Friday, July 10, 2009

बजट पर एक और बहस

बजट के पूर्व की अटकलों ने जो ख्वाब दिखाया था वह काफूर हो गया। उम्मीद भी ऐसी टूटी की अब जुड़ना मुश्किल लग रहा है। लग रहा है पूरी उम्र टैक्स चुकाते ही जाएगी। सहीराम से अपनी व्यथा उनके गांव के सज्जन बयां कर रहे थे। सहीराम को उनकी व्यथा नहीं सुनी गई तब वह उन्हे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बाबा चवन्नी के पास ले गए। सज्जन वहां भी शुरू हो गए। उनकी बात सुनकर बाबा चवन्नी ने भवें तान ली और बोले लोकतंत्र की जीभ में हड्डी नहीं होती जिधर चाहे लचका लो, लेकिन सत्ता सुख का मर्म तो आप लोग जानते ही नहीं हैं। फिर उन्होने जो घुट्टी पिलाई कि सज्जन की बोली बंद। अब तो लोग अपनी सभी प्रकार की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए बाबा चवन्नी के दरबार में आने लगे। एक किसान दम्पत्ति ने जब अपनी समस्या कुछ इस तरह से रखी कि , बाबा जी मैं एमबीए हूं और मेरी पत्नी एमसीए हम दोनों मेहनत से काम कर रहे थे और जिन्दगी में मिठास थी लेकिन आर्थिक मंदी ने प्यार के हलवे में हींग का तड़का लगा दिया । हमारी नौकरी कोसों दूर चली गई। अब मियां बीबी खेती करते हैं। लेकिन हमारे लिए मंदी में कोई ठोस उपाया नहीं हैं। इस पर बाबा ने उन्हे जोर से डांटा, अरे मूर्ख तुम्हे तो छूट ही छूट है ।
तुम्हारी पत्नी कूकर में खाना पकाएगी और गहना पहनकर खेत में खाना लेकर जाएगी। यही नहीं अब एसीडी और सीडी प्लेयर भी सस्ते हो रहे हैं जम कर घर पर ता थैया थैय्या करो। और कहो जय हो दादा की।
लेकिन बाबा गैस सिलेंडर गांव में नहीं आता और बिजली का तो महीनों से पता नहीं न तार है न करंट बस गांव में खम्भे गड़े हैं ऐसे में बजट में विकास की बातें मुंह चिढ़ाती हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं है, उनकी बात बीच में काटते हुए बाबा बोल पड़े देखो बच्चा भावावेश में मत बहो ये दोनों बेकार चीजें हैं। आप तो जानते हैं जो पढ़ेगा वो बढ़ेगा और बढ़ेगा वह मांगेगा फिर कहां से देगें इतनी नौकरी। और रही बात स्वास्थ्य पर खर्च करने की तो वह बेवकूृफी है क्योंकि अपना बेटा जब थोड़ा तगड़ा हो जाता है तो आंख तरेरता है फिर ये तो जनता है।
लेकिन बाबा कागज मंहगा हो गया और जूता सस्ता। हां जबसे पत्रकारों ने जूते मारने शुरू किए हैं तब से सरकार को इस पर विचार करना पड़ा रही बात कागज की तो इसका तो शुरू से दुरुपयोग हुआ है। माने अब लिखना छोड़कर जूता...
अभिनव उपाध्याय

एक ही थैले के...

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