Tuesday, July 20, 2010

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.....

सुनिए जी हम बात करना चाहते हैं? सच कहें तो जी भर के बात करना चाहते हैं? मानिए न मेरी बात हम बात करना चाहते हैं? इतने आग्रह पर तो गूंगा भी बात करने को राजी हो जाएगा लेकिन मियां शर्त है, और शर्त भी ऐसी कि हंसिए लेकिन दांत न दिखे या बोलिए लेकिन जुबान न खुले उसी तरह दौड़िए लेकिन पैर न हिले। जनाब बात भी हम ऐसे ही करना चाहते हैं। जुगानी ने सभा में यह शर्त रख दी। बात करने तो सब आए थे कि बिना बात किए ही जाना उचित समङो। किसी ने कोशिश भी की तो शर्त के आगे फे ल हो गए। तो हुजूर शर्ते इस तरह की भी हो सकती हैं। इस शर्त के आगे तो शाह मुहम्मद कुरैशी की शर्त तो कुछ भी नहीं। बिना वजह इसे लोग तूल दे बैठे। पड़ोसी को समस्या भी क्या है? बस उसी शर्त की तरह है कि खाना बनाओ लेकिन धुंआ मेरे घर नहीं आना चाहिए। फूल चढ़ाओ लेकिन सुगंध को कैद कर लो। चाचा चकचक हमेशा पड़ोसियों के लिए लट्ठ रखते थे लेकिन अब जमाना बदल गया पड़ोसी मिसाइल रखता है। जरा सी चूं चिकर करोगे तो फेंक देंगे। और ऐसे फे केंगे कि फिर पता भी नहीं चलेगा। लेकिन अपने पड़ोसी को कौन समझाए कि खून खराबा से कुछ नहीं होने वाला। अगर कुछ होगा तो मुहब्बत से लेकिन पड़ोसी से मुहब्बत परवान कहां चढ़ पाती है। फू ल दो तो वह उसका रंग-गंध नहीं देखता है हां कांटे पर नजर पहले जाती है। जब मुहब्बत के कांटे पड़ोसी को चुभने लगे तो मामला तो बिगड़ेगा ही।

तो हम फिर वार्ता पर आते हैं, हुजूर नतीजा कुछ न निकले लेकिन हम तो बतियाएंगे। एक दो बार नहीं, जब भी जी चाहे, यही नहीं, जब आदेश मिले, और तब भी जब वो चाहें। लेकिन चाहत तब अधूरी रह जाती है जब वह बात करते करते कुछ और कहने लगते हैं। कभी मुस्कुराते हैं, कभी खिसियाते हैं, कभी डराते हैं, कभी धमकाते हैं, कभी करीब आते हैं और कभी बात करते करते फु र्र्र। हुजूर ऐसे में कैसे बात करें। पड़ोसी के साथ तो एक और समस्या है पता ही नहीं चलता कि बात किससे करें। कभी कभी घर में सब बाप जसे लगते हैं और कभी कभी सब बेटा। जब मामला फायदे का हो तो पड़ोसी के घर सब मुखिया बन जाते हैं लेकिन जब घाटे का हो तो सब बच्चे। ऐसे में वार्ताकार की स्थिति बहुत नाजुक हो जाती है। हम तो गाना भी गाते है कि ‘दूर रह कर न करो बात करीब आ जाओज् लेकिन मर्जी उसकी फिर भी पड़ोसी चतुर है हर लड़ाई और मुहब्बत के बाद वह बात जरूर करता है। अब सुना है चुपके से बात करना चाहता है। उसे कौन समझाए कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी..

Friday, July 16, 2010

मेरा तांगा नहीं है....?

चल मेरी धन्नो.. यह शोले का मशहूर डायलाग था जिसे काफी दिनों तक अपनी गाड़ियों के पीछे जीप बस और ट्रक वाले भी लिखवाते थे। यह धन्नो तांगा खीचने वाली घोड़ी थी। पशुओं का मानव जीवन से गहरा रिश्ता है खासकर रोजगार से। दिल्ली से तांगा हटाने का फरमान जारी हो गया है। अस्तबल तोड़ दिए गए। अब उम्र भर तांगा चलाने वाला मोटरकार तो नहीं चला सकता। एक तांगा कई सवाल खड़े कर रहा है.. क्या हम इतने आधुनिक हुए हैं कि परंपराओं को एकदम भूल गए हैं या हम बाजारवाद की चपेट में हैं जो हम तांगे की विरासत को संभाल नहीं सकते या यह कि हम किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नीति का इंतजार कर रहे हैं जो तांगे पर गद्देदार सीट लगाएगी और एक अजूबा की तरह लोग उसे देखेंगे तथा कुछ संभ्रांत लोग ही उस पर बैठेंगे। वह कंपनी उस पर अपनी मर्जी से टिकट रखेगी और तांगा पर चढ़ना तब एक फक्र की बात होगी। उसका घोड़ा साफ इत्र से युक्त होगा। बहरहाल तांगा और उसकी स्थिति तथा दिल्ली से जुड़े तांगे की स्थिति के बारे में वरिष्ठ पत्रकार हबीब अख्तर के विचार-

