे की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। कुछ सशर्त और कुछ बेशर्त। लेकिन अधिकतर कंडीशन अप्लाई। आजकल दुकान ग्राहक पर अपना सब कुछ न्यौछावर करने को आतुर हैं। कुछ ऑफर ऐसे हैं कि आप विश्वास नहीं कर सकते हैं। जसे एक दुकानदार टोपी के साथ जकेट फ्री देना चाहता है उनका पड़ोसी टाई के साथ सूट भी फ्री देने को उतावला है। उसी तरह कुर्सी के साथ डाइनिंग टेबल फ्री है। और बर्तन वाला चम्मच के साथ कढ़ाई। इन सारे विज्ञापनों के कोने में धागे जसा चिपका है शर्तें लागू।
सहीराम के फेमिली डाक्टर खुराफाती जी ने अपनी दुकान चमकाने के लिए एक बड़ा विज्ञापन दिया, आपके शहर में पहली बार मोतियाबिंद के आपरेशन के साथ किडनी का आपरेशन मुफ्त, पथरी के साथ हृदय का आपरेशन बिल्कुल फ्री। पहले इलाज कराएं फिर पैसे दें। यह विज्ञापन देखकर सब चौंक गए। अब हलवाई चिरौंजी राम ने भी इसी टाइप एक विज्ञापन दिया लड्डू के साथ काजू की बर्फी मुफ्त। कोने में फिर वही धागे जसा लिखा शर्तें लागू।
शहर में कई दिनों से अपने धंधे में मंदी की मार झेल रहे तांत्रिक बाबा खान बंगाली को भी यह आइडिया आया क्यों न एक चमत्कारिक विज्ञापन बनवाया जाय। उन्होंने अपना विज्ञापन कुछ इस तरह दिया- शक्ति का चमत्कार देखें अपनी आंखों से मात्र आठ घंटो में। लव मैरिज, मनचाहा वर, वशीकरण स्पेशलिस्ट, गृह कलेश, जादू-टोना, देश विदेश की यात्रा में रुकावट, पति-पत्नी में अनबन, सौतन और दुश्मनी से छुटकारा, दीवाली में धुंआधार धन की बारिश के साथ ए टू जेड हर तरह की समस्या के लिए पधारें। एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें आपके शहर में बावन साल के तजुर्बेकार बाबा खान बंगाली। इसके बाद मोटे अक्षरों में ट्विस्ट दीपावली के शुभ अवसर पर काम के बाद फीस। यहां भी कोने में छोटा सा, पतला सा, प्यारा सा और लगभग अदृश्य लिखा था शर्ते लागू।
इस आफर लहर का असर नेता जगत राम पर भी पड़ा उन्होने तुरंत पार्टी हाई कमान को लिखा महोदय पार्टी को सुदृढ़ बनाने के लिए कृ पया आफर योजना को प्रसारित किया जाए। महोदय मेरा सुझाव है कि इस बार पार्टी टिकट देने से पहले उम्मीदवारों को यह आफर दे कि जो भारी मतों से जीतेगा उसे अगली बार मुफ्त में टिकट दिया जाएगा। और जो हारेगा उसे भी निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसे पार्टी हाईकमान किसी न किसी विभाग का चेयरमैन बना देगी। इससे उनका मनोबल नहीं गिरेगा।
अभिनव उपाध्याय

1984 sikh riot victims-मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था

10-सुरजीत सिंह
मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था
पहले त्रिलोक पुरी में रहने वाले सुरजीत सिंह सरकार द्वारा आवंटित मकान संख्या सी-49 ए तिलक विहार में रहते हैं। पेशे से आटो चालक 36 वर्षीय सुरजीत सिंह ने दंगो में अपने पिता और सगे संबंधियों समेत कुल 18 लोगों को खो दिया।
उस समय अपनी अवस्था के बारे में बताते हुए सुरजीत कहते हैं कि ‘इस दंगे ने हमें मानसिक रूप से काफी परेशान किया एक तरह से वह हमारा बचपन था। हमने जो बचपन में देखा उसका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। अगर ये हादसा हमारे साथ नहीं होता तो शायद मैं ट्रांसपोर्टर होता। क्योंकि मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था।ज्
उनका गुस्सा जितना दंगाइयों को लेकर है उतना प्रशासन को लेकर भी है। क्योंकि उनका कहना है कि ‘यह हादसा बिना सरकारी शह के नहीं हुआ। इस पूरे प्रकरण में पुलिस मूक दर्शक बनी रही। उन्होंने पुलिस पर आरोप लगाते हुए कहा कि पुलिस जानबूझ कर दंगाइयों को बढ़ावा दे रही थी।ज्
उनका कहना है कि अपनी आंखों के सामने अपने परिजनों का दुर्दशा देखना काफी दुखद था। वह इस समय आटो चलाते हैं उनका कहना है कि ‘अगर ऐसे हादसे नहीं होते तो आज हमारी स्थिति शायद इससे बेहतर होती। क्योंकि हमारी जिम्मेदारी हमारे पिता जी पर थी और पिता जी के न रहने पर यह मेरी मां पर आ गई । हम दो भाई और एक बहन थे। मां को सरकार ने एक अस्पताल में चपरासी की नौकरी दे रखी थी। शुरू में यह नौकरी हमारी रोजी-रोटी का साधन बना क्योंकि हम लोग छोटे थे इसलिए नौकरी नहीं कर सकते थे।ज्
उनका कहना है कि ‘जब मां की तनख्वाह कम पड़ने लगी और हमारी जरूरतें बढ़ने लगी तभी से मैं काम की तलाश करना शुरू कर दिया। चूंकि बहुत पढ़ा नहीं था इसलिए अच्छी जगह पर नौकरी नहीं मिली लेकिन हां काफी तलाश के बाद एक कंपनी में डाई फीटर का काम किया।
मां नौकरी के बाद भी प्राइवेट काम करती थी। हमने काफी मेहनत करके अपने भाई-बहन को पढ़ाया लिखाया। 1996 में मेरी भी शादी हो गई जिससे खर्च और बढ़ गया। इसलिए किराए का आटो चलाना शुरू कर दिया। अब रोज का ताजा कमाना और ताजा खाना।
उनको सरकार को लेकर नाराजगी है कि सरकार जिसे सरकारी सहायता कहती है वह एक आदमी की एक महीने की कमाई से भी कम है क्योंकि यह जितने समय बाद मिली है उससे अधिक उसका वेतन हो जाता। यही नहीं उन्होने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि ‘जिस सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और एचकेएल भगत ने हमारा घर उजाड़ा सरकार उन्हें प्रश्रय दे रही है। यह हमारे घावों पर नमक छिड़कने जसा है।ज्
यह पूछे जाने पर कि जो सरकारी सहायता मिली उसका उपयोग आपने किस तरह किया?
उनका कहना है ‘उससे हमें काफी राहत मिली, मेरी बहन की शादी उन्ही पैसों से हुई। लेकिन वह सरकार से और सहायता की उम्मीद भी करते हैं जिससे वह अपनी आटो खरीद सकें । उन्हे यह भी अफसोस है कि अगर मैं इस हादसे से प्रभावित नहीं होता शायद एक ट्रांसपोर्टर होता।

