Sunday, December 25, 2011

लालू के लोकतंत्र की हंसी

अरुण कुमार त्रिपाठी

गुरुवार को लोकसभा में लोकपाल विधेयक पेश किए जाते समय लालू प्रसाद के भाषण के समय उठती हंसी को देख और सुनकर रघुवीर सहाय की ‘हंसो, हंसो, जल्दी हंसो कविता याद आ गई। करीब साढ़े तीन दशक पहले लिखी गई यह कविता नेताओं की भ्रष्ट और क्रूर होती जमात पर व्यंग्य है। वह कहती है-
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे
निर्धन जनता का शोषण है, कह कर आप हंसे,
आप सभी हैं भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे,
चारों ओर बड़ी लाचारी, कह कर आप हंसे,
कितने आप सुरक्षित होंगे कह कर आप हंसे
जाहिर है सामाजिक, धार्मिक टकराव से थककर वर्गीय टकराव की तरफ बढ़ते और पूंजीवाद के वैश्विक संकट का राष्ट्रीय समाधान निकालने में नाकाम होते लोकतंत्र में तेजी से पसरती उदासी के बीच राजद नेता लालू प्रसाद की हंसोड़ शैली का थोड़ा बहुत विनोद सभी को अच्छा ही लगता है। लालू इस शैली में माहिर हैं और उन्होंने सभी का ध्यान भी खींचा और खूब मनोविनोद किया। लेकिन क्या लालू प्रसाद के व्याख्यान को महज मनोविनोद की शैली में रखा जा सकता है? लोगों का कहना है कि गुरुवार के भाषण से लालू छा गए। राजनीतिक पृष्ठभूमि में जा चुके लालू प्रसाद इस तरह के अवसर ढूंढते रहते हैं और उनके लिए यह एक मौका था जिसमें वे चर्चा में भी आएं और कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी के प्रति इतनी वफादारी जाहिर करें कि देर सबेर उसी तरह मंत्री पद मिल जाए जिस तरह अजित सिंह को प्राप्त हो जाए। लेकिन उनके मनोविनोदी भाषण में कुछ एेसे विचार भी व्यक्त किए गए जो उनके अपने ही नहीं थे। उन के पीछे कहीं कांग्रेस की मौन स्वीकृति थी और कांग्रेस की ही क्यों तमाम राजनीतिक दलों को अपनी बात लग रही थी। वरना क्या वजह है कि छोटी-छोटी बात पर विरोध और हंगामा खड़ा करने वाले सांसद लालू की बात का मजा लेने के साथ कहीं अंदर से तादात्म्य भी कायम करते लगे। हालांकि लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव इससे पहले भी कई मौकों पर एकजुट रहे हैं, लेकिन इस बार तो लालू प्रसाद ने अपनी एकता शिवसेना जसी पार्टी के साथ भी कायम कर ली।
दरअसल लालू प्रसाद की बात पर हंसने और मजा लेने वाले सांसदों को देखकर यही लग रहा था कि भारतीय राजनीति में विचारों का अंत भले न हुआ हो लेकिन विचार शून्यता तो आ ही गई है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि जो लालू प्रसाद डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति और समाज में होने वाले क्रांतिकारी परिवर्तन के नायक जसे दिखते थे वे आज मसखरे हो गए? उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के दुघर्ष योद्धा के तौर पर उभरे मुलायम सिंह को क्या हो गया कि वे समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर कोई नई पहल करने के बजाय अक्सर लालू और शरद के साथ संकीर्ण गठजोड़ ही बनाने की फिराक में रहते हैं?
बहुत संभव है कि लालू, मुलायम और शरद यादव पूरी ईमानदारी से यह महसूस करते हों कि लोकपाल जसी संस्था का बनना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भस्मासुर साबित होगा। इसके पीछे विकें्रीकरण के सिद्धांत की मान्यता और लोकतंत्र के प्रति सदिच्छा भी हो सकती है। लेकिन वह सदिच्छा तब कहां चली जाती है जब लोकपाल में आरक्षण के प्रावधान का सवाल आता है। यानी वैसे तो लोकपाल बुरा है लेकिन बन रहा है तो उसमें आरक्षण भी कर दिया जाए। जो लोकपाल वैसे ही बुरा है वह