जो धीरे चलता है ह तेज गति से चलनेोलों से पिछड़ जाता है। यह सच्चाई हर जगह लागू होती है। रिक्शा, हाथ रिक्शा, तांगा, रेहड़ा, बुज्गी,ऊंट गाड़ी, बैलगाड़ी,घोड़ा गाड़ी, हाथ ठेला और बग्घी यह सब आधुनिक मोटरोहनों के मुकाबले पिछड़ गए हैं। तांगा तो उस समय ही पिछड़ गया था जब मोटरोहन के रूप में कार भारत की सड़कों पर दौड़ने लगी थी। नया दौर नाम से एक पूरी फिल्म इसी षिय पर बनी इसमें बदलते दौर में तांगेोलों की शिता को बहुत खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। तांगा पिछड़ गया इस हार के बाजूद हमारे यहां नई और पुरानी चीजें साथ साथ चलती रही। प्राइेट टैक्सी बसों सरकारी बसों के प्रयोग में आने के बाजूद तांगा चलता रहा और आज भी अन्य शहरों में चल भी रहा है। सारियां भी इसे सस्ता मान कर अपनाती हैं।
एक दौर था कि तांगा सारी और माल ढुलाई के लिए देश के भिन्न शहरों कस्बों की तरह दिल्ली में परिहन का मुख्य साधन था। जिस तरह से आटो एक इंडस्ट्री है, उसी तरह से तांगा एक उद्योग होता हुआ करता था। जिस तरह से टैक्सी, ऑटो और रिक्शा चलाना गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है ैसे ही तांगा गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है। दिल्ली में इस सयम 250 तांगे हैं। दो चार घुड़साल अस्तबल हैं। गिनती के तांगा स्टैंड मौजूद हैं। टैक्सी स्टैंड की तरह पूरे शहर में जगह जगह तांगा स्टैंड, घुड़साल और अस्तबल होते थे। समय के साथ तांगा स्टैंड और घुड़साल अस्तबल लिुप्त हो गए है।
जब तांगा एक उद्योग था, हजारों लोग इसके रोजगार में जुड़े हुए थे। तांगे के पहिए, तांगे की बॉडी, घोड़े की नॉल, नॉल ठोकने, घोड़े के बाल काटनेोले, तांगे के लकड़ी के पहिये पर लोहे का कर पायदान बनानेोले ,रबर चढ़ानेोले और घोड़े घोड़ी की सजाट के साजो समान बनाने और सजाट करनेोले, घोड़े पर चलनेोले चाबुक छत बनाने रंगाई करनेोलों के अलाा घोड़े की मालिश करनेोले और घोड़े के लिए चारा इत्यादि उपलब्ध करानेोलों की लम्बी जमात होती है। रोजगार की तलाश में कस्बे शहर को आनेोलों के लिए तांगा उद्योग में कहीं न कहीं जगह मिल जाती थी। हालत इतने बदले हैं कि अब तांगेोलों को खुद अपना नया रोजगार ढूंढना होगा। हालांकि सरकार ने तांगों पर प्रतिबंध लगाकर तांगेोलों के पुर्नास की व्यस्था की है। इस ैकल्पिक व्यस्था का मतलब तांगे की एक पूरी रिासत को खत्म करना है। दिल्ली में तांगों पर प्रतिबंध का मतलब पूरे देश में तांगे पर प्रतिबंध लगाने जैसा है क्योंकि बाकी देश दिल्ली की दिखाई राह पर चलता है। यहां एक दौर था जब कनॉट प्लेस दिल्ली में राजी चौक पर जहां मैट्रो स्टेशन है हां की सड़कों पर तांगे चला करते थे। ओडियन सिनेमा हॉल के पास एक तांगा स्टैंड हुआ करता था। इसी तरह इंदिरा चौक से पचकुंइया रोड के मुहाने पर भी एक तांग स्टैंड था। इंडिया गेट से तांगे गुजरा करते थे। पिछली शताब्दी के आठें दशक के मध्य तक कनॉट प्लेस के अन्दर और बाहरोले सर्किल में तांगे चलते थे। उस दौर में यहां दो तरफा यातायात चलता था। यह तांगे एक तरह से पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली को जोड़ते थे। ‘मेरा तांगा नहीं है खाली जैसे गानों के बोल तो रहेंगे पर यहां तांगा नहीं होगा। बदलते दौर में तांगा ैसे ही अपनी धीमी मौत मर रहा था अब इन्हें लाइसेंस देनेोले दिल्ली नगर निगम ने शेष तांगो को बंद करने का निर्णय लेकर तांगों की मौत की सजा सुना दी है। तांगे को तो जाना ही है, इसके बाजूद एक साल बार बार मन में उठता है कि पर्यारण संरक्षण के दौर में क्या हम परिहन की इस रिासत को संरक्षण नहीं दे सकते। शहरी जिन्दगी में पर्यारण को सुरक्षित रखने के लिए जिस तरह से हम साइकिल की ओर लौटना चाहते हैं। उसी तरह से हमें तांगे की भी याद आएगी। क्योकि तांगा घोड़े की टापों और गर्दन में बंधे घुंघरुओं की ध्नि के अलाा किसी दूसरे तरह का प्रदूषण नहीं फैलाता। गली में जब कोई तांगा आता था तो लगता था कोई मेहमान आया है।