मैं असुरक्षित नहीं हूं

9-वजीर सिंह
मैं असुरक्षित नहीं हूं
तिलक नगर में रहने वाले वजीर सिंह अब प्रापर्टी डीलिंग का काम करते हैं। 84 के दंगों को याद करते हुए वह कहते हैं कि वह एक भयानक हादसा था जिसने हम सबको हिला दिया, कुछ दिनों के लिए हम अर्श स्ेा फर्श पर आ गए थे। लेकिन अपनी मेहतन और लगन से आज हम अच्छी स्थिति में हैं।
उन दिनों को याद करते हुए 43 वर्षीय वजीर सिंह का कहना है ‘उस समय वह अपने परिवार के साथ त्रिलोक पुरी 32/15 में रहते थे। घर का खर्च चलाने के लिए बस कुछ भी कर लेते थे। अधिक शिक्षा न होने के कारण कोई बड़ी तनख्वाह का नहीं मिलती थी। 1 नवम्बर 1984 को जब दंगे की शुरुआत हुई उस समय मैं कैपको इंजीनियरिंग वर्क्‍स पटपड़गंज में इंजीनियरिंग का काम करता था। जब हम लोग ड्यूटी पर जा रहे थे उसी समय दंगाइयों ने रोका। उसके बाद दंगाइयों ने फैक्ट्रियों में आग लगाना शुरू कर दिया।
यह दौर वास्तव हमारे परिवार के काफी मुश्किल था क्योंकि डर के कारण हम सहमें हुए थे और काम पर भी नहीं जा रहे थे। लेकिन दो नवम्बर हमारे लिए तबाही लेकर आया इस दिन दंगाइयों ने हमारे परिवार को तबाह कर दिया इस दंगे में हमारे कुल 15 सगे संबंधी मारे गए। हमारे पड़ोसियों से हमें काफी सहायता मिली। उनका कहना है कि यह सच है कि दंगों में सबसे अधिक मार-काट निचली जातियों के लोगों ने किया। फिर भी वजीर सिंह का कहना है कि ‘मैं प्रकाश हरिजन का शुक्रगुजार हूं जिसने मेरी जान बचाई। जब लोगों को इसके बारे में पता चला तो लोगों ने उसे भी धमकाया। फिर हमें दूसरी जगह शरण लेनी पड़ी। मेरी बुआ ने मेरा बाल काट दिया।ज्
पहली बार दंगे में सेना के साथ तोप सड़कों पर चली। सेना के आ जाने से हमें काफी राहत हुई। उन्होंने आरोप लगाया कि ‘उस समय उनके इलाके के एमपी एचकेएल भगत थे लेकिन उन्होंने हमारी तनिक भी सहायता नहीं की। हमें मिलिट्री फर्श बाजार कैंप ले गई। जहां पर हमें खाना-पानी और सुरक्षा मुहैय्या कराई गई।ज् उन्होने उस समय के काउंसलर के ऊपर भी आरोप लगाते हुए कहा कि ‘उसने कल्याणपुरी में खड़ा होकर दंगा करवाया।ज्
यह पूछे जाने पर कि कैसे बीता यह मुश्किल भरा दौर, उनका कहना है कि ‘सब वाहे गुरू की कृ पा की है उन्होने ही हमें शक्ति दी। हमारा लगभग सब कुछ लुट गया था अब हमें फिर से एक नई शुरूआत करनी थी और हमने इस चुनौती को स्वीकार किया। सबसे पहले हमने किराए का आटो चलाया यह काम हमने सात साल किया। लेकिन इससे मिलने वाले पैसों से घर की गाड़ी मुश्किल से चल पा रही थी। फिर स्पेयर पार्ट्स की दुकान खोली। लेकिन इसमें भी कोई खास मुनाफा नहीं हो पा रहा था। इसी बीच हमारी शादी हो गई इससे जिम्मेदारी और बढ़ गई। अब हमने राजस्थान जो हमारा पैतृक गांव था वहां की जमीन बेंच दी और प्रापर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया। इसमें हमें थोक मुनाफा होने लगा। तब से यही काम करता हूं।ज्
वह आगे कहते हैं कि आज मैं अपने को असुरक्षित महसूस नहीं करता हूं क्योंकि सबसे मेरे अच्छे संबंध हैं। और हमारी कोशिश भाईचारा बनाने की रहती है।