आरक्षण की व्यवस्था के बाद कैसे अच्छा हो जाएगा यह बात समझ से परे है। दरअसल राजनीति के सारे कार्यक्रम किसी सिद्धांत के बजाय महज स्वार्थ और साजिश के आधार पर गढ़े जा रहे हैं। यही वजह है कि समय-समय पर अच्छी भूमिका भी निभाने वाले यह तीनों पिछड़े नेता अब गाढ़े मौकों पर फच्चर फंसाते दिखते हैं। फच्चर फंसाना भी उतना बुरा नहीं है जितना उससे आगे का रास्ता न दिखाना। अगर उनकी समाज और प्रशासन को बेहतर बनाने के बारे में कोई सोच है तो उसे प्रकट करते हुए आगे आना चाहिए। लेकिन सोच और विचार से ज्यादा उनकी राजनीति पर महत्वाकांक्षा और साजिश का सिद्धात हावी है। उन्हें लगता है कि वे देश के प्रधानमंत्री बनने ही वाले हैं और लोग उन्हें रोकने की साजिश करने में लगे हैं। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के बारे में सीमित सक्रियता दिखाने के बाद राजनीतिक यथास्थितिवाद को अपना लिया। रही कांग्रेस की बात तो आजादी के बाद वह देश के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में स्वत: बदलाव करने से भागती रही है। वह एक यथास्थितिवादी पार्टी रही है जो समाज में उठने वाले तमाम व्रिोहों को अपने भीतर आत्मसात करने के जुगाड़ में रही है। इसी को राजनीतिशाी रजनी कोठारी कांग्रेस प्रणाली की संज्ञा देते रहे हैं। लेकिन पिछले बीस सालों में उसकी धुरी आर्थिक और दक्षिणपंथी हो गई है और यही कारण है कि राजनीति के नए ध्रुव ही नहीं मध्यमार्ग पर भी लौटने में उसे मुश्किल हो रही है। वह जाति की सच्चाई को पकड़ नहीं पा रही है उदारीकरण के मोह को छोड़ नही पा रही है।
संघ परिवार और उससे जुड़ी भारतीय जनता पार्टी अपने माफिक राजनीतिक बदलाव तो चाहती रही है, लेकिन सामाजिक स्तर पर महज हिंदू और मु्स्लिम संबंधों में तब्दीली की हिमायती रही है। वह मूल रूप से एक अनुदार पार्टी है जो कांग्रेस के विपरीत सामाजिक बदलावों को सांप्रदायिक प्रतिक्रिया के साथ अपनाती रही है। रही कम्युनिस्टों की वैचारिक चेतना की बात तो पश्चिम बंगाल का चुनाव हारने के बाद उनकी जमात में बौद्धिक सन्नाटा छाया हुआ है। उन्हें इंतजार है इतिहास के करवट लेने का।
लड़खड़ाते उदारीकरण और ध्वस्त समाजवाद के बीच भारतीय राजनीति वैचारिक जड़ता की शिकार हो चुकी है। इस जड़ता को थोड़ा बहुत अन्ना हजारे और उनके साथियों ने तोड़ने की कोशिश की है, लेकिन उनकी भी सारी कोशिश संस्थावादी एनजीओ मानसिकता में अटक गई है। आंदोलन में शामिल लोग वैेचारिक आंदोलन चला पाने की स्थिति में नहीं हैं। वे सूचना के अधिकार और सरकार की तरफ से दिए गए सामाजिक कार्यो को संपन्न कर पैसा कमाने के माहिर लगते हैं। उन्हें तिरंगे के राष्ट्रवाद और लोगों की भ्रष्टाचार विरोधी भावनाओं को छूना तो आता है लेकिन उनमें वह क्षमता नहीं है कि लोहिया और जेपी की तरह व्यवस्था के आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं का वैकल्पिक विमर्श प्रस्तुत कर सकें। उसके लिए हमें भारतीय समाज के बदले हुए चरित्र पर अमेरिकी सर्वेक्षण एजेंसियों और क्रूर राजनीतिक हितों से दूर हटकर और ऊपर उठ कर विचार करना होगा। तरक्की के ढेर सारे दावों के बावजूद भारतीय समाज मौजूदा आर्थिक ढांचे से सहज नहीं है, लेकिन उसके सामने कोई नया स्वरूप है भी नहीं। हमारी राजनीति पद और पैसे की भूलभुलैया में भटक गई है। उसमें मजा तो बहुत है लेकिन रोशनी और हवा के लिए कोई खिड़की और रोशनदान नहीं है। एेसे में उसके पास लालू के प्रहसन पर हंसने के अलावा कोई ‘चारा नहीं है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...