इन सब के बाजूद यहां एक साल उठता है कि राजधानी दिल्ली में हम जहां स्मारकों को हम संरक्षण दे रहे हैं। इन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। इनमें से करीब साढ़े तीन सौ महžपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों को शेिष तौर से सजा सांर रहे हैं। अक्टूबर में होनेोले राष्ट्र मंडल खेलों को देखने के लिए आनेोले मेहमानों के लिए ऐसे बहुत से काम हम शेिष तौर से कर रहे हैं। ऐसे में साल उठता है कि हम दिल्ली के करीब 250 तांगों को क्यों मौजूद रहने नहीं दे सकते? पर्यारण की दृष्टि से तांगा बेहतर सुरक्षित है। इसके चलने में एक सुर है एक ताल है। तांगा गुजरता है तो हमारे सामने से एक संगीत की धुन गुजरती है। इससेोतारण खराब नहीं होता। प्रदूषण नहीं फैलता है।
कह सकते हैं कि सड़कों पर अन्योहनों के साथ तांगा यह चलेगा तो तेज गतिोलेोहनों के सामने अरोध बनेगा। इसलिए तांगे को कुछ खास मार्गो और खास जगह तक आने जाने की अनुमति दे सकते हैं। देश में खादी और हस्तशिल्प जिन्दा है हमारे दस्तकार, कलाकार और कारीगर मौजूद हैं। हम इन सबको संरक्षण और सहायता देते हैं। इन्हें बनाए रखने के लिए शहरा और कस्बों में क्राफ्ट बाजार, क्राफ्ट इम्पोरियम तथा क्राफ्ट मेलों का आयोजन करते हैं। इन मेलों में ऊंट, घोड़े, हाथी और बग्घी की सारी की व्यस्था करते हैं। इनसे लोगों का भरपूर मनोरंजन होता है। आइस क्रीम के इस दौर में जिस तरह से बर्फ से बर्नी चुस्की का शेिष आनन्द है, उसी तरह से भिन्नोहनों के बीच तांगे से यात्रा करने का एक अलग आनन्द है। देशी और दिेशी पर्यटकों के लिए हम यहां के कुछ खास रास्तों और महžपूर्ण पर्यटन स्थलों के आस पास तांगों की सारी की व्यस्था कर सकते हैं। यहां के शेिष स्टैंड पर सजे धजे तांगे मौजूद रहें। शहर के लोग भी शौकिया तौर पर इसका इस्तेमाल रह सकते हैं। पर्यटकों को तांगे अश्य लुभाएंगे। इतनी शिाल और साधन सम्पन्न श् िस्तरीय बननेोली दिल्ली में अगर मलबा ढोने के लिए गधे और खच्चरों का प्रयोग जारी है। यहां इस काम को करनेोलों की एक पूरी बस्ती पुरानी दिल्ली में आबाद है। दिल्ली के भिन्न हिस्सों में छुट पुट ढ़ग से ऐसे लोग बसे हुए है। तरह तरह के आधुनिकोहनों के बाजूद यहां पारम्परिक शादी में दुल्हा घोड़ी की सारी करता है। कुछ व्याह शादियों में हाथी और घोड़े की भी सारी होती है। दिल्ली शहर में जीन धिता जिस तरह से इस शहर को सुन्दर बनाती है। उसी तरह से यातायात के भिन्न साधन परिहन में अलग अलग रंग भरते हैं। इसमें तांगा भी रहे तो हर्ज क्या है। ऐसा लगता है कि हाशिए पर जीन जीनेोलों से जुड़े लोगों और उनसे जुड़े साधनों के प्रति जो उपेक्षा का नजरिया होता है ह नजरिया तांगे के साथ दिल्ली नगर निगम ने दिखाया है। केन्द्र दिल्ली सरकार एक प्रकार से इस अपनी मौन सहमति दिखा रही है। सम्पन्न व्यक्तियों से जुड़े साजों सामान को जिस तरह से संरक्षण मिलता है ैसी इज्जत आम आदमी से जुड़े साधनों को नहीं दी जाती है।
रईस लोगों की पुरानी कारें धीरी गति से सड़कों पर जब चलती हैं तब उन्हें कौतुहल और इज्जत भरी नजरों से देखा जाता है। इन पुरानी कारों की अधिकतम गति 60 से 80 किलोमीटर के बीच है जबकि इनकीोस्तकि गति 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा के आस पास ही रहती है। तांगे में बंधा जान घोड़ा जब सरपट दौड़ता है तो ह भी 30-40 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति पार कर लेता है। तांगे के प्रति उपेक्षा और पुरानी कारों के प्रति इज्जत एक तरह की पीड़ा देनेोला भा है। इन कारों की प्रतिष्ठा के लिए हर र्ष शहर में एक बड़ा आयोजन होता है। राजपथ के जिय चौक से िंटेज कार रैली गुजरती है। धूमधाम से होनेोले इस आयोजन को मीडिया भी प्रचारित करता है। िंटेज कार रैली जहां से गुजरती है उस समय रास्ते रोक दिए जाते हैं और जिस रास्ते से रैली गुजरती है हां दूसरेोहन नहीं चलते हैं। अफसोस के साथ कहना होगा कि तांगों के लिए ऐसा आयोजन लम्बे समय से यहां कहीं देखने को नहीं मिला। अब यहां तांगे ही नहीं रहेंगे तो ऐसे आयोजनों इनकी सारी की कल्पना भी नहीं होगी।