हम अखंड भारत चाहते हैं

8-धनवंत बिंद्रा
हम अखंड भारत चाहते हैं
1984 के दंगों को याद करते हुए टी-26 मस्जिद लेन निवासी धनवंत सिंह बिंद्रा बताते हैं कि उस समय वह वेस्टन कंपनी में सर्विस मैनेजर थे। वह बताते हैं कि ‘हमें पता चल चुका था कि इंदिरा गांधी को गोली मारी जा चुकी है। उस दिन कंपनी में पहले ही छुट्टी हो गई थी। स्थिति के बारे में बस लोगों से ही सुन रहा था। घर के लोगों की चिंता सता रही थी। किसी तरह घर आया वहां पता चला कि पिता जी मेडिकल में एक रिश्तेदार को देखने गए हैं। मुङो उनकी फि क्र सताने लगी। मैं फौरन पिता जी को देखने मेडिकल की तरफ भागा। जब कोटला के पास के पास पहुंचा तो पता चला लोग सिखों को देखकर भगा दे रहे हैं। सफदर जंग चौराहे पर राष्ट्रपति ज्ञानी जल सिंह की गाड़ी पर पथराव हुआ इससे स्थिति और गंभीर हो गई पहली बार ऐसा लगा कि अब राष्ट्रपति भी असुरक्षित हैं। वहां जाने पर पता चला कि पिता जी सुरक्षित घर जा चुके हैं।ज्
31 अक्टूबर को ही स्थिति तनाव पूर्ण हो गई थी। टिंबर मार्के ट की दुकानों को लोग लूट रहे थे और जला रहे थे। बाकी दुकानों को रात में ही बंद कर दे रहे थे। हमारे जीजा जी का ट्रक दंगाइयों ने लूट लिया। यह पूछे जाने पर कि क्या दंगाइयों को वह जानते थे धनवंत सिंह ने बताया कि अधिकतर दंगाई बाहर के थे जो केवल सामान लूटते या आग लगा देते थे। हमें बस घटनाओं का पता चलता कि यहां गोली चली है।
उनको खुद जो परेशानी उठानी पड़ी उसके बारे में वह बताते हैं कि माहौल चारो तरफ अच्छा नहीं था दुकाने भी बंद थी हमरा बच्चा छोटा गोद में था उसे दूध चाहिए था और दूध की डेरी निजामुद्दीन में थी। मुङो याद है एक सज्जन ने वहां स्थिति की नजाकत देखते हुए हमें भीड़ से अलग बुलाते हुए जल्दी से दूध दिया। दंगाई वहां पास में स्थित एक टेलीविजन की पूरी फैक्ट्री लूट ले गए। अफसोस इस बात का है कि पुलिस इस सारे कारनामें को मूकदर्शक बनकर देखती रही। इसके बाद हम लोगों ने भी अपने घरों में तलवार रखना शुरू कर दिया।
हमारे यहां भी दंगाई कभी भी आ सकते थे इसलिए हमारे मुहल्ले के लोगों ने गलियों में ट्रक खड़ा कर दिया था। मुङो पिता जी की बात नहीं भूलती उन्होने कहा कि ऐसा लगता है कि 1947 का दौर फिर आ गया।
हमें राहत तब मिली जब तीसरे दिन मद्रास रेजिमेंट यहां आई। रेजिमेंट ने सबसे पहले यही कहा कि जिसके घरों से लूट का सामान बरामद होगा उन्हे सजा दी जाएगी। इसके बाद लूट की घटना लगभग बंद हो गई।
सबसे ज्यादा लूट झुग्गियों में रहने वालों ने की। और आर्मी के डर से इनमें से कुछ ने सामान बाहर भी फेंक दिया। इस पूरे प्रकरण में सरकार के सिपहसालारों की भूमिका संदिग्ध थी। अभी तक बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनको सहायता राशि नहीं मिली है।
यह पूछे जाने पर कि अब कैसा महसूस करते हैं? उनका कहना है कि ऐसी घटनाएं देश को तोड़ती हैं इससे असुरक्षा पनपती है। हम तो हर हालत में अखंड भारत चाहते हैं।

हमारी तरक्की का राज है संगठन

7- दलजीत सिंह ओबेराय
हमारी तरक्की का राज है संगठन
23 मस्जिद लेन भोगल में रहने वाले दलजीत सिंह ओबेरॉय का कहना है कि हम 1984 में संगठित थे इसलिए बच गए और आज भी हम संगठित हैं इसलिए तरक्की कर रहे हैं।
विभाजन के बाद हमारे पुरखे पाकिस्तान से जान बचाते हुए आए, भारत को हम अपना देश समझते थे लेकिन एक बार फिर हमारे देश में ही हमें जान के लाले पड़ गए। रब का लाख-लाख शुक्र है कि हमारे परिवार की जान बच गई। वह बताते हैं ‘हमारे कुछ रिश्तेदार जो भोगल में नहीं रहते थे वो मारे गए। हमें उनको खोने का बेहद दुख है क्योंकि वह बेगुनाह थे और हमारे अजीज भी थे।ज्
वह आगे कहते हैं ‘भोगल में भी दंगाइयों ने कम उत्पात नहीं मचाया था। वह बस एक मौका चाहते थे हमें खत्म करने का। हमारा उनसे कोई जातिय बैर नहीं था लेकिन वे उन्मादी थे और एक भारी भीड़ हमारी दुश्मन हुई जा रही थी। एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि यह दिल्ली मेरी अपनी नहीं बेगानी है। हमारे साथ किसी भी वक्त अनहोनी हो सकती थी। हमने अपनी गलियों के आगे अपने ट्रक खड़ा कर रखे थे जिससे दंगाइयों की पूरी भीड़ यहां न आ सके। और अगर वह एक-एक करके आते तो हम उनसे निपट सकते थे।ज्
63 वर्षीय दलजीत सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे जब 84 का सिख दंगा हुआ था। वह उस समय की घटना को याद करते-करते खो जाते हैं। फिर काफी देर चुप होने के बाद कहते हैं कि ‘31 अक्टूबर को मैं मेहरौली में अपना ट्रक खड़ा किए हुए कमेंट्री सुन रहा था तब पता चला कि इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई। यह खबर काफी आहत करने वाली थी क्योंकि वह हमारे देश की काबिल प्रधानमंत्री थी। दूसरी खबर हमारे साथी ट्रक ड्राइवर जो मेडिकल की तरफ से आ रहे थे वे वहां पर हो रही हाथापाई के बारे में बता रहे थे। जो हमें फिक्र में डाल रही थी हमें अपने परिवार को लेकर चिंता थी। किसी तरह मैं अपने घर पहुंचा। लोग दुकानों को लूट रहे थे, उनमें आग लगा रहे थे। 1 नवम्बर को एक भारी भीड़ भोगल की तरफ बढ़ी आ रही थी लोग खून का बदला खून का नारा दे रहे थे।ज्
ये दंगा लगभग पूरे दिल्ली में फैला हुआ था। दंगाइयों ने पालम गांव में हमारे जीजा राजेंद्र सिंह ओबेरॉय और उनके बेटे को मार दिया। हम अपने रिश्तेदारों को लेकर भी चिंतित थे।
मामला धीरे-धीरे शांत हुआ। हमारे पास के गुरुद्वारे में बहुत सारे शरणार्थी आए हुए थे। हम लोगों अपने घर से उनके खाने के लिए खाने के लिए ले जाते थे। इसके अलावा उनकी मदद के लिए चंदा भी इकट्ठा करते थे।
हम आज भी लोगों की मदद करते हैं। वे चाहे हमारे समुदाय के न हो फिर भी। आज हमारा बेटा ट्रवेल एजेंसी का काम देखता है। हम पहले से बेहतर हैं आराम से रोजी रोटी चल रही है। लेकिन देश में हो रहे तरह-तरह के फसाद हमें दुखी करते हैं।