Tuesday, July 13, 2010

शुक्रिया, फुटबाल! शुक्रिया फीफा!



मनोहर नायक

अब आठवां देश स्पेन! फुटबाल की एक बहुत बड़ी और भव्य दुनिया का विजेता देश। हमेशा चूकता, लेकिन इस सुंदर खेल को अपने खास दिलकश अंदाज में खेलता स्पेन अंतत: ग्यारह जुलाई 2010 को अपना हक पा गया। जोहानीसबर्ग में फाइनल गो उसने उस अंदाज में नहीं जीता जिसकी उम्मीद थी। जर्मनी की मंजी हुई शानदार टीम को जसा खेलकर उसने हराया उसकी फाइनल में एकाध दफा ही झलक दिखी। जर्मनी की टीम भी युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से लैस थी। अर्जेटीना जसे दावेदार का उसने वैसा ही मजाक बनाकर रख दिया था जसा स्पेन ने सेमीफाइनल मे उसका मजाक बना दिया था और पहली बार फाइनल में पहुंची थी। दूसरे दावेदार ब्राजील को हराने वाली नीदरलैंड भी उखड़ी हुई थी। एक गोल से पिछड़कर हाफ टाइम के बाद उसका खेल स्तब्ध करने वाला था जिसने अंतत: ब्राजील को वापस मुल्क भेज दिया था। स्पेन की कला नदारद थी तो नीदरलैंड का जोशीला जुझारूपन। उनका खेल ‘फिर भी डटे रहे डचज् मार्का ही रहा और एक सौ अठारहवें मिनट में सबस्टीट्यूट फैबरेगास के पास पर आंद्रेस इनिएस्ता ने उन्हें तीसरी बार भी हाथ मलते रहने छोड़ दिया। एक तरह से देखें तो विश्व कप के कुछेक बेहद उम्दा मैचों के बाद फाइनल फीका था। एकस्ट्रा टाइम के कारण लंबा था और उसमें उबाऊ वाले क्षण भी काफी थे। लेकिन उसका जबर्दस्त आकर्षण था कि आठवां विजेता पहली बार कौन होगा! और आक्टोपस पॉल, बनारसी श्यामा चिड़िया, सिडनी के मगरमच्छ और सिंगापुरी तोते को छोड़िये, भूलिये, जीता वही जो बेहतर था।
बेशक स्पेन बेहतरीन टीम थी। इस टूर्नामेंट की सर्वोकृष्ट। 2008 में यूरो कप जीतने के बाद से वह लगातार शानदार खेल रही थी। एक अत्यंत सुसम्बद्ध टीम। उसके छोटे-छोटे सुंदर पासों वाला खेल ब्राजील के अच्छे दिनों की याद दिलाता था। टॉरेस, इनिएस्ता, विला, पुयोलो, फैबरेगास जसे हुनरमंद और धाक रखने वाले सितारे टीम में एक अदद खिलाड़ी ही नजर आते थे। एक स्वार्थी प्रेडो थे, जो वैसे फाइनल में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से मुक्त हो गये थे। इस टीम का लक्ष्य स्पष्ट था और उसने उसे भेद ही दिया। पॉल बाबा का क्या विधि विधान था और मीडिया से मशहूर हुए बाकी ‘ज्योतिषीज् किस कर्मकांड से विजेता तय कर रहे थे यह तो शायद ही पता चल सके लेकिन एक चीज जो खेल में हरदम सूर्यप्रकाश सी स्पष्ट होती है वह है: ‘खेलज्। इसलिये डियेगो माराडोना हों या फुटबाल के नामी और अनाम प्रेमी, ज्यादातर, सभी की पसंद स्पेन पर सिमट आयी थी।


अब फुटबाल क्या सभी खेलों में अंधविश्वास का चलन आम है। निर्णायक क्षणों में प्रशंसक भी सिर ऊपर उठाए बुदबुदाते दिखते हैं। फुटबाल का संसार और उसके दांव और खेलों से कहीं ज्यादा विशाल और व्यापक हैं तो यहां अंधविश्वास भी वैसा ही ज्यादा है। अनंत किस्से हैं। मसलन, किसी टीम के कोच ने मैच के आसपास चिकन खाने पर रोक लगा दी थी। किसी विश्वकप के एक सेमीफाइनल में एक खिलाड़ी ने अपना नाम हटवा लिया क्योंकि उसे लगता था कि इस टीम के खिलाफ जब-जब मैं नहीं खेला तब-तब जीत हुई। खिलाड़ियों को मैदान की घास चूमते, आकाश की ओर देखते, क्रास बनाते और मैदान में घुसते ही गोल पोस्ट में किक लगाते या पोस्टों को चूमते तो हर समय देखा जा सकता है। हारने पर खिलाड़ी मातम मनाते हैं और कुछ को यह सदमा रहता है कि इसलिये हारे क्योंकि पिछली बार जीतने के बाद जर्सी विपक्षी टीम के खिलाड़ी से बदल ली थी। अब इसी बार जर्मनी के कोच जोआकिम लोव स्पेन के खिलाफ सेमीफाइनल में वही जर्सी पहने हुए थे जो उन्हें लगता था उनके लिये जीत का डंका बजा रही है। उनके खिलाड़ियों ने उन्हें उसे धोने तक नहीं दिया था। लेकिन हुआ क्या स्पेन ने अच्छी-खासी टीम की गत बना दी।
इस स्वीकारोक्ति में भला क्या हर्ज की ब्राजील के पुराने शैदायी हमें भी क्वार्टर फाइनल में नीदरलैंड के खिलाफ ब्राजीलियनों को अपनी मशहूर पीली जर्सी में न देखकर खटका हुआ था। लगा था कि जिताने के लिये इस नीली जर्सी की पीली पट्टियां ही काफी नहीं। ब्राजील हार भी गयी। बाद में पढ़ा कि दशकों से ब्राजील इस जर्सी को पहनकर हालैंड से जीतती रही है। लेकिन जर्सियां नहीं जितातीं! दस नंबर की जर्सी की क्या दुर्दशा हुई! काका-मैसी-रूनी सभी फ्लाप। टॉप स्कोरर न होते हुए भी दस नंबर की जर्सी वाला खिलाड़ी टीम की आत्मा होता है, दिल-दिमाग। पेले-प्लातीनी और बैजियो की तरह। वह तो कहिये फोरलैन और श्नाइडर ने उसकी कुछ लाज बचा ली।
ब्राजील के पूर्व कप्तान सोक्रेटीज ने स्पेन को जीतने का हकदार बताते हुए कहा भी था कि अगर मैं अंधविश्वासी होऊं तो मानूंगा कि इस टूर्नामेंट के सारे मैच जीतने वाली नीदरलैंड को ही फाइनल जीतना चाहिए। बात सही है। खेल में ऐसा नहीं होता। पहला ही मैच हारने वाली स्पेन विजेता रही और कोई भी मैच न हारने वाला नीदरलैंड सबसे महत्वपूर्ण, निर्णायक और ऐतिहासिक मैच हार गया। औरों की तरह स्पेन के कोच विसेंट डेल बोस्क को अपनी टीम पर भरोसा था, पर वे किसी मुगालते में नहीं थे। शुरू में ही एक इंटरव्यू मे उन्होंने कहा था, ‘कोई मैच आसान नहीं होता। पेपर पर कोई भी टीम बड़ी हो सकती है पर वह जीते यह शर्तियां नहीं होता।ज् यूं देखें तो वाकई सबसे तगड़ी टीम इंग्लैड की थी। अर्जेटीना और ब्राजील भी। लेकिन सब पूर्व विजेता एक-एक कर बाहर होते गए। ब्राजील की टीम का तो चाल-चलन ही बदल दिया कोच डूंगा ने। उनके लिये ‘जीतज् महत्वपूर्ण थी। जीतने के लिये तो खेला ही जाता है लेकिन जसा कि उरुग्वे के इतिहासकार एडुआडरे गैलियानो कहते हैं कि फुटबाल की यात्रा ‘ब्यूटीज् से ‘ड्यूटीज् हो जाने की है। गोल मारने के बजाय, बचाने पर जोर हो गया है। खिलाड़ी से उसकी सूझबूझ छीन ली गयी है। वह ‘जीतज् का बंदी है। सोक्रेटीज ने अपने एक कॉलम में जसे अपने ही समकालीन डूंगा को ध्यान में रखकर लिखा: ‘बहुत से कोच आजकल आज्ञाकारी और औसत खिलाड़ियों को पसंद करते हैं। ये बिना सोच-विचारे आदेशों को मानते रहते हैं और कलात्मकता की बनिस्बत भद्दे ढंग से खेलकर मैच जीतना चाहते हैं।ज् इतिहास को अपनी आगोश में लेने की कश्मकश वाले फाइनल में ‘जीतज् का यह दबाव दिखा जिसने खेल को भद्दा भी किया और दोनों टीमों का निजी कौशल भी कम किया।
इस विश्व कप ने एक नया विजेता दिया है और बताया है कि फुटबाल की दुनिया बदल रही है। दिग्गज बौने नजर आ रहे हैं। इटली स्लोवाकिया के हाथों पिटती है। सितारों की चमक धूमिल पड़ रही है। गोल्डन ग्लोव पाने वाले इकेर कैसियास हों या इनेएस्ता, जिन्हें रूनी भी सर्वश्रेष्ठ फुटबालर मानते हैं, मुलर हों या विला या फोरलैन या घाना के गोलची किंग्स्टन या जियान या होंडा। नये-नये सितारे उभरे हैं। आगे अफ्रीका और एशिया की चुनौती और तीव्र होगी। खुद फीफा बदल रहा है। चूकों के लिये वह शर्मिदा हुआ और नियम बदलने पर आमादा है। वेवेजुला की गूंजती आवाजों ने उसके कान-कपाट खोल दिये हैं। इसकी गाज तीखी आवाज वाले वेवेजुला पर भी गिरी है। 2014 के लिए उस पर पाबंदी लग गयी है।