नए हौसले से की शुरुआत

6-मनिंदर सिंह
नए हौसले से की शुरुआत
मनिन्दर सिंह एक ट्रांसपोर्ट कंपनी चलाते हैं। इस समय वह अपनी मेहनत से ट्रकों की संख्या में इजाफा कर रहे हैं। ये हिम्मत, ये जज्बा, ये तरक्की उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 1984 में हुए सिख दंगों में मानो इनका पूरा व्यापार ही बिखर गया था। दंगाइयों ने इनके ट्रकों को आग लगा दी घर छोड़कर इनके परिवार को लंगर में दिन बिताना पड़ा। फिर भी एक नए हौसले के साथ इन्होंने शुरूआत की।
अपने बुरे वक्त को याद करते हुए मनिंदर कहते हैं कि वह समय हमारा सब कुछ लुटा देने वाला था। हमें यह भी पता नहीं था कब हमारे साथ क्या हो जाएगा। क्योंकि चारो ओर हाहाकार था हम तो पहले कुछ समझ नहीं पाए कि आखिर क्या हो रहा है। हमारे ढेर सारे साथी घरों में छुप गए। हम सब अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे।
मनिन्दर सिंह तब भी आश्रम में ही रहते थे उस वक्त भी उनका ट्रांसपोर्ट का ही काम था। 31 अक्टूबर की घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि उन्हे कहीं बाहर जाना था लेकिन हालात ठीक न होने की वजह से वह नहीं जा सके। आश्रम पुल के पास ही हमारा घर था। हमने घर के बाहर अपनी सारी ट्रकें लगा दी जिससे की दंगाई इधर न आ सकें। 1 नवम्बर को दंगाइयों बड़ा हुजूूम हमारे घरों की तरफ आ रहा था। उस समय पुलिस ने भी उन्हे नहीं रोका। वह बस हमें भरोसा दिला रहे थे कि हम सुरक्षित हैं लेकिन वास्तविकता यह नहीं थी। हमने भी अपने बचाव के सारे उपाय कर लिए थे। उनका कहना है कि ‘हमारे घरों की औरतों की भी बुरी स्थिति थी। इनको लेकर हम भी चिंचित थे। पुल के ऊपर पीएससी लगी थी वो हमारे घरों की तरफ कुछ ऐसा फेंकते थे जिसके आग लग जाती थी। उसी समय हमारा सारा ट्रक जल गया। हम डर के मारे बाला साहब ग़ुरुद्वारे में चले गए। जब यहां पर आर्मी आई तब जाकर हालात कुछ सुधरे। हम लोग शालीमार के मार एक कैंप में रहे क्योंकि हम पूरी तरह असुरक्षित थे। लगभग हमारा सब कुछ लुट गया था। ड़ेढ महीने तक यहां आर्मी ने फ्लैग मार्च किया। हमने डेढ़ महीने तक गुरुद्वारे का लंगर खाया। उस समय की कांग्रेस सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उस वक्त हमारे देश का राष्ट्रपति और गृहमंत्री दोनों सिख थे हमें ऐसे हादसे की उम्मीद नहीं थी। हमारे गुरुओं ने इस देश के लिए शहादत दी है। सरकार ने हमें पूरी तरह से अपाहिज बना दिया।ज्
हम तो बिल्कुल बरबाद हो गए थे, हमारे धार्मिक नेताओं ने हमें बैंक से कर्जे दिलाए जिससे हमारी गाड़ी फिर पटरी पर आ गई। आज हम पहले से अच्छी स्थिति में हैं। अब व्यापार भी ठीक से चल रहा है। लेकिन राजनीति का कोई धर्म नहीं है। हमें सरकारों ने केवल इस्तेमाल किया है। हमे अब भी ये डर रहता है कि कहीं ऐसे हादसे फिर न हो जाएं।

हिम्मत हो तो आसान है जिंदगी

5-शमनी बाई
हिम्मत हो तो आसान है जिंदगी
देवर की आटे की चक्की है उसी के परिवार के साथ रहती हूं बेटे की तरह पाला है उसको और आज भी उसी फूर्ती के साथ कभी-कभी रोटी पका कर खिला देती हूं। ये कहना है 50 साल की शमनी बाई का जो 84 के दंगे के समय त्रिलोकपुरी में रहती थी और अब तिलक विहार में अपने पूरे परिवार के साथ रहती हैं। दंगे का दर्द इन्हे अब भी टीसता है। इसके बारे में कुछ पूछने पर वह अपने परिवार के मारे गए परिजनों के बारे में बताने लगती हैं। इनका दुख कम नहीं है। 84 का दंगा इनके परिवार पर पहाड़ बन कर टूटा। स्थिति तब कुछ बेहतर हुई जब सरकार ने इन्हे एक स्कूल में चपरासी की नौकरी दी जिससे रोटी के लाले नहीं पड़े। लेकिन उम्र गलत लिख जाने के कारण समय से पहले नौकरी भी चली गई। उनको यह अफसोस है कि उनके पति दंगे की चपेट में आ गए लेकिन जिस हिम्मत से उन्होनें अपने घर को चलाया उस पर पड़ोस वालों को भी फक्र है। उनका कहना है कि यदि हिम्मत हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किल का सामना किया जा सकता है।
दंगे की घटना याद करते ही हिल उठती हैं। उनका कहना है कि ‘दंगाइयों ने चुन चुन कर हमारे परिवार के लोगों को मारा पहले देवर को मारा सास बचाने गई तो सास को भी मार दिया। मेरे 15 साल के बेटे मनोहर को तो मेरी आंखों के सामने मारा। चिलागांव के पास पति को मारा, जेठ, जिठानी सबको मारा। पूरी तरह बिखर गया हमारा परिवार, अपनों का कोई सहारा नहीं बचा था जो हमें ढांढस बंधाता बस एक दूसरे का मुंह देखकर जीते थे। छोटे बेटे का हमने बाल काट दिया।ज्
यह पूछे जाने पर कि क्या घरों को लूटने वाले आपके पड़ोसी थे या बाहरी? उनका कहना था कि लूटने वाले हमारे पड़ोसी नहीं थे क्योंकि पूरे मुहल्ले में अपने लोग ही बसे थे। हमें बाहरी लोगों ने लूटा जो झुग्गियों में रहते थे। उन्होने हमारा सारा सामान उठा लिया और हमारे घर को आग लगा दी।
शमनी बाई को पुलिस से भी शिकायत है कि उसने उनका साथ न देकर दंगाइयों का साथ दिया नहीं तो आज उनको यह दिन नहीं देखने पड़ते। पारिवारिक समस्या से जूझते हुए उन्होने मुआवजे के पैसों से अपनी बेटियों की शादी की। लेकिन सरकार से वह अब भी नाराज हैं उनके पास सारे सबूत हैं लेकिन उस पर किसी तरह की सुनवाई नहीं होती है। सरकार से उनकी मांग है कि वह उनके बच्चों को नौकरी दे देती तो वे बेरोजगार होकर नहीं घूमते या कुछ पैसे दे देती जिससे वह अपना व्यापार चला लेते। जिससे उनका भविष्य सुधर जाता। उन्हे इस बात का अफसोस है कि वह अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकी। फिर भी बच्चों को अपनी मां के संघर्ष से सीख मिलती है और वह अपनी मां को देखकर आगे बढ़ने को प्रेरित होते हैं।

हमें अपने हाथों पर भरोसा है

4-हमें अपने हाथों पर भरोसा है
बस रोजी रोटी किसी तरह चल रही है। सरकार ने अपना काम किया और हम अपना काम कर रहे हैं। यह कहना है धर्मपुरी ख्याला निवासी बलबीर सिंह का। चौरासी के दंगे की घटना को याद करके मानो उनकी रूह ही कांप जाती है। अब उनका काम कै से चल रहा है? यह पूछे जाने पर कहते हैं बस चल ही रहा है न सरकार को जो करना था वह कर गई। हमारा सब कुछ लुट गया। हमें अपनी मेहनत पर भरोसा है और इसी के सहारे हम अपना काम चला रहे हैं। अब दो वक्त की रोटी और पानी का जुगाड़ हो जाता है। कभी आटो चला लिया कभी मजदूरी कर ली हार कर कभी नहीं बैठे। मेरा मानना है जो हार गया वो मर गया।
दंगाइयों ने मुङो मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह कहते-कहते उनकी आंखें भर आती है। फिर कु़छ देर चुप होने के बाद वह उस हादसे के बारे में बताने लगते हैं कि ‘हम राजस्थान से कमाने के लिए दिल्ली आए हुए थे। हम भाई के साथ सुल्तानपुरी पी 1 में रहते थे। 1 नवम्बर की शाम चारो तरफ धुंआ दिखाई दिया हमारे मुहल्ले के लोग घरों में घुस गए लोगों को यह डर सताने लगा कि हमारे साथ कुछ भी हो सकता है। कुछ लोग जो बाहर फंस गए थे उनके बारे में एक काफी भयानक समाचार सुनने क ो मिलते थे। हमें अपनों का भी साथ नहीं मिला हमने डर के मारे अपने हाथों से ही अपने बाल काट लिये। दंगाइयों ने हमारी बस्तियों को लोगों ने आग लगा दिया। हम डर के रिश्तेदारों के पास गए लेकिन हमारे रिश्तेदारों ने भी हमारा साथ नहीं दिया। उनको भी यह डर था कि कहीं दंगाई हमारी वजह से उनको न नुकसान पहुंचा दें। उस समय काफी ठंड पड़ रही थी दंगाइयों ने हमारा घर जला दिया था हमारे पास बिस्तर भी नहीं था।ज् यह कहते हुए उनका गला रुंध गया। उनको अपना परिवार खोने का गम है।
सरकार पर बिफरते हुए बलबीर सिंह ने कहा कि हमारे सारे कागजात जल गए थे सरकार बार-बार हमसे सबूत मांगती है हम सबूत कहां से दें। आज तक हमें एक पैसा मुआवजा भी नहीं मिला। हमें अफसोस इस बात का है कि जिस कांग्रेसी नेताओं को हमने वोट दिया था उसी ने हमारे साथ दगा किया। हमें आज तक अपना कसूर पता नहीं है। गलती किसी और ने की और सजा हम जसे बेगुनाहों को मिली। उस पर से सरकार की हर साल नौकरी देने की घोषणा लेकिन बस ख्याली पुलाव। अगर सरकार हमें नौकरी दे देती तो आज हम भी अपने बच्चों का पालन पोषण ठीक ढंग से करते हमारे बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ते। अब हम अपनी मेहनत के बल पर जो कमाते उसी से गुजारा चलता है। हम मेहनती कौम के लोग हैं और मेहनत पर यकीन रखते हैं। लेकिन सरकारी सहायता अगर मिल जाती तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम हो जाता।