वेवेजुला के शोर, जुबलानी पर प्रहार की दुनिया से हम परसों देर रात एकाएक बाहर आ गए। महीने भर तक हम फुटबाल की विराट और रोमांचकारी दुनिया की प्रजा थे। शायद इस दौरान की यह सबसे बड़ी दुनिया होती है। अनेकता में जुनूनी एकता वाली। देशों, भाषाओं की सबसे विविध और रंगीन दुनिया। फीफा जिसकी सरकार होता है और जो अपना काम ‘अरबितरोज् यानी रैफिरियों के जरिये निरंकुश ढंग से चलाता है। इस दुनिया में शामिल रहना अनोखा और लाजवाब था। जसा कि विश्व कप आयोजन समिति के प्रमुख कार्यकारी डैनी जॉर्डान ने कहा कि फुटबाल का यह आयोजन हमें जोड़ता है। अपनी भाषा का एक शब्द ‘उबन्नुज् उन्होंने इस्तेमाल किया जिसका अर्थ है कि हम सब आपस में बंधे हुए हैं। फीफा की यह सरकार दखलंदाजी भी पसंद नहीं करती। फुटबाल तो करामाती है। उथल-पुथल करती है। देश, सरकार उससे डावांडोल होती हैं। पर फीफा डपटे तो नाइजीरिया और फ्रांस सब दुबक जाते हैं। लेकिन लोग, वे तो फुटबाल के जरिये बदला लेते और चुकाते हैं। सोरेज उरुग्वे में ‘हीरोज् तो जाते हैं तो समूचे अफ्रीका में ‘चीटज्। घाना ही नहीं पूरा अफ्रीका उरुग्वे के खिलाफ मैच में नीदरलैंड के समर्थन मे वेवेजुला बजाता है। फीफा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल इस बार नस्लवाद के खिलाफ किया। और देखिये, नस्लवाद के गढ़ रहे दक्षिण अफ्रीका में और उसके खिलाफ लड़ने वाले अप्रतिम योद्धा नेल्सन मंडेला की उपस्थिति में वह नीदरलैंड हार गया, जिसने औपनिवेशिक दौर में नस्लीय नियम लागू किये थे। लोग कहते रहें, खेल-खेल है, इतिहास -इतिहास। लेकिन फुटबाल का खेल इतिहास से सामना कराता रहता है।

Sunday, July 11, 2010

विमल रॉय: एक यथार्थवादी निर्देशक


फिल्म समाज का आइना है और फिल्मकार समाज को गहराई से देखकर एक कलमकार की तरह उसे पृष्ठों पर उकेरने वाला जनक। प्रसिद्ध फिल्मकार विमल राय उन्हीं फिल्माकारों में से थे जिन्होने समाज की सही दशा अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों के सामने लाए और दर्शकों को एक नए सिनेमा से रूबरू कराया। हम आज उनकी जन्मतिथि को उन्हे याद करते हैं और उनके कार्य को शत शत नमन करते हैं।
हिंदी फि ल्म जगत में मिल राय एक ऐसी सुहानी बयार की तरह आये जिन्होंने अपनी ‘देवदास, दो बीघा जमीन, ‘परणीता, ‘बिराज बहू और बंदिनी जैसी फि ल्मों से मनोरंजक और यर्थाथ सिनेमा की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ दिया । साथ ही उन्होंने फि ल्म निर्माण के लगभग हर पक्ष को एक सर्वथा नया छंद दिया। समीक्षकों के अनुसार उनकी लगभग हर फिल्म विषय को बेहतरीन ढंग से उठाने की कला, संगीत, फिल्मांकन, अभिनय, गीत चिंत्राकन के कारण फि ल्मकारों के लिए आज भी पाठ्यपुस्तक का काम करती हैं। मिल राय की फि ल्में मानीय रिश्तों और समाज की बलती प्रृतियों को बहुत गहराई तक कुरेती हैं और उनकी फ ोटोग्राफि क नजर मधुमति जैसी फि ल्मों में प्रकृति की सूक्ष्म धड़कनों को महसूस करती है। 12 जुलाई 1909 को ढाका में जन्मे मिल राय ने श्याम श्वेत फिल्मों में फि ल्म निर्माण के कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़ दिए जिन्हें तोड़ना आज के फि ल्मकारों के लिए भी मुश्किल है।
फि ल्मकार अनर जमाल उनके बारे में कहते हैं कि मिल राय और उनके ौर के फि ल्मकार सामाजिक सरोकारों के प्रति सेंनशील होते थे और उन्हें साहित्य एं संगीत की समझ होती थी। इससे उस ौर के फि ल्मकारों की फि ल्मों में सामाजिक, राजनीतिक, लित मिर्श और महिला मिर्श की स्पष्ट छाप दिखाई है। उनका कहना है कि र्ष 1953 में प्रर्शित उनकी फि ल्म ‘दो बीघा जमीन की प्रासंगिकता को इक्कीसीं सी में देखा जा सकता है। उस वक्त जब दूनिया ने ‘सुपर इकोनामिक जोन का सपना भी नहीं देखा था, मिल राय जैसे यथार्थवादी निर्देशक ने इस बात की कल्पना कर ली थी कि आने वाले समय में इसके नाम पर किसानों और खेतिहर मजूरों को किस तरह के संकट का सामना करना पड़ेगा। फि ल्म समीक्षक और इतिहासकार अमरेश मिश्रा इस संदर्भ में कहते है कि सामाजिक बला के दौर में विमल राय और महबूब दो प्रमुख फि ल्मकार थे। जहां विमल राय लोकतांत्रिक चेतना के वाहक थे और उनकी फि ल्मों का फलक इतना विशाल था कि उन्हें किसी खास विचारधारा से बांधा नहीं जा सकता, दूसरी तरफ महबूब की फि ल्मों का समाजावादी रूझान एकदम स्पष्ट था। विमल राय ने ‘सुजाता के जरिये समाज में व्याप्त छुआछूत की समस्या को परे पर उतारा। वहीं ‘परख के जरिये देश की चुनाव पद्धति को परखने की कोशिश की और यह भष्यिवाणी करी कि इस देश की चुनाव प्रणाली भ्रष्ट होती जा रही है। उन्होंने कहा, ‘‘विमल राय में, व्यासायिक सिनेमा की गहरी समझ थी और हर दर्शक की नब्ज से भली भांति परिचित थे। आजकल के फि ल्मकारों की कई फि ल्में उनकी फि ल्मों से प्रेरित नजर आती हैं। समाज, देश की बुराइयों के साथ ही स्त्रियों की समस्याओं पर भी उनकी दृष्टि थी। हिंदी सिनेमा में आज भी नायक प्रधान फि ल्में बनती हैं, जबकि मिल राय उस क्त नायिकाओं की अभिनय क्षमता को न केल सामने लाये बल्कि उन्होंने फि ल्मों के नाम भी महिलाओं पर रखे। छायाकार के रूप में ‘न्यू थियेटर कंपनी में काम करने वाले विमल राय को निर्देशन का सफ र तय करने में उन्हें आठ साल लग गये। उन्होंने 1944 में पहली हिंदी फि ल्म ‘हमराही का निर्देशन शुरू किया, जो बांग्ला फि ल्म ‘उयेर पाथेज का हिंी संस्करण थी। फिल्म की नई धारा की शुरूआत करने वाला यह सात जनरी 1966 को मुंबई में उनका निधन हुआ। लेकिन फिल्मों और विचारों के माध्यम से वह हमारे बीच सदैव मौजूद रहेंगे।
दीपक सेन

Friday, July 2, 2010

खाप का खौफ कब तक !

पंकज चौधरी

कुछ दिन पहले करनाल जिला अदालत ने मनोज-बबली हत्याकांड के सात अभियुक्तों में से पांच को जब मौत की सजा सुनाई तो खाप के चौधरियों ने आसमान को सर पर उठा लिया था। इन चौधरियों ने तुरंत कुरुक्षेत्र में एक सभा बुलाई और अदालती फैसले को जमकर कोसा। खापों के इन नेताओं ने मनोज-बबली हत्याकांड के दोषियों के प्रति पूरी हमदर्दी जताई और फरमान जारी किया कि मौत की सजा पाए लोगों का मुकदमा हाई कोर्ट में लड़ने के लिए हर परिवार दस-दस रुपए का चंदा जुटाए। इसके अलावा इन्होंने सबसे बड़ा फैसला जो लिया वह यह था कि एक ही गोत्र में शादी पर पाबंदी लगाने के लिए हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 में सरकार संशोधन करे। हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 के सेक्शन-5 में लिखा है कि ‘उसी स्त्री से विवाह न्यायसंगत है जो मानसिक रूप से स्वस्थ हो, उसे बच्चे पालने में कोई कठिनाई नहीं हो, उम्र 18 साल से ज्यादा हो और पति के साथ ब्लड रिलेशन नहीं हो।ज् मतलब यह ब्लड रिलेशन माता-पिता की ओर से तीन-चार पीढ़ियों तक सीमित रखा गया है।
खाप पंचायतें जो एक ही गोत्र या फिर एक ही गांव के लड़का-लड़की के विवाह कर लेने पर उसे मौत के घाट उतारने का फरमान जारी करती हैं, की सबसे बड़ी आपत्ति तथाकथित जेनेटिक चिंताओं को लेकर है। इनका तर्क है कि एक ही गोत्र के लड़के-लड़की से जो संतान उत्पन्न होगी उसमें कई तरह के की विकृतियां होंगी। मसलन उनमें सफेद दाग, विकलांगता, हीमोफीलिया आदि-आदि बीमारियां हो सकती हैं। इस बात की पुष्टि के लिए जब मैंने कई विकलांग, हीमोफीलिया और सफेद दाग से पीड़ित लोगों से बात की तो पता चला कि उनके माता-पिता तो कोई समगोत्रीय नहीं थे। वे लोग जसा कि हिन्दू विवाह पद्धति का नियम है कि वे एक ही जाति के हों, तो वे वैसे ही थे। इसके अलावा शादी से पहले उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता भी नहीं था। मतलब विकृतियों की समस्या अलग-अलग गोत्रों के बीच हुई शादियों में भी हो सकती है। यह कहना कि सगोत्रीय शादी में ही ये समस्या उत्पन्न होती है, बेबुनियाद है। इस सिलसिले में मैंने मेडिकल साइंस के कुछ प्रगतिशील विशेषज्ञों से भी बात की तो उन सबका मिला-जुलाकर यही जबाव था कि हजारों में किसी एक करैक्टर में ही जेनेटिक विकृतियों की आशंका रहती है।
सारा विवाद इस एक शब्द ‘गोत्रज् को लेकर है। इस शब्द का उल्लेख पहले-पहल गवेद में मिलता है। गवेद की गुरु-शिष्य परंपरा या फिर उस आश्रम की जहां गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान बांटने का काम करते थे जगजाहिर है। कहा जाता है कि यह ‘गोत्रज् शब्द वहीं से आया है। एक आश्रम में शिक्षा लेने वाले लोग सगोत्रीय माने जाते थे और उनके बीच शादी की मनाही थी। हम इस बात से अवगत हैं कि वैदिक काल में जाति के स्थान पर वर्ग अस्तित्व में था और आश्रम में ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य तीनों वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। इस आधार पर आश्रम में जब तीनों वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त कर सकते थे तब उनका ‘गोत्र एक कैसे हुआ? गोत्र का आधार जब ब्लड रिलेशन है तब फिर आश्रम के तीनों वर्गो के शिक्षार्थियों का भी जाहिर है, ब्लड ग्रुप अलग-अलग होगा। क्या विभिन्न क्षेत्रों, वर्गो और अनुशासनों से आने वाले लोगों को मनमाने तरीके से एक ही ‘गोत्रज् के खूंटे में बांध दें? और फरमान जारी कर दें की इनके बीच अब रोटी-बेटी का संबंध नहीं हो सकता। तब फिर दुनिया कैसे चलेगी! यह ‘गोत्र शब्द जब से अस्तित्व में आया है तब से ही यह फर्जीवाड़ा है। ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस देश के 80 प्रतिशत लोगों को उसके ‘गोत्र का कुछ अता-पता नहीं। मैं अपने गांव के एक सम्पन्न मुशहर को जानता हूं, जिनसे श्राद्ध में उनके गोत्र का नाम जब उनके पुरोहित के द्वारा पूछा गया तो वे अकचका कर रह गए और उन्होंने अपने गोत्र का नाम बताने में असमर्थता जताई। तब पुरोहित ने अपने यजमान को अपने गोत्र का नाम दिया और कहा कि आज से आपके गोत्र का नाम हमारे ही गोत्र से चलेगा। और पूरा श्राद्ध पुरोहित के गोत्र से सम्पन्न हुआ। जाहिर है कि पुरोहित के पूर्वजों की आत्मा को ही शांति मिली होगी न कि यजमान के पूर्वजों की आत्मा को।
आदिवासी समाज की जीवन पद्धति को बहुत ही प्राकृतिक और वैज्ञानिक माना जाता है। उस समाज के वैवाहिक आधार को यदि हम देखें तो चौंक जाएंगे। भारत, ब्राजील और अमेरिका की कुछ जनजातियों में भाई-बहन, चाची-भतीजा, मौसी-भांजा और यहां तक कि दादी और पोते के बीच भी शादियां होती हैं। बशर्ते उन लोगों के बीच प्रेम हो। और ऐसी शादियों में उस समाज के चौधरियों और नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मुस्लिम समाज में ‘दूधज् के संबंध को छोड़कर धड़ल्ले से शादियां होती हैं। दक्षिण भारत में तो बहन अपने भाई की बेटी को अपने बेटे से ब्याह करवा देती है। आज जब दुनिया एक गांव में तब्दील हो गई है और कोई भी कहीं भी विचरने के लिए स्वतंत्र है तब फिर दो बालिग को जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं और आपसी सहमति से शादी करना चाहते हैं, को मौत के घाट उतार देने का फरमान जारी करना कहां तक उचित कहा जा सकता है।