अब पटरी पर आ गई जिंदगी

3-आत्मा सिंह लुबाना

नाम आत्मा सिंह लुबाना पिता का नाम मिरचू सिंह पुराना पता मंगोलपुरी एफ ब्लाक 825। अब तिलक विहार में रहते हैं। एक प्रश्न का इतनी बेबाकी से उत्तर देने के बाद उन्होंने पूछ लिया, लेकिन आप क्या पूछना चाहते हैं। और क्यों पूछना चाहते हैं? इसके अतिरिक्त ढेर सारे सवाल आत्मा सिंह लुबाना ने गुरुद्वारा तिलक विहार में हमसे पूछ लिया। हमने अपना परिचय देने के साथ 1984 के सिख दंगा पीड़ितों की वर्तमान स्थिति के बारे में जानने की जिज्ञासा बताई। और फिर बात शुरू हो गई।
उन्होंने बताया कि ‘इस दंगे में हमने अपने बहुत सारे रिश्तेदार और भाई चंदन सिंह को खो दिया। मां, पिता जी, भाभी ये लोग राजस्थान शादी में गए थे इसलिए बच गए। बस किसी तरह मेरी भी जान बच गईज्।
अपनी आप बीती बताते हुए आत्मा सिंह ने कहा ‘ मैं 1 नवम्बर को विष्णु गार्डेन से पहाड़गंज जाने के लिए सुबह 6 बजे निकला कि दंगाइयों ने मेरे ऊपर पथराव शुरू कर दिए। मैं भागते और छुपते हुए अपने भाई के ससुराल आ गया। और 11 बजे के बाद दंगे ने तेजी पकड़ ली। हमें बाद में पता चला कि दंगाइयों ने हमारी दुकान भी लूट ली। एक से दस तारीख तक मैं भाई की ससुराल ही रहा। इसके बाद में डर के मारे मैंने अपनी दुकान मात्र 18 हजार में बेच दी। अब हमारे तंगहाली की शुरुआत हो चुकी थी। माहौल चारो तरफ खराब हो चुका था मैं इस स्थिति को देखकर परेशान था। खाने-कमाने को कुछ नहीं बचा था अब लौटकर अपने गृह राज्य राजस्थान ही जाना उचित समझा, इसलिए 30 महीनों तक राजस्थान रहा। इसके बाद फिर दिल्ली आया और इस बार मैंने 84 के दंगों में पीड़ित हुए लोगों के साथ खड़ा हो गया। और उनके हक के लिए लड़ाई छेड़ दी। मुङो नवम्बर 1984 दंगा पीड़ित कैंप का अध्यक्ष चुना गया इसके अलावा मैं दिल्ली सिख गुरूद्वारा प्रबंध कमेटी का मेंबर भी रह चुका हूं। फिर मैंने पीड़ितों के पुनर्वास के लिए भी कोशिशें की। हम लोगो के संयुक्त प्रयास से उस समय के गृहमंत्री बूटा सिंह के ऊपर दबाव बनाया जिससे उन्होने पीड़ितो से शपथ पत्र मांगे हमने अपने हाथों से 493 लोगों के शपथपत्र लिखे लेकिन मात्र 203 लोगों के शपथ पत्र को अनदेखा कर दिया गया। लेकिन जो शपथ पत्र हमनें लिखे उस पर ही जगदीश टाइटलर और अन्य आरोपियों पर कार्रवाई हुई। इस मामले में कइयों गवाहों को अनदेखा कर दिया गया।

हमारे कई साथियों की जिंदगी इस हादसे के बाद धीरे-धीरे सुधर रही है कुछ तो अब भी न्याय की आस में भटक रहे हैं। हम भी धीरे-धीरे अपने काम को शुरू कर दिये जिससे रोजी-रोटी चल निकली बस किसी तरह अब पटरी पर आ गई है जिंदगी। अब हमारे पास एक किरोसीन ऑयल की दुकान है भाई किसी तरह अमेरिका चले गए इससे हमारी आर्थिक हालत में काफी सुधार आया। अब तो अधिकतर समय गुरुद्वारे में ही बीतता है। इसी का निर्माण कराने में लगे हैं। अगर कोई अपनी समस्या ले के आ जाता है तो जनप्रतिनिधि होने के नाते उसकी मदद भी कर देता हूं। लेकिन हम सरकार से यह मांग करते हैं कि पीड़ितो को पर्याप्त मुआवजा दिया जाए जिससे उनकी हालत में सुधार आ सके।

हमें बेगुनाही की सजा मिली

2-साजन सिंह
32/86-87 त्रिलोकपुरी यह पता है साजन सिंह के उस पुराने मकान का जहां वह बड़ी हंसी-खुशी अपने परिवार के साथ रहते थे लेकिन उनको क्या पता था कि 1 नवम्बर 1984 की रात उनके परिवार के लिए कयामत की रात बन कर आएगी।
57 वर्षीय साजन सिंह उस वक्त को याद करते हुए अब भी कांप जाते हैं। उनका कहना है कि हमें बेगुनाही की सजा मिली। इस हादसे के बारे में बताते हैं कि ‘उस समय मैं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करता था जब पता चला कि दो सिक्खों ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को गोली मार दी है और वह एम्स में भर्ती हैं।
दंगाइयों से बचने के लिए मैंने अपने हाथों से ही अपना बाल काट लिय। दंगाई मुङो भी ढूंढते हुए आए लेकिन सीढ़ियों के नीचे मेरी पत्नी ने मुङो छुपा दिया और उसके ऊपर चारपाई डाल दी। तब जाकर मेरी जान बची।ज्
उन्होंने आगे बताया कि दंगाइयों ने मेरे बारे में मेरी पत्नी ठाकरी से भी पूछा, उसके नहीं बताने पर उसे डंडे मारा। आज भी उसे घाव दर्द देते हैं।
उनका कहना है कि काफी मुसीबत के बाद उनको तिलक नगर में मकान मिला जिसमें वह अपने परिवार के साथ रहने आए लेकिन खाने को कुछ भी नहीं था और हमारे सारे सामान लूट लिए गए थे। अब फिर से एक नई शुरुआत करना कठिन काम था। काफी दिनों के बाद हमने आटो चलाना फिर शुरू कर दिया। जिससे कुछ आमदनी हुई। लेकिन रोज की कमाई भी इतने परिवार के लिए कम पड़ जाती थी। इस बीच सरकार ने हमको जो मुआवजा दिया वह आगे के लिए सहारा बना।
उनका कहना है कि ‘उस समय उनको 10 हजार रुपए की दो किस्तें मिलीं। जिससे काफी मदद मिली क्योंकि सब कु़छ लुट जाने के बाद कुछ पैसा मिल जाने से हमें थोड़ा साहस मिला। इसके बाद सरकार ने हमें सात लाख रुपए दिए जिससे हमनें अपनी बेटियों की शादी की। तीन बेटियों की शादी हमने मुआवजे के पैसों से की। लेकिन घर का खर्च चलाने के लिए मुङो फिर से मेहनत करनी पड़ी।ज्
अपनी वर्तमान स्थिति के बारे साजन सिंह बताते हैं कि ‘अब भी तीन लड़कियों की शादी करनी है और दो लड़के हैं जो पढ़ाई पूरी करके काम की तलाश में हैं। एक बेटा आटो चलाता है जिससे कु़छ आमदनी हो जाती है।ज्
साजन सिंह का कहना है कि उनकी गुरुनानक में बड़ी आस्था है इसलिए वह वक्त निकालकर गुरुद्वारे की सेवा करने जरूर जाते हैं। अपनी इस नई शुरुआत से वह खुश हैं लेकिन अपने परिजनों के खोने का दुख उन्हे अब भी है। उनको सरकार से भी शिकायत है कि 84 के पीड़ितों के लिए जो मुआवजा निर्धारित किया गया था वह उन्हें नहीं मिला। सरकार भी उनके साथ छलावा करती है। आज तक मेडिकल क्लेम भी उनके परिवार को नहीं मिला। यही नहीं उनका कहना है कि उनके पिता की मृत्यु का मुआवजा उन्हे 2006 में मिला।
इसके बाद भी वह कहते हैं कि अब सब कुछ ठीक है लेकिन बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। सरकार अगर उन्हे रोजगार दे देती तो उनकी जिंदगी भी संवर जाती।