खाप पंचायतों की ओर से प्रेमियों के लिए मौत के जितने भी फरमान जारी किए जाते हैं उनमें लड़कियों की हत्या की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं, क्योंकि सामंती समाज में लड़कियां ही घर की इज्जत होती हैं। सामंती समाज का सीधा संबंध खेती और सत्ता से है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति हुई और इसका फायदा वहां के किसानों को मिला। इस क्षेत्र के किसान अमूमन जाट हैं। हरित क्रांति की समृद्धि के बलबूते ही पिछले 25-30 वर्षो से हरियाणा में जाटों की सरकार है या उसके पास भी सत्ता है। इस सत्ता के नशे में ही वे पंचायती राज व्यवस्था को नहीं मानते और इसके समानांतर उन्होंने खाप पंचायतें चला रखी हैं। एक आंकड़े के अनुसार हरियाणा के 6759 गांवों में 6155 पंचायतों की व्यवस्था है लेकिन कई गांवों में इन पंचायतों की तुलना में खाप पंचायतें ज्यादा प्रभावशाली हैं। मतलब खाप पंचायतें आधुनिक सरकार और राज्य को सीधे-सीधे चुनौती देने का काम करती हैं। पिछले 25-30 वर्षो के दौरान हिन्दीभाषी राज्यों की मध्यवर्ती जातियों के पास भी सत्ता आई है। बिहार और उत्तर प्रदेश की यादव और कुर्मी और हरियाणा की जाट ये तीनों जातियां मध्यवर्ती जातियां तो हैं ही साथ ही ये मार्शल कास्ट भी मानी जाती हैं। मार्शल कास्ट प्राकृतिक रूप से दक्षिणपंथी रुझान की होती हैं। ये महिलाओं और दलितों पर उसी तरह से अत्याचार करेंगे जिस तरह से ब्राह्मण और राजपूत करते हैं। हरियाणा में पिछले दिनों मिर्चपुर में एक दलित पिता और उसकी बेटी को जिंदा जला देने की घटना इसी का ज्वलंत उदाहरण है। बिहार और उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों, ठाकुरों और भूमिहारों के बाद दलितों के ऊपर सबसे ज्यादा अत्याचार यादवों और कुर्मियों ने किए हैं। देखा जाए तो इन मध्यवर्ती जातियों ने आज पहले के ब्राह्मणों और ठाकुरों का स्थान ले लिया है। सती प्रथा और विधवाओं का विवाह नहीं होने देने की समस्याएं पहले निम्न जातियों में दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलती थीं। मतलब महिलाओं का दमन यहां नहीं था। महिलाएं यहां स्वतंत्र थीं, क्योंकि वे अपनी आजीविका का साधन खुद जुटाती थीं। महिलाओं का दमन और खाप पंचायतों के फरमान सीधे-सीधे पुरुषवादी, सामंतवादी और वर्चस्ववादी लोगों से जुड़े हुए हैं।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...