हमें अपनी मेहनत पर नाज है

1-महेंद्र सिंह
वीरेन्द्र नगर निवासी महेन्द्र सिंह उर्फ गोल्डी जब भी 84 के दंगे को याद करते हैं यही कहते हैं कि हम उसे एक बुरा सपना समझकर भूल जाना चाहते हैं। वह बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि ‘इस दंगे को कांग्रेस ने भड़ाकाया लेकिन और दलों की भूमिका भी बुहुत अच्छी नहीं थी। बहरहाल वह दिन बीत गया। उसे हम फिर याद भी नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसा लगता है कि नियति में यही लिखा था।ज्


यह पूछे जाने पर कि हादसे के बाद किस तरह संभले महेन्द्र सिंह का कहना है कि हम चार भाई थे पिता जी सेना में काम करते थे तब तनख्वाह बहुत अधिक नहीं हुआ करती थी। बस किसी तरह खर्च चल जाया करता था। तंगी की हालत में पिता जी जो पैसा भेजते थे उसी से घर का खर्च चलता था लेकिन वह पैसा पर्याप्त नहीं हो पाता था। हमारे बुजुर्गों ने इस हालात के बाद फुटपाथ पर ब्रेड तक बेंचा है।

अब हम भाइयों ने भी उस हालत में अखबार बेंचना शुरू कर दिया था। फिर भी पैसे इतने नहीं मिलते थे कि एक अच्छा जीवन बसर कर लिया जाए। कभी ब्रेड चाय के साथ खा लिया तो कभी नमक रोटी के साथ। इसी तरह आधे पेट खाकर गुजारा होता था। इसके बाद भाई ने कूलर बनाने का काम शुरू कर दिया। इससे कुछ पैसे अधिक मिल जाते थे।


हमने फिर रहने के लिए एक मकान लिया। अब धीरे-धीरे गाड़ी पटरी पर आने लगी थी। लेकिन हमारे आमदनी का जरिया अब भी बहुत अधिक नहीं था। फिर हमने गाड़ी बेचने और खरीदने का काम शुरू कर दिया। इसके अलावा लोगों को मकान किराए पर दिलवाना, अखबार के डीलर को एक नया ग्राहक देना जसे काम भी किए।


वह मुस्कुराते हुए बताते हैं कि एक हिन्दी अखबार का ग्राहक दिलाने पर 15 रुपए और एक अंग्रेजी अखबार का ग्राहक दिलाने पर 20 रुपए मिलते थे। इससे धीरे-धीरे हमारे पास कुछ पैसे इकट्ठे हो गए। अब हमने अपना खुद का कारोबार करने का सोचा। वाहे गुरू की कृपा से हमारी मेहनत रंग लाने लगी। हमें जसे-जसे फायदा होता था हम दुगनी मेहनत से काम करते थे।


धीरे-धीरे भाइयों की भी अब शादी हो गई और सबने अपना-अपना घर बसा लिया। हमारी भी शादी हो गई। हमने अपना एक छोटा सा अखबार खोल लिया। जिसमें लोगों की समस्यायों को हम प्रमुखता से उठाते हैं। हमारे अखबार का सर्कुलेशन बहुत अधिक नहीं है फिर भी आजीविका चल जाती है।


इस दंगे में हमें हिला कर रख दिया लेकिन फिर हम अपनी मेहनत के साथ आज जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। हर एक मुश्किल हमें नई सीख देती है और मुश्किलें हमें काम करने की प्रेरणा देती है। हम अपने परिवार के शुक्रगुजार हैं कि इस मुश्किल भरे दिन में हमारे परिवार ने हमारा भरपूर साथ दिया।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...